श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-08
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-अष्टमोऽध्यायः
आठवाँ अध्याय
कलियुग का वर्णन, परब्रह्म परमात्मा एवं शक्तिस्वरूपा मूलप्रकृति की कृपा से त्रिदेवों तथा देवियों के प्रभाव का वर्णन और गोलोक में राधा-कृष्ण का दर्शन
नारायणनारदसंवादे कलिमाहात्म्यवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] गंगा के शाप से सरस्वती अपनी एक कला से पुण्यक्षेत्र भारतवर्ष में आ गयीं और अपने पूर्ण अंश से भगवान् श्रीहरि के स्थान पर ही रह गयीं ॥ १ ॥ सरस्वती भारत में आने के कारण ‘भारती’, ब्रह्मा की प्रिया होने के कारण ‘ब्राह्मी’ और वाणी की अधिष्ठातृदेवी होने के कारण ‘वाणी’ नाम से कही गयीं ॥ २ ॥ सरोवर, बावली तथा अन्य जलधाराओं में सर्वत्र श्रीहरि दिखायी देते हैं, अतः वे सरस्वान् कहे जाते हैं; उनके इसी नामके कारण ये सरस्वती कही जाती हैं ॥ ३ ॥ नदी के रूप में आकर ये सरस्वती परम पावन तीर्थ बन गयीं । पापियों के पाप भस्म करने के लिये ये प्रज्वलित अग्निरूपा हैं ॥ ४ ॥ हे नारद! तत्पश्चात् भगीरथ के द्वारा गंगाजी पृथ्वी पर ले जायी गयीं। वे सरस्वती के शाप से अपनी एक कला से पृथ्वी पर पहुँचीं ॥ ५ ॥

उस समय गंगा के वेग को सह सकने में केवल शिव ही समर्थ थे। अतः पृथ्वी के प्रार्थना करने पर सर्वशक्तिशाली शिव ने उन गंगा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया ॥ ६ ॥ पुनः सरस्वती के शाप से लक्ष्मीजी अपनी एक कला से ‘पद्मावती’ नदी के रूप में भारतमें पहुँचीं और अपने पूर्ण अंश से स्वयं श्रीहरि के पास स्थित रहीं ॥ ७ ॥ तत्पश्चात् लक्ष्मीजी ने अपनी दूसरी कला से भारत में राजा धर्मध्वज की पुत्री के रूप में जन्म ग्रहण किया और वे ‘तुलसी’ – इस नाम से विख्यात हुईं ॥ ८ ॥ पूर्वकाल में सरस्वती के शाप से और बाद में श्रीहरि के शापसे ये विश्वपावनी देवी अपनी एक कला से वृक्षरूप में हो गयीं ॥ ९ ॥ कलि के पाँच हजार वर्षों तक भारतवर्ष में रहकर वे तीनों देवियाँ अपने नदीरूप का परित्यागकर वैकुण्ठधाम चली जायँगी ॥ १० ॥

काशी तथा वृन्दावन को छोड़कर अन्य जो भी तीर्थ हैं, वे सब श्रीहरि की आज्ञा से उन देवियों के साथ वैकुण्ठ चले जायँगे ॥ ११ ॥ शालग्राम, शिव, शक्ति और जगन्नाथजी कलि के दस हजार वर्ष व्यतीत होने पर भारतवर्ष को छोड़कर अपने स्थान पर चले जायँगे ॥ १२ ॥ उन सभी के साथ साधु, पुराण, शंख, श्राद्ध, तर्पण तथा वेदोक्त कर्म भी भारतवर्ष से चले जायँगे । देवताओं की पूजा, देवताओं के नाम, उनके यश तथा गुण का कीर्तन, वेदांग तथा शास्त्र भी उनके साथ चले जायँगे। इसी प्रकार संत, सत्य, धर्म, समस्त वेद, ग्रामदेवता, व्रत, तप और उपवास आदि भी उनके साथ चले जायँगे। उनके चले जाने के पश्चात् सभी लोग वाममार्ग का आचरण करने वाले तथा मिथ्या और कपटपूर्ण आचरण में संलग्न हो जायँगे और सर्वत्र बिना तुलसी के ही पूजा होने लगेगी ॥ १३–१६ ॥

