श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-21
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-एकविंशोऽध्यायः
इक्कीसवाँ अध्याय
शंखचूड़ और भगवान् शंकर का विशद वार्तालाप
शङ्‌खचूडकृते प्रबोधवाक्यवर्णनम्

श्रीनारायण बोले — [हे नारद!] श्रीकृष्ण की भक्ति में तत्पर रहने वाले शंखचूड़ ने मन में श्रीकृष्ण का ध्यान करके ब्राह्ममूहूर्त में ही अपनी मनोहर पुष्प- शय्या से उठकर स्वच्छ जल से स्नान करके रात के वस्त्र त्यागकर धुले हुए दो वस्त्र धारण किये । तदनन्तर उज्ज्वल तिलक लगाकर उसने अपने इष्ट देवता के वन्दन आदि नित्य कृत्य सम्पन्न किये । उसने दधि, घृत, मधु और धान का लावा आदि मंगलकारी वस्तुओं का दर्शन किया ॥ १–३ ॥ हे नारद! उसने प्रतिदिन की भाँति ब्राह्मणों को श्रद्धापूर्वक उत्तम रत्न, श्रेष्ठ मणियाँ, सुन्दर वस्त्र तथा स्वर्ण प्रदान किया। यात्रा मंगलमयी होने के लिये उसने बहुमूल्य रत्न, मोती, मणि तथा हीरा आदि जो कुछ उसके पास था, अपने विप्र गुरु को समर्पित किया। उसने अपने कल्याणार्थ श्रेष्ठ तथा सुन्दर हाथी, घोड़े और धन-सामग्री सब कुछ दरिद्र ब्राह्मणों को प्रदान किये। इसी प्रकार शंखचूड़ ने ब्राह्मणों को प्रसन्नतापूर्वक हजारों कोष, भण्डार, दो लाख नगर और सौ करोड़ गाँव प्रदान किये ॥ ४-७ ॥

तत्पश्चात् उसने अपने पुत्र को सम्पूर्ण दानवों का राजा बनाकर उसे अपनी पत्नी, राज्य, सम्पूर्ण सम्पत्ति, प्रजा, सेवक वर्ग, कोष और वाहन आदि सौंपकर स्वयं कवच पहन लिया और हाथ में धनुष धारण कर लिया, फिर क्रम से सेवकों के माध्यम से सैनिकों को एकत्र किया। हे नारद! उस दानवराज के द्वारा तीन लाख घोड़ों, एक लाख उत्तम कोटि के हाथियों, दस हजार रथों, तीन करोड़ धनुर्धारियों, तीन करोड़ कवचधारियों और तीन करोड़ त्रिशूलधारियों से युक्त एक विशाल सेना तैयार कर ली गयी ॥ ८-१११/२

जो रण में सभी रथियों में श्रेष्ठ होता है, उसे महारथी कहा जाता है। उसने युद्धशास्त्र में विशारद ऐसे ही एक महारथी को उस सेना का सेनापति नियुक्त कर दिया। इस प्रकार राजा शंखचूड़ ने उसे तीन लाख अक्षौहिणी सेना का सेनापति बनाकर उसे तीस-तीस अक्षौहिणी सेना के समूहों में रक्षा के लिये सैन्यसामग्री से सम्पन्न कर दिया और तत्पश्चात् मन में भगवान् श्रीहरि का स्मरण करता हुआ वह शिविर से बाहर निकल गया ॥ १२–१४ ॥ वह सर्वोत्तम रत्नों से निर्मित विमान पर आरूढ़ हुआ और गुरुवृन्दों को आगे करके भगवान् शंकर के पास चल पड़ा ॥ १५ ॥

हे नारद! पुष्पभद्रानदी के तट पर एक सुन्दर वटवृक्ष है, वहाँ सिद्ध महात्माओं का सिद्धाश्रम है। उस स्थान को सिद्धिक्षेत्र कहा गया है । भारत में स्थित वह पुण्यक्षेत्र कपिलमुनि की तपोभूमि है । वह पश्चिमी समुद्र पूर्व में, मलयपर्वत के पश्चिम में, श्रीशैलपर्वत की उत्तर दिशा में तथा गन्धमादनपर्वत की दक्षिण दिशा में स्थित है ॥ १६-१७१/२

