श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-21
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-एकविंशोऽध्यायः
इक्कीसवाँ अध्याय
गायत्री पुरश्चरण और उसका फल
गायत्रीपुरश्चरणविधिकथनम्

श्रीनारायण बोले — हे ब्रह्मन् ! इसके बाद अब आप देवी के पापनाशक, पुण्यप्रद और यथेष्ट फल देने वाले पुरश्चरण के विषय में सुनिये ॥ १ ॥ पर्वत के शिखर पर, नदी के तट पर, बिल्व-वृक्ष के नीचे, जलाशय के किनारे, गोशाला में, देवालय में, पीपल के नीचे, उद्यान में, तुलसीवन में, पुण्यक्षेत्र में अथवा गुरु के पास अथवा जहाँ भी चित्त की एकाग्रता बनी रहे — उस स्थान पर मन्त्र का पुरश्चरण करने वाला व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर लेता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २-३ ॥ जिस किसी भी मन्त्र का पुरश्चरण आरम्भ करना हो, उसके पूर्व तीनों व्याहृतियों (भूः, भुव:, स्वः) – सहित दस हजार गायत्री-मन्त्र का जप करना चाहिये ॥ ४ ॥ नृसिंह, सूर्य तथा वराह — इन देवताओं का जो भी तान्त्रिक अथवा वैदिक कर्म बिना गायत्री का जप किये सम्पन्न किया जाता है, वह सब निष्फल हो जाता है ॥ ५ ॥

सभी द्विज शाक्त कहे गये हैं; शैव और वैष्णव नहीं; क्योंकि सभी द्विज आदिशक्ति वेदमाता गायत्री की उपासना करते हैं ॥ ६ ॥ गायत्री के जप द्वारा मन्त्र को शुद्ध करके यत्नपूर्वक पुरश्चरण में तत्पर हो जाना चाहिये । मन्त्रशोधन के पूर्व आत्मशुद्धि कर लेना उत्तम होता है ॥ ७ ॥ आत्मतत्त्व के शोधन के लिये विद्वान् पुरुष को श्रुतियों के द्वारा बताये गये नियम के अनुसार गायत्री-मन्त्र का तीन लाख अथवा एक लाख जप करना चाहिये ॥ ८ ॥ कर्ता की आत्मशुद्धि के बिना की गयी जप-होमादि क्रियाएँ निष्फल ही समझी जानी चाहिये; क्योंकि आत्मशुद्धि करना श्रुतिसम्मत है ॥ ९ ॥

तपस्या के द्वारा अपने शरीर को तपाना चाहिये और पितरों तथा देवताओं को तृप्त रखना चाहिये । तपस्या से मनुष्य स्वर्ग तथा महान् फल प्राप्त करता है ॥ १० ॥ क्षत्रिय को बाहुबल से, वैश्य को धन से, शूद्र को द्विजातियों की सेवा से और श्रेष्ठ ब्राह्मण को जप तथा होम से अपनी आपदाओं का निवारण करना चाहिये ॥ ११ ॥ अतएव हे विप्रेन्द्र! प्रयत्नपूर्वक तपस्या करनी चाहिये। तपस्वियों ने शरीर सुखाने को ही उत्तम तप बतलाया है । विहित मार्ग कृच्छ्र तथा चान्द्रायण आदि व्रतों के द्वारा शरीर का शोधन करना चाहिये । हे नारद! अब मैं अन्नशुद्धि का प्रकरण बताऊँगा; उसे सुनिये ॥ १२-१३ ॥ अयाचित, उञ्छ, शुक्ल तथा भिक्षा — ये आजीविका के चार मुख्य साधन हैं । तान्त्रिक औरवैदिकों के द्वारा इन वृत्तियों से प्राप्त अन्न की विशुद्धता कही गयी है ॥ १४ ॥ भिक्षा से प्राप्त शुद्ध अन्न लाकर उसके चार भाग करके एक भाग द्विजों के लिये, दूसरा भाग गोग्रास के रूप में गौ के लिये, तीसरा भाग अतिथियों के लिये तथा चौथा भाग भार्यासहित अपने लिये व्यवस्थित करे । जिस आश्रम में ग्रास की जो विधि निश्चित है, उसी क्रम से उसका पालन करना चाहिये ॥ १५-१६ ॥