उनके जाते ही सभी लोग शठ, क्रूर, दम्भयुक्त, महान् अहंकारी, चोर तथा हिंसक हो जायँगे ॥ १७ ॥ पुरुषभेद ( परस्पर मैत्री का अभाव) रहेगा, स्त्री-विभेद अर्थात् पुरुष – स्त्री का ही भेद रहेगा, जातिभेद समाप्त हो जायगा; जिससे किसी भी वर्ण के स्त्री- पुरुष का परस्पर विवाह निर्भयतापूर्वक होगा । वस्तुओं में स्व-स्वामिभेद होगा अर्थात् लोग परस्पर एक- दूसरे को कोई वस्तु नहीं देंगे ॥ १८ ॥ तब सभी पुरुष स्त्रियों के वश में हो जायँगे । घर-घर में व्यभिचारिणी स्त्रियों का बाहुल्य हो जायगा और वे अपने पतियों को डाँटते हुए तथा दुर्वचन कहते हुए उन्हें पीड़ित करेंगी ॥ १९ ॥ गृहिणी घर की मालकिन बन जायगी तथा गृहस्वामी नौकर से भी निकृष्ट रहेगा । घर की बहू अपने सास-ससुर से दाई – नौकर – जैसा व्यवहार करेगी ॥ २० ॥ घर में बलवान् ही कर्ता माना जायगा, बान्धवों की सीमा [अपने बन्धु बान्धवों को छोड़कर ] केवल स्त्री के परिवार में ही सीमित हो जायगी और एक साथ विद्याध्ययन करने वाले लोगों में परस्पर बातचीत तक का व्यवहार नहीं रहेगा ॥ २१ ॥ लोग अपने ही बन्धु-बान्धवों से अन्य अपरिचित व्यक्तियों की भाँति व्यवहार करेंगे और स्त्री के आदेश के बिना पुरुष सभी कार्य करने में असमर्थ रहेंगे ॥ २२ ॥

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अपनी-अपनी जाति के आचार-विचार का परित्याग कर देंगे । सन्ध्यावन्दन तथा यज्ञोपवीत आदि का लोप हो जायगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ २३ ॥ चारों वर्णों के लोग म्लेच्छों के समान आचरण करेंगे। वे अपने शास्त्र छोड़कर म्लेच्छशास्त्र का अध्ययन करेंगे ॥ २४ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्यों के वंशज कलियुग में शूद्रों के यहाँ सेवक, रसोइया, वस्त्र धोने वाले तथा बैलों पर बोझा ढोने का काम करने वाले होंगे ॥ २५ ॥ सभी प्राणी सत्यहीन हो जायँगे, वसुन्धरा फसलों से रहित हो जायगी, वृक्षों में फल नहीं रह जायँगे और स्त्रियाँ सन्तानविहीन हो जायँगी ॥ २६ ॥ गायों में दूध देने की क्षमता नहीं रह जायगी, दूध में घृत का अंश समाप्त हो जायगा, पति-पत्नी परस्पर प्रेमभाव से वंचित रहेंगे और गृहस्थों में सत्य का अभाव हो जायगा ॥ २७ ॥ राजा पराक्रमहीन हो जायँगे, प्रजाएँ करों के भार से पीड़ित रहेंगी, बड़ी-बड़ी नदियाँ – जलाशय और कन्दरा आदि जल से शून्य हो जायँगे ॥ २८ ॥ चारों वर्ण के लोग धर्म तथा पुण्य से रहित हो जायँगे। लाखों में कोई एक भी पुण्यवान् नहीं रह जायगा ॥ २९ ॥