वहाँ भारतवर्ष की एक पुण्यदायिनी नदी बहती है, जो पाँच योजन चौड़ी तथा उससे सौ गुनी लम्बी है। पुष्पभद्रा नामक वह कल्याणकारिणी, शाश्वत तथा शुद्ध स्फटिकमणि के सदृश प्रतीत होने वाली नदी जल से सदा परिपूर्ण रहती है । लवण-समुद्र की प्रिय भार्या के रूप में प्रतिष्ठित वह नदी सदा सौभाग्यवती बनी रहती है । वह हिमालय से निकली हुई है तथा कुछ दूर जाकर शरावती नदी में मिल गयी है । वह गोमती को अपने से बायें करके प्रवाहित होती हुई अन्त में पश्चिमी समुद्र में समाविष्ट हो जाती है ॥ १८–२०१/२

वहाँ पहुँचकर शंखचूड़ ने देखा कि करोड़ों सूर्य के समान प्रकाशमान चन्द्रशेखर भगवान् शिव वटवृक्ष के नीचे विराजमान हैं । वे मुद्रा से युक्त होकर योगासन में स्थित थे और उनके मुखमण्डल पर मुसकान व्याप्त थी । ब्रह्मतेज से देदीप्यमान वे भगवान् शंकर शुद्ध स्फटिकमणि के समान प्रतीत हो रहे थे । वे अपने हाथों में त्रिशूल और पट्टिश तथा शरीर पर श्रेष्ठ बाघम्बर धारण किये हुए थे ॥ २१–२३ ॥ अपने भक्तों की मृत्यु तक को टाल देने वाले, शान्तस्वभाव, मनोहर, तपस्याओं का फल तथा सभी प्रकार की सम्पदाएँ प्रदान करने वाले, शीघ्र प्रसन्न होने वाले, प्रसादपूर्ण मुखमण्डल वाले, भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये व्याकुल, विश्वनाथ, विश्वबीज, विश्वरूप, विश्वज, विश्वम्भर, विश्ववर, विश्वसंहारक, कारणों के भी कारण, नरकरूपी समुद्र से पार करने वाले, ज्ञानप्रद, ज्ञानबीज, ज्ञानानन्द तथा सनातन उन गौरीपति महादेव को देखकर उस दानवेश्वर शंखचूड़ ने विमान से उतरकर सबके साथ वहाँ विद्यमान शंकर को सिर झुकाकर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। शंखचूड़ ने शिव के वामभाग में विराजमान भद्रकाली तथा उनके सामने स्थित कार्तिकेय को भी प्रणाम किया। तब भद्रकाली, कार्तिकेय तथा भगवान् शंकर ने उसे आशीर्वाद प्रदान किया ॥ २४–२८१/२

शंखचूड़ को वहाँ आया देखकर नन्दीश्वर आदि सभी गण उठकर खड़े हो गये और परस्पर सामयिक बातें करने लगे। उनसे बातचीत करके राजा शंखचूड़ शिव के समीप बैठ गया, तब प्रसन्न चित्तवाले भगवान् महादेव उससे कहने लगे ॥ २९-३०१/२

महादेवजी बोले — सम्पूर्ण जगत् की रचना करने वाले धर्मात्मा ब्रह्मा धर्म के पिता हैं, परम वैष्णव तथा धर्मपरायण मरीचि उन धर्म के पुत्र हैं और उन मरीचि के पुत्र धर्मपरायण कश्यप हैं प्रजापति दक्ष ने प्रसन्नतापूर्वक उन्हें अपनी तेरह कन्याएँ सौंप दी थीं। उन्हीं कन्याओं में एक परम साध्वी दनु भी है, जो उस वंश का सौभाग्य बढ़ाने वाली हुई ॥ ३१–३३ ॥ उस दनु के चालीस पुत्र हुए, जो तेजसम्पन्न प्रबल दानव के रूप में विख्यात थे । उन पुत्रों में महान् बल तथा पराक्रम से युक्त एक पुत्र विप्रचित्ति था । उसका पुत्र दम्भ था; जो परम धार्मिक, विष्णुभक्त तथा जितेन्द्रिय था । उसने शुक्राचार्य को गुरु बनाकर परमात्मा श्रीकृष्ण के उत्तम मन्त्र का पुष्करक्षेत्र में एक लाख वर्ष तक जप किया; तब उसने कृष्ण की भक्ति में सदा संलग्न रहने वाले तुम जैसे श्रेष्ठ पुरुष को पुत्ररूप में प्राप्त किया ॥ ३४–३६ ॥

