श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-01
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-प्रथमोऽध्यायः
पहला अध्याय
भगवान् नारायण का नारदजी से देवी को प्रसन्न करने वाले सदाचार का वर्णन
मनुकृतं देवीस्तवनम्

नारद बोले — हे भगवन्! हे भूतभव्येश ! हे नारायण ! हे सनातन ! आपने भगवती के परम विस्मयकारक एवं श्रेष्ठ चरित्र का वर्णन किया। साथ ही आपके द्वारा असुरद्रोही देवताओं का कार्य सिद्ध करने के निमित्त माता भगवती के उत्तम प्राकट्य तथा देवी की पूर्ण कृपा से उनकी अधिकार-प्राप्ति का वर्णन भी किया गया ॥ १-२ ॥ हे प्रभो ! अब मैं उस आचार के विषय में सुनना चाहता हूँ, जिससे भगवती अपने भक्तों पर सदा प्रसन्न होती हैं तथा उनका पालन-पोषण करती हैं, उसे बताइये ॥ ३ ॥

श्रीनारायण बोले — हे तत्त्वों के ज्ञाता नारद ! जिस सदाचार के अनुष्ठान से देवी सर्वदा प्रसन्न रहती हैं, उसकी विधि के विषय में अब आप क्रम से सुनिये ॥ ४ ॥ प्रात:काल उठकर द्विज को प्रतिदिन जिस आचार का पालन करना चाहिये; अब मैं द्विजों का उपकार करने वाले उस आचार का भलीभाँति वर्णन करूँगा ॥ ५ ॥ द्विज को सूर्योदय से लेकर सूर्यास्तपर्यन्त नित्य, नैमित्तिक तथा अनिन्द्य काम्य कर्मों से युक्त होकर सत्कर्मों में संलग्न रहना चाहिये ॥ ६ ॥ पिता, माता, पुत्र, पत्नी तथा बन्धु बान्धव कोई भी [ परलोकमें] आत्मा के सहायतार्थ उपस्थित नहीं रहते; केवल धर्म ही उपस्थित होता है। अतः आत्मकल्याण के लिये समस्त साधनों से धर्म का नित्य संचय करना चाहिये । धर्म के ही साहाय्य से मनुष्य दुस्तर अन्धकार को पार कर लेता है ॥ ७-८ ॥

आचार ही प्रथम (मुख्य) धर्म है — ऐसा श्रुतियों तथा स्मृतियों में कहा गया है, अतएव द्विज को चाहिये कि वह अपने कल्याण के लिये इस सदाचार के पालन में नित्य संलग्न रहे ॥ ९ ॥ मनुष्य आचार से आयु प्राप्त करता है, आचार से सन्तानें प्राप्त करता है तथा आचार से अक्षय अन्न प्राप्त करता है। यह आचार पाप को नष्ट कर देता है ॥ १० ॥ आचार मनुष्यों का परम धर्म है तथा उनके लिये कल्याणप्रद है । सदाचारी व्यक्ति इस लोक में सुखी रहकर परलोक में भी सुख प्राप्त करता है ॥ ११ ॥ मोह से भ्रमित चित्त वाले तथा अज्ञानान्धकार में भटकने वाले लोगों के लिये यह आचार धर्मरूपी महान् दीपक बनकर उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाता है ॥ १२ ॥ आचार से श्रेष्ठता प्राप्त होती है, आचार से ही सत्कर्मों में प्रवृत्ति होती है और सत्कर्म से ज्ञान उत्पन्न होता है — मनु का यह प्रसिद्ध वचन है ॥ १३ ॥ यह आचार सभी धर्मों से श्रेष्ठ तथा परम तप है । उसी को ज्ञान भी कहा गया है । उसी से सब कुछ सिद्ध कर लिया जाता है ॥ १४ ॥ द्विजश्रेष्ठ होकर भी जो इस लोक में आचार से रहित है, वह शूद्र की भाँति बहिष्कार के योग्य है; क्योंकि जैसा शूद्र है वैसा ही वह भी है ॥ १५ ॥ आचार शास्त्रीय तथा लौकिक-भेद से दो प्रकार का कहा गया है। अपना कल्याण चाहने वाले को इन दोनों ही आचारों का सम्यक् पालन करना चाहिये और उनसे कभी भी विरत नहीं होना चाहिये ॥ १६ ॥

हे मुने! सभी मनुष्यों को ग्रामधर्म, जातिधर्म, देशधर्म तथा कुलधर्मों का भलीभाँति पालन करना चाहिये, उनका कभी उल्लंघन नहीं करना चाहिये ॥ १७ ॥ दुराचारी पुरुष लोक में निन्दित होता है, दुःख प्राप्त करता है और रोग से सदा ग्रस्त रहता है ॥ १८ ॥ जो अर्थ तथा काम धर्म से रहित हों, उनका त्याग कर देना चाहिये। साथ ही लोकविरुद्ध धर्म को भी छोड़ देना चाहिये; क्योंकि वह परिणाम में दु:खदायी होता है ॥ १९ ॥

