श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-04
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-चतुर्थोऽध्यायः
चौथा अध्याय
गङ्गाजी द्वारा राजा शन्तनु का पति रुप में वरण, सात पुत्रों का जन्म तथा गङ्गा का उन्हे अपने जल में प्रवाहित करना, आठवें पुत्र के रुप में भीष्म का जन्म तथा उनकी शिक्षा-दीक्षा
देवव्रतोत्पतिवर्णनम्

सूतजी बोले — प्रतीप के स्वर्ग चले जाने पर सत्यपराक्रमी राजा शन्तनु व्याघ्र तथा मृगों को मारते हुए मृगया में तत्पर हो गये ॥ १ ॥ किसी समय गङ्गा के किनारे घने वन में विचरण करते हुए राजा ने मृग के बच्चे-जैसी आँखों वाली तथा सुन्दर आभूषणों से युक्त एक सुन्दर स्त्री को देखा ॥ २ ॥ उसे देखकर राजा शन्तनु हर्षित हो गये और सोचने लगे कि साक्षात्‌ दूसरी लक्ष्मी के समान रूप-यौवन से सम्पन्न यह स्त्री वही है, जिसके विषय में पिताजी ने मुझे बताया था ॥ ३ ॥ उसके मुखकमल का पान करते हुए राजा तृप्त नहीं हुए। हर्षातिरेक से उन निष्पाप राजा को रोमांच हो गया और उनका चित्त उस स्त्री में रम गया ॥ ४ ॥ वह स्त्री भी उन्हें राजा महाभिष जानकर प्रेमासक्त हो गयी । वह मन्द-मन्द मुसकराती हुई राजा के सामने खड़ी हो गयी। उस सुन्दरी को देखकर राजा अत्यन्त प्रेमविवश हो गये तथा कोमल वाणी से उसे सान्त्वना देते हुए मधुर वचन कहने लगे — ॥ ५-६ ॥

हे वामोरु! हे सुमुखि! तुम कोई देवी, मानुषी, गन्धर्वी, यक्षी, नागकन्या अथवा अप्सरा तो नहीं हो। हे वरारोहे! तुम जो कोई भी हो, मेरी भार्या बन जाओ। हे सुन्दरि! तुम प्रेमपूर्वक मुसकरा रही हो; अब मेरी धर्मपत्नी बन जाओ ॥ ७-८ ॥

सूतजी बोले — राजा शन्तनु तो निश्‍चित रूप से नहीं जान सके कि ये वे ही गङ्गा हैं, किंतु गङ्गा ने उन्हें पहचान लिया कि ये शन्तनु के रूप में उत्पन्न वही राजा महाभिष हैं । पूर्वकालीन प्रेमवश राजा शन्तनु के उस वचन को सुनकर उस स्त्री ने मन्द मुसकान करके यह वचन कहा ॥ ९-१० ॥

स्त्री बोली — हे नृपश्रेष्ठ! मैं यह जानती हूँ कि आप महाराज प्रतीप के योग्य पुत्र हैं। अत: भला कौन ऐसी स्त्री होगी, जो संयोगवश अपने अनुरूप पुरुष को भी उसे पतिरूप में स्वीकार न करेगी ॥ ११ ॥ हे नृपश्रेष्ठ! वचनबद्ध करके ही मैं आपको अपना पति स्वीकार करूँगी। हे राजन्‌! हे नृपोत्तम! अब आप मेरी शर्त सुनिये, जिससे मैं आपका वरण कर सकूँ ॥ १२ ॥ हे राजन्‌! मैं भला-बुरा जो भी कार्य करूँ, आप मुझे मना नहीं करेंगे तथा न कोई अप्रिय बात ही कहेंगे। जिस समय आप मेरा यह वचन नहीं मानेंगे, उसी समय हे मान्य नृपश्रेष्ठ! मैं आपको त्यागकर जहाँ चाहुँगी, उस जगह चली जाउँगी ॥ १३-१४ ॥

