श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-19
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः
उन्नीसवाँ अध्याय
मध्याह्न-सन्ध्या तथा गायत्री-जप का फल
मध्याह्नसंध्यावर्णनम्

श्रीनारायण बोले — हे ब्रह्मन् ! अब आप मध्याह्न- कालीन पुण्यदायिनी सन्ध्या के विषय में सुनिये, जिसका अनुष्ठान करने से अद्भुत तथा अतिश्रेष्ठ फल प्राप्त होता है ॥ १ ॥

युवावस्था वाली, श्वेत वर्ण वाली, तीन नेत्रों वाली, हाथों में वरदमुद्रा-अक्षमाला – त्रिशूल तथा अभयमुद्रा धारण करने वाली, वृषभ पर विराजमान, यजुर्वेदसंहिता- स्वरूपिणी, रुद्र के द्वारा उपास्य, तमोगुण से सम्पन्न, भुवर्लोक में स्थित रहने वाली तथा सूर्य को उनके मार्ग पर संचरण कराने वाली, महामाया गायत्री को मैं प्रणाम करता हूँ — इस प्रकार आदिदेवी का ध्यान करके आचमन आदि सभी क्रियाएँ पूर्व की भाँति करनी चाहिये ॥ २-४ ॥

अब अर्घ्य का प्रकरण बताता हूँ। इसके लिये पुष्प चुनना चाहिये । पुष्प के अभाव में बिल्वपत्र को जल में मिला लेना चाहिये और सूर्य की ओर मुख करके ऊपर की ओर जल छोड़कर अर्घ्य प्रदान करना चाहिये। आदि से लेकर अन्त तक सभी नियम प्रातः कालीन सन्ध्या के ही समान हैं ॥ ५-६ ॥ कुछ लोग मध्याह्नसन्ध्या में गायत्रीमन्त्र ‘तत्सवितुः० ‘ पढ़कर अर्घ्य प्रदान करने की सम्मति देते हैं, किंतु वह कर्म परम्पराविरुद्ध है और इससे कार्य की हानि होती है ॥ ७ ॥

[प्रातः तथा सायं ] दोनों सन्ध्याओं को करने का वेदोक्त कारण यह है कि मन्देहा नाम वाले राक्षस सूर्य का भक्षण करना चाहते हैं । अतएव उन राक्षसों के निवारण के निमित्त ब्राह्मण को प्रयत्नपूर्वक सन्ध्या करनी चाहिये । प्रातः तथा सायंकाल की दोनों सन्ध्याओं में नित्य प्रणवसहित गायत्रीमन्त्र से [ अर्घ्य के निमित्त ] जल का प्रक्षेप करना चाहिये, अन्यथा वह श्रुतिघातक होता है । [ मध्याह्नकाल की सन्ध्या में] जलमिश्रित पुष्पों से और यदि पुष्प न मिल सके तो बिल्व और दूर्वा आदि के पत्र से पूर्व में बतायी गयी विधि के अनुसार प्रयत्नपूर्वक ‘आकृष्णेन० ‘ इस मन्त्र से सूर्य को अर्घ्य प्रदान करना चाहिये। ऐसा करने वाला सांगोपांग सन्ध्या का फल प्राप्त करता है ॥ ८- ११ ॥

हे देवर्षिसत्तम! अब इसी प्रकरण में तर्पण की विधि बता रहा हूँ, उसे सुनिये। ‘भुवः पूरुषं तर्पयामि नमो नमः’, ‘यजुर्वेदं तर्पयामि नमो नमः’, ‘ मण्डलं तर्पयामि नमो नमः ‘ — इसी प्रकार हिरण्यगर्भ, अन्तरात्मा, सावित्री, देवमाता, सांकृति, सन्ध्या, युवती, रुद्राणी, नीमृजा, सर्वार्थसिद्धिकरी, सर्वार्थमन्त्रसिद्धिदा और भूर्भुवः स्वः पूरुषं — इन नामों के साथ ‘तर्पयामि नमो नमः’ जोड़कर तर्पण करना चाहिये। यह मध्याह्न-तर्पण है ॥ १२–१५ ॥ तदनन्तर ‘उदुत्यम्०’ तथा ‘चित्रं देवानाम्० ‘ – इन मन्त्रों से सूर्योपस्थान करना चाहिये । तत्पश्चात् मन्त्र-साधन में तत्पर रहने वाले साधक को जप करना चाहिये। हे नारद! अब मैं जप का भी प्रकार बताऊँगा; सुनिये ॥ १६-१७ ॥

प्रातः काल दोनों हाथों को उत्तान करके, सायंकाल में हाथों को नीचे की ओर करके तथा मध्याह्न-काल में उन्हें हृदय के पास करके जप करना चाहिये ॥ १८ ॥ अनामिका अँगुली के दूसरे पर्व (मध्य पोर) – से आरम्भ करके कनिष्ठिका आदि के क्रम से तर्जनी अँगुली के मूलपर्यन्त करमाला कही गयी है ॥ १९ ॥ जो गोहत्यारा, माता-पिता की हत्या करने वाला, भ्रूणघाती, गुरुपत्नी के साथ गमन करनेवाला, ब्राह्मण का धन तथा भूमि हरने वाला है और जो विप्र सुरापान करता है, वह गायत्री के एक हजार जप से पवित्र हो जाता है। गायत्री – जप तीन जन्मों के मानसिक तथा वाचिक पाप और विषयेन्द्रियों के संयोग से उत्पन्न होने वाले पाप को विनष्ट कर देता है । जो मनुष्य गायत्रीमन्त्र नहीं जानता, उसका सम्पूर्ण परिश्रम व्यर्थ है ॥ २०-२२ ॥ मनुष्य एक ओर चारों वेदों को पढ़े तथा दूसरी ओर गायत्रीजप करे, इनमें वेदों की आवृत्ति से गायत्रीजप उत्तम है। यह मैंने आपको मध्याह्न-सन्ध्या की विधि बतायी और अब ब्रह्मयज्ञ की विधि का क्रम बताऊँगा ॥ २३-२४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘मध्याह्न-सन्ध्यावर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

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