श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-24
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-चतुर्विंशोऽध्यायः
चौबीसवाँ अध्याय
शंखचूड़रूपधारी श्रीहरि का तुलसी के भवन में जाना, तुलसी का श्रीहरि को पाषाण होने का शाप देना, तुलसी-महिमा, शालग्राम के विभिन्न लक्षण एवं माहात्म्य का वर्णन
तुलसीमाहात्म्येन सह शालग्राममहत्त्ववर्णनम्

नारदजी बोले — भगवान् नारायण ने कौन-सा रूप धारणकर तुलसी में वीर्याधान किया था, उसे मुझे बताइये ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले —  [ हे नारद!] देवताओं का कार्य सिद्ध करने में सदा तत्पर रहने वाले भगवान् श्रीहरि वैष्णवी माया के द्वारा शंखचूड़ का कवच लेकर और फिर उसी शंखचूड़ का रूप धारणकर उसकी पत्नी का पातिव्रत्य नष्ट करके शंखचूड़ को मारने की इच्छा से साध्वी तुलसी के घर गये थे ॥ २-३ ॥ उन्होंने तुलसी के भवन के द्वार के पास दुन्दुभि बजवायी और उस द्वारपर जयकार लगवाकर सुन्दरी तुलसी को यह ज्ञात कराया कि उसके पति विजयी होकर आ गये हैं ॥ ४ ॥ वह ध्वनि सुनकर साध्वी तुलसी परम आनन्दित हुई और अत्यन्त आदर के साथ [ पतिदर्शन की कामना से] खिड़की में से राजमार्ग की ओर देखने लगी ॥ ५ ॥ तत्पश्चात् उसने ब्राह्मणों को धन प्रदान करके मंगलाचार करवाया और बन्दीजनों, भिक्षुकों तथा सूत – मागधों को [ न्यौछावरस्वरूप ] धन दिया ॥ ६ ॥

तदनन्तर भगवान् श्रीहरि रथ से उतरकर देवी तुलसी के सुन्दर, अत्यन्त मनोहर तथा अमूल्य रत्ननिर्मित भवन में गये ॥ ७ ॥ अपने कान्तिमान् पति को समक्ष देखकर वह बहुत प्रसन्न हुई । उसने प्रेमपूर्वक उनका चरण धोया, फिर उन्हें प्रणाम किया और वह रोने लगी ॥ ८ ॥ तत्पश्चात् उस कामिनी तुलसी ने उन्हें अत्यन्त मनोहर रत्नमय सिंहासन पर बैठाया, पुनः उसने कपूर आदि से सुगन्धित ताम्बूल उन्हें प्रदान किया। [इसके बाद तुलसी ने कहा ] आज मेरा जन्म तथा जीवन – ये दोनों सफल हो गये; क्योंकि मैं युद्धभूमि में गये हुए अपने प्राणनाथ को फिर से घर में देख रही हूँ ॥ ९-१० ॥

तत्पश्चात् मुसकानयुक्त, तिरछी दृष्टि से देखती हुई, काममद से विह्वल और पुलकित अंगोंवाली तुलसी अपने प्राणनाथ से मधुर वाणी में युद्धसम्बन्धी समाचार पूछने लगी ॥ ११ ॥

तुलसी बोली — प्रभो ! असंख्य ब्रह्माण्डों का संहार करने वाले शिवजी के साथ हुए युद्ध में आपकी विजय कैसे हुई ? हे कृपानिधे ! इसे मुझे बताइये ॥ १२ ॥

तुलसी का वचन सुनकर शंखचूड़रूपधारी लक्ष्मीकान्त श्रीहरि उस तुलसी से हँसकर अमृतमय वाणी में कहने लगे ॥ १३ ॥

श्रीभगवान् बोले — हे प्रिये ! हम दोनों का युद्ध पूरे एक वर्ष तक होता रहा । हे कामिनि ! उस युद्ध में सभी दानवों का विनाश हो गया । तब स्वयं ब्रह्माजी ने हम दोनों में प्रेम करवा दिया और फिर उनकी आज्ञा से मैंने देवताओं को उनका सम्पूर्ण अधिकार लौटा दिया। इसके बाद मैं अपने घर चला आया और शिवजी अपने लोक को चले गये ॥ १४-१५१/२