उसके बाद पुरुष, स्त्री तथा बालक नीच स्वभाव वाले तथा विकृत स्वरूप वाले हो जायँगे । उस समय बुरी बातों तथा निन्दित शब्दों का प्रयोग होगा ॥ ३० ॥ कुछ गाँव और नगर मनुष्यों से शून्य होकर बड़े भयानक प्रतीत होंगे। कुछ गाँवों में बहुत थोड़ी कुटिया तथा बहुत ही कम मनुष्य रह जायँगे ॥ ३१ ॥ गाँवों और नगरों में जंगल हो जायँगे । जंगल में रहने वाले सभी लोग भी करों के भार से पीड़ित रहेंगे ॥ ३२ ॥ [ वर्षा के अभाव में] नदियों और तालाबों में फसलें उगायी जायँगी । कलियुग में उत्कृष्ट वंश में उत्पन्न लोग नीच हो जायँगे ॥ ३३ ॥ हे नारद! उस समय लोग अप्रिय वचन बोलने वाले, धूर्त, मूर्ख तथा असत्यभाषी हो जायँगे । उत्तम कोटि के खेत भी फसलों से विहीन रहेंगे ॥ ३४ ॥ नीच लोग भी धनी होने के कारण श्रेष्ठ माने जायँगे और देवभक्त नास्तिक हो जायँगे। सभी नगरनिवासी हिंसक, निर्दयी और मनुष्यों का वध करने वाले हो जायँगे ॥ ३५ ॥ कलियुग में सभी जगह के स्त्री और पुरुष बौने, नानाविध व्याधियों से युक्त, अल्पायु, रोगग्रस्त तथा यौवन से हीन हो जायँगे। सोलह वर्ष में ही उनके सिर के बाल पक जायँगे और बीस वर्ष में वे अत्यन्त वृद्ध हो जायँगे। आठ वर्ष की युवती रजस्वला होकर गर्भ धारण करने लगेगी। प्रत्येक वर्ष में सन्तान उत्पन्न करके वह स्त्री सोलह वर्ष की अवस्था में ही वृद्धा हो जायगी । कलियुग में प्रायः सभी स्त्रियाँ वन्ध्या रहेंगी, कोई- कोई स्त्री पति तथा पुत्रवाली होगी ॥ ३६- ३८ ॥

चारों वर्णों के सभी लोग कन्या का विक्रय करेंगे। वे अपनी माता, पत्नी, बहू, कन्या तथा बहन के व्यभिचारी पुरुषों से प्राप्त धन से अपनी आजीविका चलाने वाले होंगे और उनसे प्राप्त अन्न का भक्षण करने वाले होंगे। कलियुग में लोग भगवान् ‌के नाम बेचने वाले होंगे। लोग अपनी कीर्ति बढ़ाने के लिये दान देंगे और उसके बाद अपने उस दानरूप प्रदत्त धन को स्वयं ले लेंगे ॥ ३९-४१ ॥ लोग अपने द्वारा दी गयी अथवा दूसरे के द्वारा दी गयी देववृत्ति, ब्राह्मणवृत्ति अथवा गुरुकुल की वृत्ति – उन सबको पुनः छीन लेंगे ॥ ४२ ॥ कलियुग में कुछ लोग कन्या के साथ, कुछ लोग सास के साथ, कुछ लोग अपनी बहू के साथ, कुछ लोग बहन के साथ, कुछ लोग सौतेली माँ के साथ, कुछ लोग भाई की स्त्री के साथ और कुछ लोग सब प्रकार की स्त्रियों के साथ समागम करने वाले होंगे ॥ ४३-४४ ॥ लोग घर-घर में अगम्या स्त्री के साथ गमन करेंगे, केवल माता को छोड़कर वे सबके साथ रमण करेंगे। कलियुग में पतियों तथा पत्नियों का कोई निर्णय नहीं रहेगा और विशेषरूप से सन्तानों, ग्रामों तथा वस्तुओं का कोई निर्णय नहीं रहेगा ॥ ४५-४६ ॥

