April 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-03 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय राजा शन्तनु, गंगा और भीष्म के पूर्वजन्म की कथा प्रतीयसकाशाच्छन्तनुजन्मवर्णनम् ऋषिगण बोले — हे सूतजी! हे अनघ! यद्यपि आपने परम तेजस्वी व्यास तथा सत्यवती के जन्म की कथा विस्तारपूर्वक कही तथापि हम लोगों के चित्त में एक बड़ी भारी शंका बनी हुई है । हे धर्मज्ञ! हे अनघ! वह शंका आपके कहने पर भी दूर नहीं हो रही है ॥ १-२ ॥ व्यासजी को कल्याणमयी माता जो सत्यवती नाम से जानी जाती थीं, वे धर्मात्मा राजा शन्तनु को कैसे प्राप्त हुई? कुल तथा आचरण से हीन उस निषादकन्या का पुरुकुल में उत्पन्न उन धर्मात्मा राजा ने स्वयं कैसे वरण कर लिया ?॥ ३-४ ॥ आप कृपा करके हम लोगों को यह भी बतलाइये कि राजा शन्तनु की पहली पत्नी कौन थी? वसु के अंश से उत्पन्न मेधावी भीष्म उनके पुत्र कैसे हुए ?॥ ५ ॥ हे सूतजी! आप यह पहले ही कह चुके हैं कि सत्यवती के वीर पुत्र चित्रांगद को अमित तेज वाले भीष्म ने राजा बनाया था और वीर चित्रांगद के मारे जाने पर उसके अनुज तथा सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य को उन्होंने राजा बनाया ॥ ६-७ ॥ रूप-सम्पन्न तथा ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा भीष्म के रहते हुए विचित्रवीर्य ने राज्य कैसे किया और सब कुछ जानते हुए भी भीष्म ने उन्हें राज्य पर कैसे स्थापित किया ?॥ ८ ॥ विचित्रवीर्य के मरने पर अत्यन्त दुःखित माता सत्यवती ने अपनी दोनों पुत्रवधुओं से दो गोलक पुत्र ( विधवा का जारज पुत्र )कैसे उत्पन्न कराये ?॥ ९ ॥ उन सुन्दरी सत्यवती ने उस समय ज्येष्ठ पुत्र भीष्म को राजा क्यों नहीं बनाया और उन पराक्रमी भीष्म ने अपना विवाह क्यों नहीं किया ?॥ १० ॥ अमित तेजस्वी बड़े भाई व्यासजी ने ऐसा अधर्म क्यों किया जो कि उन्होंने नियोग द्वारा दो पुत्र उत्पन्न किये ?॥ ११ ॥ पुराणों के रचयिता व्यासमुनि ने धर्मज्ञ होते हुए भी ऐसा कार्य क्यों किया; हे सूतजी ! क्या यही वेदों से अनुमोदित शिष्टाचार है ?॥ १२-१३ ॥ हे मेधाविन्! आप व्यासजी के शिष्य हैं, इसलिये आप हमारी इन सभी शंकाओं का समाधान करने में समर्थ हैं। हम सभी इस धर्मक्षेत्र में इन प्रश्नों के उत्तर सुनने को उत्सुक हो रहे हैं ॥ १४ ॥ सूतजी बोले — [हे मुनियो!] इक्ष्वाकु कुल में महाभिष नाम के एक सत्यवादी, धर्मात्मा और चक्रवर्ती राजा उत्पन्न हुए — ऐसा कहा जाता है ॥ १५ ॥ उन बुद्धिमान् राजा ने हजारों अश्वमेध तथा सैकड़ों वाजपेय यज्ञ करके इन्द्र को सन्तुष्ट किया और स्वर्ग प्राप्त किया था ॥ १६ ॥ एक बार राजा महाभिष ब्रह्मलोक गये। वहाँ प्रजापति की सेवा के लिये सभी देवता आये हुए थे। उस समय देवनदी गंगाजी भी ब्रह्माजी की सेवामें उपस्थित थीं। उस समय तीव्रगामी पवन ने उनका वस्त्र उड़ा दिया। सभी देवता अपना सिर नीचा किये उन्हे बिना देखे खड़े रहे, किंतु राजा महाभिष निःशंक भाव से उनकी ओर देखते रह गये ॥ १७-१९ ॥ उन गंगानदी ने भी राजा को अपने पर प्रेमासक्त जाना। उन दोनों को इस प्रकार मुग्ध देखकर ब्रह्माजी क्रोधित हो गये और कोपाविष्ट होकर शीघ्र ही उन दोनों को शाप दे दिया — हे राजन् ! मनुष्य लोक में तुम्हारा जन्म होगा। वहाँ जब तुम अधिक पुण्य एकत्र कर लोगे, तब पुनः स्वर्गलोक में आओगे। गंगा को महाभिष राजा पर प्रेमासक्त जानकर ब्रह्माजी ने उन्हें [गंगा को] भी उसी प्रकार शाप दे दिया ॥ २०-२२ ॥ इस प्रकार वे दोनों दुःखी मन से ब्रह्माजी के पास से शीघ्र ही चले गये। राजा अपने मन में सोचने लगे कि इस मृत्युलोक में कौन ऐसे राजा हैं, जो धर्मपरायण हैं। ऐसा विचारकर उन्होंने पुरुवंशीय महाराज ‘प्रतीप’ को ही पिता बनाने का निश्चय कर लिया। इसी बीच आठौं वसु अपनी-अपनी स्त्री के साथ विहार करते हुए स्वेच्छया महर्षि वसिष्ठ के आश्रम पर आ पहुँचे। उन पृथु आदि वसुओं में ‘द्यौ’ नामक एक श्रेष्ठ वसु थे। उनकी पत्नी ने ‘ नन्दिनी’ गौ को देखकर अपने पति से पूछा कि यह सुन्दर गाय किसकी है ?॥ २३-२६ ॥ द्यौ ने उससे कहा — हे सुन्दरि! सुनो, यह महर्षि वसिष्ठजी की गाय है। इस गाय का दूध स्त्री या पुरुष जो कोई भी पीता है, उसकी आयु दस हजार वर्ष की हो जाती है और उसका यौवन सर्वदा बना रहता है। यह सुनकर उस सुन्दरी स्त्री ने कहा — मृत्युलोक में मेरी एक सखी है। मेरी वह सखी राजर्षि उशीनर की परम सुन्दरी कन्या है। हे महाभाग! उसके लिये अत्यन्त सुन्दर तथा सब प्रकार की कामनाओं को देने वाली इस गाय को बछड़े-सहित अपने आश्रम में ले चलिये। जब मेरी सखी इसका दूध पीयेगी तब वह निर्जरा एवं रोगरहित होकर मनुष्यों में एकमात्र अद्वितीय बन जायगी। उसका वचन सुनकर द्यौ नाम के वसु ने ‘ पृथु’ आदि अष्टवसुओं के साथ जितेन्द्रिय मुनि का अपमान करके नन्दिनी का अपहरण कर लिया ॥ २७-३११/२ ॥ नन्दिनी का हरण हो जाने पर महातपस्वी वसिष्ठ फल लेकर शीघ्र ही अपने आश्रम आ गये। जब मुनि ने अपने आश्रम में बछड़ेसहित नन्दिनी गाय को नहीं देखा तब वे तेजस्वी वनों एवं गुफाओं में उसे ढूँढने लगे, जब वह गाय नहीं मिली तब वरुणपुत्र मुनि वसिष्ठजी ध्यानयोग से उसे वसुओं के द्वारा हरी गयी जानकर अत्यन्त कुपित हुए । वसुओं ने मेरी अवमानना करके मेरी गौ चुरा ली है। वे सभी मानवयोनि में जन्म ग्रहण करेंगे, इसमें सन्देह नहीं है। इस प्रकार धर्मात्मा वसिष्ठजी ने उन वसुओं को शाप दिया ॥ ३२-३६ ॥ यह सुनकर वे सभी वसु खिन्नमनस्क और दुःखित हो गये और वहाँ से चल दिये। हमें शाप दे दिया गया है — यह जानकर वे ऋषि वसिष्ठ के पास पहुँचे और उन्हें प्रसन्न करते हुए वे सभी वसु उनके शरणागत हो गये । तब धर्मात्मा मुनि वसिष्ठजी ने उन सामने खड़े वसुओं को देखकर कहा — तुम लोगों में से [सात वसु] एक-एक वर्ष के अन्तराल से ही शाप से मुक्त हो जायेगे; परंतु जिसने मेरी प्रिय सवत्सा नन्दिनी का अपहरण किया है, वह ‘द्यौ’ नामक वसु मनुष्य-शरी रमें ही बहुत दिनों तक रहेगा ॥ ३७-३९१/२ ॥ उन अभिशप्त वसुओं ने मार्ग में जाती हुई नदियों में उत्तम गंगाजी को देखकर उन अभिशप्त तथा चिन्तातुर गंगाजी से प्रणामपूर्वक कहा — हे देवि! अमृत पीने वाले हम देवता मानव कुक्षि से कैसे उत्पन्न होंगे, यह हमें महान् चिन्ता है, अतः हे नदियों में श्रेष्ठ! आप ही मानुषी बनकर हम लोगों को जन्म दें। पृथ्वी पर शन्तनु नामक एक राजर्षि हैं, हे अनघे! आप उन्हीं की भार्या बन जायँ और हे सुरापगे! हमें क्रमशः जन्म लेने पर आप जल में छोड़ती जायँ। आपके ऐसा करने से हम लोग भी शाप से मुक्त हो जायँगे, इसमें सन्देह नहीं है । गंगाजी ने जब उनसे ‘तथास्तु’ कह दिया तब वे सब वसु अपने-अपने लोक को चले गये और गंगाजी भी बार-बार विचार करती हुई वहाँ से चली गयीं ॥ ४०-४४१/२ ॥ उस समय राजा महाभिष ने राजा प्रतीप के पुत्र के रूप में जन्म लिया। उन्हीं का नाम शन्तनु पड़ा, जो सत्यप्रतिज्ञ एवं धर्मात्मा राजर्षि हुए। महाराज प्रतीप ने परम तेजस्वी भगवान् सूर्य की आराधना की। उस समय जल में से एक परम सुन्दर स्त्री निकल पड़ी और वह सुमुखी आकर तुरंत ही महाराज के शाल वृक्ष के समान विशाल दाहिने जंघे पर विराजमान हो गयी। अंक में बैठी हुई उस स्त्री से राजा ने पूछा — ‘हे वरानने! तुम मुझसे बिना पूछे ही मेरे शुभ दाहिने जंघे पर क्यों बैठ गयी ?’ ॥ ४५-४८ ॥ उस सुन्दरीने उनसे कहा — ‘हे नृपश्रेष्ठ! हे कुरुश्रेष्ठ ! मैं जिस कामना से आपके अंक में बैठी हूँ, उस कामना वाली मुझे आप स्वीकार करें’ ॥ ४९ ॥ उस रूप-यौवन सम्पन्ना सुन्दरी से राजा ने कहा — “मैं किसी सुन्दरी परस्त्री को काम की इच्छा से नहीं स्वीकार करता’ ॥ ५० ॥ हे भामिनि! हे शुचिस्मिते! तुम मेरे दाहिने जंघे पर प्रेमपूर्वक आकर बैठ गयी हो, उसे तुम पुत्रों तथा पुत्रवधुओं का स्थान समझो । अतः हे कल्याणि! मेरे मनोवांछित पुत्र के उत्पन्न होने पर तुम मेरी पुत्रवधू हो जाओ। तुम्हारे पुण्य से मुझे पुत्र हो जायगा, इसमें संशय नहीँ है ॥ ५१-५२ ॥ वह दिव्य दर्शनवाली कामिनी ‘तथास्तु’ कहकर चली गयी और उस स्त्री के विषय में सोचते हुए राजा प्रतीप भी अपने घर चले गये ॥ ५३ ॥ समय बीतने पर पुत्र के युवा होने पर वन जाने की इच्छा वाले राजा ने अपने पुत्र को वह समस्त पूर्व वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ५४ ॥ सारी बात बताकर राजा ने अपने पुत्र से कहा — “यदि वह सुन्दरी बाला तुम्हें कभी वन में मिले और अपनी अभिलाषा प्रकट करे तो उस मनोरमा को स्वीकार कर लेना तथा उससे मत पूछना कि तुम कौन हो ? यह मेरी आज्ञा है, उसे अपनी धर्मपत्नी बनाकर तुम सुखी रहोगे’ ॥ ५५-५६१/२ ॥ सूतजी बोले — इस प्रकार अपने पुत्र को आदेश देकर महाराज प्रतीप प्रसन्नता के साथ उन्हें सारा राज्य-वैभव सौंपकर वन को चले गये। वहाँ जाकर वे तप करके तथा आदिशक्ति भगवती जगदम्बिका की आराधना करके अपने तेज से शरीर छोड़कर स्वर्ग चले गये। महातेजस्वी राजा शन्तनु ने सार्वभौम राज्य प्राप्त किया और वे धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे ॥ ५७-६० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का प्रतीपसकाशाच्छन्तनुजन्मवर्णनं नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ Content is available only for registered users. 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