श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-अष्टमः स्कन्धः-अध्याय-22
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-अष्टमः स्कन्धः-द्वाविंशोऽध्यायः
बाईसवाँ अध्याय
विभिन्न नरकों का वर्णन
नरकप्रदपातकवर्णनम्

नारदजी बोले — हे सनातन मुने! विविध प्रकार की यातनाओं की प्राप्ति कराने वाले कर्मों के भेद कितने प्रकार के होते हैं; मैं इनके विषय में भलीभाँति सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले — जो पुरुष दूस रेके धन, स्त्री और सन्तान का हरण करता है, वह दुष्टात्मा यमराज के दूतों द्वारा पकड़कर ले जाया जाता है ॥ २ ॥ अत्यन्त भयानक रूप वाले यमदूत उसे कालपाश में बाँधकर ले जाते हैं और यातना भोगने के भयावह स्थानस्वरूप तामिस्त्र नामक नरक में गिरा देते हैं ॥ ३ ॥ हाथ में रस्सी लिये हुए यमदूत उस प्राणी को पीटते हैं, तरह-तरह के दण्ड देते हैं और उसे डराते हैं। इस प्रकार वह जीव महान् क्लेश पाता है । हे नारद ! वह नारकी विवश होकर एकाएक मूर्च्छित हो जाता है ॥ ४१/२

इसी प्रकार जो व्यक्ति किसी के पति को धोखा देकर उसकी स्त्री के साथ भोग करता है, वह यमदूतों के द्वारा अन्धतामिस्त्र नामक नरक में गिराया जाता है; जहाँ गिराये जाते हुए जीव को असह्य वेदना होती है। वह दृष्टिहीन हो जाता है, उसकी बुद्धि नष्ट हो जाती है और वह शीघ्र ही जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति नरक में गिर पड़ता है । इसीलिये प्राचीन पुरुषों ने इसे अन्धतामिस्र नाम की संज्ञा दी है ॥ ५–७१/२

यह शरीर ही मैं हूँ और ये [ धन, स्त्री, पुत्रादि ] मेरे हैं – ऐसा सोचकर जो अन्य प्राणियों से द्रोह करता हुआ केवल अपने परिवार के भरण-पोषण में प्रतिदिन लगा रहता है, वह स्वार्थलोलुप प्राणी शरीर छोड़कर अपने अशुभ कर्मों के प्रभाव से जीवों को अत्यधिक भय देने वाले इस रौरव नामक नरक में गिरता है; और इस व्यक्ति के द्वारा जिन जन्तुओं की पहले इस जगत् में हिंसा हुई रहती है, वे प्राणी भयंकर रुरु नामक जन्तु बनकर उसे यहाँ कष्ट देते हैं। इसीलिये पुराणवेत्ता मनीषी इसे रौरव नरक कहते हैं । पुरातन पुरुषों ने इस रुरु नामक जन्तु को सर्प से भी अधिक क्रूर बतलाया है ॥ ८-१११/२

इसी प्रकार महारौरव नामक नरक भी है, जहाँ यातना पाने के लिये प्राणी दूसरा सूक्ष्म शरीर धारण करके जाता है। वहाँ कच्चा मांस खाने वाले रुरु नामक जन्तु उस जीव के मांस पर चोट पहुँचाते रहते हैं ॥ १२-१३ ॥ हे नारद! जो अत्यन्त क्रोधी, निर्दयी तथा मूर्ख पुरुष पशु-पक्षियों को मारकर उनका मांस पकाता है, यमराज के दूत उसे कुम्भीपाक नरक में खौलते हुए तेल डालकर उस पशु के शरीर में जितने रोम होते हैं, उतने हजार वर्षों तक पकाते हैं ॥ १४-१५ ॥ जो पिता, विप्र तथा ब्राह्मण से द्रोह करता है, वह नारकी मनुष्य अग्नि तथा सूर्य से सदा तप्त रहने वाले कालसूत्र नामक नरक में डाला जाता है । वहाँ पर भूख और प्यास से पीड़ित हो जाता है और भीतर तथा बाहर से जलते हुए शरीर वाला वह प्राणी व्याकुल होकर कभी बैठता है, कभी सोता है, कभी नानाविध चेष्टाएँ करता है, कभी उठकर खड़ा हो जाता है और कभी दौड़ने लगता है ॥ १६-१७ ॥