सभी लोग अप्रिय वचन बोलने वाले होंगे। सभी लोग चोर और लम्पट होंगे। सभी लोग एक-दूसरे की हिंसा करने वाले और नरघाती होंगे ॥ ४७ ॥ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के वंश के लोग पापी हो जायँगे। सभी लोग लाख, लोहा, रस और नमक का व्यापार करेंगे ॥ ४८ ॥ विप्र-वंश में उत्पन्न सभी लोग बैलों पर बोझ ढोने का कर्म करेंगे, शूद्रों का शव जलायेंगे, शूद्रों का अन्न खायेंगे और शूद्रजाति की स्त्री में आसक्त होंगे, पंचयज्ञ करने से विरत रहेंगे, अमावास्या की रात्रि में भोजन करेंगे। यज्ञोपवीत धारण नहीं करेंगे और सन्ध्यावन्दन तथा शौचादि कर्म से विहीन रहेंगे ॥ ४९-५० ॥ कुलटा, सूद से जीविका चलाने वाली, कुट्टनी तथा रजस्वला स्त्री ब्राह्मणों के भोजनालयों में भोजन पकाने वाली के रूप में रहेगी ॥ ५१ ॥ कलियुग में अन्नों के ग्रहण में, आश्रम – व्यवस्था के पालन में तथा विशेषरूप से स्त्रियों के साथ सम्बन्ध में कोई भी नियम नहीं रह जायगा; सभी लोग म्लेच्छ हो जायँगे। इस प्रकार कलियुग के सम्यक् रूप से प्रवृत्त हो जाने पर सम्पूर्ण जगत् म्लेच्छमय हो जायगा । उस समय वृक्ष हाथ-हाथ भर ऊँचे तथा मनुष्य अँगूठे की लम्बाई के बराबर हो जायँगे ॥ ५२-५३ ॥

उस समय विष्णुयश नामक ब्राह्मण के यहाँ उनके पुत्ररूप में भगवान् कल्कि अवतरित होंगे। श्रीनारायण की कला के अंश से उत्पन्न तथा बल- शालियों में श्रेष्ठ वे भगवान् कल्कि एक विशाल अश्व पर आरूढ होकर अपनी विशाल तलवार से तीन रात में ही सम्पूर्ण पृथ्वी को म्लेच्छों से विहीन कर देंगे। इस प्रकार पृथ्वी को म्लेच्छरहित करके वे अन्तर्धान हो जायँगे। तब पृथ्वी पर पुनः अराजकता फैल जायगी और यह चोरों तथा लुटेरों से पीड़ित हो जायगी ॥ ५४–५६ ॥ तदनन्तर मोटी धार से निरन्तर छः दिनों तक असीम वर्षा होगी, जिससे सम्पूर्ण पृथ्वी आप्लावित हो जायगी । वह प्राणियों, वृक्षों और घर आदि से विहीन हो जायगी ॥ ५७ ॥ हे मुने! उसके बाद बारह सूर्य एक साथ उदित होंगे। उनके प्रचण्ड तेज से सम्पूर्ण पृथ्वी सूख जायगी ॥ ५८ ॥

इसके बाद भयंकर कलियुग के समाप्त होने के बाद तथा सत्ययुग के प्रवृत्त होने पर तप और सत्त्व से युक्त धर्म पूर्णरूप से प्रकट होगा ॥ ५९ ॥ उस समय पृथ्वी पर ब्राह्मण धर्मपरायण, तपस्वी तथा वेदज्ञ होंगे और घर-घर में स्त्रियाँ पतिव्रता तथा धर्मनिष्ठ होंगी ॥ ६० ॥ क्षत्रियलोग ही राजा होंगे। वे सब सदा ब्राह्मणों के भक्त, मनस्वी, तपस्वी, प्रतापी, धर्मात्मा तथा पुण्य कर्म में संलग्न रहने वाले होंगे ॥ ६१ ॥ वैश्यलोग व्यापार- कर्म में तत्पर, ब्राह्मणभक्त तथा धार्मिक होंगे। इसी प्रकार शूद्र भी पुण्य कृत्य करने वाले, धर्मपरायण तथा विप्रों के सेवक होंगे ॥ ६२ ॥ ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों के वंशज सदा भगवती की भक्ति में तत्पर रहने वाले होंगे। वे सब देवी के मन्त्र का निरन्तर जप करने वाले तथा उनके ध्यान में सदा लीन रहने वाले होंगे ॥ ६३ ॥ उस समय के मनुष्य वेद-स्मृति-पुराणों के ज्ञाता तथा ऋतुकाल में ही समागम करने वाले होंगे। सत्ययुग में लेशमात्र भी अधर्म नहीं रहेगा और धर्म अपने पूर्ण 1 स्वरूप में स्थापित रहेगा । त्रेतायुग में धर्म तीन पैरों से, द्वापर में दो पैरों से तथा कलि के आने पर एक पैर से रहता है । तत्पश्चात् [ घोर कलियुग के प्रवृत्त होने पर ] धर्म का पूर्णरूप से लोप हो जाता है ॥ ६४-६५ ॥