आरम्भ में उस अन्न पर शक्ति तथा क्रम के अनुसार गोमूत्र का छींटा देकर वानप्रस्थी तथा गृहस्थाश्रमी को ग्रास की संख्या निर्धारित करनी चाहिये ॥ १७ ॥ ग्रास का परिमाण मुर्गी के अण्डे के बराबर होना चाहिये। गृहस्थ को आठ ग्रास, वानप्रस्थी को उसका आधा (चार ग्रास) तथा ब्रह्मचारी को यथेष्ट ग्रास लेने का विधान है। सर्वप्रथम गोमूत्र की विधि सम्पन्न करके नौ, छः अथवा तीन बार अन्न का प्रोक्षण करना चाहिये। अँगुलियों को परस्पर छिद्ररहित करके ‘तत्सवितुः० ‘ इस गायत्री-ऋचा के साथ प्रोक्षण होना चाहिये। मन्त्र का मन-ही-मन उच्चारण करते हुए प्रोक्षण करने की विधि कही गयी है ॥ १८–२० ॥

चोर, चाण्डाल, वैश्य तथा क्षत्रिय — इनमें से कोई भी यदि अन्न प्रदान करता है तो अन्न-प्राप्ति की इस विधि को अधम कहा गया है ॥ २१ ॥ जो विप्र शूद्र का अन्न खाते हैं, शूद्र के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं तथा शूद्र के साथ भोजन करते हैं; वे तबतक घोर नरक में वास करते हैं जबतक सूर्य तथा चन्द्रमा का अस्तित्व रहता है ॥ २२ ॥

गायत्रीछन्द वाले मन्त्र में अक्षरों की जितनी संख्या है, उतने लाख अर्थात् चौबीस लाख जप से पुरश्चरण सम्पन्न करना चाहिये ॥ २३ ॥ विश्वामित्र का मत है कि बत्तीस लाख जप होना चाहिये। जिस प्रकार प्राणरहित शरीर समस्त कार्यों को करने में समर्थ नहीं होता, उसी प्रकार पुरश्चरण से हीन मन्त्र भी फल देने में असमर्थ कहा गया है ॥ २४१/२

ज्येष्ठ, आषाढ़, भाद्रपद, पौष, अधिकमास, षष्ठी, चतुर्थी, त्रयोदशी, चतुर्दशी, अमावास्या, प्रदोष, मंगलवार, शनिवार, व्यतीपात, वैधृति, अष्टमी, नवमी, रात्रि, भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, आश्लेषा, ज्येष्ठा, धनिष्ठा, श्रवण, जन्म- नक्षत्र, मेष, कर्क, तुला, कुम्भ तथा मकर (लग्न) — इन्हें छोड़ देना चाहिये; पुरश्चरणकर्म में ये सब त्याज्य हैं ॥ २५-२८ ॥ चन्द्रमा तथा नक्षत्रों के अनुकूल रहने पर और मुख्यरूप से शुक्ल पक्ष में पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये; ऐसा करने से मन्त्रसिद्धि होती है ॥ २९ ॥

आरम्भ में विधिपूर्वक स्वस्तिवाचन तथा नान्दीश्राद्ध सम्पन्न करना चाहिये । भोजन तथा वस्त्र आदि से ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करके पुनः उनसे आज्ञा लेकर पुरश्चरण आरम्भ करना चाहिये । द्विज को चाहिये कि शिवमन्दिर तथा अन्य किसी भी शिवस्थान पर पूर्वाभिमुख बैठकर जप करे ॥ ३०-३१ ॥ काशीपुरी, केदार, महाकाल, नासिक और महाक्षेत्र त्र्यम्बक — ये पाँच स्थान पृथ्वीलोक में दीप (सिद्धि-स्थान) हैं। इन स्थानों के अतिरिक्त सभी जगह कूर्मासन को दीप (सिद्धिस्थान) कहा गया है। प्रारम्भ के दिन से लेकर समाप्ति दिन तक किसी भी दिन न तो अधिक और न तो कम जप करना चाहिये; श्रेष्ठ मुनिगण निरन्तर पुरश्चरण करते रहते हैं ॥ ३२–३४ ॥ प्रातःकाल से आरम्भ करके मध्याह्न तक विधिवत् जप करना चाहिये । जप की अवधि में मन पर नियन्त्रण रखे, पवित्रता से रहे, इष्टदेवता का ध्यान करता रहे तथा मन्त्र के अर्थ का चिन्तन करता रहे ॥ ३५ ॥ गायत्रीछन्द वाले मन्त्र में अक्षरों की जितनी संख्या है, उतने लाख अर्थात् चौबीस लाख जप से पुरश्चरण सम्पन्न करना चाहिये ॥ ३६ ॥ घृत तथा मधुमिश्रित खीर, तिल, बिल्वपत्र, पुष्प तथा यव आदि द्रव्यों से जपसंख्या के दशांश से आहुति देनी चाहिये। दसवें अंश से हवन करना चाहिये, तभी मन्त्र सिद्ध होता है । धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करने वाली गायत्री की सम्यक् उपासना करनी चाहिये ॥ ३७-३८ ॥

