श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-17
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-सप्तदशोऽध्यायः
सत्रहवाँ अध्याय
भगवती तुलसी के प्रादुर्भाव का प्रसंग
धर्मध्वजसुतातुलस्युपाख्यानवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [हे नारद!] राजा धर्मध्वज की पत्नी माधवी नाम से प्रसिद्ध थी । वह राजा के साथ गन्धमादन पर्वत पर एक सुरम्य उपवन में विहार करती थी ॥ १ ॥ पुष्प और चन्दन से सुरभित सुखदायी शय्या पर अपने समस्त अंगों को चन्दन से सुसज्जितकर, रत्नाभरणों से विभूषित हो पुष्प – चन्दनादि से सुगन्धित पवन का सुख लेते हुए वह स्त्रीरत्नस्वरूपिणी सर्वांगसुन्दरी अपने रसिक पति के साथ कामोपभोग में लगी रहती थी ॥ २-३ ॥ रतिक्रीड़ा के विज्ञ वे दोनों कभी भी भोग से विरत नहीं होते थे । इस प्रकार उनके दिव्य सौ वर्ष व्यतीत हो गये, किंतु उन्हें दिन-रात का भी ज्ञान नहीं रहा ॥ ४ ॥ तदनन्तर राजा के हृदय में कुछ ज्ञान का उदय होने पर वे भोग से विरत हो गये, किंतु वह कामासक्त सुन्दरी पूर्ण रूप से तृप्त नहीं हुई । दैवयोग से उसने शीघ्र ही गर्भ धारण कर लिया । श्रीस्वरूप गर्भवाली वह दिनों-दिन सौन्दर्यसम्पन्न होती गयी । उस साध्वी का गर्भ सौ वर्षों तक रहा ॥ ५-६ ॥

हे नारद! उस माधवी ने कार्तिक पूर्णिमा तिथि में शुक्रवार को शुभ दिन, शुभ योग, शुभ क्षण, शुभ लग्न, शुभ अंश तथा शुभ स्वामिग्रह से युक्त उत्तम मुहूर्त में लक्ष्मी की अंशस्वरूपिणी तथा पद्मिनीतुल्य एक मनोहर कन्या को जन्म दिया ॥ ७-८ ॥ उस कन्या का मुख शरत्-पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान था, उसके नेत्र शरत्कालीन कमल के समान थे, ओष्ठ पके हुए बिम्बाफल के सदृश थे, उस समय वह कन्या मुसकराती हुई अपने घर को देख रही थी, उसके हाथ-पैर के तलवे लाल थे, उसकी नाभि गम्भीर थी, उसका विग्रह मन को मुग्ध कर देने वाला था, उसका कटिप्रदेश तीन वलियों से युक्त था । उसके दोनों नितम्ब गोल थे। शीतकाल में सुख देने के लिये वह सम्पूर्ण उष्ण अंगों वाली और ग्रीष्मकाल में शीतल अंगों वाली थी। वह श्यामा सुन्दरी वटवृक्ष को घेरकर शोभित होने वाले वरोहों की भाँति बड़े सुन्दर केशपाश से सुसज्जित थी, वह पीत चम्पक के वर्ण के समान आभावाली थी, वह सुन्दरियों की भी सुन्दरी थी — ऐसे अनुपम सौन्दर्य वाली उस कन्या को देखकर सभी स्त्री और पुरुष किसी के साथ उसकी तुलना करने में असमर्थ थे, इसलिये विद्वान् पुरुष उसे तुलसी नाम से पुकारते हैं। पृथ्वी पर आते ही वह प्रकृतिदेवी – जैसी योग्य स्त्री हो गयी ॥ ९–१३ ॥

सभी लोगों द्वारा मना किये जाने पर भी वह तपस्या करने के उद्देश्य से बदरीवन चली गयी और वहाँ उसने दिव्य एक लाख वर्षों तक कठिन तप किया। स्वयं भगवान् नारायण मेरे स्वामी हों — ऐसा अपने मन में निश्चय करके वह ग्रीष्मकाल में पंचाग्नि तापती थी, जाड़े के समय में गीले वस्त्र पहनती थी और वर्षाऋतु में एक आसन पर बैठकर जलधाराओं को सहती हुई दिन-रात तप करती थी । वह तपस्विनी बीस हजार वर्षों तक फल और जल के आहार पर, तीस हजार वर्षों तक पत्तों के आहार पर और चालीस हजार वर्षों तक वायु के आहार पर रही। तत्पश्चात् वह कृशोदरी दस हजार वर्षों तक निराहार रही ॥ १४–१७१/२