हे नारद ! यह कहकर जगन्नाथ रमापति श्रीहरि शय्या पर सो गये और जब उस रमणी के साथ विहार करने लगे, तब उस साध्वी तुलसी ने अपने मन में विचार करके सब कुछ जान लिया और ‘तुम कौन हो ? ‘ – ऐसा वह उनसे पूछने लगी ॥ १६-१७१/२

तुलसी बोली — हे मायेश ! तुम कौन हो, यह मुझे बताओ। तुमने छलपूर्वक मेरा सतीत्व नष्ट किया, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ ॥ १८१/२

हे ब्रह्मन् ! तुलसी का वचन सुनकर भगवान् श्रीहरि ने शाप के भय से लीलापूर्वक अपना मनोहर विष्णुरूप धारण कर लिया ॥ १९१/२

तब देवी तुलसी ने नूतन मेघ के समान श्याम वर्णवाले, शरत्कालीन कमल के समान नेत्रोंवाले, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर प्रतीत होने वाले, रत्नमय आभूषणों से अलंकृत, मन्द मन्द मुसकान से युक्त प्रसन्न मुख-मण्डलवाले, पीताम्बर धारण किये हुए तथा अनुपम शोभासम्पन्न देवाधिदेव सनातन श्रीहरि को अपने समक्ष देखा। उन्हें देखकर कामिनी तुलसी लीलापूर्वक पूर्णतः मूर्च्छित हो गयी और कुछ देर बाद चेतना प्राप्त करके वह उन श्रीहरिसे पुनः कहने लगी ॥ २०–२२१/२

 तुलसी बोली — हे नाथ! आप पाषाणसदृश हो गये हैं, आपमें दया नहीं है। आपने छलपूर्वक मेरा धर्म नष्ट करके मेरे स्वामी को मार डाला । हे प्रभो ! आप पाषाण-हृदयवाले हैं तथा दयाहीन हो गये हैं, अतः हे देव! आप इसी समय लोक में पाषाणरूप हो जायँ। जो लोग आपको साधु कहते हैं, वे भ्रमित हैं; इसमें सन्देह नहीं है। दूसरे का हित साधने के लिये आपने अपने भक्त को क्यों मार डाला ? ॥ २३-२५१/२

[ हे नारद!] इस प्रकार शोक सन्तप्त तुलसी ने बहुत रुदन तथा बार-बार विलाप किया। तदनन्तर करुणारस के सागर कमलापति श्रीहरि तुलसी की कारुणिक अवस्था देखकर नीतियुक्त वचनों से उसे समझाते हुए कहने लगे ॥ २६-२७ ॥

श्रीभगवान् बोले — हे भद्रे ! तुमने भारत में रहकर मेरे लिये बहुत समय तक तपस्या की है, साथ ही इस शंखचूड़ ने भी उस समय तुम्हारे लिये दीर्घ समय तक तपस्या की थी ॥ २८ ॥ तुम्हें पत्नीरूप में प्राप्त करके उसने तपस्या का फल प्राप्त करके तुम्हारे साथ विहार किया है। अब तुम्हें तुम्हारे द्वारा की गयी तपस्या का फल देना उचित है ॥ २९ ॥ हे रामे ! अब तुम इस शरीर को त्यागकर तथा दिव्य देह धारण करके मेरे साथ आनन्द करो और [मेरे लिये ] लक्ष्मी के समान हो जाओ ॥ ३० ॥ तुम्हारा यह शरीर गण्डकी नदी के रूप में प्रसिद्ध होगा। वह पवित्र नदी पुण्यमय भारतवर्ष के मनुष्यों को उत्तम पुण्य देने वाली होगी ॥ ३१ ॥ तुम्हारा केशसमूह पुण्य वृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित होगा। तुम्हारे केश से उत्पन्न वह वृक्ष तुलसी नाम से प्रसिद्ध होगा ॥ ३२ ॥ हे वरानने! देवपूजन में प्रयुक्त होने वाले त्रिलोकी के समस्त पुष्पों तथा पत्रों में तुलसी प्रधानरूप वाली मानी जायगी ॥ ३३ ॥