हे विप्र ! सात वार, सोलह तिथियाँ, बारह महीने तथा छः ऋतुएँ बतायी गयी हैं। दो पक्ष ( शुक्ल, कृष्ण), दो अयन (उत्तरायण, दक्षिणायन), चार प्रहर का एक दिन, चार प्रहर की एक रात और तीस दिनों का एक माह होता है ॥ ६६-६७ ॥ संवत्सर, इडावत्सर आदि भेद से पाँच प्रकार के वर्ष जानने चाहिये । यही काल की संख्या का नियम है । जिस प्रकार दिन आते हैं तथा जाते हैं, उसी प्रकार चारों युगों का आना-जाना लगा रहता है ॥ ६८ ॥ मनुष्यों का एक वर्ष पूर्ण होने पर देवताओं का एक दिन-रात होता है। मनुष्यों के तीन सौ साठ युग बीतने पर उसे देवताओं का एक युग समझना चाहिये – ऐसा कालसंख्या के विद्वानों का मानना है। इस प्रकार के एकहत्तर दिव्य युगों का एक मन्वन्तर होता है । इन्द्र की आयु एक मन्वन्तर के बराबर समझनी चाहिये । अट्ठाईस इन्द्र के बीत जाने पर ब्रह्मा का एक दिन-रात होता है। इस मान से एक सौ आठ वर्ष व्यतीत होने पर ब्रह्मा का भी विनाश हो जाता है ॥ ६९–७११/२

इसी को प्राकृत प्रलय समझना चाहिये, उस समय पृथ्वी दिखायी नहीं पड़ती। जगत् के सभी स्थावर-जंगम पदार्थ जल में विलीन हो जाते हैं । उस समय ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि देवता, ऋषि तथा ज्ञानी – ये सब सत्यस्वरूप चिदात्मा में समाविष्ट हो जाते हैं। उसी परब्रह्म में प्रकृति भी लीन हो जाती है । यही प्राकृतिक लय है। हे मुने! इस प्रकार प्राकृतिक लय हो जाने पर ब्रह्मा की आयु समाप्त हो जाती है, इस पूरे समय को भगवती का एक निमेष कहा जाता है । हे मुने! इस प्रकार जितने भी ब्रह्माण्ड हैं, सब- के-सब देवी के एक निमेष में विनष्ट हो जाते हैं। पुनः उसी निमेषमात्र में ही सृष्टि के क्रम से अनेक ब्रह्माण्ड बन भी जाते हैं ॥ ७२–७५१/२

इस प्रकार कितनी सृष्टियाँ हुईं तथा कितने लय और कितने कल्प आये तथा गये – उनकी संख्या को कौन व्यक्ति जान सकता है ? हे नारद! सृष्टियों, लयों, ब्रह्माण्डों और ब्रह्माण्ड में रहने वाले ब्रह्मा आदि की संख्या को भला कौन व्यक्ति जान सकता है ? ॥ ७६-७७१/२

सभी ब्रह्माण्डों का ईश्वर एक ही है। वही समस्त प्राणियों का परमात्मस्वरूप तथा सच्चिदानन्दरूप धारण करने वाला है ॥ ७८ ॥ ब्रह्मा आदि देवता, महाविराट् और क्षुद्रविराट्— ये सब उसी परमेश्वर के अंश हैं और वे परमात्मा ही यह पराप्रकृति हैं । उसी पराप्रकृति से अर्धनारीश्वर भी आविर्भूत हुए हैं। वही पराप्रकृति श्रीकृष्णरूप भी है वे श्रीकृष्ण दो भुजाओं तथा चार भुजाओं वाले होकर दो रूपों में विभक्त हो गये। उनमें चतुर्भुज श्रीहरिरूप से वैकुण्ठ में और स्वयं द्विभुज श्रीकृष्णरूप से गोलोक में प्रतिष्ठित हुए ॥ ७९-८१ ॥ ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सब कुछ प्राकृतिक है और जो कुछ भी प्रकृति से उत्पन्न है, वह सब नश्वर ही है ॥ ८२ ॥