इस प्रकार उसे निर्लक्ष्य होकर एक पैर पर स्थित रहकर तपस्या करते हुए देखकर ब्रह्माजी उसे वर प्रदान करने के लिये उत्तम बदरिकाश्रम आये ॥ १८१/२

हंस पर विराजमान चतुर्मुख ब्रह्मा को देखकर उस तुलसी ने प्रणाम किया। तब जगत् की सृष्टि करने वाले तथा सम्पूर्ण लोकों का विधान करने वाले ब्रह्मा उससे कहने लगे — ॥ १९१/२

ब्रह्माजी बोले — हे तुलसि ! हरि की भक्ति, हरि की दासता और अजरता-अमरता – इनमें से जो भी तुम्हारे मन में अभीष्ट हो, उसे माँग लो ॥ २०१/२

तुलसी बोली — हे तात! सुनिये, मेरे मन में जो अभिलाषा है, उसे बता रही हूँ; क्योंकि सब कुछ जानने वाले आप ब्रह्मा के समक्ष अपनी बात कहने में मुझे अब लाज ही क्या है? मैं पूर्वजन्म में तुलसी नाम की गोपी थी और गोलोक में निवास करती थी । उस समय मैं भगवान् श्रीकृष्ण की प्रिया, उनकी अनुचरी, उनकी अंशस्वरूपा तथा उनकी प्रेयसी सखी के रूप में प्रतिष्ठित थी ॥ २१-२२१/२

एक समय जब मैं भगवान् श्रीकृष्ण के साथ विहार में अचेत तथा अतृप्त अवस्था में थी, तभी सकी अधिष्ठात्री देवी भगवती राधा ने रासमण्डल में आकर मुझे देख लिया। उन्होंने श्रीकृष्ण की बहुत भर्त्सना की और कुपित होकर मुझे शाप दे दिया ‘तुम मनुष्ययोनि प्राप्त करो’ – यह शाप उन्होंने मुझे दे दिया ॥ २३-२४१/२

तब उन गोविन्द ने मुझसे कहा था — ‘भारतवर्ष में जन्म लेकर घोर तपस्या करके तुम ब्रह्माजी के वरदान से मेरे अंशस्वरूप चतुर्भुज विष्णु को पतिरूप में प्राप्त करोगी’। इस प्रकार कहकर वे देवेश्वर श्रीकृष्ण अन्तर्धान हो गये। हे गुरो ! देवी राधा के भय से अपना वह शरीर त्यागकर मैंने अब भूमण्डल पर जन्म लिया है और सुन्दर विग्रह वाले तथा शान्तस्वभाव भगवान् नारायण जो उस समय मेरे पति थे, उन्हीं को अब भी पतिरूप में प्राप्त करने के लिये वर माँग रही हूँ, आप मुझे यह वर दीजिये ॥ २५–२७१/२

ब्रह्मदेव बोले — भगवान् श्रीकृष्ण के अंग से प्रादुर्भूत, उन्हीं के अंशस्वरूप तथा परम तेजस्वी सुदामा नामक गोप ने भी इस समय भारतवर्ष में जन्म लिया है। वह राधा के शाप से दनुवंश में उत्पन्न हुआ है और शंखचूड़ नाम से विख्यात है, उसके समान तीनों लोकों में कोई भी नहीं है ॥ २८-२९१/२

पूर्वकाल में एक बार गोलोक में तुम्हें देखकर उसके मन में कामभावना उत्पन्न हो गयी, किंतु राधिका के प्रभाव के कारण वह तुम्हें नहीं पा सका था। वह सुदामा इस समय समुद्र में उत्पन्न हुआ है। भगवान् श्रीकृष्ण का अंश होने से उसे पूर्वजन्म की सभी बातों का स्मरण है । हे सुन्दरि ! तुम्हें भी पूर्वजन्म की बातों का स्मरण है, अतः तुम सब कुछ भलीभाँति जानने वाली हो। हे शोभने ! अब इस जन्म में तुम उसी सुदामा की पत्नी बनोगी और बाद में शान्तस्वरूप भगवान् नारायण का पतिरूप में वरण करोगी ॥ ३०–३२१/२