स्वर्गलोक, मृत्युलोक, पाताल तथा गोलोक इन सभी स्थानों में तुम मेरे सान्निध्य में रहोगी । वृक्षश्रेष्ठ उत्तम तुलसी नाम से तुम पुष्पों के मध्य सदा प्रतिष्ठित रहोगी ॥ ३४ ॥ गोलोक, विरजानदी के तट, रासमण्डल, वृन्दावन, भाण्डीरवन, चम्पकवन, मनोहर चन्दनवन, माधवी, केतकी, कुन्द, मालिका, मालतीवन इन सभी पुण्यमय स्थानों में तुम्हारा पुण्यप्रद वास होगा ॥ ३५-३६ ॥ तुलसीवृक्ष के मूलों के सान्निध्यवाले पुण्यमय स्थानों में समस्त तीर्थों का पुण्यप्रद अधिष्ठान होगा । हे वरानने! तुलसी के पत्र अपने ऊपर पड़ें इस उद्देश्य से वहाँ पर मेरा तथा सभी देवताओं का निवास होगा ॥ ३७-३८ ॥ तुलसी-पत्र के जल से जो व्यक्ति स्नान करता है, उसने मानो सभी तीर्थों में स्नान कर लिया और वह सभी यज्ञों में दीक्षित हो गया ॥ ३९ ॥ हजारों अमृतकलशों से भगवान् श्रीहरि को जो सन्तुष्टि होती है, वह उन्हें तुलसी का एक पत्र अर्पण करने से अवश्य ही मिल जाती है ॥ ४० ॥ जो फल दस हजार गायों का दान करने से होता है, वही फल कार्तिकमास में तुलसी के पत्र के दान से प्राप्त हो जाता है ॥ ४१ ॥ जिस व्यक्ति को मृत्यु के अवसर पर तुलसीपत्र का जल सुलभ हो जाता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णु-लोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ ४२ ॥ जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिपूर्वक तुलसी का जल ग्रहण करता है, वह एक लाख अश्वमेधयज्ञों से होने वाला पुण्य प्राप्त कर लेता है ॥ ४३ ॥

जो मनुष्य हाथ में तुलसी लेकर या शरीर में इसे धारणकर तीर्थों में प्राण त्यागता है, वह विष्णुलोक जाता है ॥ ४४ ॥ जो मनुष्य तुलसी-काष्ठ से निर्मित माला को धारण करता है, वह पद-पद पर अश्वमेधयज्ञ का फल निश्चय ही प्राप्त करता है ॥ ४५ ॥ जो मनुष्य तुलसी को अपने हाथ पर रखकर अपने प्रतिज्ञा-वचन की रक्षा नहीं करता, वह कालसूत्रनरक में पड़ता है और वहाँ पर चन्द्रमा तथा सूर्य की स्थितिपर्यन्त वास करता है ॥ ४६ ॥ जो मनुष्य इस लोक में तुलसी के समीप झूठी प्रतिज्ञा करता है, वह कुम्भीपाकनरक में जाता है और चौदहों इन्द्रों की स्थिति तक वहाँ पड़ा रहता है ॥ ४७ ॥ मृत्यु के समय जिस मनुष्य के मुख में तुलसी-जल का एक कण भी पहुँच जाता है, वह रत्नमय विमान पर आरूढ़ होकर निश्चय ही विष्णुलोक को जाता है ॥ ४८ ॥ पूर्णिमा, अमावास्या, द्वादशी, सूर्य-संक्रान्ति, मध्याह्नकाल, रात्रि, दोनों सन्ध्याएँ, अशौच तथा अपवित्र समयों में, रात के कपड़े पहने हुए तथा शरीर में तेल लगाकर जो लोग तुलसी के पत्र तोड़ते हैं; वे साक्षात् श्रीहरि का मस्तक ही काटते हैं ॥ ४९-५० ॥

श्राद्ध, व्रत, दान, प्रतिष्ठा तथा देवार्चन के लिये तुलसीपत्र बासी होने पर भी तीन रात तक शुद्ध बना रहता है ॥ ५१ ॥ पृथ्वी पर पड़ा हुआ अथवा जल में गिरा हुआ या श्रीविष्णु को चढ़ाया हुआ तुलसीपत्र धो देने पर दूसरे कार्यों के लिये शुद्ध होता है ॥ ५२ ॥ वृक्षों की अधिष्ठात्री देवी बनकर तुम शाश्वत गोलोक में मुझ कृष्ण के साथ सदा विहार करोगी । उसी प्रकार भारतवर्ष में नदियों की जो अत्यन्त पुण्यदायिनी अधिष्ठात्री देवी हैं, उस रूप में भी तुम मेरे ही अंशस्वरूप लवणसमुद्र की पत्नी बनोगी ॥ ५३-५४ ॥ स्वयं महासाध्वी तुम वैकुण्ठलोक में मेरे सन्निकट लक्ष्मी के समान भार्या के रूप में सदा विराजमान रहोगी; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५५ ॥

