श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-20
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-विंशोऽध्यायः
बीसवाँ अध्याय
तर्पण तथा सायंसन्ध्या का वर्णन
ब्रह्मयज्ञादिकीर्तनम्

श्रीनारायण बोले — हे नारद! द्विज को चाहिये कि पहले तीन बार आचमन करके दो बार मार्जन करे। इसके बाद पहले अपने दाहिने हाथ का तदनन्तर पैरों का प्रोक्षण करे। इसी प्रकार सिर, नेत्र, नासिका, कान, हृदय तथा शिखा का विधिवत् प्रोक्षण करना चाहिये ॥ १-२ ॥ तदनन्तर देश-काल का उच्चारण करके ब्रह्मयज्ञ करे । दाहिने हाथ में दो कुशा, बायें हाथ में तीन कुशा, आसन पर एक कुशा, यज्ञोपवीत में एक कुशा, शिखा पर एक कुशा और पादमूल में एक कुशा रखे। इसके बाद विमुक्त होने के लिये, सम्पूर्ण पापों के विनाश हेतु तथा सूत्रोक्त देवता की प्रसन्नता के लिये मैं ब्रह्मयज्ञ कर रहा हूँ — ऐसा संकल्प करे ॥ ३-४१/२

पहले तीन बार गायत्री का जप करे और इसके बाद ‘अग्निमीडे ०’, फिर ‘यदङ्गे०’ का उच्चारण करके ‘अग्निर्वै०’ इस मन्त्र को बोलना चाहिये । तत्पश्चात् ‘अथ महाव्रतं चैव पन्थाः० ‘ – इसका भी पाठ करना चाहिये ॥ ५-६ ॥ तत्पश्चात् संहिता के ‘विदा मघवत्० ‘, ‘महाव्रतस्य० ‘, ‘इषे त्वोर्जे० ‘, ‘ अग्न आयाहि० ‘, ‘शन्नो देवी० ‘, ‘अथ तस्य समाम्नायो वृद्धिरादैच्० ‘, ‘अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि० ‘, ‘पञ्चसंवत्सर० ‘, ‘मयरसतजभन० ‘ और ‘गौग्म० ‘ इत्यादि मन्त्रों का भी पाठ करना चाहिये । पुन: ‘अथातो धर्मजिज्ञासा’ और ‘अथातो ब्रह्मजिज्ञासा’ के साथ ‘तच्छंयो० ‘ तथा ‘ब्रह्मणे नमः’  — इन मन्त्रों का भी पाठ करना चाहिये ॥ ७–१० ॥ तदनन्तर देवताओं का तर्पण करके प्रदक्षिणा करनी चाहिये। [तर्पण के समय ] प्रजापति, ब्रह्मा, वेद, देवता, ऋषि, सभी छन्द, ॐकार, वषट्कार, व्याहृतियाँ, सावित्री, गायत्री, यज्ञ, द्यावा, पृथ्वी, अन्तरिक्ष, अहोरात्र, सांख्य, सिद्ध, समुद्र, नदियाँ, पर्वत, क्षेत्र, औषधि, वनस्पतियाँ, गन्धर्व, अप्सराएँ, नाग, पक्षी, गौएँ, साध्यगण, विप्रगण, यक्ष, राक्षस, भूत एवं यमराज आदि के नामों का उच्चारण करना चाहिये ॥ ११–१५ ॥

