May 28, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-दशम स्कन्धः-अध्याय-12 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-दशम स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः बारहवाँ अध्याय समस्त देवताओं के तेज से भगवती महिषमर्दिनी का प्राकट्य और उनके द्वारा महिषासुर का वध, शुम्भ-निशुम्भ का अत्याचार और देवी द्वारा चण्ड-मुण्डसहित शुम्भ निशुम्भ का वध देवीचरित्रसहितं सावर्णिमनुवृतान्तवर्णनम् मुनि बोले — [ एक बार ] महिषी के गर्भ से उत्पन्न महान् बलशाली तथा पराक्रमी महिषासुर सभी देवताओं को पराजित करके सम्पूर्ण जगत् का स्वामी हो गया ॥ १ ॥ वह महान् असुर समस्त लोकपालों के अधिकारों को बलपूर्वक छीनकर तीनों लोकों के अद्भुत ऐश्वर्य का भोग करने लगा ॥ २ ॥ सभी देवता उससे पराजित होकर स्वर्ग से निष्कासित कर दिये गये । तत्पश्चात् वे ब्रह्माजी को आगे करके उस उत्तम लोक में पहुँचे, जहाँ देवाधिदेव भगवान् विष्णु तथा शिव विराजमान थे । वे उस दुरात्मा महिषासुर का वृत्तान्त बताने लगे — ॥ ३-४ ॥ हे देवेश्वरो ! बल, वीर्य तथा मद से उन्मत्त वह महिषासुर नामक दुष्ट दैत्य सभी देवताओं के लोकों को शीघ्र जीतकर उन पर स्वयं शासन कर रहा है। हे असुरों का नाश करने वाले ! आप दोनों शीघ्र ही उस महिषासुर के वध का कोई उपाय सोचिये ॥ ५-६ ॥ तब देवताओं की यह दुःखभरी वाणी सुनकर वे भगवान् विष्णु, शिव तथा पद्मयोनि ब्रह्मा अत्यधिक कुपित हो उठे ॥ ७ ॥ हे महीपते ! इस प्रकार कुपित उन भगवान् विष्णु के मुख से हजारों सूर्यों की कान्ति के समान दिव्य तेज उत्पन्न हुआ ॥ ८ ॥ इसके पश्चात् क्रम से इन्द्र आदि सभी देवताओं के शरीर से उन देवाधिपों को प्रसन्न करता हुआ तेज निकला ॥ ९ ॥ शिव के शरीर से जो तेज निकला, उससे मुख बना, यमराज के तेज से केश बने तथा विष्णु के तेज से भुजाएँ बनीं ॥ १० ॥ हे भूप ! चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तन हुए । इन्द्र के तेज से कटिप्रदेश, वरुण के तेज से जंघा और ऊरु उत्पन्न हुए। पृथिवी के तेज से दोनों नितम्ब, ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण, सूर्य के तेज से पैरों की अँगुलियाँ और वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियाँ निर्मित हुईं ॥ ११-१२ ॥ हे पृथ्वीपते ! कुबेर के तेज से नासिका और प्रजापति के उत्कृष्ट तेज से दाँत उत्पन्न हुए। अग्नि के तेज से शुभकारक तीनों नेत्र उत्पन्न हुए, सन्ध्या के तेज से कान्ति की निधिस्वरूपा दोनों भृकुटियाँ उत्पन्न हुईं और वायु के तेज से दोनों कान उत्पन्न हुए । हे नरेश ! इस प्रकार सभी देवताओं के तेज से भगवती महिषमर्दिनी प्रकट हुईं ॥ १३-१५ ॥ शिवजी ने उन्हें अपना शूल, विष्णु ने चक्र, वरुण ने शंख, अग्नि ने शक्ति और वायु ने धनुष-बाण प्रदान किये ॥ १६ ॥ इन्द्र ने वज्र तथा ऐरावत हाथी का घण्टा, यमराज ने कालदण्ड और ब्रह्मा ने अक्षमाला तथा कमण्डलु प्रदान किये ॥ १७ ॥ हे पृथ्वीपते ! सूर्य ने देवी के रोमछिद्रों में अपनी रश्मिमालाओं का संचार किया। काल ने देवी को तलवार तथा स्वच्छ ढाल दी ॥ १८ ॥ हे राजन्! समुद्र ने स्वच्छ हार, कभी जीर्ण न होने वाले दो वस्त्र, चूड़ामणि, कुण्डल, कटक, बाजूबन्द, विमल अर्धचन्द्र, नूपुर तथा गले में धारण किया जाने वाला आभूषण अति प्रसन्न होकर उन भगवती को प्रदान किये ॥ १९-२० ॥ हे धरणीपते! विश्वकर्मा ने उन भगवती को अँगूठियाँ दीं। हिमालय ने उन्हें वाहन के रूप में सिंह तथा विविध प्रकार के रत्न प्रदान किये । धनपति कुबेर ने उन्हें सुरा से पूर्ण एक पानपात्र दिया तथा सर्वव्यापी भगवान् शेषनाग ने उन्हें नागहार प्रदान किया ॥ २१-२२ ॥ इसी प्रकार अन्य समस्त देवताओं ने जगन्मयी भगवती को सम्मानित किया। इसके बाद महिषासुर द्वारा पीडित देवताओं ने जगत् की उत्पत्ति की कारणस्वरूपिणी उन महेश्वरी महाभगवती की अनेक स्तोत्रों से स्तुति की ॥ २३१/२ ॥ उन देवताओं की स्तुति सुनकर देवपूजित सुरेश्वरी महिषासुर के वध के लिये उच्च स्वर से गर्जना करने लगीं ॥ २४१/२ ॥ हे भूपते ! महिषासुर उस नाद से चकित हो उठा और अपने सभी सैनिकों को साथ में लेकर जगद्धात्री भगवती के पास पहुँचा ॥ २५१/२ ॥ तत्पश्चात् महिष नामक वह प्रबल दानव अपने द्वारा छोड़े गये विविध शस्त्रास्त्रों से सम्पूर्ण आकाश-मण्डल को आच्छादित करते हुए भगवती के साथ युद्ध करने लगा ॥ २६१/२ ॥ प्रधान सेनापति चिक्षुर के अतिरिक्त दुर्धर, दुर्मुख, बाष्कल, ताम्र तथा विडालवदन — इन सभी से तथा संग्राम में यमराज की भाँति भयंकर अन्य असंख्य योद्धाओं से वह दानवश्रेष्ठ पराक्रमी महिषासुर घिरा हुआ था ॥ २७-२८१/२ ॥ तदनन्तर क्रोध से लाल आँखों वाली उन जगन्मोहिनी भगवती ने युद्धभूमि में महिषासुर के अधीनस्थ मुख्य योद्धाओं को मार डाला ॥ २९१/२ ॥ उन योद्धाओं के मारे जाने के अनन्तर परम मायावी वह महिषासुर क्रोध से मूर्च्छित होकर देवी के समक्ष शीघ्रता से आ खड़ा हुआ ॥ ३०१/२ ॥ वह दानवेन्द्र महिष अपनी माया के प्रभाव से अनेक प्रकार के रूप धारण कर लेता था; किंतु वे देवी उसके उन सभी रूपों को नष्ट कर डालती थीं ॥ ३११/२ ॥ तब अन्त में महिष का रूप धारण किये हुए उस देवपीडक तथा देवगणों के लिये यमराजतुल्य महिषासुर को पाश में दृढ़तापूर्वक बाँधकर भगवती ने अपने खड्ग से उसका सिर काटकर [ पृथ्वी पर ] गिरा दिया ॥ ३२-३३ ॥ इससे [दानवी सेना में] हाहाकार मच गया और उसकी शेष सेना दसों दिशाओं में भाग गयी। समस्त देवगण इससे अति प्रसन्न होकर देवदेवेश्वरी भगवती की स्तुति करने लगे ॥ ३४ ॥ महिषासुर का वध करने वाली देवी महालक्ष्मी का इस प्रकार प्रादुर्भाव हुआ था । हे राजन् ! जिस प्रकार सरस्वती का आविर्भाव हुआ; अब आप वह वृत्तान्त सुनिये ॥ ३५ ॥ एक समय की बात है — अपने मद तथा बल का अहंकार करने वाला शुम्भ नामक दैत्य था । महान् बल तथा पराक्रम से सम्पन्न निशुम्भ नामक उसका एक भाई भी था ॥ ३६ ॥ हे नृप ! उस शुम्भ से सन्तापित सभी देवता राज्यविहीन होकर हिमालय पर्वत पर जाकर श्रद्धापूर्वक भगवती का स्तवन करने लगे ॥ ३७ ॥ ॥ देवा ऊचुः ॥ जय देवेशि भक्तानामार्तिनाशनकोविदे । दानवान्तकरूपे त्वमजरामरणेऽनघे ॥ ३८ ॥ देवेशि भक्तिसुलभे महाबलपराक्रमे । विष्णुशङ्करब्रह्मादिस्वरूपेऽनन्तविक्रमे ॥ ३९ ॥ सृष्टिस्थितिकरे नाशकारिके कान्तिदायिनि । महाताण्डवसुप्रीते मोददायिनि माधवि ॥ ४० ॥ प्रसीद देवदेवेशि प्रसीद करुणानिधे । निशुम्भशुम्भसम्भूतभयापाराम्बुवारिधे ॥ ४१ ॥ उद्धरास्मान् प्रपन्नार्तिनाशिके शरणागतान् । देवता बोले — हे भक्तों का कष्ट दूर करने में परम दक्ष देवेश्वरि ! हे दानवों के लिये यमराजस्वरूपिणि! हे जरा-मरण से रहित ! हे अनघे ! आपकी जय हो ॥ ३८ ॥ हे देवेश्वरि ! हे भक्ति से प्राप्त होनेवाली ! हे महान् बल तथा पराक्रमवाली! हे ब्रह्मा- विष्णु-महेशस्वरूपिणि! हे अनन्त शौर्यशालिनि ! हे सृजन तथा पालन करने वाली ! हे संहार करने वाली ! हे कान्तिप्रदे! हे महाताण्डव में प्रीति रखने वाली ! हे मोददायिके ! हे माधवि ! हे देवदेवेश्वरि ! आप हम पर प्रसन्न होइये । हे करुणानिधे ! प्रसन्न होइये । हे शरण में आये हुए प्राणियों के दुःख का नाश करने वाली ! शुम्भ तथा निशुम्भ से उत्पन्न महान् भयरूपी अपार समुद्र से हम शरणागत देवताओं का उद्धार कीजिये ॥ ३९–४११/२ ॥ हे महाराज सुरथ ! इस प्रकार उन देवताओं के स्तुति करने पर हिमाद्रितनया पार्वती प्रसन्न हो गयीं और बोलीं — आप लोग इस स्तुति का उद्देश्य बताइये ॥ ४२१/२ ॥ इसी बीच उनके शरीररूपी कोश से जगद्वन्द्या कौशिकीदेवी प्रकट हुईं और वे बड़ी प्रसन्नतापूर्वक देवताओं से कहने लगीं — ॥ ४३१/२ ॥ हे सुरश्रेष्ठ! उत्तमस्वरूपिणी मैं आप लोगों की स्तुति से प्रसन्न हूँ, अतः आप लोग वर माँग लीजिये । देवी के ऐसा कहने पर देवताओं ने इस प्रकार वर माँगा — शुम्भ नामक एक प्रसिद्ध दानव है तथा निशुम्भ नामवाला उसका एक लघु भ्राता भी है । उस बलवान् दैत्य ने अपने पराक्रम से तीनों लोकों को आतंकित कर रखा है । हे देवि ! उसके वध का कोई उपाय सोचिये; क्योंकि हे भगवति ! वह कुत्सित आत्मा वाला दानवेन्द्र शुम्भ अपने बल से हमें अपमानित करके सदा पीडित करता रहता है ॥ ४४ – ४६१/२ ॥ श्रीदेवी बोलीं — मैं देवताओं के शत्रु शुम्भ तथा निशुम्भ को मार गिराऊँगी । आप लोग निश्चिन्त रहिये । आप लोगों का कल्याण होगा। मैं आप लोगों के कंटकरूप दैत्य का विनाश अभी करती हूँ ॥ ४७१/२ ॥ इन्द्रसहित सभी देवताओं से ऐसा कहकर करुणामयी देवदेवेश्वरी उन देवताओं के देखते-देखते शीघ्र ही अन्तर्धान हो गयीं ॥ ४८१/२ ॥ तत्पश्चात् सभी देवता हर्षित होकर सुमेरुपर्वत की सुन्दर कन्दरा में चले गये। इधर, शुम्भ निशुम्भ के चण्ड-मुण्ड नामक दो सेवकों ने [उन देवी को ] देख लिया ॥ ४९१/२ ॥ तब उन दोनों चण्ड-मुण्ड नाम वाले दानव- सेवकों ने सम्पूर्ण लोक को मोहित करने वाली सर्वांगसुन्दरी भगवती को देखकर अपने राजा शुम्भ के पास आकर उससे कहा ॥ ५० ॥ हे देव! हे समस्त असुरों में श्रेष्ठ ! हे रत्नों का भोग करने योग्य! हे मान प्रदान करने वाले ! हे शत्रुदलन ! हम दोनों ने अभी-अभी एक अद्वितीय कामिनी देखी है। उसके साथ भोग करने योग्य एकमात्र आप ही हैं । अतएव इसी समय सुन्दर अंगों वाली उस स्त्री को ले आइये और सुखपूर्वक उसका भोग कीजिये। जैसी मनोहर वह स्त्री है, वैसी न कोई असुर – नारी है, न गन्धर्व-नारी, न दानव – नारी, न मानव – नारी और न तो कोई देवनारी ही है ॥ ५१-५३१/२ ॥ इस प्रकार अपने सेवक की बात सुनकर शत्रु के बल का मर्दन करने वाले शुम्भ ने सुग्रीव नामक दानव को दूत के रूप में भेजा ॥ ५४१/२ ॥ उस दूत ने तत्काल देवी के पास पहुँचकर शुम्भ की जो बात थी, उस वृत्तान्त को आदरपूर्वक यथाविधि देवी कह दिया ॥ ५५१/२ ॥ हे देवि! शुम्भ नामक असुर तीनों लोकों के विजेता राजा हैं। सभी रत्न – सामग्रियों का भोग करने वाले उस शुम्भ का सभी देवता भी सम्मान करते हैं ॥ ५६१/२ ॥ उन्होंने जो कहा है, उसे मुझसे सुनिये — हे देवि! मैं नित्य सभी रत्नों का उपभोग करने वाला हूँ, तुम भी रत्न-स्वरूपा हो, अतएव हे सुलोचने ! मेरा वरण कर लो। समस्त देवताओं, असुरों तथा मनुष्यों के पास जो-जो रत्न थे, वे सब इस समय मेरे पास हैं अतएव हे सुभगे ! कामजन्य रसों के द्वारा तुम मेरे साथ भोग करो ॥ ५७-५८१/२ ॥ देवी बोलीं — हे दूत ! तुम दैत्यराज शुम्भ के लिये प्रियकर तथा सत्य बात कह रहे हो, किंतु मैंने पूर्वकाल में जो प्रतिज्ञा की है, वह भी मिथ्या कैसे हो सकती है? हे दूत! मैंने जो प्रतिज्ञा की है, उसे तुम सुनो ॥ ५९-६० ॥ जो मेरा अभिमान चूर कर देगा, जो मेरे बल को निष्प्रभावी बना देगा तथा मेरे समान बलशाली होगा, वही मेरे साथ भोग करने का अधिकारी हो सकता है ॥ ६१ ॥ अतएव वह असुराधिपति मेरी इस प्रतिज्ञा को सत्य सिद्ध करके तत्काल मेरा पाणिग्रहण कर ले। इस लोक में ऐसा क्या है, जिसे वह नहीं कर सकता ? ॥ ६२ ॥ इसलिये हे महादूत ! तुम जाओ और अपने स्वामी से आदरपूर्वक यह बात कहो । वह अत्यधिक बलवान् शुम्भ मेरी प्रतिज्ञा को अवश्य सत्य सिद्ध कर देगा ॥ ६३ ॥ महादेवी का यह वचन सुनकर उस दानव-दूत ने आरम्भ से लेकर अन्त तक देवी का वृत्तान्त शुम्भ से कह दिया ॥ ६४ ॥ तब दूत की अप्रिय बात सुनकर महाबली दानवराज शुम्भ अत्यधिक कुपित हो उठा ॥ ६५ ॥ तत्पश्चात् उस दानवपति बलशाली शुम्भ ने धूम्राक्ष नामक दैत्य को आदेश दिया — हे धूम्राक्ष ! सावधान होकर मेरी बात सुनो। तुम उस दुष्टा को उसके केशपाश पकड़कर मेरे पास शीघ्र ले आओ। अब तुम मेरे सामने से शीघ्र चले जाओ ॥ ६६-६७ ॥ ऐसा आदेश प्राप्त कर वह महाबली दैत्येश धूम्रलोचन साठ हजार असुरों के साथ चल पड़ा और शीघ्र ही देवी के पास हिमालय पर्वत पर पहुँचकर उसने उच्च स्वर में देवी से कहा — हे कल्याणि ! तुम शीघ्र ही महान् पराक्रमी शुम्भ नामक दैत्यपति का वरण कर लो और सभी प्रकार के सुखोपभोग प्राप्त करो अन्यथा तुम्हारे केश पकड़कर मैं तुम्हें दैत्यराज के पास ले चलूँगा ॥ ६८–७० ॥ देवशत्रु दैत्य के ऐसा कहने पर उन भगवती ने कहा — हे महाबली दैत्य ! यह जो तुम बोल रहे हो, वह तो ठीक है, किंतु यह बताओ कि तुम्हारे राजा शुम्भासुर तथा तुम मेरा क्या कर लोगे ? ॥ ७११/२ ॥ देवी के ऐसा कहने पर वह दैत्य सेनापति धूम्राक्ष शस्त्र लेकर बड़ी तेजी से देवी की ओर दौड़ा, किंतु महेश्वरी ने अपने हुंकारमात्र से उसे तत्क्षण भस्म कर दिया ॥ ७२१/२ ॥ हे महीपते ! देवी का वाहन सिंह भी दैत्यसेना को नष्ट करने लगा । सम्पूर्ण सेना हाहाकार मचाती हुई बेसुध होकर दसों दिशाओं में तेजी से तितर-बितर हो गयी ॥ ७३१/२ ॥ दैत्यराज पराक्रमी शुम्भ यह वृत्तान्त सुनकर बड़ा कुपित हुआ और अत्यन्त क्रोधपूर्वक उसकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं । उस प्रतापी दैत्यराज ने कोपाविष्ट होकर क्रमशः चण्ड, मुण्ड तथा रक्तबीज [ नामक दैत्यों ] – को भेजा । वे तीनों बलशाली और क्रूर दैत्य वहाँ जाकर बलपूर्वक देवी को पकड़ने का यत्न करने लगे। तब मदोन्मत्त होकर जगदम्बा शूल लेकर वेगपूर्वक उनकी ओर दौड़ीं और उन्होंने उन्हें धराशायी कर दिया ॥ ७४–७७१/२ ॥ उन तीनों दैत्यों को सेनासहित मारा गया सुनकर दानवराज शुम्भ और निशुम्भ तेजी से वहाँ आ पहुँचे। देवी के साथ भयंकर युद्ध करने के अनन्तर वे दोनों असुर उनके अधीन हो गये और अन्त में उनके द्वारा तत्पश्चात् दैत्यश्रेष्ठ शुम्भ का वध करके वे मार डाले गये ॥ ७८-७९१/२ ॥ साक्षात् वागीश्वरी पराम्बा जगन्मयी सरस्वती भगवती महालक्ष्मी की भाँति देवताओं के द्वारा स्तुत हुईं ॥ ८०१/२ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपसे क्रमशः काली, महालक्ष्मी तथा सरस्वती के अत्यन्त सुन्दर प्रादुर्भाव का वर्णन कर दिया ॥ ८११/२ ॥ वे ही परमा परमेश्वरी भगवती समस्त जगत् की रचना करती हैं और वे ही देवी पालन तथा संहारकार्य भी सम्पादित करती हैं । [ हे राजन् ! ] आप सांसारिक मोह को दूर करने वाली उन्हीं पूज्यतमा महामाया देवेश्वरी का आश्रय लीजिये; वे ही आपका कार्य सिद्ध करेंगी ॥ ८२-८३१/२ ॥ श्रीनारायण बोले — मुनि (सुमेधा ) – की यह परम सुन्दर बात सुनकर राजा सुरथ सभी वांछित फल प्रदान करने वाली भगवती की शरण में गये । निराहार रहते हुए एकाग्रचित्त होकर संयत आत्मावाले वे राजा सुरथ तन्मनस्क होकर देवी की पार्थिव मूर्ति की भक्तिपूर्वक पूजा करने लगे । पूजा की समाप्ति पर उन्होंने देवी को अपने शरीर के रक्त से बलि प्रदान किया ॥ ८४–८६ ॥ तब दयामयी जगन्माता देवेश्वरी प्रसन्न होकर उनके समक्ष प्रकट हो गयीं और कहने लगीं — वर माँगो। इस पर उन राजा सुरथ ने महेश्वरी से अपने मोह का नाश करनेवाले उत्तम ज्ञान तथा निष्कंटक राज्य की याचना की ॥ ८७-८८ ॥ देवी बोलीं — हे राजन् ! मैं आपको वर प्रदान करती हूँ कि इसी जन्म में आपको निष्कंटक राज्य तथा मोह का नाश करने वाला ज्ञान प्राप्त होगा । हे भूपाल ! अब आप अपने दूसरे जन्म के विषय में सुनिये। आप उस जन्म में सूर्य के अंश से जन्म लेकर सावर्णि मनु होंगे। मेरे वरदान से आप उस जन्म में भी मन्वन्तर का स्वामित्व, अत्यधिक पराक्रम तथा बहुत-सी सन्तानें प्राप्त करेंगे ॥ ८९-९१ ॥ ऐसा वर देकर भगवती उसी समय अन्तर्धान हो गयीं। वे राजा सुरथ भी देवी के अनुग्रह से मन्वन्तर के अधिपति हो गये ॥ ९२ ॥ हे साधो ! इस प्रकार मैंने सावर्णि मनु के जन्म तथा कर्म का वर्णन कर दिया। इसको पढ़ने तथा सुनने वाला व्यक्ति भगवती की कृपा प्राप्त कर लेता है ॥ ९३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत दसवें स्कन्ध का ‘देवीचरित्रसहित सावर्णिमनुवृत्तान्तवर्णन’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥ Content is available only for registered users. 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