April 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-05 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-पँचमोऽध्यायः पाँचवाँ अध्याय मत्स्यगन्धा ( सत्यवती )-को देखकर राजा शन्तनु का मोहित होना, भीष्म द्वारा आजीवन ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करने की प्रतिज्ञा करना और शन्तनु का सत्यवती से विवाह देवव्रतप्रतिज्ञावर्णनम् ऋषिगण बोले — हे लोमहर्षणतनय सूतजी ! आपने शापवश अष्टवसुओं के जन्म तथा गङगाजी की उत्पत्ति का वर्णन किया। हे धर्मज्ञ ! व्यासजी की सत्यवती नाम की साध्वी माता जो पवित्र गन्धवाली थीं, वे राजा शन्तनु को पत्नीरूप से कैसे प्राप्त हुई? यह हमें विस्तार के साथ बताइये। महान् धर्मनिष्ठ राजा शन्तनु ने निषादपुत्री के साथ विवाह क्यों किया? हे सुव्रत! यह बताकर आप हमारे सन्देह का निवारण कीजिये ॥ १-३ ॥ सूतजी बोले — राजर्षि शन्तनु सदा आखेट करने में तत्पर रहते थे। वे वन में जाकर मृग, महिष तथा रुरुमृगों का वध किया करते थे ॥ ४ ॥ राजा शन्तनु केवल चार वर्ष तक भीष्म के साथ उसी प्रकार सुख से रहे, जिस प्रकार भगवान् शंकर कार्तिकेय के साथ आनन्दपूर्वक रहते थे ॥ ५ ॥ एक बार वे महाराज शन्तनु वन में बाण छोड़ते हुए बहुत से गैंडों तथा सूकरों का वध करते हुए किसी समय नदियों में श्रेष्ठ यमुना के किनारे जा पहुँचे ॥ ६ ॥ राजा ने वहाँ पर कहीं से आती हुई उत्तम गन्ध को सूँघा। तब उस सुगन्धि के उद्गम का पता लगाने के लिये वे वन में विचरने लगे ॥ ७ ॥ वे बड़े असमंजस में पड़ गये कि यह मनोहर सुगन्धि न मन्दारपुष्प की है, न कस्तूरी की है, न मालती की है, न चम्पा की है और न तो केतकी की ही है! ॥ ८ ॥ मैंने ऐसी अनुपम सुगन्धि का पूर्व में कभी नहीं अनुभव किया था। [इस दिव्य सुगन्धि को लेकर] सुन्दर वायु बह रही है। मेरी घ्राणेन्द्रिय को मुग्ध कर देने वाली यह वायु कहाँ से आ रही है ?॥ ९ ॥ इस प्रकार सोचते-विचारते राजा शन्तनु गन्ध के लोभ से मोहित सुगन्धित वायु का अनुसरण करते हुए वनप्रदेश में विचरण करने लगे ॥ १० ॥उन्होंने यमुनानदी के तट पर बैठी हुई एक दिव्यदर्शन वाली स्त्री को देखा, जो मलिन वस्त्र धारण करने और शृंगार न करने पर भी मनोहर दीख रही थी ॥ ११ ॥ उस श्याम नयनों वाली स्त्री को देखकर राजा आश्चर्य में पड़ गये और उन्हें इस बात का विश्वास हो गया कि यह सुगन्धि इसी स्त्री के शरीर की है ॥ १२ ॥ आकर्षित करने वाली सुगन्धि, उसकी अवस्था तथा उसका वैसा शुभ नवयौवन देखकर राजा शन्तनु को महान् विस्मय हुआ ॥ १३ ॥ यह कौन है और इस समय यह कहाँ से आयी है? यह कोई देवांगना है या मानवी स्त्री, यह कोई गन्धर्वकन्या अथवा नागकन्या है? मैं इस सुगन्धा कामिनी के विषय में कैसे जानकारी प्राप्त करूँ? ॥ १४ ॥ इस प्रकार विचार करके भी वे राजा जब कुछ निश्चय नहीं कर सके, तब तत्क्षण गंगाजी का स्मरण करते हुए वे काम के वशीभूत हो गये और तट पर बैठी हुई उस सुन्दरी से उन्होंने पूछा — हे प्रिये! तुम कौन हो ? किसको पुत्री हो ? हे वरोरु! तुम इस निर्जन वन में क्यों बैठी हो? हे सुनयने! क्या तुम अकेली ही हो? तुम विवाहिता हो या कुमारी; यह बताओ ॥ १५-१६ ॥ हे अरालनेत्रे ! तुम जैसी मनोरमा स्त्रीको देखकर मैं कामातुर हो गया हूँ। हे प्रिये ! विस्तारपूर्वक मुझे यह बतलाओ कि तुम कौन हो और क्या करना चाहती हो ?॥ १७॥ महाराज शन्तनु के वचन सुनकर वह सुन्दर दाँतों वाली तथा कमल के समान नयनों वाली स्त्री मुसकराकर बोल — हे राजन्! आप मुझे निषादकन्या और अपने पिता की आज्ञा में रहने वाली कन्या समझें ॥ १८ ॥ हे नृपेन्द्र ! मैं अपने धर्म का अनुसरण करती हुई जल में यह नौका चलाती हूँ। हे अर्थपते! पिताजी अभी ही घर गये हैं। आपके सम्मुख यह बातें मैंने सत्य कही हैं ॥ १९ ॥ यह कहकर वह निषादकन्या मौन हो गयी। तब काम से पीड़ित महाराज शन्तनु ने उससे कहा — मुझ कुरुवंशी वीर को तुम अपना पति बना लो, जिससे तुम्हारा यौवन व्यर्थं न जाय ॥ २० ॥ मेरी कोई दूसरी पत्नी नहीं है। अतः हे मृगनयनी ! तुम मेरी धर्मपत्नी बन जाओ। हे प्रिये! मैं सर्वदा के लिये तुम्हारा वशवर्ती दास बन जाऊँगा। मुझे कामदेव पीड़ित कर रहा है ॥ २१ ॥ मेरी प्रियतमा मुझे छोड़कर चली गयी है, तब से मैंने अपना दूसरा विवाह नहीं किया। हे कान्ते! मैं इस समय विधुर हूँ। तुम जैसी सर्वागसुन्दरी को देखकर मेरा मन अपने वश में नहीं रह गया है ॥ २२ ॥ राजा की अमृतरस के समान मधुर तथा मनोहारी बात सुनकर वह दाशकन्या सुगन्धा सात्त्विक भाव से युक्त होकर धैर्य धारण करके राजा से बोली — हे राजन्! आपने मुझसे जो कुछ कहा, वह यथार्थ है; किंतु आप अच्छी तरह जान लीजिये कि मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। मेरे पिताजी ही मुझे दे सकते हैं। अतएव आप उन्हीं से मेरे लिये याचना कीजिये ॥ २३-२४ ॥ मैं एक निषाद की कन्या होती हुई भी स्वेच्छाचारिणी नहीं हूँ। मैं सदा पिता के वश में रहती हुई सब काम करती हूँ। यदि मेरे पिताजी मुझे आपको देना स्वीकार कर लें तब आप मेरा पाणिग्रहण कर लीजिये और मैं सदा के लिये आपके अधीन हो जाऊँगी ॥ २५ ॥ हे राजन्! परस्पर आसक्त होने पर भी कुल की मर्यादा तथा परम्परा के अनुसार धैर्य धारण करना चाहिये ॥ २६ ॥ सूतजी बोले — उस सुगन्धा की यह बात सुनकर कामातुर राजा उसे माँगने के लिये निषादराज के घर गये ॥ २७ ॥ इस प्रकार महाराज शन्तनु को अपने घर आया देखकर निषादराज को बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर वह बोला की ॥ २८ ॥ निषाद ने कहा — हे राजन्! मैं आपका दास हुँ। आपके आगमन से मैं कृतकृत्य हो गया। हे महाराज! आप जिस कार्य के लिये आये हों, मुझे आज्ञा दीजिये ॥ २९ ॥ राजा बोले — हे अनघ! यदि आप अपनी यह कन्या मुझे प्रदान कर दें तो मैं इसे अपनी धर्मपत्नी बना लूँगा; यह मैं सत्य कह रहा हूँ ॥ ३० ॥ निषाद ने कहा — हे महाराज! यदि आप मेरे इस कन्यारत्न के लिये प्रार्थना कर रहे हैं तो मैं अवश्य दूँगा; क्योंकि देने योग्य वस्तु तो कभी अदेय नहीं होती है; किंतु हे महाराज! आपके बाद इस कन्या का पुत्र ही राजा के रूप में अभिषिक्त होना चाहिये, आपका दूसरा पुत्र नहीं ॥ ३१-३२ ॥ सूतजी बोले — निषादकी बात सुनकर राजा शन्तनु चिन्तित हो उठे। उस समय मन में भीष्म का स्मरण करके राजा कुछ भी उत्तर न दे सके ॥ ३३ ॥ तब कामातुर तथा चिन्तित राजा राजमहल में चले गये। उन्होंने घर जाने पर न स्नान किया, न भोजन किया और न शयन ही किया ॥ ३४ ॥ तब उन्हें चिन्तित देखकर पुत्र देवव्रत राजा के पास जाकर उनको इस चिन्ता का कारण पूछने लगे — हे नृपश्रेष्ठ ! कौन-सा ऐसा शत्रु है जिसको आप जीत न सके; मैं उसे आपके अधीन कर दूँ। हे नृपोत्तम! आपकी क्या चिन्ता है, मुझे सही-सही बताइये ॥ ३५-३६ ॥ हे राजन्! भला उस उत्पन्न हुए पुत्र से क्या लाभ? जो पैदा होकर अपने पिता का दु:ख न समझे तथा उसको दूर करने का उपाय न कर सके। ऐसा कुपुत्र तो पूर्वजन्म के किसी ऋण को वापस लेने के लिये यहाँ आता है; इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है ॥ ३७ ॥ दशरथ के पुत्र रामचन्द्रजी भी पिता की आज्ञा से राज्य त्यागकर लक्ष्मण और सीता के साथ वन में चले गये तथा चित्रकूट पर्वत पर निवास करने लगे ॥ ३८ ॥ इसी प्रकार हे राजन्! राजा हरिश्चन्द्र का पुत्र जो रोहित नाम से प्रसिद्ध था, अपने पिता के इच्छानुसार बिकने के लिये तत्पर हो गया और खरीदा हुआ वह बालक ब्राह्मण के घर में सेवक का कार्य करने लगा ॥ ३९ ॥ ‘ अजीगर्त’ ब्राह्मण का एक श्रेष्ठ पुत्र था, जो शुनःशेप नाम से प्रसिद्ध था। खरीद लिये जाने पर वह पिता के द्वारा यूप में बाँध दिया गया, जिसे बाद में विश्वामित्र ने छुड़ाया था ॥ ४० ॥ पूर्वकाल में पिता की आज्ञा से ही परशुराम ने अपनी माता का सिर काट दिया था, ऐसा लोक में प्रसिद्ध है। इस अनुचित कर्म को करके भी उन्होंने पिता की आज्ञा का महत्त्व बढ़ाया था ॥ ४१ ॥ हे पृथ्वीपते! यह मेरा शरीर आपका ही है। यद्यपि मैं समर्थ नहीं हूँ; फिर भी आप कहिये मैं आपकी क्या सेवा करूँ? मेरे रहते आपको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं होनी चाहिये। मैं आपका असाध्य कार्य भी तत्काल पूरा करूँगा ॥ ४२ ॥ हे राजन्! आप बताइये कि आपको किस बात की चिन्ता है? मैं अभी धनुष लेकर उसका निवारण कर दूँगा। यदि मेरे इस शरीर से भी आपका कार्य सिद्ध हो सके तो मैं आपकी अभिलाषा पूर्ण करने को तत्पर हूँ। उस पुत्र को धिक्कार है, जो समर्थ होकर भी अपने पिता की इच्छा को पूर्ण नहीं करता। जिस पुत्र के द्वारा पिता की चिन्ता दूर न हुई, उस पुत्र का जन्म लेने का क्या प्रयोजन ?॥ ४३-४४ ॥ सूतजी बोले — अपने पुत्र गांगेय का वचन सुनकर महाराज शन्तनु मन में लज्जित होते हुए उससे शीघ्र ही कहने लगे ॥ ४५ ॥ राजा बोले — हे पुत्र! मुझे यही महान् चिन्ता है कि तुम मेरे इकलौते पुत्र हो। यद्यपि तुम बलवान्, स्वाभिमानी, रणस्थल में पीठ न दिखाने वाले साहसी पुत्र हो तथापि केवल एक पुत्र होने के कारण मुझ पिता का जीवन व्यर्थ है; क्योंकि यदि कहीं किसी समर में तुम्हें अमरगति प्राप्त हो गयी तो मैं असहाय होकर क्या कर सकूँगा ? यही मुझे सबसे बड़ी चिन्ता लगी है; इसी कारण मैं आजकल दुःखित रहता हूँ । हे पुत्र! इसके अतिरिक्त मुझे दूसरी कोई चिन्ता नहीं है, जिसे मैं तुम्हारे सामने कहूँ ॥ ४६-४८ ॥ सूतजी बोले — यह सुनकर गांगेय ने वृद्ध मन्त्रियों से पूछा कि लज्जा से परिपूर्ण महाराज मुझे कुछ बता नहीं रहे हैं ॥ ४९ ॥ आप लोग राजा की भावना जानकर सही एवं निश्चित कारण मुझे बताइये; मैं प्रसन्नतापूर्वक उसे सम्पन्न करूँगा ॥ ५० ॥ यह सुनकर मन्त्रिगण राजा के पास गये और सब कारण सही-सही जानकर उन्होंने युवराज गांगेय से आकर कह दिया। तब उनका अभिप्राय जानकर गांगेय विचार करने लगे। मन्त्रियों के साथ गंगापुत्र देवव्रत उस निषाद के घर शीघ्र गये और प्रेम के साथ विनम्र होकर यह कहने लगे ॥ ५१-५२ ॥ गांगेय बोले — हे परन्तप! आप अपनी सुन्दरी कन्या मेरे पिताजी के लिये प्रदान कर दें — यही मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ। आपकी ये कन्या मेरी माता हों और मैं इनका सेवक रहुँगा ॥ ५३ ॥ निषाद ने कहा — हे महाभाग! हे नृपनन्दन! आप स्वयं ही इसे अपनी भार्या बनाइये; क्योंकि आपके रहते इसका पुत्र राजा नहीं हो सकेगा ॥ ५४ ॥ गांगेय बोले — आपकी यह कन्या मेरी माता है। मैं राज्य नहीं करूँगा। इसका पुत्र ही निश्चितरूप से राज्य करेगा; इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है ॥ ५५ ॥ निषाद ने कहा — मैंने आपकी बात सही मान ली; परंतु यदि आपका पुत्र बलवान् हुआ तो वह बलपूर्वक राज्य को निश्चय ही ले लेगा ॥ ५६ ॥ गांगेय बोले — हे तात! मैं कभी विवाह नहीं करूँगा; मेरा यह वचन सर्वथा सत्य है — यह मैंने भीष्म-प्रतिज्ञा कर ली ॥ ५७ ॥ सूतजी बोले — गांगेय द्वारा को गयी ऐसी प्रतिज्ञा सुनकर निषाद ने उन राजा शन्तनु को अपनी सर्वागसुन्दरी कन्या सत्यवती सौंप दी ॥ ५८ ॥ इस प्रकार राजा शन्तनु ने प्रिया सत्यवती से विवाह कर लिया। वे नृपश्रेष्ठ शन्तनु पूर्व में सत्यवती से व्यासजी का जन्म नहीं जानते थे ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘देवव्रतप्रतिज्ञा वर्णनं’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Content is available only for registered users. 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