श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-22
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-द्वाविंशोऽध्यायः
बाईसवाँ अध्याय
बलिवैश्वदेव और प्राणाग्निहोत्र की विधि
वैश्वदेवादिविधिनिरूपणम्

श्रीनारायण बोले — हे ब्रह्मन्! अब वैश्वदेव की विधि सुनिये। पुरश्चरण के प्रसंग में यह भी मेरी स्मृति में आ गया है ॥ १ ॥ देवयज्ञ, ब्रह्मयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और पाँचवाँ मनुष्ययज्ञ — ये महायज्ञ हैं ॥ २ ॥ गृहस्थ के घर में चूल्हा, चक्की, झाडू, ओखली, जल का घड़ा — इन पाँच वस्तुओं से होने वाले पाप की शान्ति के लिये यह यज्ञ आवश्यक होता है । चूल्हा, लौहपात्र, पृथ्वी, मिट्टी के बर्तन, कुण्ड अथवा वेदी पर बलिवैश्वदेव नहीं करना चाहिये ॥ ३-४ ॥

हाथ से, सूप से अथवा पवित्र मृगचर्म आदि से धौंककर अग्नि को प्रज्वलित नहीं करना चाहिये, अपितु मुख से फूँककर अग्नि को प्रज्वलित करना चाहिये; क्योंकि अग्नि का प्राकट्य मुख से ही हुआ है ॥ ५ ॥ कपड़े से हवा करने पर व्याधि, सूप से हवा करने पर धननाश तथा हाथ से हवा करने पर मृत्यु की प्राप्ति होती है। मुख से फूँककर आग प्रज्वलित करने से कार्य की सिद्धि होती है ॥ ६ ॥

फल, दही, घी, मूल, शाक, जल आदि से बलिवैश्वदेव करना चाहिये । इन वस्तुओं के उपलब्ध न होने पर काष्ठ, मूल अथवा तृण आदि जिस किसी भी वस्तु से उसे कर लेना चाहिये ॥ ७ ॥ घृत से सिक्त किये हुए हव्य-पदार्थ से हवन करना चाहिये । तैल तथा लवणमिश्रित पदार्थ हवन हेतु वर्जित हैं। दधि-मिश्रित अथवा दूध मिश्रित और यदि इनका भी अभाव हो तो जल-मिश्रित द्रव्य से भी हवन सम्पन्न किया जा सकता है ॥ ८ ॥ मनुष्य शुष्क अथवा बासी अन्न से हवन करने पर कुष्ठी होता है, जूठे अन्न से हवन करने पर शत्रु का वशवर्ती हो जाता है, रुक्ष अन्न से हवन करने पर दरिद्र होता है तथा क्षार-वस्तुओं से हवन करने पर अधोगामी होता है ॥ ९ ॥

कुछ भस्ममिश्रित अंगारों को अग्नि के उत्तर की ओर से निकालकर फेंक दे, तत्पश्चात् क्षार आदि से रहित वस्तुओं से वैश्वदेव के लिये हवन करे ॥ १० ॥ जो मूर्खबुद्धि द्विज विना बलिवैश्वदेव किये भोजन करता है, वह मूर्ख ‘कालसूत्र’ नरक में सिर नीचे की ओर किये हुए निवास करता है ॥ ११ ॥ शाक, पत्र, मूल अथवा फल — जो कुछ भी भोजन के लिये उपलब्ध हों, उसमें से संकल्पपूर्वक अग्नि में हवन भी करना चाहिये ॥ १२ ॥ वैश्वदेव करने से पूर्व ही भिक्षा के लिये किसी भिक्षुक के आ जाने पर वैश्वदेव के लिये सामग्री अलग करके शेष सामग्री में से भिक्षा देकर उसे विदा कर देना चाहिये; क्योंकि पहले वैश्वदेव न करने से उत्पन्न दोष को शान्त करने में भिक्षुक तो समर्थ है, किंतु भिक्षुक के अपमानजन्य दोष का शमन करने में वैश्वदेव समर्थ नहीं हैं ॥ १३-१४ ॥