उस समय प्रार्थनापूर्वक वसुओं के जन्म ग्रहण करने का स्मरण करके तथा महाभिष के पूर्वकालीन प्रेम को अपने मन में सोच करके गङ्गाजी ने राजा शन्तनु के ‘ तथास्तु ‘ कहने पर उन्हें अपना पति बनाना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार मानवीरूप धारण करने वाली रूपवती तथा सुन्दर वर्ण वाली गङ्गा महाराज शन्तनु की पत्नी बनकर राजभवन में पहुँच गयीं। राजा शन्तनु उन्हें पाकर सुन्दर उपवन में विहार करने लगे ॥ १५-१७ ॥ भावों को जानने वाली वे सुन्दरी गङ्गा भी राजा शन्तनु के साथ विहार करने लगीं। उनके साथ महाराज शन्तनु को क्रीडा करते अनेक वर्ष बीत गये, पर उन्हें समय बीतने का बोध ही न हुआ। वे उन मृगलोचना के साथ उसी प्रकार विहार करते थे जिस प्रकार इन्द्राणी के साथ इन्द्र। सर्वगुणसम्मन्ना गङ्गा तथा चतुर शन्तनु भी दिव्य भवन में लक्ष्मी तथा नारायण की भाँति विहार करने लगे ॥ १८-१९१/२

इस प्रकार कुछ समय बीतने पर गङ्गाजी ने महाराज शन्तनु से गर्भ धारण किया और यथासमय उन सुनयनी ने एक वसु को पुत्ररूप में जन्म दिया। उन्होंने उस बालक को उत्पन्न होते ही तत्काल जल में फेंक दिया। इस प्रकार दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें, छठें तथा सातवें पुत्र के मारे जाने पर राजा शन्तनु को बड़ी चिन्ता हुई ॥ २०-२२ ॥

[उन्होंने सोचा-] अब मैं क्या करूँ? मेरा वंश इस पृथ्वी पर सुस्थिर कैसे होगा? इस पापिनी ने मेरे सात पुत्र मार डाले। यदि इसे रोकता हूँ तो यह मुझे त्यागकर चली जायगी। मेरा अभिलषित आठवाँ गर्भ भी इसे प्राप्त हो गया है। यदि अब भी मैं इसे रोकता नहीं हूँ तो यह इसे भी जल में फेंक देगी। यह भी मुझे महान्‌ सन्देह है कि भविष्य में कोई और सन्तति होगी अथवा नहीं। यदि उत्पन्न हो भी तो पता नहीं कि यह दुष्टा उसकी रक्षा करेगी अथवा नहीं ? इस संशय की स्थिति में मैं अब क्या करूँ ?॥ २३-२६ ॥

वंश की रक्षा के लिये मुझे कोई दूसरा यत्न करना ही होगा। तदनन्तर यथासमय जब वह आठवाँ ‘द्यौ’ नामक वसु पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ, जिसने अपनी स्त्री के वशीभूत होकर वसिष्ठ की नन्दिनी गौ का हरण कर लिया था, तब उस पुत्र को देखकर राजा शन्तनु गङ्गाजी के पैरों पर गिरते हुए कहने लगे ॥ २७-२८ ॥

हे तन्वंगि! मैं तुम्हारा दास हूँ। हे शुचिस्मिते! मैं प्रार्थना करता हूँ। मैं इस पुत्र को पालना चाहता हूँ, अतः इसे जीवित ही मुझे दे दो ॥ २९ ॥ हे करभोरु! तुमने मेरे सात सुन्दर पुत्रों को मार डाला, किंतु इस आठवें पुत्र की रक्षा करो। हे सुश्रोणि! मैं तुम्हारे पैरों पर पड़ता हूँ ॥ ३० ॥ हे परम रूपवती! इसके बदले तुम मुझसे जो माँगोगी, मैं वह दुर्लभ वस्तु भी तुम्हें दूँगा। अब तुम मेरे वंश की रक्षा करो ॥ ३१ ॥ वेदविद्‌ विद्वानों ने कहा है कि पुत्रहीन मनुष्य को स्वर्ग में भी गति नहीं होती। इसी कारण हे सुन्दरि! अब मैं इस आठवें पुत्र के लिये याचना करता हूँ ॥ ३२ ॥