एतदनन्तर यज्ञोपवीत को कण्ठी की भाँति करके शतर्चि, माध्यम, गृत्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अत्रि, भरद्वाज, वसिष्ठ, प्रगाथ, पावमान्य, क्षुद्रसूक्त, महासूक्त, सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कुमार, कपिल, आसुरि, वोहलि तथा पंचशीर्ष इन ऋषियों का तर्पण करना चाहिये। इसके बाद अपसव्य होकर सुमन्तु, जैमिनि, वैशम्पायन, पैल, सूत्र, भाष्य, भारत, महाभारत तथा धर्माचार्यों का तर्पण करे तथा ये सभी तृप्त हो जायँ ऐसा उच्चारण करे । इसी प्रकार जानन्ति, बाहवि, गार्ग्य, गौतम, शाकल, बाभ्रव्य, माण्डव्य, माण्डूकेय, गार्गी, वाचक्नवी, वडवा, प्रातिथेयी, सुलभा, मैत्रेयी, कहोल, कौषीतक, महाकौषीतक, भारद्वाज, पैंग्य, महापैंग्य, सुयज्ञ, सांख्यायन, ऐतरेय, महैतरेय, बाष्कल, शाकल, सुजातवक्त्र, औदवाहि, सौजामि, शौनक और आश्वलायन इनका तर्पण करे तथा जो अन्य आचार्य हों, वे सब भी तृप्ति को प्राप्त हों – ऐसा कहे । इसके बाद इस प्रकार उच्चारण करते हुए तर्पण करे — जो कोई भी मेरे कुल में उत्पन्न होकर अपुत्र ही दिवंगत हो चुके हैं तथा मेरे गोत्र से सम्बद्ध हैं, वे मेरे द्वारा वस्त्र निचोड़कर दिये गये जल को ग्रहण करें । हे महामुने ! इस प्रकार मैंने आपको ब्रह्मयज्ञ की विधि बतला दी ॥ १६-२७ ॥

जो साधक ब्रह्मयज्ञ की इस उत्तम विधि का सम्यक् पालन करता है, वह अंगोंसहित समस्त वेदों के पाठ का फल प्राप्त कर लेता है ॥ २८ ॥ इसके बाद वैश्वदेव तथा नित्यश्राद्ध करना चाहिये । अतिथियों को अन्नदान नित्य करना चाहिये ॥ २९ ॥ गोग्रास देने के पश्चात् ब्राह्मणों के साथ बैठकर भोजन करना चाहिये । यह उत्तम कार्य दिन के पाँचवें भाग में करना चाहिये ॥ ३० ॥ दिन का छठाँ तथा सातवाँ भाग इतिहास, पुराण आदि के स्वाध्याय में व्यतीत करना चाहिये । दिन के आठवें भाग में लोक-व्यवहार-सम्बन्धी कार्यों को करे और इसके बाद सायंसन्ध्या करे ॥ ३१ ॥

हे महामुने ! अब मैं सायंकाल की सन्ध्या का वर्णन करूँगा, जिसके अनुष्ठानमात्र से भगवती महामाया प्रसन्न हो जाती हैं ॥ ३२ ॥ सायं वेला में साधक योगी को आचमन तथा प्राणायाम करके शान्तचित्त हो पद्मासन लगाकर निश्चलरूप से बैठ जाना चाहिये ॥ ३३ ॥ श्रुति-स्मृतिसम्बन्धी कर्मों में प्राणवायु को संयमित करके किया जाने वाला समन्त्रक प्राणायाम सगर्भ कहा गया है तथा ध्यानमात्र वाला प्राणायाम अगर्भ है; वह अगर्भ प्राणायाम अमन्त्रक कहा गया है ॥ ३४ ॥ भूतशुद्धि आदि करके ही कर्म में प्रवृत्त होना चाहिये, अन्यथा उसे कर्म नहीं कहा जा सकता । लक्ष्य स्थिर करके पूरक, कुम्भक और रेचक प्राणायाम द्वारा इष्ट देवता का ध्यान करके विद्वान् पुरुष को सायंकाल में सन्ध्या करते समय इस प्रकार ध्यान करना चाहिये

वृद्धां सरस्वतीं देवीं कृष्णाङ्‌गीं कृष्णवाससम् ॥ ३६ ॥
शङ्‌खचक्रगदापद्महस्तां गरुडवाहनाम् ।
नानारत्‍नलसद्‍भूषां क्वणन्मञ्जीरमेखलाम् ॥ ३७ ॥
अनर्घ्यरत्‍नमुकुटां तारहारावलीयुताम् ।
ताटङ्‌कबद्धमाणिक्यकान्तिशोभिकपोलकाम् ॥ ३८ ॥
पीताम्बरधरां देवीं सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
सामवेदेन सहितां संयुतां सत्त्ववर्त्मना ॥ ३९ ॥
व्यवस्थितां च स्वर्लोके आदित्यपय्हगामिनीम् ।
आवाहयाम्यहं देवीमायान्तीं सूर्यमण्डलात् ॥ ४० ॥