संन्यासी और ब्रह्मचारी — ये दोनों ही पके हुए अन्न के स्वामी हैं, अतएव इन्हें अन्न प्रदान किये बिना ही भोजन कर लेने पर मनुष्य को चान्द्रायण व्रत करना चाहिये ॥ १५ ॥ बलिवैश्वदेव करने के पश्चात् गोग्रास निकालना चाहिये। हे देवर्षिपूजित ! उसका विधान मैं बता रहा हूँ, आप सुनिये ॥ १६ ॥

सुरभिर्वैष्णवी माता नित्यं विष्णुपदे स्थिता ।
गोग्रासं च मया दत्तं सुरभे प्रतिगृह्यताम् ॥ १७ ॥
गोभ्यश्च नम 

हे सुरभे! आप सुरभि नामक वैष्णवी माता हैं, आप सदा वैकुण्ठ में विराजमान रहती हैं। आप मेरे द्वारा निवेदित किये गये इस गोग्रास को स्वीकार कीजिये । गोभ्यः नमः — ऐसा कहकर गो-पूजन करके वह गोग्रास गौ को अर्पित कर दे; क्योंकि गोग्रास से गोमाता सुरभि परम प्रसन्न होती हैं ॥ १७-१८ ॥

तत्पश्चात् गोदोहनकाल तक अतिथि की प्रतीक्षा में घर के आँगन में स्थित रहना चाहिये; क्योंकि अतिथि निराश होकर जिसके घर से लौट जाता है, वह अतिथि उसे अपना पाप देकर उसका पुण्य लेकर चला जाता है ॥ १९१/२

माता, पिता, गुरु, भाई, प्रजा, सेवक, अपने आश्रय में रहने वाला व्यक्ति, अभ्यागत, अतिथि और अग्नि — ये पोष्य कहे गये हैं। ऐसा जानकर जो व्यक्ति मोहवश धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम का पालन नहीं करता, उसका न तो यह लोक बनता है और न परलोक ही बनता है । धनवान् द्विज सोमयज्ञ करने से जो फल प्राप्त करता है, वही फल एक दरिद्र पंचमहायज्ञों के द्वारा सम्यक् रूप से प्राप्त कर लेता है ॥ २०-२२१/२

हे मुनिश्रेष्ठ ! अब मैं प्राणाग्निहोत्र के विषय में बताऊँगा, जिसे जानकर मनुष्य जन्म, मृत्यु, जरा आदि से मुक्त हो जाता है । इसके सम्यक् ज्ञान होने से मनुष्य समस्त प्रकार के पापों तथा दोषों से छूट जाते हैं ॥ २३-२४ ॥ जो विप्र इस विधि से भोजन करता है, वह तीनों ऋणों (पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण) — से मुक्त हो जाता है और अपनी इक्कीस पीढ़ियों का नरक से उद्धार कर देता है । उसे सभी यज्ञों के फल प्राप्त हो जाते हैं तथा वह सभी लोकों में जाने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है ॥ २५१/२

हृदयरूपी कमल अरणि है, मन मन्थन -काष्ठ है, वायु रस्सी है और यह नेत्र अध्वर्यु बनकर अग्नि का मन्थन कर रहा है — ऐसी भावना करके तर्जनी, मध्यमा और अँगूठे से प्राण के लिये आहुति डालनी चाहिये। मध्यमा, अनामिका और अँगूठे से अपान के लिये आहुति डालनी चाहिये । कनिष्ठिका, अनामिका और अँगूठे से व्यान के लिये और पुनः तर्जनी तथा अँगूठे से उदान के लिये आहुति डालनी चाहिये। इसके बाद सम्पूर्ण अँगुलियों से अन्न उठाकर समानाग्नि के लिये आहुति डालनी चाहिये । इनके आदि में प्रणव ‘ॐ’ तथा अन्त में ‘स्वाहा’ जोड़कर नाममन्त्रों का उच्चारण करना चाहिये [ यथा ॐ प्राणाय स्वाहा, ॐ अपानाय स्वाहा आदि ] ॥ २६-२९१/२