इस प्रकार सृष्टि कारणभूत वे परब्रह्म परमात्मा सत्य, नित्य, सनातन, स्वतन्त्र, निर्गुण, प्रकृति से परे, उपाधिरहित, निराकार तथा भक्तों पर कृपा करने के लिये सदा व्याकुल रहने वाले हैं। उन परब्रह्म को सम्यक् जानकर ही पद्मयोनि ब्रह्मा ब्रह्माण्ड की रचना करते हैं ॥ ८३-८४ ॥ मृत्यु पर विजय प्राप्त करने वाले, समस्त तत्त्वार्थों को जानने वाले तथा महान् तपःस्वरूप सर्वेश्वर शिव उन्हीं की तपस्या करके, उन्हें जानकर ही जगत् का संहार करने वाले हो सके । भगवान् विष्णु उन्हीं परब्रह्म परमात्मा की भक्ति तथा सेवा के द्वारा महान् ऐश्वर्य से सम्पन्न, सर्वज्ञ, सर्वद्रष्टा, सर्वव्यापी, समस्त सम्पदा प्रदान करने वाले, सबके ईश्वर, श्रीसम्पन्न तथा सबके रक्षक हुए ॥ ८५-८६१/२

जिसके ज्ञान से, जिसके तप से, जिसकी भक्ति से तथा जिसकी सेवासे महामायास्वरूपिणी, सर्वशक्तिमयी तथा परमेश्वरी वे प्रकृति ही सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती कही गयी हैं। जिसके ज्ञान तथा सेवासे देवमाता सावित्री वेदों की अधिष्ठातृदेवता, वेदज्ञान से सम्पन्न तथा ब्राह्मणों के द्वारा सुपूजित हुईं। जिनकी सेवा तथा तपस्या के द्वारा सरस्वती समस्त विद्याओं की अधिष्ठातृदेवी, विद्वानों के लिये पूज्य, श्रेष्ठ तथा समस्त लोकों में पूजित हुईं। इसी प्रकार इन्हीं की सेवा तथा तपस्या से ही वे लक्ष्मी सभी प्रकार की सम्पदा प्रदान करने वाली, सभी प्राणिसमूह की अधिष्ठातृदेवी, सर्वेश्वरी, सबकी वन्दनीया तथा सबको पुत्र देने वाली हुईं और इन्हीं की उपासना के प्रभाव से ही देवी दुर्गा सब प्रकारके कष्ट का नाश करने वाली, सबके द्वारा स्तुत तथा सर्वज्ञ हुईं ॥ ८७-९११/२

श्रीकृष्ण के वाम अंश से आविर्भूत राधा प्रेमपूर्वक उन्हीं शक्ति की सेवा करके कृष्ण के प्राणों की अधिष्ठातृदेवी के रूप में प्रतिष्ठित हुईं और उनके लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय बन गयीं। उन्हीं की सेवासे राधा ने सर्वोत्कृष्ट रूप, सौभाग्य, सम्मान, गौरव तथा पत्नी के रूप में श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर स्थान प्राप्त किया है ॥ ९२-९३१/२