नारदजी बोले — हे मुने! जगत् में तो शास्त्रों का बाहुल्य है; ऐसी स्थिति में कुछ भी कैसे निश्चित किया जाय । धर्ममार्ग का निर्णय करने वाले कितने प्रमाण हैं; यह मुझे बताइये ॥ २० ॥

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] श्रुति तथा स्मृति दोनों नेत्र हैं तथा पुराण को हृदय कहा गया है। इन तीनों में जो भी कहा गया है, वही धर्म है, इसके अतिरिक्त कहीं भी नहीं ॥ २१ ॥ इन तीनों में जहाँ परस्पर विरोध हो, वहाँ श्रुति को प्रमाण मानना चाहिये। इसी प्रकार स्मृति तथा पुराण में विरोध होने पर स्मृति श्रेष्ठ है ॥ २२ ॥ श्रुति में जहाँ दो वचनों में परस्पर विरोध हो तो वहाँ वे दोनों ही वचन धर्म हैं । यदि स्मृति में द्वैध- स्थिति हो जाय तो प्रसंगानुसार पृथक्-पृथक् विषय पुराणों में कही-कहीं तन्त्र भी सूक्ष्मरूप से व्याख्यायित किये गये हैं । जिसे धर्म बताया गया है, कल्पित कर लेने चाहिये ॥ २३ ॥ उसी को धर्मरूप से ग्रहण करना चाहिये, किसी अन्य को किसी भी तरह नहीं ॥ २४ ॥ यदि तन्त्र का वचन वेदविरोधी नहीं है तो उसकी प्रामाणिकता में सन्देह नहीं है, किंतु श्रुति से जो प्रत्यक्ष विरुद्ध हो, वह वचन प्रमाण नहीं हो सकता ॥ २५ ॥ वेद ही पूर्णरूप से धर्म-मार्ग के प्रमाण हैं । उस वेदराशि से विरोध न रखने वाला जो कुछ भी है, वही प्रमाण है; दूसरा नहीं ॥ २६ ॥ वेद – प्रतिपादित धर्म को छोड़कर जो अन्य को प्रमाण मानकर व्यवहार करता है, उसे दण्डित करने के लिये यमलोक में नरककुण्ड स्थित हैं । अतएव सभी प्रयत्नों से वेदोक्त धर्म का ही आश्रय लेना चाहिये । स्मृति, पुराण, तन्त्र, शास्त्र तथा अन्य ग्रन्थ – इनके वेदमूलक होने की स्थिति में ही वे प्रमाण होते हैं; इसके विपरीत वे कभी भी प्रमाण नहीं हो सकतें ॥ २७-२८१/२

जो लोग इस लोक मनुष्यों को निन्दित शास्त्रों का उपदेश करते हैं, वे मुख नीचे तथा पैर ऊपर किये हुए नरकसागर जायँगे ॥ २९१/२

स्वेच्छाचारी, पाशुपतमार्गावलम्बी, लिंगधारी, तप्त मुद्रा से अंकित तथा वैखानस मत मानने वाले जो भी लोग हैं, वेदमार्ग से विचलित होने के कारण वे सभी नरक जाते हैं ॥ ३०-३१ ॥ अतएव मनुष्य को सदा वेदोक्त सद्धर्म का ही पालन करना चाहिये । उसे सावधान होकर बार-बार विचार करना चाहिये कि आज मैंने कौन-कौन-सा कार्य किया, क्या दिया, क्या दिलाया अथवा वाणी से कैसा सम्भाषण किया ? यह भी सोचना चाहिये कि अत्यन्त दारुण सभी पातकों तथा उपपातकों में कहीं मेरी प्रवृत्ति तो नहीं हो गयी ॥ ३२-३३ ॥

रात्रि के चौथे प्रहर में [ उठकर ] ब्रह्मध्यान करन चाहिये। जंघाओं पर पैर को ऊपर की ओर करके (पद्मासन में) बैठे, बायीं जंघा पर दाहिना पैर उत्तान करके रखना चाहिये। हनु (ठुड्डी) – को वक्षःस्थल से लगाकर नेत्रों को बन्द करके सहज भाव में स्थित होकर बैठना चाहिये, दाँतों का दाँतों से स्पर्श नहीं करना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥ जिह्वा को तालुके समीप अचल स्थिति में रखे, मुँह बन्द किये रहे, शान्तचित्त रहे, इन्द्रियसमूहों पर नियन्त्रण रखे तथा बहुत नीचे आसन पर स्थित न हो । दो बार अथवा तीन बार प्राणायाम करना चाहिये । तत्पश्चात् दीपकस्वरूप जो प्रभु हृदय में अवस्थित हैं, उनका ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार विद्वान् व्यक्ति को अपने हृदय में परमात्मा के विराजमान रहने की धारणा करनी चाहिये ॥ ३६-३७१/२