तदनन्तर मुख में आहवनीय अग्नि, हृदय में गार्हपत्य अग्नि, नाभि में दक्षिणाग्नि तथा नीचे के भाग में सभ्याग्नि और आवसथ्यकाग्नि विद्यमान हैं — ऐसा चिन्तन करे । वाणी होता है, प्राण उद्गाता है, नेत्र ही अध्वर्यु है, मन ब्रह्मा है, श्रोत्र आग्नीध्रस्थान है, अहंकार यज्ञ-पशु है और प्रणव को पय कहा गया है। बुद्धि को पत्नी कहा गया है, जिसके अधीन गृहस्थ रहता है । वक्ष:स्थल वेदी है, शरीर के रोम कुश हैं तथा दोनों हाथ स्रुक्-स्रुवा हैं ॥ ३०–३३ ॥

सुवर्ण के समान कान्तिवाले क्षुधाग्नि को इस प्राणमन्त्र ( ॐ प्राणाय स्वाहा ) – का ऋषि, आदित्य को इसका देवता और गायत्री को इसका छन्द कहा जाता है । ॐ प्राणाय स्वाहा’ – इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये और मन्त्र के अन्त में ‘इदमादित्यदेवाय न मम’ – यह भी कहना चाहिये ॥ ३४-३५ ॥

गाय के दूध के समान श्वेत वर्णवाले श्रद्धाग्नि अपान मन्त्र ऋषि हैं। सोम को इस मन्त्र का देवता कहा गया है । उष्णिक् इसका छन्द है । ॐ अपानाय स्वाहा’ मन्त्र के अन्त में ‘इदं सोमाय न मम’ – ऐसा पूर्व की भाँति उच्चारण करना चाहिये ॥ ३६-३७ ॥

कमल के समान वर्ण वाले आख्यात नामक अग्नि व्यानमन्त्र के ऋषि कहे गये हैं। अग्नि इस मन्त्र के देवता हैं तथा अनुष्टुप् इसका छन्द कहा गया है। ‘ॐ व्यानाय स्वाहा’ के अन्त में ‘इदमग्नये न मम’ – यह भी कहना चाहिये । इन्द्रगोप के समान रक्त वर्णवाले अग्नि उदान मन्त्र के ऋषि कहे गये हैं, वायु इसके देवता कहे गये हैं और बृहती इसका छन्द कहा गया है। पूर्व की भाँति ही ‘ॐ उदानाय स्वाहा’, ‘इदं वायवे न मम’ — ऐसा द्विज को उच्चारण करना चाहिये ॥ ३८–४०१/२

विद्युत् समान वर्णवाले विरूपकसंज्ञक अग्नि समानमन्त्र ऋषि कहे गये हैं, पर्जन्य को इस मन्त्र का देवता माना गया है और पंक्ति को इसका छन्द कहा गया है । पूर्व की भाँति ‘ॐ समानाय स्वाहा’, ‘इदं पर्जन्याय न मम’ इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये । एतदनन्तर छठी आहुति डालनी चाहिये । वैश्वानर नामक महान् अग्नि इस मन्त्र के ऋषि कहे गये हैं। आत्मा को इसका देवता और गायत्री को इसका छन्द कहा गया है। ‘ॐ परमात्मने स्वाहा’ के बाद ‘इदं परमात्मने न मम’ का उच्चारण करना चाहिये। इस प्रकार प्राणाग्निहोत्र सम्पन्न हुआ। [हे नारद!] इस विधि को जानकर तथा उसके अनुसार आचरण करके मनुष्य ब्रह्मभाव को प्राप्त होता है। इस प्रकार मैंने इस प्राणाग्निहोत्रविद्या का वर्णन आपसे संक्षेप में कर दिया ॥ ४१–४५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘वैश्वदेवादिविधिनिरूपण’ नामक बाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २२ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.