मैं भी तुम्हारे शाप से पाषाण बनकर भारतवर्ष में गण्डकी नदी के तट के समीप निवास करूँगा । वहाँ रहने वाले करोड़ों कीट अपने तीक्ष्ण दाँतरूपी श्रेष्ठ आयुधों से काट-काटकर उस शिला के गड्ढे में मेरे चक्र का चिह्न बनायेंगे ॥ ५६-५७ ॥ जिसमें एक द्वार का चिह्न होगा, चार चक्र होंगे और जो वनमाला से विभूषित होगा, वह नवीन मेघ के वर्णवाला पाषाण ‘लक्ष्मीनारायण’ नाम से प्रसिद्ध समान होगा ॥ ५८ ॥ जिसमें एक द्वार का चिह्न तथा चार चक्र के चिह्न होंगे, किंतु जो वनमाला की रेखा से रहित होगा, उस नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण-वाले पाषाण को ‘लक्ष्मी-जनार्दन’ नाम वाला समझना चाहिये ॥ ५९ ॥ दो द्वार तथा चार चक्र से युक्त, गाय के खुर से सुशोभित तथा वनमाला से रहित पाषाण को ‘रघुनाथ’ नाम से जानना चाहिये ॥ ६० ॥ जिसमें बहुत सूक्ष्म दो चक्र के चिह्न हों और वनमाला की रेखा न हो, उस नवीन मेघ के सदृश वर्णवाले पाषाण को भगवान् ‘वामन’ नाम से मानना चाहिये ॥ ६१ ॥ जिस पाषाण में अत्यन्त सूक्ष्म आकार के दो चक्र हों तथा जो वनमाला से सुशोभित हो, गृहस्थों को सदा श्री प्रदान करने वाले उस पाषाण को भगवान् ‘श्रीधर’ का ही स्वरूप समझना चाहिये ॥ ६२ ॥ स्पष्ट दो चक्रों से अंकित पाषाण को भगवान् का स्थूल, गोलाकार, वनमाला से रहित तथा अत्यन्त ‘दामोदर’ नाम वाला स्वरूप जानना चाहिये ॥ ६३ ॥

जो मध्यम गोलाई के आकार वाला हो, जिसमें दो चक्र बने हों, जिस पर बाण तथा तरकश का चिह्न अंकित हो और जिसके ऊपर बाण से कट जाने का चिह्न हो, उस पाषाण को रण में शोभा पाने वाले भगवान् ‘राम’ का विग्रह समझना चाहिये ॥ ६४ ॥ मध्यम आकार वाले, सात चक्रों के चिह्नों से अंकित, छत्र तथा आभूषण से अलंकृत पाषाण को भगवान् ‘राजराजेश्वर’ समझना चाहिये । वह पाषाण मनुष्यों को विपुल राजसम्पदा प्रदान करने वाला है ॥ ६५ ॥ जो पाषाण स्थूल हो, चौदह चक्रों से सुशोभित तथा नवीन मेघसदृश प्रभावाला हो; उस धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों प्रकार के फल प्रदान करनेवाले पाषाण को भगवान् ‘अनन्त’ का स्वरूप जानना चाहिये ॥ ६६ ॥ जो चक्र आकारवाला हो; जिसमें दो चक्र, श्री और गोखुर के चिह्न सुशोभित हों, ऐसे मध्यम तथा नवीन मेघ के समान वर्ण वाले पाषाण को भगवान् ‘मधुसूदन’ का विग्रह समझना चाहिये ॥ ६७ ॥ सुन्दर दर्शनवाले तथा केवल एक गुप्त चक्र से युक्त पाषाण को भगवान् ‘गदाधर’ तथा दो चक्र से युक्त एवं अश्व के मुख की आकृति वाले पाषाण को भगवान् ‘ हयग्रीव’ का विग्रह कहा गया है ॥ ६८ ॥