पूर्वकाल में श्रीराधा ने श्रीकृष्ण को पतिरूप में प्राप्त करने के लिये शतश्रृंगपर्वत पर एक हजार दिव्य वर्षों तक तप किया था । उससे उन शक्तिस्वरूपा के प्रसन्न हो जाने पर श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । वे प्रभु चन्द्रमा की कला के समान शोभा पाने वाली राधा को देखकर उन्हें अपने वक्षःस्थल से लगाकर [ प्रेमातिरेक के कारण] रोने लगे। तत्पश्चात् कृपा करके उन प्रभु श्रीकृष्ण ने राधा को सभी के लिये अत्यन्त दुर्लभ यह उत्तम वर प्रदान किया — ‘मेरे वक्ष:स्थल पर सदा विराजमान रहो, मेरी शाश्वत भक्त बनो और सौभाग्य, तथा गौरव से नित्य सम्पन्न रहो। तुम मेरी सभी मान, प्रेम भार्याओं में श्रेष्ठ तथा ज्येष्ठ प्रेयसी के रूप में सदा प्रतिष्ठित रहोगी । तुम्हें वरिष्ठ तथा महिमामयी मानकर मैं सदा तुम्हारी स्तुति-पूजा किया करूँगा । हे प्राणवल्लभे ! मैं तुम्हारे लिये सर्वदा सुलभ और हर प्रकार से तुम्हारे अधीन रहूँगा ।’ परम सुन्दरी राधा को ऐसा वर प्रदान करके जगत्पति श्रीकृष्ण ने उन्हें सपत्नी के भाव से रहित कर दिया और अपनी प्राणप्रिया बना लिया ॥ ९४–९९१/२

हे मुने ! इसी प्रकार अन्य भी जो-जो देवियाँ हैं, वे भी मूलप्रकृति की सेवाके कारण ही सुपूजित हुई हैं। जिनका जैसा-जैसा तप रहा है, वैसा-वैसा उन्हें फल मिला है। भगवती दुर्गा हिमालयपर्वत पर एक हजार दिव्य वर्षों तक तपस्या करके तथा उन मूलप्रकृति के चरणों का ध्यान करके सबकी पूज्य हो गयीं । वे भगवती सरस्वती गन्धमादनपर्वत पर एक लाख दिव्य वर्षों तक तप करके सर्ववन्द्या बन गयीं। श्रीलक्ष्मी पुष्करक्षेत्र में दिव्य एक सौ युगों तक तप करके भगवती की उपासना के द्वारा सभी प्रकार की सम्पदाएँ देने वाली बन गयीं। इसी प्रकार सावित्री दिव्य साठ हजार वर्षों तक मलयगिरि पर उन मूलप्रकृति के दिव्य चरणों का ध्यान करते हुए कठोर तप करके सबके लिये पूजनीय तथा वन्दनीय हो गयीं ॥ १००–१०४१/२

हे विभो ! प्राचीन काल में शंकरजी ने एक सौ मन्वन्तर तक उन भगवती का तप किया था । ब्रह्माजी ने भी सौ मन्वन्तर तक शक्ति के नाम का जप किया था । इसी प्रकार भगवान् विष्णु भी सौ मन्वन्तर तक तपस्या करके सम्पूर्ण जगत् के रक्षक बने ॥ १०५-१०६ ॥ श्रीकृष्ण ने दस मन्वन्तर तक कठोर तप करके दिव्य गोलोक प्राप्त किया, जहाँ पर आज भी वे आनन्द प्राप्त कर रहे हैं ॥ १०७ ॥ उन्हीं भगवती की भक्ति से युक्त होकर धर्म दस मन्वन्तर तक तपस्या करके सबके प्राणस्वरूप, सर्वपूज्य तथा सर्वाधार हो गये ॥ १०८ ॥ इसी प्रकार सभी देवता, मुनि, मनुगण, राजा तथा ब्राह्मण भी उन भगवती मूलप्रकृति की तपस्या के द्वारा ही पूजित हुए हैं ॥ १०९ ॥

[हे नारद!] इस प्रकार मैंने आगमसहित इस पुराण को गुरु मुख से जैसा जाना था, वह सब आपको बता दिया; अब आप आगे क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ११० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद- संवाद में कलिमाहात्म्य’ नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

1. धर्म को चार पैरवाले वृषरूप में कहा गया है – ‘वृषो हि भगवान् धर्मः’ (मनु० ८ । १६, श्रीमद्भा० १ । १६ । १८ आदि) तथा सत्य, दया, तप और दान – ये धर्मरूप वृष के चार चरण बताये गये हैं (चतुष्पाद् धर्म) । कृते प्रवर्तते धर्मश्चतुष्पात्तज्जनैर्धृतः। सत्यं दया तपो दानमिति पादा विभोर्नृप । ( श्रीमद्भा० १२ । ३ । १८)

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