May 18, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-19 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः उनीसवाँ अध्याय अतल, वितल तथा सुतललोक का वर्णन अतलवितलसुतललोकवर्णनम् श्रीनारायण बोले — हे विप्र ! अतल नाम से विख्यात पहले परम सुन्दर विवर में मय दानव का पुत्र ‘बल’ नामक अति अभिमानी दैत्य रहता है ॥ १ ॥ जिसने सभी प्रकार की कामनाओं की सिद्धि कराने वाली छियानबे प्रकार की मायाएँ रची हैं, जिनमें से कुछ मायाओं को मायावी लोग शीघ्र ही धारण कर लेते हैं तथा जिस बलवान् दैत्य बल के जम्हाई लेते ही तीनों लोकों के लोगों को मोहित कर देने वाली बहुत-सी स्त्रियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। वे पुंश्चली, स्वैरिणी और कामिनी — इन नामों से प्रसिद्ध हैं, जो अपने प्रिय पुरुषको बिलरूप भवनमें एकान्तमें ले जाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक हाटक नामक रस पिलाकर शक्तिसम्पन्न बना देती हैं। तत्पश्चात् वे स्त्रियाँ अपने हाव-भाव, कटाक्ष, प्रेमपूर्ण व्यवहार, मुसकान, आलिंगन, मधुर वार्तालाप, प्रणयभाव आदि से उन्हें आकर्षित करके उनके साथ रमण करती हैं ॥ २–५१/२ ॥ उस हाटक-रस का पान कर लेने पर मनुष्य स्वयं को बहुत बड़ा मानने लगता है और अपने को दस हजार हाथियों के समान महान् बलवान् मानता हुआ मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ — मदान्ध की भाँति ऐसा बढ़- चढ़कर बोलने लगता है ॥ ६-७ ॥ हे नारद! इस प्रकार मैंने अतललोक की स्थिति का वर्णन कर दिया। अब आप वितल नामक द्वितीय विवर के विषय में सुनिये ॥ ८ ॥ भूतल के नीचे वितल नामक विवर में हाटकेश्वर नाम से प्रसिद्ध ये भगवान् शिव अपने पार्षदगणों से निरन्तर घिरे रहते हैं । देवताओं से सुपूजित ये भगवान् शिव ब्रह्मा की रची गयी सृष्टि के विस्तार के लिये भवानी के साथ रमण करते हुए यहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ९-१० ॥ वहाँ भगवान् शंकर और पार्वती के तेज से हाटकी नामक श्रेष्ठ नदी प्रादुर्भूत है । वायु से प्रज्वलित अग्निदेव महान् ओजपूर्वक उसका जल पीते रहते हैं । उस समय उनके द्वारा निष्ठ्यूत (त्यक्त थूक) दैत्यों के लिये अत्यन्त प्रिय हाटक नामक सुवर्ण बन जाता है। दैत्यों की स्त्रियाँ आभूषण-योग्य उस सुवर्ण को सदा धारण किये रहती हैं ॥ ११-१२ ॥ हे मुने! उस वितल के नीचे सुतल नामक विवर कहा गया है, जो सभी बिलों में श्रेष्ठ है। यहाँ विरोचन के पवित्र कीर्ति वाले बलि नामक पुत्र रहते हैं। देवराज इन्द्र का परम प्रिय कार्य करने की इच्छा से वामनरूप त्रिविक्रम भगवान् विष्णु बलि को इस सुतल में लाये और उन्होंने तीनों लोकों की लक्ष्मी सन्निविष्ट करके दानवराज बलि को यहाँ स्थापित किया । इन्द्र आदि देवताओं के पास भी जो लक्ष्मी नहीं है, वह उस बलि के पीछे-पीछे चलती है ॥ १३-१५ ॥ बलि उन्हीं देवदेवेश्वर श्रीहरि की भक्तिपूर्वक आराधना करते हैं । वे सुतल के अधिपति के रूप में आज भी वहाँ निर्भय होकर रहते हैं ॥ १६ ॥ बलि के लिये यह सुतललोक की प्राप्ति अखिल जगत् के स्वामी तथा दानपात्रभूत भगवान् विष्णु को दिये गये भूमिदान का ही फल है — ऐसा महात्मालोग कहते हैं, किंतु हे नारद ! यह समीचीन नहीं है । हे विप्र ! चारों पुरुषार्थों को देने वाले वासुदेव भगवान् श्रीहरि को दिये ये दान का इसे फल समझना किसी भी तरह से उचित नहीं है; क्योंकि कोई विवश होकर भी उन देवाधिदेव के नाम का उच्चारण करके अपने कर्मबन्धनरूपी पाश को शीघ्र ही काट देता है। योगी लोग उस क्लेशरूपी बन्धन को काटने के लिये अखिल जगत् के स्वामी में भक्ति रखते हुए सांख्ययोग आदि का साधन करते हैं । हे नारद! इन भगवान् ने हम देवताओं पर कोई अनुग्रह नहीं किया है, जो कि उन्होंने भोगों का परम मायामय ऐश्वर्य इन्द्र को देने के लिये यह प्रयत्न किया था; क्योंकि यह ऐश्वर्य तो सभी कष्टों का मूल कारण है और परमात्मा की स्मृति को मिटानेवाला है ॥ १७–२११/२ ॥ जिस समय समस्त उपायों का सहज ज्ञान रखने वाले साक्षात् विष्णु ने कोई अन्य उपाय न देखकर याचना के छल से उस बलि का सर्वस्व छीन लिया और उसके पास केवल शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुण के पाशों में बाँधकर पर्वत की गुफा में छोड़ दिये जाने पर उसने कहा था — जिसके मन्त्री बृहस्पति हों, वे इन्द्र इतने महान् मूर्ख हैं! जो कि उन्होंने परम प्रसन्न श्रीहरि से सांसारिक सम्पत्ति की याचना की । त्रिलोकी का यह ऐश्वर्य भला कितना नगण्य है। जो भगवान् के आशीर्वादों का वैभव छोड़कर लोकसम्पत्ति की कामना करता है, वह मूर्ख है ॥ २२-२५१/२ ॥ सम्पूर्ण लोक का उपकार करने वाले तथा भगवत्प्रिय मेरे पितामह श्रीमान् प्रह्लाद ने उन प्रभु से दास्यभाव की याचना की थी। उनके पराक्रमी पिता हिरण्यकशिपु की मृत्यु के पश्चात् भगवान् विष्णु के द्वारा दी जाने वाली अतुलनीय पितृसम्पदा को ग्रहण करने की थोड़ी भी इच्छा उन भगवत्प्रिय प्रह्लाद ने नहीं की थी ॥ २६-२८१/२ ॥ अतुलनीय अनुभाववाले तथा सम्पूर्ण लोकों के उपकार की बुद्धिवाले उन प्रह्लाद का प्रभाव मुझ जैसा दोषों का आगार पुरुष भला कैसे जान सकता है। इस प्रकार के विचारों वाले परमपूज्य दानवराज बलि थे, जिनके द्वारपाल के रूप में स्वयं श्रीहरि सुतल में विराजमान रहते हैं । एक समय की बात है, जगत् को रुलाने वाला रावण दिग्विजय के उद्देश्य से सुतललोक में प्रवेश कर रहा था, इतने में भक्तों पर कृपा करने वाले उन श्रीहरि के पैर के अँगूठे की ठोकर से वह दस हजार योजन दूर जा गिरा था ॥ २९-३१ ॥ इस प्रकार के प्रभाव वाले तथा सभी सुखों का भोग करने वाले बलि देवाधिदेव श्रीहरि की कृपा से सुतललोक में राजा के रूप में प्रतिष्ठित होकर विराजमान हैं ॥ ३२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘अतल-वितल- सुतललोकवर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Content is available only for registered users. 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