April 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीय: स्कन्धः-अध्याय-02 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-द्वितीय: स्कन्धः-द्वितीयोऽध्यायः दूसरा अध्याय व्यासजी की उत्पत्ति और उनका तपस्या के लिये जाना व्यासजन्मवर्णनम् सूतजी बोले — एक बार तीर्थयात्रा करते हुए महान् तेजस्वी पराशरमुनि यमुनानदी के उत्तम तट पर आये और उन धर्मात्मा ने भोजन करते हुए निषाद से कहा — मुझको नाव से यमुना के पार पहुँचा दो ॥ १-२ ॥ मुनि का वचन सुनकर यमुना के तट पर भोजन करते हुए उस निषाद ने अपनी सुन्दर युवा पुत्री मत्स्यगन्धा से कहा — ‘हे सुन्दर मुसकानवाली पुत्रि! तुम इन मुनि को नाव में बैठाकर पार उतार दो; क्योंकि ये धर्मात्मा तपस्वी उस पार जाने के इच्छुक हैं ॥ ३-४ ॥ पिता के ऐसा कहने पर वह सुन्दर वासवी मत्स्यगन्धा मुनि को नाव में बैठाकर खेने लगी। यमुनानदी के जल पर नाव से चलते समय दैवयोग से प्रारब्धानुसार मुनि पराशर उस सुन्दर नेत्रोंवाली कन्या को देखकर आसक्त हो गये ॥ ५-६ ॥ प्रस्फुटित यौवन वाली उस कन्या को देखकर उसे प्राप्त करने की इच्छावाले मुनिराज ने अपनी दाहिनी भुजा से उसकी दाहिनी भुजा का स्पर्श किया ॥ ७ ॥ इस पर उस असितापांगी ने मुसकराकर कहा — क्या आपका यह कृत्य आपके कुल, तपस्या तथा वेदज्ञान के अनुरूप है? हे धर्मज्ञ! आप वसिष्ठजी के वंशज हैं और कुल तथा शील से युक्त हैं फिर भी कामदेव से पीड़ित होकर आप क्या करना चाहते हैं ? ॥ ८-९ ॥ हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! इस पृथ्वी पर मनुष्य जन्म दुर्लभ है। उसमें भी ब्राह्मणकुल में जन्म लेना तो मैं विशेषरूप से दुर्लभ मानती हूँ ॥ १० ॥ हे विप्रेन्द्र! आप कुल से, शील से तथा वेदाध्ययन से एक धर्मपरायण श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं ? मुझ मत्स्यगन्धा को देखकर आप अनाचारयुक्त विचार वाले कैसे हो गये ? हे अमोघ बुद्धि वाले ब्राह्मण! मेरे शरीर में स्थित किस विशेषता को देखकर आप मेरा हाथ पकड्ने के लिये कामासक्त होकर मेरी ओर चले आ रहे हैं? क्या आपको अपने धर्मका ज्ञान नहीं है ? ॥ ११-१२ ॥ अहो, ये मन्दबुद्धि ब्राह्मण इस जल में मुझे पकड़ने को आतुर हो रहे हैं। मेरा स्पर्श करके कामबाण से आहत इनका मन व्याकुल हो उठा है। इस समय कोई भी इन्हें रोकने में समर्थ नहीं है ॥ १३ ॥ ऐसा सोचकर उस निषादकन्या ने महामुनि पराशर से कहा — हे महाभाग! आप धैर्य धारण करें; मैं अभी आपको उस पार ले चलती हूँ ॥ १४ ॥ सूतजी बोले — मुनि पराशर उसका हितकारी वचन सुनकर उसका हाथ छोड़ करके वहीं स्थित हो गये और उस पार पहुँच गये ॥ १५ ॥ तदनन्तर पराशरमुनि ने मत्स्यगन्धा को पकड़ लिया। तब भय से काँपती हुई वह कन्या सम्मुख स्थित मुनि से कहने लगी — हे मुनिवर! मैं दुर्गन्धवाली हूँ, मुझसे क्या आपको घृणा नहीं हो रही है ? समान रूपवालों के बीच ही परस्पर सम्बन्ध आनन्ददायक होता है ॥ १६-१७ ॥ मत्स्यगन्धा के ऐसा कहते ही पराशरमुनि ने क्षण- मात्र में अपने तपोबल से उस भामिनी कन्या को सुमुखी, रूपवती तथा योजनगन्धा बना दिया ॥ १८ ॥ उसे कस्तूरी की सुगन्धि वाली मनोहर स्त्री बनाकर कामातुर मुनिराज ने अपने दाहिने हाथ से उसे पकड़ लिया। तब सत्यवती नाम वाली उस सुन्दरी ने संयोग की कामना वाले मुनि से कहा — हे मुने ! तट पर स्थित मेरे पिता तथा सभी लोग यहाँ हमें देख रहे हैं ॥ १९-२० ॥ हे मुनिश्रेष्ठ! यह भीषण पशुवत् व्यवहार मुझे अच्छा नहीं लगता। जब तक रात नहीं हो जाती, तब तक प्रतीक्षा कीजिये ॥ २१ ॥ मनुष्य के लिये कामसंसर्ग रात में ही विहित है, दिन में नहीं । दिन में संसर्ग करने से महान् दोष होता है और बहुत-से लोग उसे देख भी लेते हैं ॥ २२ ॥ हे महाबुद्धे! अब आपकी जैसी इच्छा हो वैसा करें, लोकनिन्दा अत्यन्त कष्टकर होती है। सत्यवती का कहा गया युक्तिसंगत वचन सुनकर उदार बुद्धिवाले पराशरमुनि ने अपने पुण्यबल से तत्क्षण कुहरा उत्पन्न कर दिया। उस कुहरे के उत्पन्न हो जाने पर अत्यन्त अन्धकारमय नदी तट पर उस कामिनी ने पराशरमुनि से मधुर वाणी में यह वचन कहा — हे द्विजश्रेष्ठ! मैं अभी कन्या हूँ और आप मेरे साथ संसर्ग करके चले जायँगे। हे ब्रह्मन्! आप अमोघ वीर्यवाले हैं, ऐसी स्थिति में मेरी क्या गति होगी ? यदि मैं गर्भधारण कर लूँगी तो पिता को क्या उत्तर दूँगी ? हे ब्रह्मन्! मेरे साथ संसर्ग करके आप चले जायँगे तब मैं क्या करूँगी, उसे बताइये ?॥ २३-२६१/२ ॥ पराशर बोले — हे प्रिये! आज मुझे प्रसन्न करके भी तुम कन्या ही बनी रहोगी। हे भामिनि! हे भीरु! तुम जो वर चाहती हो, उसे माँग लो ॥ २७१/२ ॥ सत्यवती बोली — हे मानद! आप ऐसा वरदान दीजिये, जिससे मेरे माता-पिता लोक में इसे न जान सकें । साथ ही हे विप्रवर! आप ऐसा करें, जिससे मेरा कन्याव्रत नष्ट न हो और जो पुत्र उत्पन्न हो, वह आप ही के समान अपूर्व ओजस्वी हो, मेरी यह सुगन्ध सदा बनी रहे और मेरा यौवन नित नूतन बना रहे ॥ २८-२९१/२ ॥ पराशर बोले — हे सुन्दरि! सुनो, तुम्हारा पुत्र पवित्र तथा भगवान् विष्णु के अंश से अवतीर्ण होगा। हे सुन्दरि! वह तीनों लोकों में विख्यात होगा। मैं तुम्हारे ऊपर किसी कारण विशेष से ही कामासक्त हुआ हूँ। हे सुमुखि! मुझे ऐसा मोह पूर्व में कभी नहीं हुआ। अप्सराओं के रूप को देखकर भी मैं सदा धैर्य धारण किये रहा। दैवयोग से ही तुम्हें देखकर मैं इस प्रकार काम के वशीभूत हुआ हूँ। इस विषय में तुम कोई विशेष कारण ही समझो, दैव का अतिक्रमण अत्यन्त कठिन है, अन्यथा अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त तुम्हें देखकर में इस प्रकार क्यों मोहित होता! हे वरानने! तुम्हारा पुत्र पुराणों का रचयिता, वेदों का विभाग करने वाला तथा तीनों लोकों में विख्यात होगा ॥ ३०-३४१/२ ॥ सूतजी बोले — ऐसा कहकर अपने वश में आयी हुई उस कन्या के साथ संसर्ग करके मुनिश्रेष्ठ पराशर तत्काल यमुनानदी में स्नानकर वहाँ से शीघ्र चले गये। वह साध्वी सत्यवती भी तत्काल गर्भवती हो गयी ॥ ३५-३६ ॥ [यथासमय] सत्यवती ने यमुनाजी के द्वीप में दूसरे कामदेव के तुल्य एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। उत्पन्न होते ही उस तेजवान् पुत्र ने अपनी माता से कहा — हे माता! मन में तपस्या का निश्चय करके ही अत्यन्त तेजस्वी मैं गर्भ में प्रविष्ट हुआ था। हे महाभागे! अब आप अपनी इच्छानुसार कहीं भी चली जायँ और मैं भी यहाँ से तप करने के लिये जा रहा हूँ। हे माता! आपके स्मरण करने पर मैं अवश्य ही दर्शन दूँगा। हे माता! जब कोई उत्तम कार्य आ पड़े तब आप मेरा स्मरण कीजियेगा, मैं शीघ्र ही उपस्थित हो जाऊँगा। हे भामिनि! आपका कल्याण हो, अब मैं चलूँगा। आप चिन्ता छोड़कर सुखपूर्वक रहिये ॥ ३७-४० ॥ ऐसा कहकर व्यासजी चले गये और वह सत्यवती भी अपने पिता के पास चली गयी। सत्यवती ने बालक को यमुनाद्वीप में जन्म दिया था। अतः वह बालक ‘द्वैपायन’ नाम से विख्यात हुआ ॥ ४१ ॥ भगवान् विष्णु के अंशावतार होने के कारण वह बालक उत्पन्न होते ही शीघ्र बड़ा हो गया तथा अनेक तीर्थों में स्नान करता हुआ उत्तम तप करने लगा ॥ ४२ ॥ इस प्रकार पराशरमुनि के द्वारा सत्यवती के गर्भ से द्वैपायन उत्पन्न हुए और उन्होंने ही कलियुग को आया जानकर वेदों को अनेक शाखाओं में विभक्त किया, वेदों का विस्तार करने के कारण ही उन मुनि का नाम ‘व्यास’ पड़ गया। उन्होंने ही विभिन्न पुराणसंहिताओं तथा श्रेष्ठ महाभारत को रचना की। उन्होंने ही वेदों के अनेक विभाग करके उसे अपने शिष्यों-सुमन्तु, जैमिनि, पैल, वैशम्पायन, असित, देवल और अपने पुत्र शुकदेवजी को पढ़ाया ॥ ४३-४५१/२ ॥ सूतजी बोले — हे श्रेष्ठ मुनियो! मैने यह सब उत्पत्ति का कारण आप लोगों से बता दिया, साथ ही सत्यवती के पुत्र व्यासजी की पवित्र उत्पत्ति का वर्णन कर दिया है। हे श्रेष्ठ मुनिगण! व्यासजी की इस उत्पत्ति के विषय में आप लोगों को सन्देह नहीं करना चाहिये । महापुरुषों के चरित से केवल गुण ही ग्रहण करना चाहिये। किसी विशेष कारण से ही मुनि व्यास का तथा मछली के उदर से सत्यवती का जन्म, पराशरमुनि के साथ उनका संयोग और फिर राजा शन्तनु के साथ उनका विवाह हुआ। अन्यथा मुनि पराशर का चित्त कामासक्त ही क्यों होता? और धर्म के ज्ञाता वे महामुनि पराशर अनार्य लोगों द्वारा आचरित किया जाने वाला ऐसा कृत्य क्यों करते! किसी विशेष कारण से युक्त तथा आश्चर्यकारिणी यह उत्पत्ति मैंने बता दी, जिसे सुनकर मनुष्य निश्चित रूप से पाप से मुक्त हो जाता है। जो श्रुतिपरायण मनुष्य इस शुभ आख्यान को सुनता है; वह दुर्गति को प्राप्त नहीं होता है तथा सर्वदा सुखी रहता है ॥ ४६-५२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘व्यासजन्मवर्णन’ नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ Content is available only for registered users. 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