सधूम (श्वाससहित ), विधूम (श्वासरहित), सगर्भ (मन्त्र-जपसहित), अगर्भ ( मन्त्ररहित), सलक्ष्य (इष्टदेव के ध्यानसहित) और अलक्ष्य (ध्यानरहित) — यह छ: प्रकार का प्राणायाम होता है । प्राणायाम में वायु का नियमन किया जाता है, अतएव इस प्राणायाम को  ही योग कहा गया है ॥ ३८-३९ ॥ यह प्राणायाम भी रेचक, पूरक तथा कुम्भक भेदोंवाला कहा गया है। रेचक, पूरक तथा कुम्भक – संज्ञक प्राणायाम वर्णत्रयात्मक है, इसी को प्रणव कहा गया है। उस प्रणव में तन्मय हो जाना ही प्राणायाम है ॥ ४०१/२

पूर्णरूप से इडा नाड़ी से वायु को ऊपर खींचकर उदर में स्थित कर लेने के अनन्तर पुनः दूसरी (पिंगला) नाड़ी से धीरे-धीरे सोलह मात्रा में उस वायु को निकालना चाहिये । हे मुने! इस प्रकार यह सधूम प्राणायाम कहा गया है ॥ ४१-४२ ॥ मूलाधार, लिंग, नाभि, हृदय, कंठ तथा ललाट (भ्रूमध्य) – में क्रमशः चतुर्दल, षड्दल, दशदल, द्वादशदल, षोडशदल तथा द्विदल कमल विद्यमान हैं। मूलाधारचक्र में वँ, शँ, षँ, सँ वर्णों; स्वाधिष्ठानचक्र में बँ, भँ, मँ, यँ, रँ, लँ वर्णों; मणिपूरकचक्र में डँ, ढँ, णँ, तँ, थँ, दँ, धँ, नँ, पँ, फँ वर्णों; अनाहतचक्र में कँ, खँ, गँ, घँ, डँ, चँ, छँ, जँ, झँ, ञँ, टँ, ठँ वर्णों; विशुद्धाख्यचक्र (कण्ठदेश ) – में सभी सोलह स्वरों तथा आज्ञाचक्र में हँ,क्षँ वर्णों वाले द्विदल पद्म में विराजमान तत्त्वार्थयुक्त उन ब्रह्मस्वरूप सभी वर्णों को  मैं प्रणाम करता हूँ ॥ ४३ ॥

जिसके चित्त में एक बार भी अरुणकमलासना,पद्मराग के पुंज के समान वर्णवाली, शिवलिंग से अंकित, कमलतन्तु के समान सूक्ष्म स्वरूपवाली, सूर्य- अग्नि-चन्द्र (-रूपी नेत्रों)-से आलोकित मुखमण्डल और उन्नत स्तनों से सुशोभित जगदम्बा का निवास हो जाता है, वही मुक्त है ॥ ४४ ॥ वे भगवती ही स्थिति हैं, वे ही गति हैं, वे ही यात्रा हैं, वे ही मति हैं, वे ही चिन्ता हैं, वे ही स्तुति हैं और वे ही वाणी हैं। मैं सर्वात्मा देवता हूँ और मेरे द्वारा की गयी स्तुति ही आपकी समस्त अर्चना है, मैं स्वयं देवीरूप हूँ, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं। मैं ही ब्रह्म हूँ, मुझमें शोक व्याप्त नहीं हो सकता और मैं सच्चिदानन्दस्वरूप हूँ — ऐसा अपने को समझना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥

प्रथम प्रयाण के समय अर्थात् मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र की ओर (जाते समय) विद्युत्-सदृश प्रकाशमान, प्रतिप्रयाण में अमृतसदृश प्रतीति वाली तथा अन्तिम प्रयाण में सुषुम्ना नाड़ी में संचरित होने वाली आनन्दस्वरूप भगवती कुण्डलिनी की मैं शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ४७ ॥ तत्पश्चात् अपने ब्रह्मरन्ध्र में ईश्वररूप उन गुरु का ध्यान करना चाहिये और मानसिक उपचारों से विधिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये । पुनः साधक को संयतचित्त होकर इस मन्त्र से गुरु की प्रार्थना करनी चाहिये —

‘गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः ।
गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥’

गुरु ही ब्रह्मा हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही देवता हैं, गुरु ही महेश्वर शिव हैं और गुरु ही परब्रह्म हैं; उन श्रीगुरु को नमस्कार है ॥ ४८-४९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘प्रातश्चिन्तन’ नामक पहला अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १ ॥

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