नित्य, नैमित्तिक तथाकाम्य — इन तीनों कर्मों में गायत्री-उपासना में तत्पर रहना चाहिये। गायत्री से बढ़कर इस लोक तथा परलोक में दूसरा कुछ भी नहीं है ॥ ३९ ॥

[पुरश्चरण की दूसरी विधि यह भी है] मध्याह्नकाल में अल्प भोजन करे, मौन रहे, तीनों समय स्नान करे और सन्ध्योपासन करे । बुद्धिमान् पुरुष को अन्य वृत्तियों से मन को हटाकर जल में तीन लाख मन्त्रों का जप करना चाहिये ॥ ४० ॥ इस प्रकार पहले पुरश्चरणकर्म करने के पश्चात् अभिलषित काम्य कर्मों के निमित्त जप करना चाहिये । जबतक कार्य में सिद्धि की प्राप्ति न हो जाय, तबतक जप आदि करते रहना चाहिये ॥ ४१ ॥ सामान्य काम्य कर्मों में यथावत् विधि कही गयी है । सूर्योदयकाल में स्नान करके प्रतिदिन एक हजार गायत्री का जप करना चाहिये। ऐसा करने वाला साधक आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य तथा धन अवश्य प्राप्त करता है और तीन मास, छः मास अथवा एक वर्ष के अन्त में सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ ४२-४३ ॥ एक लाख घृताक्त कमलपुष्पों का अग्नि में होम करने से मनुष्य सम्पूर्ण वांछित फल को प्राप्त कर लेता है तथा उसे मोक्ष भी सुलभ हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ४४ ॥ मन्त्रसिद्धि किये बिना कर्ता की जप – होम आदि क्रियाएँ, काम्यकर्म अथवा मोक्ष आदि जो भी हो; वह सब निष्फल हो जाता है ॥ ४५ ॥

पचीस लाख गायत्री-जप से तथा दही अथवा दूध से हवन करने से मनुष्य सिद्धशरीर हो जाता है — ऐसा महर्षियों का मत है ॥ ४६ ॥ मनुष्य अष्टांगयोग के द्वारा जो फल प्राप्त करता है, वही फल इस जप से सिद्ध हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ४७ ॥ साधक सशक्त हो अथवा अशक्त, किंतु उसे नियत आहार ग्रहण करना चाहिये । गुरु के प्रति सदा भक्तिपरायण रहते हुए जो जप करता रहता है, उसे छः महीने में सिद्धि मिल जाती है ॥ ४८ ॥ गायत्री-जप करने वाले को एक दिन पंचगव्य के आहार पर, एक दिन वायु के आहार पर तथा एक दिन ब्राह्मण से प्राप्त अन्न के आहार पर रहना चाहिये ॥ ४९ ॥ गंगा आदि पवित्र नदियों में स्नान करके जल के भीतर ही एक सौ जप करना चाहिये । इसके बाद एक सौ मन्त्रों का उच्चारण करके जल का पान कर लेने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। ऐसा करने वाले को चान्द्रायण और कृच्छ्र आदि व्रतों का फल निश्चितरूप से प्राप्त हो जाता है। यदि साधक राजा अथवा ब्राह्मण हो तो उसे अपने घर पर ही तपरूपी पुरश्चरण करना चाहिये । गृहस्थ, ब्रह्मचारी अथवा वानप्रस्थी को भी अपने-अपने अधिकार के अनुसार जपयज्ञ करने के पश्चात् [ पुरश्चरण सम्पन्न हो जानेपर ] फल प्राप्त हो जाता है ॥ ५०–५२ ॥

