श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-दशम स्कन्धः-अध्याय-06
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-दशम स्कन्धः-षष्ठोऽध्यायः
छठा अध्याय
भगवान् विष्णु का देवताओं को काशी में अगस्त्यजी के पास भेजना, देवताओं की अगस्त्यजी से प्रार्थना
श्रीविष्णुना देवेभ्यो वरप्रदानम्

सूतजी बोले — [ हे ऋषियो !] लक्ष्मीकान्त श्रीविष्णु के वचन से सभी देवता सन्तुष्ट हो गये । उन्होंने प्रसन्नचित्त होकर उन भगवान् से पुनः इस प्रकार कहा — ॥ १ ॥

देवता बोले — हे देवदेव ! हे महाविष्णो ! हे सृजन – पालन-संहार के कारण ! हे विष्णो ! विन्ध्यपर्वत ने सूर्य का मार्ग रोक दिया है। सूर्य का मार्ग अवरुद्ध हो जाने के कारण हम लोगों को यज्ञभाग नहीं मिल पा रहा है । अतएव हे महाविभो ! अब हम लोग क्या करें तथा कहाँ जायँ ? ॥ २-३ ॥

श्रीभगवान् बोले — हे उत्तम देवगण! सम्पूर्ण जगत् की रचना करने वाली, आदिस्वरूपिणी तथा कुल की अभिवृद्धि करने वाली जो भगवती अम्बा हैं, उन्हीं के उपासक परम तेजस्वी मुनिश्रेष्ठ अगस्त्यजी हैं। वे इस समय वाराणसी में विद्यमान हैं । वे अगस्त्यमुनि ही उस विन्ध्यगिरि के तेज को निरस्त करने में समर्थ होंगे। हे देवताओ ! मोक्षपद प्रदान करने वाली उस काशीपुरी में जाकर परम ओजस्वी द्विजश्रेष्ठ अगस्त्यजी को प्रसन्न करके याचना कीजिये ॥ ४–६ ॥

सूतजी बोले — [ हे मुनियो ! ] इस प्रकार भगवान् विष्णु से आदेश प्राप्त करके वे सभी श्रेष्ठ देवता आश्वस्त होकर नम्रतापूर्वक काशीपुरी के लिये प्रस्थित हुए ॥ ७ ॥ क्षणभर में पावन काशीपुरी में पहुँचकर वे श्रेष्ठ देवगण मणिकर्णिका तीर्थ में भक्तिपूर्वक सचैल (वस्त्रसहित ) स्नान करके पुनः देवतर्पण तथा पितृतर्पण करने के बाद विधिपूर्वक दान देकर मुनिवर अगस्त्य के परम पवित्र आश्रम पर आये, जो शान्तस्वभाव वाले हिंसक पशुओं से व्याप्त था; वहाँ नानाविध वृक्ष उगे हुए थे । वह आश्रम मयूर, सारस, हंस, चक्रवाक, महावराह, शूकर, व्याघ्र, सिंह, मृग, काले हिरन, गैंडा तथा शरभ आदि जन्तुओं से परिपूर्ण था। सभी देवता परम कान्ति से सम्पन्न मुनिवर अगस्त्य के चरणों में दण्ड की भाँति गिर पड़े और बार-बार उन्हें प्रणाम करने लगे ॥ ८-१२ ॥

॥ देवा ऊचुः ॥
जय द्विजगणाधीश मान्य पूज्य धरासुर ।
वातापीबलनाशाय नमस्ते कुम्भयोनये ॥ १३ ॥
लोपामुद्रापते श्रीमन्मित्रावरुणसम्भव ।
सर्वविद्यानिधेऽगस्त्य शास्त्रयोने नमोऽस्तु ते ॥ १४ ॥
यस्योदये प्रसन्नानि भवन्त्युज्ज्वलभांज्यपि ।
तोयानि तोयराशीनां तस्मै तुभ्यं नमोऽस्तु ते ॥ १५ ॥
काशपुष्पविकासाय लङ्‌कावासप्रियाय च ।
जटामण्डलयुक्ताय सशिष्याय नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥
जय सर्वामरस्तव्य गुणराशे महामुने ।
वरिष्ठाय च पूज्याय सस्त्रीकाय नमोऽस्तु ते ॥ १७ ॥

