श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-18
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः
अठारहवाँ अध्याय
राहुमण्डल का वर्णन
राहुमण्डलाद्यवस्थानवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] सूर्य से दस हजार योजन नीचे राहुमण्डल कहा गया है। यह सिंहिकापुत्र राहु योग्य न होने पर भी नक्षत्र की भाँति विचरण करता रहता है । चन्द्रमा तथा सूर्य को पीड़ित करने वाले इस सिंहिकापुत्र राहु ने भगवान्‌ की कृपा से ही अमर होने तथा आकाश में विचरण करने का सामर्थ्य प्राप्त किया है ॥ १-२ ॥ तेरह हजार योजन विस्तार वाला यह असुर दस हजार योजन विस्तार के बिम्बमण्डल वाले तपते सूर्य का तथा बारह हजार योजन विस्तृत मण्डल वाले चन्द्रमा का आच्छादक कहा गया है । पूर्वकाल में अमृतपान के समय के वैर को याद करके वह राहु अमावास्या और पूर्णिमा के पर्व पर उनका आच्छादक होता है । दूर से ही वह राहु सूर्य तथा चन्द्रमा को आच्छादित करने के लिये तत्पर होता है। यह बात जानकर भगवान् विष्णु ने विशाल ज्वालाओं से युक्त अपना अत्यन्त भयानक सुदर्शन नामक चक्र उन दोनों (सूर्य तथा चन्द्रमा)-के पास भेज दिया था । उसके दुःसह तेज से सूर्य और चन्द्रमा का मण्डल चारों ओर से घिरा रहता है। इससे खिन्न तथा चकित मनवाला वह राहु बिम्ब के पास जाकर और वहाँ क्षणभर रुक कर फिर सहसा लौट आता है। हे देवर्षे ! जगत् में इसी को उपराग (ग्रहण) कहा जाता है — ऐसा आप समझिये ॥ ३–७१/२

हे श्रेष्ठ ! उस राहुमण्डल से भी नीचे सिद्धों, चारणों और विद्याधरों के परम पवित्र लोक कहे गये हैं | पुण्यात्मा पुरुषों द्वारा सेवित ये लोक दस हजार योजन विस्तार वाले बताये गये हैं ॥ ८-९ ॥ हे देवर्षे ! इन लोकों के भी नीचे यक्षों, राक्षसों, पिशाचों, प्रेतों एवं भूतों के उत्तम विहार-स्थल हैं। इसके नीचे जहाँ तक वायु चलती है और जहाँ तक मेघ दिखायी पड़ते हैं, ज्ञानी तथा विद्वान् लोगों के द्वारा वह अन्तरिक्ष कहा गया है ॥ १०-११ ॥ द्विजश्रेष्ठ ! उसके नीचे सौ योजन की दूरी पर, जहाँ तक गरुड, बाज, सारस और हंस आदि पृथ्वी पर होने वाले पार्थिव पक्षी उड़ सकते हैं, पृथ्वी बतायी गयी है। पृथ्वी के परिमाण तथा स्थिति का वर्णन पहले ही किया जा चुका है ॥ १२-१३ ॥ हे देवर्षे! इस पृथ्वी के नीचे सात विवर बताये गये हैं। इनमें प्रत्येक विवर की लम्बाई तथा चौड़ाई दस-दस हजार योजन है और ये एक – दूसरे से दस-दस हजार योजन की दूरी पर स्थित कहे गये हैं; ये सभी ऋतुओं में सुखदायक होते हैं ॥ १४१/२

इनमें पहले को अतल, दूसरे को वितल, तीसरे को सुतल, चौथे को तलातल, पाँचवें को महातल, छठे को रसातल और सातवें को पाताल कहा गया है । हे विप्र ! इस प्रकार ये सात विवर बताये गये हैं ॥ १५-१६१/२

ये विवर एक प्रकार से स्वर्ग ही हैं । अनेक उद्यानों तथा विहारस्थलियों वाले तथा काम, भोग, ऐश्वर्य, सुख तथा समृद्धि से युक्त यहाँ के भुवनों में स्वर्ग से भी बढ़कर सुख तथा आस्वाद उपलब्ध है ॥ १७-१८ ॥ दानव अपने स्त्री, पुत्रों तथा बन्धुओं के साथ सदा वहाँ निवास करने वाले महाबली दैत्य, नाग तथा आनन्दित तथा प्रफुल्लित रहते हैं । वे अपने-अपने घरों के स्वामी होते हैं। मित्र तथा अनुचर आदि सदा उनके पास विद्यमान रहते हैं । ईश्वर भी जिनकी इच्छा को विफल नहीं कर सकते, ऐसे वे अत्यन्त मायावी सदा हृष्ट-पुष्ट रहते हुए सभी ऋतुओं में सुखी रहते हैं ॥ १९-२०१/२