दैवयोग से उन्हीं भगवान् नारायण के शाप से तुम अपनी कला से विश्व को पवित्र करने वाली पावन वृक्षरूप में प्रतिष्ठित होओगी । तुम समस्त पुष्पों में प्रधान मानी जाओगी और भगवान् विष्णु के लिये प्राणों से भी अधिक प्रिय रहोगी । तुम्हारे बिना की गयी सभी देवताओं की पूजा व्यर्थ समझी जायगी। वृन्दावन में वृक्षरूप तुम वृन्दावनी नाम से विख्यात रहोगी। समस्त गोप और गोपिकाएँ तुम्हारे पत्रों से ही भगवान् माधव की पूजा करेंगे। तुम मेरे वर के प्रभाव से वृक्षों की अधिष्ठात्री देवी बनकर गोपस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण के साथ स्वेच्छापूर्वक निरन्तर विहार करोगी ॥ ३३-३६१/२

[ हे नारद!] ब्रह्माजी की यह वाणी सुनकर तुलसी मुसकराने लगी और उसका चित्त प्रफुल्लित हो गया। उसने ब्रह्माजी को प्रणाम किया और फिर वह उनसे कुछ कहने लगी ॥ ३७१/२

तुलसी बोली — हे तात! मैं यह सत्य कह रही हूँ कि दो भुजाओं वाले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के प्रति जैसी मेरी रुचि है, वैसी चार भुजाओं वाले श्रीविष्णु के लिये नहीं है; क्योंकि मैं दैवयोग से शृंगार-भंग होने के कारण गोविन्द से अभी भी अतृप्त ही हूँ। मैं तो उन गोविन्द की आज्ञामात्र से ही चतुर्भुज श्रीहरि के लिये प्रार्थना कर रही हूँ। अब तो मैं आपकी कृपा से उन अत्यन्त दुर्लभ गोविन्द को निश्चितरूप से प्राप्त कर लूँगी। हे प्रभो ! साथ ही आप मुझे राधा के भय से भी मुक्त कर दीजिये ॥ ३८–४०१/२

ब्रह्मदेव बोले — हे सुभगे ! मैं तुम्हें भगवती राधिका का सोलह अक्षरों वाला मन्त्र प्रदान करता हूँ; तुम इसे ग्रहण कर लो। तुम मेरे वर के प्रभाव से उन राधा के लिये प्राणतुल्य हो जाओगी। तुम दोनों (श्रीकृष्ण और तुलसी) – के गुप्त प्रेम को राधिका नहीं जान पायेंगी। राधा के समान ही तुम गोविन्द की प्रेयसी हो जाओगी ॥ ४१-४२१/२

[हे मुने!] ऐसा कहकर जगत् की रचना करने वाले ब्रह्मा ने देवी तुलसी को भगवती राधा के षोडशाक्षर-मन्त्र, स्तोत्र, उत्तम कवच, समस्त पूजाविधान और पुरश्चर्याविधि के क्रम बता करके उसे उत्तम शुभाशीर्वाद प्रदान किया। तत्पश्चात् तुलसी ने [पूर्वोक्त विधि से भगवती राधा का ] पूजन किया और उनकी कृपा से वह देवी तुलसी भगवती लक्ष्मी के समान सिद्ध हो गयी ॥ ४३–४५ ॥ ब्रह्माजी ने जैसा कहा था, उस मन्त्र के प्रभाव से ठीक वैसा ही वर तुलसी को प्राप्त हो गया। उसने विश्व में दुर्लभ महान् सुखों का भोग किया। मन प्रसन्न हो जाने के कारण उस देवी के तपस्याजनित सभी कष्ट दूर हो गये; क्योंकि फल की प्राप्ति हो जाने के बाद मनुष्यों का दुःख उत्तम सुख में परिणत हो जाता है ॥ ४६-४७ ॥ तदनन्तर भोजन – पानादि करके तथा सन्तुष्ट होकर उस तुलसी ने पुष्प – चन्दन से चर्चित मनोहर शय्या पर शयन किया ॥ ४८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद-संवाद में धर्मध्वजसुता तुलसी का उपाख्यान – वर्णन’ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

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