मोक्ष की अभिलाषा रखने वाले पुरुष श्रौत और स्मार्त आदि कर्म करते हैं । साधक को फल, मूल तथा जल आदि के आहार पर रहते हुए विद्वानों के द्वारा सम्यक् शिक्षा प्राप्त करके सदाचारी तथा अग्निहोत्री होकर प्रयत्नपूर्वक जप करना चाहिये । भिक्षा में प्राप्त शुद्ध अन्न ही ग्रहण करे, जिसमें स्वयं मात्र आठ ग्रास ही भोजन करे ॥ ५३-५४ ॥ हे देवर्षे ! इस प्रकार पुरश्चरण करके मनुष्य मन्त्रसिद्धि प्राप्त कर लेता है; इसके अनुष्ठानमात्र से दरिद्रता समाप्त हो जाती है और इसके श्रवण से भी मनुष्य पुण्यों की महती सिद्धि प्राप्त कर लेता है ॥ ५५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘गायत्रीपुरश्चरणविधिकथन’ नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥

श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण
एकादशः स्कन्धः एकविंशोऽध्यायः
गायत्रीपुरश्चरणविधिकथनम्

॥ श्रीनारायण उवाच ॥
अथातः श्रूयतां ब्रह्मन् गायत्र्या पापनाशनम् ।
पुरश्चरणकं पुण्यं यथैष्टफलदायकम् ॥ १ ॥
पर्वताग्रे नदीतीरे बिल्वमूले जलाशये ।
गोष्ठे देवालयेऽश्वत्थे उद्याने तुलसीवने ॥ २ ॥
पुण्यक्षेत्रे गुरोः पार्श्वे चित्तैकाग्र्यस्थलेऽपि च ।
पुरश्चरणकृन्मन्त्री सिध्यत्येव न संशयः ॥ ३ ॥
यस्य कस्यापि मन्त्रस्य पुरश्चरणमारभेत् ।
व्याहृतित्रयसंयुक्तां गायत्रीं चायुतं जपेत् ॥ ४ ॥
नृसिंहार्कवराहाणां तान्त्रिकं वैदिकं तथा ।
विना जप्त्वा तु गायत्रीं तत्सर्वं निष्कलं भवेत् ॥ ५ ॥
सर्वे शाक्ता द्विजाः प्रोक्ता न शैवा न च वैष्णवाः ।
आदिशक्तिमुपासन्ते गायत्रीं वेदमातरम् ॥ ६ ॥
मन्त्रं संशोध्य यत्‍नेन पुरश्चरणतत्परः ।
मन्त्रशोधनपूर्वाङ्‌गमात्मशोधनमुत्तमम् ॥ ७ ॥
आत्मतत्त्वशोधनाय त्रिलक्षं प्रजपेद्‌बुधः ।
अथवा चैकलक्षं तु श्रुतिप्रोक्तेन वर्त्मना ॥ ८ ॥
आत्मशुद्धिं विना कर्तुर्जपहोमादिकाः क्रियाः ।
निष्फलास्तास्तु विज्ञेयाः कारणं श्रुतिचोदितम् ॥ ९ ॥
तपसा तापयेद्देहं पितृदेवांश्च तर्पयेत् ।
तपसा स्वर्गमाप्नोति तपसा विन्दते महत् ॥ १० ॥
क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापद आत्मनः ।
धनेन वैश्यः शूद्रस्तु जपहोमैर्द्विजोत्तमः ॥ ११
अतएव तु विप्रेन्द्र तपः कुर्यात्प्रयत्‍नतः ।
शरीरशोषणं प्राहुस्तापसास्तप उत्तमम् ॥ १२
शोधयेद्विधिमार्गेण कृच्छ्रचान्द्रायणादिभिः ।
अथान्नशुद्धिकरणं वक्ष्यामि शृणु नारद ॥ १३
अयाचितोञ्छशुक्लाख्यभिक्षावृत्तिचतुष्टयम् ।