पूर्वजन्म में तुम भगवान् कृष्ण के पार्षद और गोपों में परम धार्मिक गोप थे। इस समय तुम राधिका के शाप से भारतवर्ष में दानवेश्वर बन गये हो ॥ ३७ ॥ भगवान् विष्णु का भक्त ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी को तुच्छ समझता है। वैष्णव श्रीहरि की सेवा को छोड़कर सालोक्य, साष्टि, सायुज्य और सामीप्य इन मुक्तियों को दिये जाने पर भी स्वीकार नहीं करते । वैष्णव ब्रह्मत्व अथवा अमरत्व को भी तुच्छ मानता है, इन्द्रत्व अथवा मनुष्यत्व को तो वह किन्हीं भी गणनाओं में स्थान नहीं देता है; तो फिर तुम – जैसे कृष्णभक्त को देवताओं के भ्रमात्मक राज्य से क्या प्रयोजन ! ॥ ३८-४० ॥ हे राजन् ! तुम देवताओं का राज्य वापस कर दो और मेरी प्रीति की रक्षा करो। तुम अपने राज्य में सुखपूर्वक रहो और देवता अपने स्थान पर रहें। प्राणियों में परस्पर विरोध नहीं होना चाहिये; क्योंकि सभी तो मुनि कश्यप के ही वंशज हैं । ब्रह्महत्या आदि से होनेवाले जितने पाप हैं, वे जाति-द्रोह करने से लगने वाले पाप की सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं ॥ ४१-४२१/२

राजेन्द्र ! यदि तुम इसे अपनी सम्पत्ति की हानि मानते हो तो यह सोचो कि किन लोगों की सभी स्थितियाँ सदा एकसमान रहती हैं । प्राकृतिक प्रलय के समय ब्रह्मा का भी सदा तिरोधान हो जाया करता है । तदनन्तर ईश्वर के प्रभाव तथा उनकी इच्छा से पुनः उनका प्राकट्य होता है । उस समय उनकी स्मृति लुप्त रहती है, फिर तपस्या के द्वारा उनके ज्ञान में वृद्धि हो जाती है, यह निश्चित है । तत्पश्चात् वे ब्रह्मा ज्ञानपूर्वक क्रमशः सृष्टि करते हैं ॥ ४३-४५१/२

सत्ययुग में लोग सदा सत्य के आश्रय पर रहते हैं, इसलिये उस युग में धर्म अपने परिपूर्णतम स्वरूप में विद्यमान रहता है। वही धर्म त्रेतायुग में तीन भाग से, द्वापर में दो भाग से तथा कलि में एक भाग से युक्त कहा गया है । इस प्रकार क्रम से उसका एक-एक अंश कम होता रहता है । कलि के अन्त में अमावस्या के चन्द्रमा की भाँति धर्म की कला केवल नाममात्र रह जाती है ॥ ४६-४७१/२

ग्रीष्म ऋतु सूर्य का जैसा तेज रहता है, वैसा शिशिर ऋतु में नहीं रह जाता । दिन में भी सूर्य का जैसा तेज मध्याह्नकाल में होता है, उसके समान तेज प्रातः तथा सायंकालमें नहीं रहता । सूर्य समय से उगते हैं, फिर क्रम से बालसूर्य के रूप में हो जाते हैं, तत्पश्चात् प्रचण्डरूप से प्रकाशित होने लगते हैं और पुनः यथासमय अस्त हो जाते हैं। वह काल ऐसा भी कर देता है कि सूर्य को दिन में ही मेघाच्छन्न आकाश में छिप जाना पड़ता है। वे ही सूर्य राहु से ग्रसित होने पर काँपने लगते हैं और फिर थोड़ी ही देर में प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ४८-५० ॥ जैसे पूर्णिमा तिथि को चन्द्रमा पूर्णतम रहते हैं, वैसे वे सदा नहीं रहते, अपितु प्रतिदिन उनकी कला में क्रमशः क्षय होता रहता है । तत्पश्चात् अमावस्या से इनमें दिनोंदिन वृद्धि होने लगती है और ये पुनः पुष्ट हो जाते हैं । चन्द्रमा शुक्लपक्ष में शोभायुक्त रहते हैं और कृष्णपक्ष में क्षय के द्वारा म्लान हो जाते हैं। राहु के द्वारा ग्रसित होने के अवसर पर ये शोभाहीन हो जाते हैं और आकाश के मेघाच्छन्न होने के समय ये प्रकाशित नहीं होते; इस प्रकार कालभेद से चन्द्रमा किसी समय तेजस्वी और किसी समय शोभाविहीन हो जाते हैं ॥ ५१–५३१/२