‘भगवती सरस्वती वृद्धावस्था को प्राप्त हैं, कृष्णवर्ण हैं, वे कृष्ण वस्त्र धारण की हुई हैं, उन्होंने हाथों में शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण कर रखा है, वे गरुडरूपी वाहन पर विराजमान हैं, वे अनेक प्रकार के रत्नों से जटित वेशभूषा से सुशोभित हो रही हैं, उनकी पैजनी तथा करधनी से ध्वनि निकल रही है, उनके मस्तक पर अमूल्य रत्नों से निर्मित मुकुट विद्यमान है, वे तारों के हार की आवली से युक्त हैं, मणिमय कुण्डलों की कान्ति से उनके कपोल सुशोभित हो रहे हैं, उन्होंने पीताम्बर धारण कर रखा है, वे सत्-चित्-आनन्दस्वरूपवाली हैं, वे सामवेद तथा सत्त्वमार्ग से संयुक्त हैं, वे स्वर्गलोक में व्यवस्थित हैं, वे सूर्यपथ पर गमन करने वाली हैं, सूर्यमण्डल से निकलकर मेरी ओर आती हुई इन देवी का मैं आवाहन कर रहा हूँ’ ॥ ३५–४० ॥

इस प्रकार उन देवी का ध्यान करके सायंकाल की सन्ध्या का संकल्प करना चाहिये । ‘ आपो हि ष्ठा० ‘ इस मन्त्र से मार्जन तथा ‘अग्निश्च०’ इस मन्त्र से आचमन करना चाहिये । शेष कर्म प्रात:कालीन सन्ध्या के समान बताया गया है ॥ ४१ ॥ नारायण के प्रसन्नतार्थ गायत्रीमन्त्र का उच्चारण करके साधक पुरुष को शुद्ध मन वाला होकर भगवान् सूर्य को अर्घ्य देना चाहिये ॥ ४२१/२

दोनों पैरों को समानरूप से सीधा करके हाथ की अंजलि में जल लेकर मण्डलस्थ देवता का ध्यान करके क्रम से अर्घ्य प्रदान करना चाहिये ॥ ४३१/२

जो मूढात्मा तथा अज्ञानी द्विज जल में अर्घ्य प्रदान करता है, वह स्मृतिमन्त्रों का उल्लंघन करके प्रायश्चित्त का भागी होता है ॥ ४४१/२

तत्पश्चात् ‘असावादित्य० ‘ इस मन्त्र से सूर्योपस्थान करके कुश के आसन पर बैठकर श्रीदेवी का ध्यान करते हुए एक हजार अथवा उसकी आधी संख्या में गायत्री का जप करना चाहिये ॥ ४५-४६ ॥ जैसे प्रात: काल की सन्ध्या में उपस्थान आदि किये जाते हैं, उसी तरह सायंकालीन सन्ध्या के तर्पण उपस्थान आदि क्रम से करने चाहिये ॥ ४७ ॥ सायंकालीन सन्ध्या में सरस्वतीरूपा गायत्री के ऋषि ‘वसिष्ठ’ कहे गये हैं, देवता वे विष्णुरूपा ‘सरस्वती’ हैं तथा छन्द भी वे ‘सरस्वती’ ही हैं। सायंकाल की सन्ध्या के तर्पण में इसका विनियोग किया जाता है। स्वः पुरुष, सामवेद, मण्डल, हिरण्यगर्भ, परमात्मा, सरस्वती, वेदमाता, संकृति, सन्ध्या, विष्णुस्वरूपिणी, वृद्धा, उषसी, निर्मृजी, सर्वसिद्धिकारिणी, सर्वमन्त्राधिपतिका तथा भूर्भुवः स्वः पूरुष -—इस प्रकार उच्चारण करके श्रुतिसम्मत सायंकालीन सन्ध्या का तर्पण करना चाहिये ॥ ४८–५२१/२

[ हे नारद!] इस प्रकार मैंने पापों का नाश करने वाले, सभी प्रकार के दुःखों को दूर करने वाले, व्याधियों का शमन करने वाले तथा मोक्ष देने वाले सायंकालीन सन्ध्या-विधान का वर्णन कर दिया । हे मुनिश्रेष्ठ ! समस्त सदाचारों में सन्ध्या की प्रधानता है । सन्ध्या का सम्यक् आचरण करने से भगवती भक्त को मनोवांछित फल प्रदान करती हैं ॥ ५३-५४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘ब्रह्मयज्ञादिकीर्तन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

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