तान्त्रिकैर्वैदिकैश्चैवं प्रोक्तान्नस्य विशुद्धता ॥ १४
भिक्षान्नं शुद्धमानीय कृत्वा भागचतुष्टयम् ।
एकं भागं द्विजेभ्यस्तु गोग्रासस्तु द्वितीयकः ॥ १५
अतिथिभ्यस्तृतीयस्तु तदूर्ध्वं तु स्वभार्ययोः ।
आश्रमस्य यथा यस्य कृत्वा ग्रासविधिं क्रमात् ॥ १६
आदौ क्षिप्त्वा तु गोमूत्रं यथाशक्ति यथाक्रमम् ।
तदूर्ध्वं ग्राससंख्या स्याद्वानप्रस्थगृहस्थयोः ॥ १७
कुक्कुटाण्डप्रमाणं तु ग्रासमानं विधीयते ।
अष्टौ ग्रासा गृहस्थस्य वनस्थस्य तदर्धकम् ॥ १८
ब्रह्मचारी यथेष्टं च गोमूत्रं विधिपूर्वकम् ।
प्रोक्षणं नववारं च षड्वारं च त्रिवारकम् ॥ १९
निश्छिद्रं च करं कृत्वा सावित्रीं च तदित्यृचम् ।
मन्त्रमुच्चार्य मनसा प्रोक्षणे विधिरुच्यते ॥ २०
चौरो वा यदि चाण्डालो वैश्यः क्षत्रस्तथैव च ।
अन्नं दद्यात्तु यः कश्चिदधमो विधिरुच्यते ॥ २१
शूद्रान्नं शूद्रसम्पर्कं शूद्रेण च सहाशनम् ।
ते यान्ति नरकं घोरं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥ २२
गायत्रीच्छन्दो मन्त्रस्य यथासंख्याक्षराणि च ।
तावल्लक्षाणि कर्तव्यं पुरश्चरणकं तथा ॥ २३
द्वात्रिंशल्लक्षमानं तु विश्वामित्रमतं तथा ।
जीवहीनो यथा देहः सर्वकर्मसु न क्षमः ॥ २४
पुरश्चरणहीनस्तु तथा मन्त्रः प्रकीर्तितः ।
ज्येष्ठाषाढौ भाद्रपदं पौषं तु मलमासकम् ॥ २५
अङ्‌गारं शनिवारं च व्यतीपातं च वैधृतिम् ।
अष्टमीं नवमीं षष्ठीं चतुर्थीं च त्रयोदशीम् ॥ २६
चतुर्दशीममावास्यां प्रदोषं च तथा निशाम् ।
यमाग्निरुद्रसर्पेन्द्रवसुश्रवणजन्मभम् ॥ २७
मेषकर्कतुलाकुम्भान्मकरं चैव वर्जयेत् ।
सर्वाण्येतानि वर्ज्यानि पुरश्चरणकर्मणि ॥ २८
चन्द्रतारानुकूले च शुक्लपक्षे विशेषतः ।
पुरश्चरणकं कुर्यान्मन्त्रसिद्धिः प्रजायते ॥ २९
स्वस्तिवाचनकं कुर्यान्नान्दीश्राद्धं यथाविधि ।
विप्रान्सन्तर्प्य यत्‍नेन भोजनाच्छादनादिभिः ॥ ३०
आरभेत्तु ततः पश्चादनुज्ञानपुरःसरम् ।
प्रत्यङ्‌मुखः शिवस्थाने द्विजश्चान्यतमे जपेत् ॥ ३१
काशीपुरी च केदारो महाकालोऽथ नासिकम् ।
त्र्यम्बकं च महाक्षेत्रं पञ्च दीपा इमे भुवि ॥ ३२
सर्वत्रैव हि दीपस्तु कूर्मासनमिति स्मृतम् ।
प्रारम्भदिनमारभ्य समाप्तिदिवसावधि ॥ ३३
न न्यूनं नातिरिक्तं च जपं कुर्याद्दिने दिने ।
नैरन्तर्येण कुर्वन्ति पुरश्चर्यां मुनीश्वराः ॥ ३४
प्रातरारभ्य विधिवज्जपेन्मध्यदिनावधि ।
मनःसंहरणं शौचं ध्यानं मन्त्रार्थचिन्तनम् ॥ ३५
गायत्रीच्छन्दो मन्त्रस्य यथासंख्याक्षराणि च ।
तावल्लक्षाणि कर्तव्यं पुरश्चरणकं तथा ॥ ३६