राजा शन्तनु के ऐसा कहने पर भी जब गङ्गा उस पुत्र को लेकर जाने को उद्यत हुई, तब उन्होंने अत्यन्त कुपित एवं दुःखित होकर उनसे कहा — “हे पापिनि! अब मैं क्या करूँ? क्या तुम नरक से भी नहीं डरती ? तुम कौन हो? लगता है कि तुम पापियों की पुत्री हो, तभी तो तुम सदा पापकर्म में लगी रहती हो, अब तुम जहाँ चाहो वहाँ जाओ या रहो, किंतु यह पुत्र यहीं रहेगा। हे पापिनि! अपने वंश का अन्त करने वाली ऐसी तुम्हें रखकर भी मैं क्या करूँगा ?’॥ ३३-३५ ॥

राजा के ऐसा कहने पर उस नवजात शिशु को लेकर जाती हुई गङ्गा ने क्रोधपूर्वक उनसे कहा — पुत्र की कामना वाली मैं भी इस पुत्र को वन में ले जाकर पालूँगी। शर्त के अनुसार अब मैं चली जाऊँगी; क्योंकि आपने अपना वचन तोड़ा है। [हे राजन्‌!] मुझे आप गङ्गा जानिये; देवताओं का कार्य सम्पन्न करने के लिये ही मैं यहाँ आयी थी। महात्मा वसिष्ठ ने प्राचीन काल में आठों वसुओं को शाप दिया था कि तुम सब मनुष्य योनि में जाकर जन्म लो। तब चिन्ता से व्याकुल होकर आठौं वसु मुझे वहाँ स्थित देखकर कहने लगे — हे अनघे! आप हमारी माता बनें। अतः हे नृपश्रेष्ठ! उन्हें वरदान देकर मैं आपकी पत्नी बन गयी। आप ऐसा समझ लीजिये कि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये ही मेरा जन्म हुआ है ॥ ३६-४० ॥ वे सातों वसु तो आपके पुत्र बनकर ऋषि के शाप से विमुक्त हो गये। यह आठवाँ वसु कुछ समय तक आपके पुत्ररूप में विद्यमान रहेगा। अतः हे महाराज शन्तनु! मुझ गङ्गा के द्वारा दिये हुए पुत्र को आप स्वीकार कीजिये। इसे आठवाँ वसु जानते हुए आप पुत्र-सुख का भोग करें; क्योंकि हे महाभाग! यह ‘गांगेय’ बड़ा ही बलवान्‌ होगा। अब इसे मैं वहीं ले जा रहीं हूँ, जहाँ मैंने आपका पतिरूप से वरण किया था ॥ ४१-४३ ॥ हे राजन्‌! इसे पालकर इसके युवा होने पर मैं पुनः आपको दे दूँगी; क्योंकि मातृहीन बालक न जी पाता है और न सुखी रहता है ॥ ४४ ॥

ऐसा कहकर उस बालक को लेकर गङ्गा वहीं अन्तर्धान हो गयीं । राजा भी अत्यन्त दुःखित होकर अपने राजभवन में रहने लगे ॥ ४५ ॥ महाराज शन्तनु स्त्री तथा पुत्र के वियोगजन्य महान्‌ कष्ट का सदा अनुभव करते हुए भी किसी प्रकार राज्यकार्य सँभालने लगे ॥ ४६ ॥ कुछ समय बीतने पर महाराज आखेट के लिये वन में गये । वहाँ अनेक प्रकार के मृगगणों, भैंसों तथा सूकरों को अपने बाणों से मारते हुए वे गङ्गाजी के तट पर जा पहुँचे। उस नदी में बहुत थोड़ा जल देखकर वे राजा शन्तनु बड़े आश्चर्य में पड़ गये ॥ ४७-४८ ॥ उन्होंने वहाँ नदी के किनारे खेलते हुए एक बालक को महान्‌ धनुष को खींचकर बहुत से बाणों को छोड़ते हुए देखा। उसे देखकर राजा शन्तनु बड़े विस्मित हुए और कुछ भी नहीं जान पाये। उन्हें यह भी स्मरण न हो पाया कि यह मेरा पुत्र है या नहीं ॥ ४९-५० ॥