हे देवर्षे ! विपत्ति का समय न रहने पर भी जो अपने वेदविहित मार्ग से हटकर पाखण्ड का आश्रय लेता है, उस पापी पुरुष को यमदूत असिपत्रवन नामक नरक में डाल देते हैं। जब वे उसके ऊपर कोड़े से प्रहार करते हैं, तब वहाँ डाला गया वह नारकी जीव उतावला होकर अत्यन्त वेग से इधर-उधर भागने लगता है, जिससे दोनों ओर तीखी धारों वाले असिपत्रों से उसका शरीर छिद जाता है । छिदे हुए सभी अंगों वाला वह जीव ‘हाय मैं मारा गया’ – ऐसा कहते हुए मूर्च्छित हो जाता है। इस प्रकार वह अल्पबुद्धि प्राणी वहाँ असीम कष्ट भोगते हुए पद-पद पर गिरता है और अपने किये हुए कर्म के अनुसार उस पाखण्ड का फल भोगता है ॥ १८-२११/२

जो राजा अथवा राजपुरुष अधर्म का सहारा लेकर प्रजा को दण्डित करता है और ब्राह्मण को शारीरिक दण्ड देता है, वह नारकी तथा महापापी मनुष्य यमदूतों के द्वारा सूकरमुख नामक नरक में गिराया जाता है। वहाँ पर बलवान् यमदूतों के द्वारा ईख की भाँति पेरा जाता हुआ वह जीव सभी अंगों के पिस जाने से वेदना के कारण आर्तस्वर करता हुआ मूर्च्छित हो जाता है और महान् क्लेश प्राप्त करता है । इस प्रकार अनेक प्रकार से पीड़ित होता हुआ जीव बहुत पीड़ा पाता है ॥ २२–२४१/२

जो पुरुष इस लोक में खटमल आदि जीवों की हिंसा करता है, वह उनसे द्रोह करने के कारण अन्धकूप नामक नरक में गिरता है; क्योंकि स्वयं परमात्मा ने ही रक्तपानादि उनकी वृत्ति बना दी है और उसके कारण उन्हें दूसरों को कष्ट पहुँचाने का ज्ञान भी नहीं है, किंतु ईश्वर के द्वारा विधि-निषेधपूर्वक बनायी गयी वृत्तियों वाले मनुष्यों को दूसरों के कष्ट का ज्ञान है। इसीलिये वह प्राणी पशु, पक्षी, मृग, सर्प, मच्छर, जूँ, खटमल मक्खी, दन्दशूक आदि क्रूर जन्तुओं के द्वारा अन्धकूप नरक में पीडित किया जाता है। वह प्राणी भयानक रोग से ग्रस्त शरीर में रहने वाले जीव की भाँति व्यथित होकर इस नरक में चक्कर काटता रहता है ॥ २५–२८ ॥ जो कुछ भी धन पंचयज्ञों में विभक्त किये बिना ही जो भोजन करता है, आदि प्राप्त हो उसे शास्त्रविहित उसे काकतुल्य समझना चाहिये । यमराज के अत्यन्त निर्मम दूत उस पापी पुरुष को उसके दुष्कर्मों के फलस्वरूप कृमिभोजन नामक अधम नरक में गिराते हैं। इस प्रकार जो अतिथियों को दिये बिना ही भोजन करता है। वह एक लाख योजन विस्तार वाले भयंकर कृमिकुण्ड में कीड़ा होकर नरक के कीड़ों द्वारा खाया जाता हुआ वहीं पड़ा रहता है ॥ २९-३११/२

देवर्षे ! विपत्तिकाल न होने पर भी जो प्राणी ब्राह्मण अथवा अन्य किसी भी वर्ण के लोगों से चोरी से या बलात् स्वर्ण या रत्न छीन लेता है, उसे मरने पर यमराज के दूत संदंश नामक नरक में गिराते हैं और अग्नि के समान सन्तप्त लोहपिण्डों से उसे दागते हैं तथा संड़सी से उसकी खाल नोचते हैं ॥ ३२-३३१/२