माया के स्वामी मय नामक दानव ने उनमें अनेक पुरियों का निर्माण कराया, जो श्रेष्ठ मणियों से जटित हजारों अद्भुत भवनों, अट्टालिकाओं, गोपुरों, सभाभवनों, प्रांगणों तथा वृक्षसमूहों आदि से सुशोभित हैं; वे पुरियाँ देवताओं के लिये भी अति दुर्लभ हैं । जिनकी कृत्रिम भूमि (फर्श ) – पर नागों तथा असुरों के जोड़े और कबूतर – मैना आदि पक्षी विहार करते हैं- ऐसे विवराधीश्वरों के मनोहर भवनों से अलंकृत वे पुरियाँ अतीव सुशोभित हो रही हैं। उनमें मन को मुग्ध करने वाले, बड़े-बड़े सुन्दर फलों तथा फूलों से लदे हुए वृक्षों वाले और कामिनियों के विलास योग्य स्थानों से अत्यधिक शोभा पाने वाले विशाल उद्यान विद्यमान  हैं। उन उद्यानों में स्वच्छ जल से परिपूर्ण रहने वाले विशाल जलाशय हैं, जो विविध पक्षियों के समूहों के कलरव से तथा पाठीन नामक मछलियों से सुशोभित रहते हैं। जलचर जन्तुओं के क्रीड़ा करने पर जल के क्षुब्ध होने से उसमें उगे हुए कुमुद, उत्पल, कहार, नीलकमल तथा रक्तकमल हिलने लगते हैं । उन उद्यानों में स्थान बनाकर रहने वाले पक्षी अपने विहारों तथा इन्द्रियों को उत्साहित करने वाली अपनी विविध ध्वनियों से उन्हें सदा निनादित किये रहते हैं ॥ २१-२८ ॥

वे पुरियाँ देवताओं के श्रेष्ठ ऐश्वर्य से भी बढ़कर हैं । जहाँ काल के अंगभूत दिन-रात का कोई भय नहीं रहता और जहाँ बड़े-बड़े सर्पों के मस्तक पर स्थित मणियों की रश्मियों से प्रस्फुटित कान्ति के द्वारा अन्धकार सदा मिटा रहता है ॥ २९-३० ॥ इनमें निवास करने वाले लोगों को दिव्य ओषधियों, रसायनों, रस, अन्नपान एवं स्नान आदि की कोई आवश्यकता नहीं रहती; उन्हें किसी प्रकार के भी मानसिक या शारीरिक रोग नहीं होते; झुर्रियाँ पड़ने, बाल पकने, बुढ़ापा आ जाने, शरीर के विरूपित होने, पसीने से दुर्गन्ध निकलने, उत्साहहीन हो जाने और आयु के अनुसार शारीरिक अवस्थाओं में परिवर्तन आने आदि विकार उन्हें कभी बाधित नहीं करते। हे ब्रह्मपुत्र नारद! उन कल्याणमय लोगों को भगवान् श्रीहरि के तेजस्वी सुदर्शन चक्र के अतिरिक्त अन्य किसी से भी भय नहीं रहता; जिस चक्र के वहाँ प्रवेश करते ही भय के कारण प्रायः दैत्यों की स्त्रियों का गर्भपात – गर्भस्राव 1  हो जाता है ॥ ३१-३४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘राहुमण्डलाद्यवस्थानवर्णन’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

1. ‘आचतुर्थाद्भवेत्स्रावः पातः पञ्चमषष्ठयोः’ अर्थात् चौथे मास तक जो गर्भ गिरता है, उसे ‘गर्भस्राव’ कहते हैं तथा पाँचवें और छठे मास में गिरने से वह ‘गर्भपात’ कहलाता है । (पाराशर स्मृति ३/१८)

See Also:- श्रीमद्भागवतमहापुराण – पञ्चम स्कन्ध – अध्याय २४

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