May 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-18 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः अठारहवाँ अध्याय भगवती की पूजा-विधि का वर्णन, अन्नपूर्णादेवी के माहात्म्य में राजा बृहद्रथ का आख्यान बृहद्रथकथानकम् नारदजी बोले — हे मानद ! अब मैं श्रीदेवी की विशेष पूजा का विधान सुनना चाहता हूँ, जिसके करने से मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है ॥ १ ॥ श्रीनारायण बोले — हे देवर्षे ! समस्त आपदाओं को दूर करने वाले तथा साक्षात् भुक्ति- मुक्ति प्रदान करने वाले श्रीमाता के पूजन का क्रम मैं बता रहा हूँ; आप इसे सुनिये ॥ २ ॥ वाक्संयमी को सर्वप्रथम आचमन करके संकल्प करने के बाद भूतशुद्धि आदि करनी चाहिये । पुनः पहले मातृकान्यास करके षडंगन्यास करना चाहिये ॥ ३ ॥ तत्पश्चात् बुद्धिमान् पुरुष को चाहिये कि शंख की स्थापना करके कलश स्थापन करने के अनन्तर अस्त्र- मन्त्र से समस्त पूजाद्रव्यों का प्रोक्षण करे। इसके बाद गुरु से आदेश प्राप्त करके पूजा आरम्भ करनी चाहिये। पहले पीठ-पूजन करके बाद में देवी का ध्यान करना चाहिये ॥ ४-५ ॥ भगवती को भक्ति तथा प्रेम से युक्त होकर आसन आदि उपचार अर्पण करने के पश्चात् पंचामृत तथा रस आदि से उन्हें स्नान कराना चाहिये। जो मनुष्य पौण्ड्र नामक गन्ने के रस से भरे हुए सौ कलशों द्वारा भगवती महेश्वरी को स्नान कराता है, वह पुनः जन्म ग्रहण नहीं करता ॥ ६-७ ॥ इसी प्रकार जो पुरुष वेद का पारायण करके आम के रस से तथा ईख के रस से जगदम्बिका को स्नान कराता है, लक्ष्मी तथा सरस्वती उसके घर का त्याग कभी नहीं करतीं । जो श्रेष्ठ मानव वेदपारायण करते हुए द्राक्षारस से भगवती महेश्वरी का अभिषेक करता है, वह अपने कुटुम्ब – सहित उस रस में विद्यमान रेणुओं की संख्या बराबर वर्षों तक देवीलोक में प्रतिष्ठा प्राप्त करता है ॥ ८–१० ॥ वेद -पारायण करते हुए जो पुरुष कर्पूर, अगुरु, केसर, कस्तूरी और कमल के जल से भगवती को स्नान कराता है; उसके सैकड़ों जन्मों के अर्जित पाप भस्म हो जाते हैं। जो पुरुष वेदमन्त्रों का पाठ करते हुए दुग्ध से पूर्ण कलशों से देवी को स्नान कराता है, वह क्षीरसागर में कल्पपर्यन्त निरन्तर वास करता है । जो उन भगवती को दधि से स्नापित करता है, वह दधिकुल्या नदी का स्वामी होता है ॥ ११–१३ ॥ इसी प्रकार जो मनुष्य मधु से, घृत से तथा शर्करा से भगवती को स्नान कराता है, वह मधुकुल्या आदि नदियों का अधिपति होता है ॥ १४ ॥ भक्ति में तत्पर होकर हजार कलशों से देवी को स्नान कराने वाला मनुष्य इस लोक में सुखी होकर परलोक में भी सुखी होता है ॥ १५ ॥ भगवती को एक जोड़ा रेशमी वस्त्र प्रदान करके वह पुरुष वायुलोक में जाता है। इसी प्रकार रत्नों से निर्मित आभूषण प्रदान करने वाला निधिपति हो जाता है ॥ १६ ॥ देवी को कस्तूरी की बिन्दी से सुशोभित केसर का चन्दन, ललाट पर सिन्दूर तथा उनके चरणों में महावर अर्पित करने से वह व्यक्ति इन्द्रासन पर विराजमान होकर दूसरे देवेन्द्र के रूप में सुशोभित होता है ॥ १७१/२ ॥ साधुपुरुषों ने पूजाकर्म में प्रयुक्त होने वाले अनेक प्रकार के पुष्पों का वर्णन किया है; यथोपलब्ध उन पुष्पों को देवी को अर्पण करके मनुष्य स्वयं कैलासधाम प्राप्त कर लेता है ॥ १८१/२ ॥ जो मनुष्य पराशक्ति जगदम्बा को अमोघ बिल्वपत्र अर्पित करता है, उसे कभी किसी भी परिस्थिति में दुःख नहीं होता है ॥ १९१/२ ॥ तीन पत्तेवाले बिल्वदल पर लाल चन्दन से यत्नपूर्वक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुन्दर अक्षरों में मायाबीज (ह्रीं) तीन बार लिखे । मायाबीज जिसके आदि में हो, भुवनेश्वरी इस नाम के साथ चतुर्थी विभक्ति का उच्चारण करके उसके अन्त में ‘नमः’ जोड़कर ( ॐ ह्रीं भुवनेश्वर्यै नमः) इस मन्त्र से महादेवी भगवती के चरणकमल में परम भक्तिपूर्वक वह कोमल बिल्वपत्र समर्पित करे। जो इस प्रकार भक्तिपूर्वक करता है, वह मनुत्व प्राप्त कर लेता है और जो अत्यन्त कोमल तथा निर्मल एक करोड़ बिल्वपत्रों से भुवनेश्वरी की पूजा करता है, वह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का अधिपति होता है ॥ २०–२३१/२ ॥ अष्टगन्ध से चर्चित एक करोड़ नवीन तथा सुन्दर कुन्द-पुष्पों से जो उनकी पूजा करता है, वह निश्चितरूप से प्रजापति का पद प्राप्त करता है । इसी प्रकार अष्टगन्ध से चर्चित एक करोड़ मल्लिका तथा मालती के पुष्पों से भगवती की पूजा के द्वारा वह चतुर्मुख ब्रह्मा हो जाता है ॥ २४-२५१/२ ॥ हे मुने! इसी तरह दस करोड़ उन्हीं पुष्पों से भगवती का अर्चन करके मनुष्य विष्णुत्व प्राप्त कर लेता है, जो देवताओं के लिये भी दुर्लभ है । अपना विष्णुपद प्राप्त करने के लिये भगवान् विष्णु ने भी पूर्वकाल में यह व्रत किया था । सौ करोड़ पुष्पों से देवी की पूजा करने वाला मनुष्य सूत्रात्मत्व (सूक्ष्म ब्रह्मपद) अवश्य ही प्राप्त कर लेता है । भगवान् विष्णु ने भी पूर्व काल में प्रयत्नपूर्वक भक्ति के साथ सम्यक् प्रकार से इस व्रत को अनुष्ठित किया था; उसी व्रत के प्रभाव से वे हिरण्यगर्भ हुए ॥ २६-२८१/२ ॥ जपाकुसुम, बन्धूक और दाडिम का पुष्प भी देवी को अर्पित किया जाता है — ऐसी विधि कही गयी है । इसी प्रकार अन्य पुष्प भी श्रीदेवी को विधिपूर्वक अर्पित करने चाहिये। उसके पुण्यफल की सीमा वे ईश्वर भी नहीं जानते ॥ २९-३०१/२ ॥ जिस-जिस ऋतु में जो-जो पुष्प उपलब्ध हो सकें, सहस्रनाम की संख्या के अनुसार उन पुष्पों को प्रमादरहित होकर प्रत्येक वर्ष भगवती को समर्पित करना चाहिये। जो भक्तिपूर्वक ऐसा करता है, वह महापातकों तथा उपपातकों से युक्त होने पर भी सभी पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ३१-३२१/२ ॥ हे मुने! ऐसा श्रेष्ठ साधक देहावसान के पश्चात् श्रेष्ठ देवताओं के लिये भी दुर्लभ श्रीदेवी के चरणकमल को प्राप्त कर लेता है; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ३३१/२ ॥ कृष्ण अगुरु, कर्पूर, चन्दन, सिल्हक (लोहबान), घृत और गुग्गुल से संयुक्त धूप महादेवी को समर्पित करना चाहिये, जिससे मन्दिर धूपित हो जाय; इससे प्रसन्न होकर देवेश्वरी तीनों लोक प्रदान कर देती हैं ॥ ३४-३५१/२ ॥ देवी को कर्पूर-खण्डों से युक्त दीपक निरन्तर अर्पित करना चाहिये; ऐसा करने वाला उपासक सूर्यलोक प्राप्त कर लेता है; इसमें संशय नहीं करना चाहिये। समाहितचित्त होकर एक सौ अथवा हजार दीपक देवी को प्रदान करने चाहिये ॥ ३६-३७ ॥ देवी के सम्मुख पर्वत की आकृति के रूप में नैवेद्यराशि स्थापित करे; जिसमें लेह्य, चोष्य, पेय तथा षड्-रसों वाले पदार्थ हों। अनेक प्रकार के दिव्य, स्वादिष्ट तथा रसमय फल एवं अन्न स्वर्णपात्र में रखकर भगवती को निरन्तर अर्पित करे ॥ ३८-३९ ॥ श्रीमहादेवी के तृप्त होने पर तीनों लोक तृप्त हो जाते हैं; क्योंकि सम्पूर्ण जगत् उन्हीं का आत्मरूप है; जिस प्रकार रज्जु में सर्प का आभास मिथ्या है, उसी प्रकार जगत् का आभास भी मिथ्या है ॥ ४० ॥ तत्पश्चात् अत्यन्त पवित्र गंगाजल भगवती को पीने के लिये निवेदित करे और कर्पूर तथा नारियल-जलसे युक्त कलश का शीतल जल भी देवी को समर्पित करे ॥ ४१ ॥ तत्पश्चात् कर्पूर के छोटे-छोटे टुकड़ों, लवंग तथा इलायची से युक्त और मुख को सुगन्धि प्रदान करने वाला ताम्बूल अत्यन्त भक्तिपूर्वक देवी को अर्पित करे, जिससे देवी प्रसन्न हो जायँ । इसके बाद मृदंग, वीणा, मुरज, ढक्का तथा दुन्दुभि आदि की ध्वनियों से; अत्यन्त मनोहर गीतों से; वेद- पारायणों से; स्तोत्रों से तथा पुराण आदि के पाठ से जगत् को धारण करने वाली भगवती को सन्तुष्ट करना चाहिये ॥ ४२–४४ ॥ तदनन्तर समाहितचित्त होकर देवी को छत्र तथा दो चँवर अर्पण करे। उन श्रीदेवी को नित्य राजोचित उपचार समर्पित करना चाहिये ॥ ४५ ॥ अनेक प्रकार से देवी की प्रदक्षिणा करे तथा उन्हें नमस्कार करे और जगद्धात्री जगदम्बा से बार-बार क्षमाप्रार्थना करे ॥ ४६ ॥ एक बार के स्मरणमात्र से जब देवी प्रसन्न हो जाती हैं तब इस प्रकार के पूजनोपचारों से वे प्रसन्न हो जायँ तो इसमें कौन-सा आश्चर्य है ? ॥ ४७ ॥ माता स्वाभाविक रूप से पुत्र पर अति करुणा करने वाली होती है, फिर जो माता के प्रति भक्तिपरायण है, उसके विषय में कहना ही क्या ? ॥ ४८ ॥ इस विषय में मैं राजर्षि बृहद्रथ से सम्बद्ध एक रोचक तथा भक्तिप्रदायक सनातन पौराणिक आख्यान का वर्णन आपसे करूँगा ॥ ४९ ॥ हिमालय पर किसी जगह एक चक्रवाक पक्षी रहता था। वह अनेकविध देशों का भ्रमण करता हुआ काशीपुरी पहुँच गया ॥ ५० ॥ वहाँ वह पक्षी प्रारब्धवश अनाथ की भाँति अन्न-कणों के लोभ से लीलापूर्वक भगवती अन्नपूर्णा के दिव्य धाम में जा पहुँचा ॥ ५१ ॥ आकाश में घूमते हुए वह पक्षी मन्दिर की एक प्रदक्षिणा करके मुक्तिदायिनी काशी को छोड़कर किसी अन्य देश में चला गया ॥ ५२ ॥ कालान्तर में वह मृत्यु को प्राप्त हो गया और स्वर्ग चला गया। वहाँ एक दिव्य रूपधारी युवक होकर वह समस्त सुखों का भोग करने लगा ॥ ५३ ॥ इस प्रकार कल्प तक वहाँ सुखोपभोग करने के बाद वह पुनः पृथ्वीलोक में आया । क्षत्रियों के कुल में उसने सर्वोत्तम जन्म प्राप्त किया और पृथ्वीमण्डल पर बृहद्रथ नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह महान् यज्ञनिष्ठ, धर्मपरायण, सत्यवादी, इन्द्रियजयी, त्रिकालज्ञ, सार्वभौम, संयमी और शत्रु-राज्यों को जीतने वाला राजा हुआ। उसे पूर्वजन्म की बातों का स्मरण था, जो पृथ्वी पर दूसरों के लिये दुर्लभ है ॥ ५४–५६ ॥ जनश्रुति के माध्यम से उसके विषय में सुनकर मुनिगण वहाँ आये। उन नृपेन्द्र से आतिथ्य सत्कार पाकर वे आसनों पर विराजमान हुए ॥ ५७ ॥ तत्पश्चात् सभी मुनियों ने पूछा — हे राजन् ! हम लोगों को इस बात का महान् सन्देह है कि किस पुण्य के प्रभाव से आपको पूर्वजन्म की स्मृति हो जाती है और किस पुण्य के प्रभाव से आपको तीनों कालों ( भूत, भविष्य, वर्तमान) – का ज्ञान है ? आपके उस ज्ञान विषय में जानने के लिये हमलोग आपके पास आये हुए हैं। आप निष्कपट भाव से यथार्थरूप में उसे हमें बतायें ॥ ५८-५९१/२ ॥ श्रीनारायण बोले — हे ब्रह्मन् ! उनकी यह बात सुनकर परम धार्मिक राजा अपने त्रिकालज्ञान का सारा रहस्य बताने लगे ॥ ६० ॥ हे मुनिगणो! आप लोग मेरे इस ज्ञान का कारण सुनिये। मैं पूर्वजन्म में चक्रवाक पक्षी था । नीच योनि में जन्म लेने पर भी मैंने अज्ञानपूर्वक भगवती अन्नपूर्णा की प्रदक्षिणा कर ली थी। हे सुव्रतो ! उसी पुण्यप्रभाव से मैंने दो कल्पपर्यन्त स्वर्ग में निवास किया और उसके बाद इस जन्म में भी मुझमें त्रिकालज्ञता विद्यमान है ॥ ६१–६३ ॥ जगदम्बा के चरणों के स्मरण का कितना फल होता है — इसे कौन जान सकता है ? उनकी महिमा का स्मरण करते ही मेरी आँखों से निरन्तर अश्रु गिरने लगते हैं ॥ ६४ ॥ किंतु उन कृतघ्न तथा पापियों के जन्म को धिक्कार है, जो सभी प्राणियों की जननी तथा अपनी उपास्य भगवती की आराधना नहीं करते ॥ ६५ ॥ न तो शिव की उपासना नित्य है और न तो विष्णु की उपासना नित्य है । एकमात्र परा भगवती की उपासना ही नित्य है; क्योंकि श्रुति द्वारा वे नित्या कही गयी हैं ॥ ६६ ॥ इस सन्देहरहित विषय में मैं अधिक क्या कहूँ ! भगवती के चरणकमलों की सेवा निरन्तर करनी चाहिये ॥ ६७ ॥ इन भगवती से बढ़कर इस धरातल पर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। अतः सगुणा अथवा निर्गुणा किसी भी रूप में उन परा भगवती की उपासना करनी चाहिये ॥ ६८ ॥ श्रीनारायण बोले — उन धार्मिक राजर्षि का यह वचन सुनकर प्रसन्न हृदय वाले वे सभी मुनि अपने-अपने स्थान पर चले गये ॥ ६९ ॥ वे भगवती जगदम्बा इस प्रकार के प्रभाववाली हैं तथा उनकी पूजा का कितना फल होता है — इस विषय में न कोई पूछने में समर्थ है और न कोई बताने में समर्थ है ॥ ७० ॥ जिनका जन्म सफल होने को होता है, उन्हीं लोगों के मन में देवी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है। जो लोग वर्णसंकर जन्म वाले हैं, उनके मन में देवी के प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होती ॥ ७१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘देवीमाहात्म्य में बृहद्रथकथानक’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ Content is available only for registered users. 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