जो पुरुष अगम्या स्त्री के साथ अथवा जो स्त्री अगम्य पुरुष के साथ समागम करती है, उन्हें यमदूत तप्तसूर्मि (मूर्ति) नामक नरक में गिराकर कोड़े से पीटते हैं। पुनः वे यमदूत लोहे की बनी प्रज्वलित स्त्री मूर्ति से पुरुष को तथा लौहनिर्मित जलती हुई पुरुष मूर्ति से स्त्री को आलिंगित कराते हैं ॥ ३४-३५१/२

जो घोर पापी मनुष्य जिस किसी के साथ व्यभिचार करता है, उसके मरने पर यमराज के दूत उसे शाल्मली नामक नरक में वज्र के समान कठोर काँटों वाले उस लोहमय शाल्मली (सेमर ) – के वृक्ष पर चढ़ाते हैं ॥ ३६-३७ ॥ जो राजा या राजपुरुष पाखण्डी बनकर धर्म की मर्यादा को तोड़ते हैं, वे इस मर्यादाभंगरूपी पाप के कारण मरने पर वैतरणी नामक नरक में गिरते हैं । हे नारद! नरकरूपी दुर्ग की खाई के समान प्रतीत होने वाली उस वैतरणी नदी में रहने वाले जीव-जन्तु उन्हें चारों ओर से काटते हैं और वे व्याकुल होकर इधर-उधर भागते रहते हैं । हे नारद! उनका शरीर नहीं छूटता तथा उनके प्राण भी नहीं निकलते और वे अपने पापकर्म के कारण सदा सन्तप्त रहते हैं । मल, मूत्र, पी, रक्त, केश, अस्थि, नख, चर्बी, मांस और मज्जा आदि से भरी पड़ी उस नदी में गिरे हुए वे छटपटाते रहते हैं ॥ ३८–४११/२

जो लोग सदाचार के नियमों से विमुख तथा शौचाचार से रहित होकर शूद्राओं के पति बन जाते हैं और निर्लज्जतापूर्वक पशुवत् आचरण करते हैं, उन्हें अत्यन्त कष्टप्रद गतियाँ प्राप्त होती हैं । यमराज के दुराग्रही दूत उन्हें विष्ठा, मूत्र, कफ, रक्त और मल से युक्त पूयोद नामक नरक में गिराते हैं; जहाँ ये पापी इन्हीं वस्तुओं को खाते हैं ॥ ४२–४४ ॥ द्विजातिगण कुत्ते और गधे आदि को पालते हैं, आखेट करने में सदा रुचि रखते हैं तथा शास्त्र के विपरीत मृगों का वध करते हैं; उन दुर्नीतिपूर्ण आचरण वाले अधम प्राणियों को मरणोपरान्त यमदूत [ प्राणरोध नामक नरक में गिराकर] लक्ष्य बनाकर बाणों से बेधते हैं ॥ ४५-४६ ॥ जो दम्भी और मनुष्यों में अधम लोग अभिमानपूर्वक यज्ञों का आयोजन करके उसमें पशुओं की हिंसा करते हैं, उन्हें इस लोक से जाने पर यमदूत विशसन नामक नरक में गिराकर कोड़ों के असहनीय प्रहार से उनको अत्यधिक पीडा पहुँचाते हैं ॥ ४७१/२

जो मूर्ख द्विज काम से मोहित होकर सवर्णा भार्या को वीर्यपान कराता है, यम के दूत उसे वीर्य के कुण्ड में [लालाभक्ष नामक नरकमें] गिराते हैं और वीर्य ही पिलाते हैं ॥ ४८-४९ ॥ जो चोर, राजा अथवा राजपुरुष आग लगाते हैं, विष देते हैं, दूसरों की सम्पत्ति नष्ट करते हैं, गाँवों तथा धनिकों को लूटते हैं, उनके मरने पर यमराज के दूत उन्हें सारमेयादन नामक नरक में ले जाते हैं । वहाँ सात सौ बीस अत्यन्त विचित्र सारमेय ( कुत्ते) बताये गये हैं। वे बड़े वेग से उन्हें नोच-नोचकर खाते हैं । हे मुने! वह सारमेयादन नामक नरक बड़ा ही भयानक है। हे मुने! अब इसके पश्चात् मैं अवीचि आदि प्रमुख नरकों का वर्णन करूँगा ॥ ५०-५२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत आठवें स्कन्ध का ‘नरकप्रदपातकवर्णन’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

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