इस समय श्रीविहीन राजा बलि भविष्य में सुतललोक के इन्द्र होंगे। सबकी आधारस्वरूपा पृथ्वी काल प्रभाव से सस्यों से सम्पन्न हो जाती है और फिर वही पृथ्वी काल के प्रभाव से [ प्रलयकालीन ] जल में निमग्न हो जाती है और तिरोहित होकर आप्लावित हो जाती है ॥ ५४-५५ ॥ एक निश्चित समय पर सभी लोक नष्ट हो जाते हैं और फिर समय पर उत्पन्न भी हो जाते हैं । इस प्रकार जगत् के सम्पूर्ण चराचर पदार्थ काल के ही प्रभाव से नष्ट होते हैं तथा उत्पन्न होते हैं ॥ ५६ ॥ ऐश्वर्य सम्पन्न परब्रह्म परमात्मा की ही समता काल से हो सकती है। उन्हीं की कृपा से मैं मृत्युंजय हो सका हूँ, मैंने असंख्य प्राकृत प्रलय देखे हैं तथा आगे भी बार-बार देखूँगा । वे ही प्रकृतिरूप हैं और वे ही परम पुरुष भी कहे गये हैं । वे परमेश्वर ही आत्मा हैं, वे ही जीव हैं और वे ही अनेक प्रकार रूप धारण करके सर्वत्र विराजमान हैं ॥ ५७-५८१/२

जो मनुष्य उन परमेश्वर के नामों तथा गुणों का सतत कीर्तन करता है, वह यथासमय जन्म, मृत्यु, रोग, भय तथा बुढ़ापे पर विजय प्राप्त कर लेता है। उन्हीं परमेश्वर ने ब्रह्मा को सृजनकर्ता, विष्णु को पालनकर्ता तथा मुझ महादेव को संहारकर्ता के रूप में स्थापित किया है । इस प्रकार उन्हीं के द्वारा हमलोग अपने-अपने कार्यों में नियुक्त किये गये हैं ॥ ५९-६०१/२

हे राजन् ! इस समय मैं कालाग्नि रुद्र को संहार- कार्य में नियुक्त करके उन्हीं परमात्मा के नाम और गुण का निरन्तर कीर्तन कर रहा हूँ । इसीसे मैं मृत्यु को जीत लेने वाला हो गया हूँ और इस ज्ञान से सम्पन्न हुआ मैं सदा निर्भय रहता हूँ । मेरे पास आने से मृत्यु भी अपनी मृत्यु के भय से उसी प्रकार भाग जाती है, जैसे गरुड के भय से सर्प ॥ ६१-६२१/२

हे नारद! पूर्णरूप से तत्पर होकर सभा के बीच अपने सम्पूर्ण भावों को प्रदर्शित करते हुए सर्वेश्वर महादेव शंखचूड़ से ऐसा कहकर चुप हो गये । उनकी बात सुनकर राजा शंखचूड़ ने बार-बार उनकी प्रशंसा की और वह विनम्रतापूर्वक उन परम प्रभु से यह मधुर वचन कहने लगा ॥ ६३-६४१/२

शंखचूड़ बोला — [हे भगवन्!] आपने जो बात कही है, उसे अन्यथा नहीं कहा जा सकता, परन्तु मेरा भी कुछ यथार्थ निवेदन है, उसे आप सुन लीजिये ॥ ६५१/२