देवता बोले — हे द्विजगणों के स्वामी ! हे मान्य ! हे पूज्य ! हे भूसुर ! हे वातापी का बल नष्ट करने वाले तथा घट से प्रकट होने वाले आपको नमस्कार है, आपकी जय हो ॥ १३ ॥ हे लोपामुद्रापते ! हे श्रीमन् ! हे मित्रावरुण से आविर्भूत! हे सम्पूर्ण विद्याओं के भण्डार ! हे शास्त्रयोनि अगस्त्यमुने ! आपको नमस्कार है ॥ १४ ॥ जिनके उदय होने पर समुद्रों का जल प्रसन्न तथा विमल हो जाता है, उन आपको नमस्कार स्वीकार हो ॥ १५ ॥ काशपुष्प को विकसित करने वाले, लंकावास (श्रीराम) – के परम प्रिय, जटासमूह से सम्पन्न तथा शिष्यों से निरन्तर आवृत आपको नमस्कार है ॥ १६ ॥ समस्त देवताओं से स्तुत होने वाले हे महामुने ! हे गुणनिधे ! वरिष्ठ, पूज्य तथा भार्यासहित आपको नमस्कार है, आपकी जय हो ॥ १७ ॥ हे स्वामिन्! आप हम पर अनुग्रह करें; हम आपकी शरण को प्राप्त हुए हैं । हे परमद्युते ! विन्ध्यगिरि द्वारा उत्पन्न किये गये दुःसह कष्ट से हम लोग बहुत पीड़ित हैं ॥ १८ ॥

देवताओं के इस प्रकार स्तुति करने पर परम  धर्मनिष्ठ द्विजश्रेष्ठ अगस्त्यमुनि हँसते हुए प्रसन्नता से युक्त वाणी में कहने लगे — ॥ १९ ॥

मुनि बोले — हे देवताओ ! आपलोग परम श्रेष्ठ, त्रिलोकी के स्वामी, लोकपाल, महान् आत्मा वाले तथा निग्रह – अनुग्रह करने में सक्षम हैं ॥ २० ॥ जो अमरावतीपुरी स्वामी हैं, वज्र ही जिनका शस्त्र है, आठों सिद्धियाँ जिनके द्वार पर विराजमान रहती हैं तथा जो मरुद्गणों के नायक हैं — वे ही ये इन्द्रदेव हैं ॥ २१ ॥ सर्वदा हव्य-कव्य का वहन करने वाले, वैश्वानर तथा कृशानु नाम से प्रसिद्ध और सभी देवताओं के मुखस्वरूप जो ये अग्निदेव हैं, उनके लिये कौन-सा कार्य दुष्कर है ? ॥ २२ ॥ हे देवताओ ! हाथ में दण्ड लेकर सदा व्यस्त रहने वाले, सभी प्राणियों के कर्मों के साक्षीस्वरूप तथा राक्षसगणों के अधिपति भयंकर यमदेव के लिये कौन-सा कार्य सुकर नहीं है ? तथापि हे देवताओ ! मेरे सामर्थ्य से यदि आपका कोई कार्य सिद्ध होने वाला हो तो आप उसे बताइये । हे देवगण! मैं उसे अवश्य करूँगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २३-२४ ॥

मुनिवर अगस्त्य का वचन सुनकर वे श्रेष्ठ देवता आश्वस्त हो गये और अधीर होकर विनम्रतापूर्वक अपने कार्य के विषय में बताने लगे — हे महर्षे ! विन्ध्यपर्वत ने सूर्य का मार्ग निरुद्ध कर दिया है और तीनों लोकों को आच्छादित कर रखा है, जिससे सर्वत्र हाहाकार मच गया है तथा सभी प्राणियों में अचेतनता उत्पन्न हो गयी है ॥ २५-२६ ॥ हे मुने! आप अपने तपोबल तथा प्रताप से उस विन्ध्यगिरि की वृद्धि को रोक दीजिये। हे अगस्त्य ! आपके तेज से वह अवश्य ही नम्र हो जायगा, इस समय आपको हमारा इतना ही कार्य सम्पन्न करना है ॥ २७ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत दसवें स्कन्ध का ‘अगस्त्याश्वासनवर्णन’ नामक छठा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ६ ॥

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