उस बालक के अतिमानवीय कृत्य, बाण चलाने के हस्तलाघव, असाधारण विद्या और कामदेव के समान सुन्दर रूप को देखकर अत्यन्त विस्मित राजा ने उससे पूछा — ‘ हे निर्दोष बालक! तुम किसके पुत्र हो ?’ किंतु उस वीर बालक ने कोई उत्तर नहीं दिया और वह बाण चलाता हुआ अन्तर्धान हो गया। तब राजा शन्तनु चिन्तित होकर यह सोचने लगे कि कहीं यह मेरा ही पुत्र तो नहीं है? अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ?॥ ५१-५३ ॥ जब उन्होंने वहीं खड़े होकर समाहितचित्त से गङ्गाजी की स्तुति की तब गङ्गाजी ने प्रसन्न होकर पहले के ही समान एक रूपवती स्त्री के रूप में उन्हें दर्शन दिया ॥ ५४ ॥ सर्वांगसुन्दरी गङ्गाजी को देखकर राजा शन्तनु बोले — हे गंगे! यह बालक कौन था और कहाँ चला गया? आप उसे मुझको दिखा दीजिये ॥ ५५॥

गङ्गाजी बोलीं — हे राजेन्द्र! यह आपका ही पुत्र आठवाँ वसु है, जिसे मैंने पाला है। इस महातपस्वी गांगेय को मैं आपको सौंपती हूँ ॥ ५६ ॥ हे सुव्रत! यह बालक आपके इस कुल की कीर्ति को बढ़ाने वाला होगा। इसे सभी वेदशास्त्र एवं शाश्वत धनुर्वेद की शिक्षा दी गयी है ॥ ५७ ॥ आपका यह पुत्र वसिष्ठजी के दिव्य आश्रम में रहा है और सब विद्याओं में पारंगत, कार्यकुशल एवं सदाचारी है ॥ ५८ ॥ जिस विद्या को जमदग्निपुत्र परशुराम जानते हैं, उसे आपका यह पुत्र जानता है। हे राजेन्द्र! हे नराधिप! आप इसे ग्रहण कीजिये, जाइये और सुखपूर्वक रहिये ॥ ५९ ॥

ऐसा कहकर तथा वह पुत्र राजा को देकर गङ्गाजी अन्तर्धान हो गयीं। उसे पाकर राजा शन्तनु बहुत आनन्दित और सुखी हुए ॥ ६० ॥ राजा शन्तनु पुत्र का आलिंगन करके तथा उसका मस्तक सूँघकर और उसे अपने रथ पर बैठाकर अपने नगर की ओर चल पड़े ॥ ६१ ॥ राजा ने हस्तिनापुर जाकर महान्‌ उत्सव किया और दैवज्ञ को बुलाकर शुभ मुहूर्त पूछा ॥ ६२ ॥ राजा शन्तनु ने सब प्रजाजनों तथा सभी श्रेष्ठ मन्त्रियों को बुलाकर गङ्गापुत्र को युवराज पद पर बैठा दिया ॥ ६३ ॥ उस सर्वगुणसम्पन्न पुत्र को युवराज बनाकर वे धर्मात्मा शन्तनु सुखपूर्वक रहने लगे। अब उन्हें गङ्गाजी की भी सुधि नहीं रही ॥ ६४ ॥

सूतजी बोले — इस प्रकार मैंने आप सबको वसुओं के शाप का कारण, गङ्गा के प्राकट्य तथा भीष्म को उत्पत्ति का वृत्तान्त कह दिया ॥ ६५ ॥ जो मनुष्य गङ्गावतरण तथा वसुओं के उद्भव की इस पवित्र कथा को सुनता है, वह सब प्रकार के पापों से मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६६ ॥ हे मुनिश्रेष्ठो! मैंने यह पवित्र, पुण्यदायक तथा वेद-सम्मत पौराणिक आख्यान जैसा व्यासजी के मुखारविन्द से सुना था, वैसा आप लोगों से कह दिया ॥ ६७ ॥ द्वैपायन व्यासजी के मुख से निःसृत यह श्रीमहेवी-भागवतमहापुराण बड़ा ही पवित्र, अनेकानेक कथाओं से परिपूर्ण तथा सर्ग-प्रतिसर्ग आदि पाँच पुराण-लक्षणों से युक्त है ॥ ६८ ॥ हे मुनिश्रेष्ठो! सुनने वालों के समस्त पापों का नाश करने वाले, कल्याणकारी, सुखदायक तथा पुण्यप्रद इस इतिहास का मैंने आप लोगों से वर्णन कर दिया ॥ ६९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का देवव्रतोत्पत्तिवर्णनं नामक चौथा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥

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