जुहुयात्तद्दशांशेन सघृतेन पयोऽन्धसा ।
तिलैः पत्रैः प्रसूनैश्च यवैश्च मधुरान्वितैः ॥ ३७
कुर्याद्दशांशतो होमं ततः सिद्धो भवेन्मनुः ।
गायत्री चैव संसेव्या धर्मकामार्थमोक्षदा ॥ ३८
नित्ये नैमित्तिके काम्ये त्रितये तु परायणः ।
गायत्र्यास्तु परं नास्ति इह लोके परत्र च ॥ ३९
मध्याह्नमितभुङ्‌ मौनी त्रिःस्नानार्चनतत्परः ।
जले लक्षत्रयं धीमाननन्यमानसक्रियः ॥ ४०
कर्मणा यो जपेत्पश्चात्कर्मभिः स्वेच्छयापि वा ।
यावत्कार्यं न सिध्येत्तु तावत्कुर्याज्जपादिकम् ॥ ४१
सामान्यकाम्यकर्मादौ यथावद्विधिरुच्यते ।
आदित्यस्योदये स्नात्वा सहस्रं प्रत्यहं जपेत् ॥ ४२
आयुरारोग्यमैश्वर्यं धनं च लभते ध्रुवम् ।
षण्मासं वा त्रिमासं वा वर्षान्ते सिद्धिमाप्नुयात् ॥ ४३
पद्मानां लक्षहोमेन घृताक्तानां हुताशने ।
प्राप्नोति निखिलं मोक्षं सिध्यत्येव न संशयः ॥ ४४
मन्त्रसिद्धिं विना कर्तुर्जपहोमादिकाः क्रियाः ।
काम्यं वा यदि वा मोक्षः सर्वं तनिष्फलं भवेत् ॥ ४५
पञ्चविंशतिलक्षेण दध्ना क्षीरेण वा हुतात् ।
स्वदेहे सिध्यते जन्तुर्महर्षीणां मतं तथा ॥ ४६
अष्टाङ्‌गयोगसिद्ध्या च नरः प्राप्नोति यत्फलम् ।
तत्फलं सिद्धिमाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥ ४७
शक्तो वापि त्वशक्तो वा आहारं नियतं चरेत् ।
षण्मासात्तस्य सिद्धिः स्याद्‌गुरुभक्तिरतः सदा ॥ ४८
एकाहं पञ्चगव्याशी चैकाहं मारुताशनः ।
एकाहं ब्राह्मणान्नाशी गायत्रीजपकृद्‍भवेत् ॥ ४९
स्नात्वा गङ्‌गादितीर्थेषु शतमन्तर्जले जपेत् ।
शतेनापस्ततः पीत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ५०
चान्द्रायणादिकृच्छ्रस्य फलं प्राप्नोति निश्चितम् ।
राजा वा यदि वा विप्रस्तपः कुर्यात्स्वके गृहे ॥ ५१
गृहस्थो ब्रह्मचारी वा वानप्रस्थोऽथवापि च ।
अधिकारपरत्वेन फलं यज्ञादिपूर्वकम् ॥ ५२
श्रौतस्मार्तादिकं कर्म क्रियते मोक्षकाङ्‌क्षिभिः ।
साग्निकश्च सदाचारो विद्वद्‍भिश्च सुशिक्षितः ॥ ५३
ततः कुर्यात्प्रयत्‍नेन फलमूलोदकादिभिः ।
भिक्षान्नं शुद्धमश्नीयादष्टौ ग्रासान्स्वयं भुजेत् ॥ ५४
एवं पुरश्चरणकं कृत्वा मन्त्रसिद्धिमवाप्नुयात् ।
देवर्षे यदनुष्ठानाद्दारिद्र्यं विलयं व्रजेत् ।
यच्छ्रुत्वापि च पुण्यानां महतीं सिद्धिमाप्नुयात् ॥ ५५
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां एकादशस्कन्धे गायत्रीपुरश्चरणविधिकथनं नामैएकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

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