जो अत्यन्त विस्तृत मुख वाला हो, दो चक्र के चिह्नों से सुशोभित हो, जो देखने में बड़ा विकट लगता हो, मनुष्यों को शीघ्र वैराग्य प्रदान करने वाले ऐसे पाषाण को भगवान् ‘नरसिंह’ का स्वरूप समझना चाहिये ॥ ६९ ॥ जिसमें दो चक्र हों, जो विस्तृत मुखवाला हो तथा वनमाला से सुशोभित हो, गृहस्थों को सुख प्रदान करने वाले ऐसे पाषाण को ‘लक्ष्मीनृसिंह’ का स्वरूप समझना चाहिये ॥ ७० ॥ जिसके द्वारदेश में दो चक्र तथा ‘श्री’ का चिह्न स्पष्ट रूप से अंकित हो, समस्त कामनाओं का फल प्रदान करने वाले उस पाषाण को भगवान् ‘वासुदेव’ का विग्रह जानना चाहिये ॥ ७१ ॥ जो सूक्ष्म चक्र चिह्न से युक्त हो, नवीन मेघ के समान श्यामवर्ण का हो और जिसके मुख पर बहुत से छोटे-छोटे छिद्र विद्यमान हों, गृहस्थों को सुख प्रदान करने वाले उस पाषाण को ‘प्रद्युम्न’ का स्वरूप जानना चाहिये ॥ ७२ ॥ जिसमें परस्पर सटे हुए दो चक्रों के चिह्न विद्यमान हों तथा जिसका पृष्ठभाग विशाल हो, गृहस्थों को निरन्तर सुख प्रदान करने वाले उस पाषाण को भगवान् ‘संकर्षण’ का ही रूप समझना चाहिये ॥ ७३ ॥ जो अत्यन्त सुन्दर, गोलाकार तथा पीत आभावाला हो, गृहस्थों को सुख प्रदान करने वाले उस पाषाण को विद्वान् पुरुष भगवान् ‘अनिरुद्ध’ का स्वरूप कहते हैं ॥ ७४ ॥ जहाँ शालग्राम की शिला रहती है, वहाँ भगवान् श्रीहरि विराजमान रहते हैं और वहींपर भगवती लक्ष्मी भी सभी तीर्थों को साथ लेकर सदा निवास करती हैं ॥ ७५ ॥ ब्रह्महत्या आदि जो भी पाप हैं, वे सब शालग्राम की शिला पूजन से नष्ट हो जाते हैं ॥ ७६ ॥

छत्राकार शालग्राम के पूजन से राज्य, गोलाकार शालग्राम के पूजन से महालक्ष्मी, शकट के आकार वाले शालग्राम के पूजन से कष्ट तथा शूल के समान अग्रभाग वाले शालग्राम के पूजन से निश्चितरूप से मृत्यु होती है ॥ ७७ ॥ विकृत मुखवाले शालग्राम से दरिद्रता, पिंगलवर्ण- वाले से हानि, खण्डित चक्रवाले से व्याधि तथा विदीर्ण शालग्राम से निश्चय ही मरण होता है ॥ ७८ ॥ व्रत, स्नान, प्रतिष्ठा, श्राद्ध तथा देवपूजन आदि जो भी कर्म शालग्राम की सन्निधि में किया जाता है, वह प्रशस्त माना जाता है और वह कर्ता मानो सभी तीर्थों में स्नान कर चुका और सभी यज्ञों में दीक्षित हो गया। इस प्रकार उसे सम्पूर्ण यज्ञों, तीर्थों, व्रतों और तपस्याओं का फल मिल जाता है ॥ ७९-८० ॥ चारों वेदों के पढ़ने तथा तपस्या करने से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य शालग्राम की शिला के पूजन से निश्चितरूप से सुलभ हो जाता है ॥ ८१ ॥ (जो मनुष्य शालग्रामशिला के जल से नित्य अभिषेक करता है, वह सभी दान करने तथा पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने से जो पुण्य होता है, उसे प्राप्त कर लेता है ।) जो मनुष्य शालग्राम शिला के जल का नित्य पान करता है, वह देवाभिलषित प्रसाद प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है । समस्त तीर्थ उसका स्पर्श करना चाहते हैं। वह जीवन्मुक्त तथा परम पवित्र मनुष्य अन्त में भगवान् श्रीहरि के लोक चला जाता है। वहाँ पर वह भगवान् श्रीहरि के साथ असंख्य प्राकृत प्रलयपर्यन्त रहता है। वह वहाँ भगवान ्‌का दास्यभाव प्राप्त कर लेता है और उनके सेवाकार्य में नियुक्त हो जाता है ॥ ८२–८४ ॥