आपने अभी यह कहा है कि जाति-द्रोह करने में महान् पाप होता है, तो फिर बलि का सर्वस्व छीनकर आपलोगों ने उसे सुतललोक में क्यों भेज दिया ? हे प्रभो ! मैं ही बलि के समस्त ऐश्वर्य को पाताल से उठाकर यहाँ लाया हूँ, [ अतः इस पर मेरा ही पूर्ण अधिकार है।] उस समय मैं बलि को सुतललोक से लाने में समर्थ नहीं था; क्योंकि भगवान् श्रीहरि गदा धारण किये वहाँ स्थित थे । देवताओं ने भाईसहित हिरण्याक्ष का वध क्यों किया और उन्होंने शुम्भ आदि असुरों को क्यों मार डाला ? इसी प्रकार प्राचीन काल में समुद्र-मन्थन के समय देवता सारा अमृत पी गये थे। उस समय कष्ट तो हम दानवों ने उठाया था और उसके अमृतरूपी फल का भोग उन समस्त देवताओं ने किया था ॥ ६६-६९१/२

यह विश्व प्रकृतिस्वरूप उन परमात्मा का क्रीडाभाण्ड है । वे जिस व्यक्ति को जहाँ जो सम्पत्ति देते हैं, वह उस समय उसीकी हो जाती है। किसी निमित्त को लेकर देवता तथा दानवों के बीच विवाद सदा से निरन्तर चला आ रहा है। किसी समय उनकी जीत अथवा हार होती है और समयानुसार कभी हमारी जीत-हार होती है। अतः ऐसी स्थिति में देवता तथा दानव दोनों के समान सम्बन्धी तथा बन्धुस्वरूप आप महात्मा परमेश्वर का हम दोनों के विरोध के बीच में आना निरर्थक है । यदि इस समय हमलोगों के साथ आप युद्ध करेंगे, तो यह आपके लिये महान् लज्जा की बात होगी। हमारी जीत होने पर पहले से भी अधिक हम दानवों की कीर्ति बढ़ जायगी और पराजय होने पर आपकी मानहानि होगी ॥ ७०–७३१/२

[हे नारद!] शंखचूड़ की यह बात सुनकर तीन नेत्रों वाले भगवान् शिव ने हँसकर उस दानवेन्द्र को समुचित उत्तर देना आरम्भ किया ॥ ७४१/२

महादेवजी बोले — हे राजन् ! ब्रह्मा के ही वंश में उत्पन्न हुए तुम लोगों के साथ युद्ध करने में मुझे कौन-सी बड़ी लज्जा होगी और हारने पर अपकीर्ति ही क्या होगी ? हे नृप ! इसके पहले भी तो मधु और कैटभ से श्रीहरि का युद्ध हो चुका है। एक बार उनके साथ हिरण्यकशिपु का युद्ध हुआ था और इसके बाद श्रीहरि ने गदा लेकर हिरण्याक्ष के साथ भी युद्ध किया था। मैं भी तो पूर्वकाल में त्रिपुर राक्षस के साथ युद्ध कर चुका हूँ। इसी प्रकार पूर्व समय में शुम्भ आदि दानवों के साथ सर्वेश्वरी, सर्वजननी पराप्रकृति का भी अत्यन्त विस्मयकारी युद्ध हुआ था ॥ ७५-७८१/२

तुम तो परमात्मा श्रीकृष्ण के प्रधान पार्षद रहे हो । जो-जो दैत्य मारे गये हैं, वे तुम्हारे -जैसे नहीं थे। अतः हे राजन् ! तुम्हारे साथ युद्ध करने में मुझे कौन – सी बड़ी लज्जा है ? सभी देवता श्रीहरि की शरण में गये थे, तब देवताओं की सहायता के लिये उन्होंने मुझे भेजा है। तुम देवताओं का राज्य वापस कर दो यह मेरा निश्चित वचन है, अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो। वाणी का अपव्यय करने से क्या लाभ?॥ ७९–८११/२

हे नारद! ऐसा कहकर भगवान् शंकर चुप हो गये; और शंखचूड़ भी मन्त्रियों के साथ शीघ्र ही उठ खड़ा हुआ ॥ ८२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद- संवाद में शंखचूड़ के लिये प्रबोधवाक्यवर्णन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥

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