ब्रह्महत्यासदृश जो कोई भी पाप हों, वे भी उस व्यक्ति को देखते ही उसी प्रकार भाग जाते हैं, जैसे गरुड़ को देखकर सर्प ॥ ८५ ॥ उस मनुष्य के चरण की रज से पृथ्वीदेवी तुरन्त पवित्र हो जाती हैं और उसके जन्म से उसके लाखों पितरों का उद्धार हो जाता है ॥ ८६ ॥ जो मनुष्य मृत्यु के समय शालग्रामशिला के जल का पान कर लेता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक को चला जाता है । इस प्रकार वह सभी कर्मभोगों से मुक्त होकर निर्वाणमुक्ति प्राप्त कर लेता है और भगवान् विष्णु के चरणों में लीन हो जाता है; इसमें संशय नहीं है ॥ ८७-८८ ॥ शालग्रामशिला को हाथ में लेकर जो मनुष्य मिथ्या वचन बोलता है, वह कुम्भीपाकनरक में जाता है और ब्रह्मा की आयुपर्यन्त वहाँ निवास करता है ॥ ८९ ॥ जो शालग्रामशिला को हाथ में लेकर अपने द्वारा की गयी प्रतिज्ञा का पालन नहीं करता, वह असिपत्र नामक नरक में जाता है और वहाँ एक लाख मन्वन्तर की अवधि तक रहता है ॥ ९० ॥

हे कान्ते ! जो मनुष्य शालग्रामशिला से तुलसीपत्र को हटा देता है, वह दूसरे जन्म में स्त्री से वियुक्त हो जाता है । उसी प्रकार जो पुरुष शंख से तुलसीपत्र को अलग करता है, वह भी सात जन्मों तक भार्याविहीन तथा रोगयुक्त रहता है ॥ ९१-९२ ॥ जो महाज्ञानी व्यक्ति शालग्राम, तुलसी और शंख को एकत्र रखता है, वह भगवान् श्रीहरि के लिये अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ९३ ॥ जो पुरुष एक बार भी जिस किसी स्त्री के साथ एकान्तवास कर लेता है, वियोग होने पर उसका दुःख उन दोनों को परस्पर होता है । तुम एक मन्वन्तर की अवधि तक शंखचूड़ की भार्या रह चुकी हो, अतः उसके साथ तुम्हारा वियोग कष्टदायक तो होगा ही ॥ ९४-९५ ॥

हे नारद! उस तुलसी से ऐसा कहकर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये । तुलसी अपना वह शरीर त्यागकर और दिव्य रूप धारण करके श्रीहरि के वक्ष:स्थल पर लक्ष्मी की भाँति सुशोभित होने लगी । इसके बाद वे लक्ष्मीपति श्रीहरि उसके साथ वैकुण्ठलोक चले गये ॥ ९६-९७ ॥ हे नारद! इस प्रकार लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी — ये चारों देवियाँ भगवान् श्रीहरि की पत्नियाँ हुईं ॥ ९८ ॥ उसी समय तुरन्त तुलसी के शरीर से गण्डकीनदी उत्पन्न हुई और भगवान् श्रीहरि उसी के तट पर मनुष्यों के लिये पुण्यप्रद शालग्राम बन गये ॥ ९९ ॥ हे मुने! वहाँ रहनेवाले कीट शिला को काट- काटकर उन्हें अनेक प्रकार के रूपों वाला बना देते हैं । जो-जो शिलाएँ जल में गिरती हैं, वे निश्चितरूप से उत्तम फल देने वाली होती हैं । जो शिलाएँ धरती पर गिरी रहती हैं, वे सूर्य के ताप के कारण पीली पड़ जाती हैं, उन्हें पिंगला शिला समझना चाहिये । इस प्रकार मैंने सारा प्रसंग कह दिया, अब पुनः क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ १००-१०१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद- संवाद में तुलसी माहात्म्य के साथ शालग्राम के माहात्म्य का वर्णन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

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