May 31, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-24 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-चतुर्विंशोऽध्यायः चौबीसवाँ अध्याय कामना-सिद्धि और उपद्रव-शान्ति के लिये गायत्री के विविध प्रयोग प्रातश्चिन्तनम् नारदजी बोले — हे महाभाग ! हे नारायण ! हे करुणा-निधान ! अब आप गायत्री के शान्ति आदि से सम्बद्ध प्रयोगों का संक्षेप में वर्णन कीजिये ॥ १ ॥ श्रीनारायण बोले — हे ब्रह्मापुत्र ! आपने यह अत्यन्त गोपनीय बात पूछी है; किसी भी दुष्ट तथा चुगलखोर को इसे नहीं बताना चाहिये ॥ २ ॥ हे नारद! अब मैं शान्ति का वर्णन करता हूँ । द्विज को दुग्धमिश्रित समिधाओं से हवन करना चाहिये । शमी की समिधाओं से भूत, रोग, ग्रह आदि शान्त हो जाते हैं। द्विज को चाहिये कि भूत, रोग आदि की शान्ति के लिये क्षीरवृक्ष (पीपल, गूलर, पाकड़, वट आदि) -की गीली समिधाओं से हवन करे अथवा उन क्षीरवृक्षों की समिधाओं के खण्डों से हवन करे ॥ ३-४ ॥ दोनों हाथों में जल लेकर सूर्य का तर्पण करे और इससे शान्ति प्राप्त करे । जानुपर्यन्त जल में स्थित होकर गायत्री का जप करके अपने सभी दोषों को शान्त करे । कण्ठपर्यन्त जल में स्थित होकर जप करने से मनुष्य प्राण का अन्त करने वाले भय से भी मुक्त हो जाता है। सभी प्रकार के शान्तिकर्मों के लिये जल में निमग्न होकर गायत्री का जप करना बताया गया है ॥ ५-६ ॥ [अब दूसरा प्रयोग कहा जाता है — ] सोना, चाँदी, ताँबा, मिट्टी अथवा दूध वाले वृक्ष की लकड़ी के छिद्ररहित पात्र में रखे हुए पंचगव्य द्वारा प्रज्वलित अग्नि में क्षीर वाले वृक्ष की समिधाओं से एक हजार गायत्रीमन्त्र का उच्चारण करके हवन करे। यह कार्य धीरे-धीरे सम्पन्न करे । प्रत्येक आहुति के समय पंचगव्य का स्पर्श करते हुए हवन करके पात्र में अवशिष्ट पंचगव्य को हजार बार गायत्रीमन्त्र से अभिमन्त्रित कर मन्त्र का स्मरण करते हुए कुशों द्वारा पंचगव्य से वहाँ के स्थान का प्रोक्षण करे ॥ ७-९ ॥ तदनन्तर बलि-द्रव्य विकीर्ण करते हुए इष्ट देवता का ध्यान करना चाहिये। ऐसा करने से अभिचार कर्मों से उत्पन्न कृत्या तथा पाप का नाश हो जाता है । यदि कोई ऐसा करता है तो देवता, भूत तथा पिशाच उसके वशीभूत हो जाते हैं। साथ ही उसके इस कर्म से गृह, ग्राम, पुर तथा राष्ट्र – ये सब उनके अनिष्टकारी प्रभाव से मुक्त हो जाते हैं ॥ १०-११ ॥ भूमि पर चतुष्कोण-मण्डल बनाकर उसके मध्य भाग में गायत्रीमन्त्र पढ़कर त्रिशूल गाड़ दे। इससे भी उन पिशाचादि से मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है । अथवा मन्त्रज्ञ पुरुष को चाहिये कि सभी प्रकार की शान्ति के लिये पूर्वोक्त मण्डल में ही गायत्री के एक हजार मन्त्र से अभिमन्त्रित करके त्रिशूल को गाड़े और वहाँ पर सोने, चाँदी, ताँबा अथवा मिट्टी का एक छिद्ररहित, सूत्रवेष्टित नवीन तथा दिव्य कलश बालू से बनी हुई एक वेदी पर स्थापित करके जल से उसे भर दे ॥ १२–१४ ॥ तत्पश्चात् श्रेष्ठ द्विज को चारों दिशाओं के तीर्थों का उसमें आवाहन करके इलायची, चन्दन, कपूर, जाती, गुलाब, मालती, बिल्वपत्र, विष्णुक्रान्ता, सहदेवी, धान, यव, तिल, सरसों तथा दूध वाले वृक्षों के कोमल पत्तों को उस कलश में छोड़ देना चाहिये और उसमें कुशों से बनाया गया एक कूर्च भी रख देना चाहिये। इस प्रकार सब कुछ सम्पन्न हो जाने पर स्नान आदि से पवित्र बुद्धिमान् विप्र को एकाग्रचित्त होकर एक हजार गायत्रीमन्त्र से उस कलश को अभिमन्त्रित करना चाहिये ॥ १५–१७ ॥ पुनः वेदज्ञ ब्राह्मणों को चारों दिशाओं में बैठकर सूर्य-सम्बन्धी मन्त्रों का पाठ करना चाहिये। उस भूतादिग्रस्त पुरुष को वह अभिमन्त्रित जल पिलाना चाहिये और उसी से उसका प्रोक्षण तथा अभिषेक भी करना चाहिये । इस अभिषेक से वह व्यक्ति भूतों, रोगों तथा अभिचारों से मुक्त होकर सुखी हो जाता है; साक्षात् मृत्यु के मुख में गया हुआ प्राणी भी अभिषेक से मुक्त हो जाता है ॥ १८-१९ ॥ दीर्घ काल तक जीवन धारण करने की अभिलाषा रखने वाले विद्वान् राजा को ऐसे अनुष्ठान अवश्य कराने चाहिये । हे मुने! अभिषेक की समाप्ति पर ऋत्विजों को एक सौ गायें प्रदान करनी चाहिये और दक्षिणा उतनी हो, जिससे ऋत्विक् सन्तुष्ट हो जायँ अथवा अपनी सामर्थ्य के अनुसार भी दक्षिणा दी जा सकती है ॥ २०१/२ ॥ द्विज को चाहिये कि शनिवार को पीपलवृक्ष के नीचे गायत्री का सौ बार जप करे। इससे वह भूत, रोग तथा अभिचार से उत्पन्न महान् भय से मुक्त हो जाता है ॥ २११/२ ॥ द्विज को गाँठों पर से खण्ड-खण्ड किये गये गुरुच को दूध में भिगोकर उससे हवन करना चाहिये । यह ‘मृत्युंजयहोम’ है, जो समस्त व्याधियों का नाश करने वाला है ॥ २२१/२ ॥ ज्वर की शान्ति के लिये दूध में भिगोये गये आम के पत्तों की आहुति देनी चाहिये । दूध में भिगोये गये ‘वच’ का हवन करने से क्षयरोग समाप्त हो जाता है । तीनों मधु (दूध, दही, घृत) – से किये गये हवन से राजयक्ष्मा नष्ट हो जाता है। खीर का हवन करके उसे सूर्य को अर्पित करने के बाद राजयक्ष्मा से ग्रस्त पुरुष को [प्रसाद रूप में] उसका प्राशन कराना चाहिये, जिससे रोग शान्त हो जाता है ॥ २३–२५ ॥ द्विज को क्षयरोग की शान्ति के लिये सोमलता को गाँठों पर से अलग-अलग करके उसे दूध में भिगोकर अमावास्या तिथि को उससे हवन करना चाहिये । शंखवृक्ष के पुष्पों से हवन करके कुष्ठरोग दूर करे । इसी तरह अपामार्ग के बीजों से हवन करने पर अपस्मार (मिर्गी) रोग का नाश हो जाता है ॥ २६-२७ ॥ क्षीरवृक्ष की समिधा से किये गये होम से उन्माद अतिमेहरोग नष्ट हो जाता है; साथ ही मधु अथवा रोग दूर हो जाता है। गूलर की समिधा से हवन करने पर ईख के रस से हवन करके मनुष्य प्रमेहरोग को शान्त कर सकता है। मनुष्य त्रिमधु (दूध, दही और घी) -के हवन से चेचकरोग को समाप्त कर सकता है, उसी प्रकार कपिला गाय के घी से हवन करके भी चेचकरोग को शान्त कर सकता है और गूलर, वट तथा पीपल की समिधाओं से हवन करके गाय, घोड़े और हाथियों के रोग को नष्ट कर सकता है ॥ २८-३० ॥ पिपीलिका और मधुवल्मीक जन्तुओं का घर में उपद्रव होने पर घृतयुक्त शमी की समिधाओं तथा भात से प्रत्येक कार्य के लिये सौ-सौ आहुतियाँ द्विज को देनी चाहिये। ऐसा करने से उनके द्वारा उत्पन्न उपद्रव शान्त हो जाता है। इसके बाद बचे हुए पदार्थों से वहाँ बलि प्रदान करनी चाहिये ॥ ३११/२ ॥ बिजली गिरने और भूकम्प आदि के लक्षित होने पर जंगली बेंत की समिधा से सात दिनों तक हवन करना चाहिये; इससे राष्ट्र में राज्यसुख विद्यमान रहता है ॥ ३२१/२ ॥ कोई पुरुष सौ बार गायत्रीमन्त्र का जप करके जिस दिशा में मिट्टी का ढेला फेंकता है, उसे उस दिशा में अग्नि, हवा तथा शत्रुओं से होने वाला भय दूर हो जाता है । मन-ही-मन इस गायत्री का जप करना चाहिये; इससे बन्धन में पड़ा मनुष्य उस बन्धन से छूट जाता है ॥ ३३-३४ ॥ कोई मनुष्य भूत, रोग तथा विष से संग्रस्त व्यक्ति को स्पर्श करते हुए गायत्री का जप करके इनसे मुक्त कर देता है । गायत्री से अभिमन्त्रित जल पीकर मनुष्य भूत-प्रेतादि से मुक्त हो जाता है ॥ ३५ ॥ भूत आदि से शान्ति के लिये गायत्रीमन्त्र का सौ बार उच्चारण करके भस्म को अभिमन्त्रितकर उसे रख लेना चाहिये और ‘तत्सवितु० ‘ ऋचा से उस भस्म को सिर पर धारण करना चाहिये ॥ ३६ ॥ ऐसा करने से वह पुरुष समस्त व्याधियों से मुक्त होकर सौ वर्ष तक सुखपूर्वक जीता है। यदि कोई इसे करने में असमर्थ हो तो किसी विप्र को दक्षिणा देकर उससे शान्ति-कर्म करा लेना चाहिये ॥ ३७ ॥ पुष्पों की आहुति देकर द्विज पुष्टि, श्री तथा लक्ष्मी प्राप्त करता है । लक्ष्मी की कामना करने वाले पुरुष को लाल कमलपुष्पों से हवन करना चाहिये, इससे वह श्री की प्राप्ति करता है । जाती के नवीन शुभ पुष्पोंसे आहुति देकर मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है तथा शालि के चावलों के हवन से वियुक्त लक्ष्मी प्राप्त करता है । बिल्ववृक्ष की समिधाओं से हवन करके मनुष्य लक्ष्मी प्राप्त करता है। साथ ही बिल्वफल के खण्डों, पत्तों, पुष्पों, फलों तथा बिल्व-वृक्ष के मूल के खण्डों से हवन करके उत्तम लक्ष्मी प्राप्त करता है। इसी प्रकार खीर तथा घृत से मिश्रित बिल्ववृक्ष की समिधाओं की सात दिनों तक सौ-सौ आहुतियाँ देकर मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त कर लेता है ॥ ३८-४११/२ ॥ मधुत्रय (दूध, दही, घी) – से युक्त लावा का हवन करने से पुरुष कन्या प्राप्त करता है और इसी विधि से कन्या भी अभिलषित वर प्राप्त कर लेती है । एक सप्ताह तक रक्तकमल की सौ आहुतियाँ देकर पुरुष सुवर्ण प्राप्त कर लेता है और सूर्य के बिम्ब में जल की आहुति देकर मनुष्य जल में स्थित सोना प्राप्त कर लेता है ॥ ४२-४३१/२ ॥ अन्न का हवन करके मनुष्य अन्न प्राप्त करता तथा व्रीहि का हवन करके व्रीहि का स्वामी हो जाता है। बछड़े के गोमय के चूर्ण से हवन करके पुरुष पशुओं की प्राप्ति करता है । प्रियंगु, दूध तथा घी के द्वारा हवन से प्रजा–सन्तान प्राप्त होती है। खीर का हवन करके तथा सूर्य को निवेदित करके उसे ऋतुस्नाता स्त्री को खिलाये; ऐसा करने वाला पुरुष श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त करता है ॥ ४४–४६ ॥ अंकुरित शाखाओं वाली आर्द्र समिधाओं से हवन करने पर आयु की प्राप्ति होती है । इसी प्रकार दूधवाले वृक्षों की समिधा से हवन करके मनुष्य आयु प्राप्त करता है । अंकुरित शाखाओं वाली गीली, लाल समिधाओं और मधुत्रय (दूध, दही, घी) – से युक्त व्रीहि की सौ आहुति देकर मनुष्य स्वर्ण तथा दीर्घ आयु प्राप्त करता है ॥ ४७-४८ ॥ सुनहरे रंग के कमल की आहुति देकर मनुष्य सौ वर्ष की आयु प्राप्त करता है । दूर्वा, दूध, मधु अथवा घीसे सप्ताहपर्यन्त प्रतिदिन सौ-सौ आहुति देकर मनुष्य अपमृत्यु दूर कर देता है । उसी प्रकार शमी की समिधाओं, अन्न, दूध तथा घी से एक सप्ताह तक प्रतिदिन सौ-सौ आहुतियों से अपमृत्यु का विनाश कर देता है। बरगद की समिधाओं से हवन करके खीर का हवन करना चाहिये; एक सप्ताह तक प्रतिदिन इनकी सौ-सौ आहुतियों से मनुष्य अपमृत्यु को नष्ट कर देता है । यदि कोई दुग्ध आहार पर रहकर गायत्री का जप करे तो वह सप्ताहभर में मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है और बिना कुछ आहार ग्रहण किये मौन रहकर जप करे तो तीन रात में ही यम से मुक्ति प्राप्त कर लेता है । इसी प्रकार यदि जल में निमग्न होकर जप करे तो वह उसी क्षण मृत्यु से मुक्ति पा लेता है ॥ ४९–५३ ॥ बिल्ववृक्ष के नीचे जप करने से एक मास में राज्य मिल जाता है। बिल्ववृक्ष के मूल, फल तथा पल्लव की आहुति से भी मनुष्य राज्य प्राप्त कर लेता है ॥ ५४ ॥ एक मास तक कमल की सौ आहुति देने पर मनुष्य निष्कण्टक राज्य प्राप्त करता है । शालि चावल की लपसी की आहुति से ग्राम की प्राप्ति होती है। पीपलवृक्ष की समिधाओं से हवन करके मनुष्य युद्ध आदि में विजय करता है और मदार की समिधाओं से हवन करके सभी जगह विजयी सिद्ध होता है ॥ ५५-५६ ॥ दुग्ध तथा खीर से युक्त बेंत के पुष्पों अथवा पत्रों से सप्ताहपर्यन्त सौ-सौ आहुति देने से वृष्टि प्राप्त होती है। नाभिपर्यन्त जल में खड़े रहकर एक सप्ताह तक जप करने से वृष्टि होती है। जल में भस्म की सौ आहुति देने से महावृष्टि का निवारण हो जाता है ॥ ५७-५८ ॥ पलाश की समिधाओं से हवन करके मनुष्य ब्रह्मतेज प्राप्त करता है और पलाश के पुष्पों से हवन द्वारा उसे समस्त अभीष्ट की प्राप्ति हो जाती है ॥ ५९ ॥ मनुष्य दूध की आहुति देकर मेधा तथा घी की आहुति देकर बुद्धि प्राप्त करता है । गायत्रीमन्त्र से अभिमन्त्रित ब्राह्मी के रस का पान करने से मनुष्य को मेधा की प्राप्ति होती है ॥ ६० ॥ ब्राह्मीपुष्पों के हवन से सुगन्ध तथा उसके तन्तुओं के हवन से उसी के समान वस्त्र की प्राप्ति होती है । मधु- मिश्रित लवण की आहुति देकर मनुष्य अभीष्ट को वश में कर लेता है । इसी प्रकार शहद से सिक्त किये गये बिल्वपुष्पों से हवन करने पर मनुष्य अपने इष्ट को वश में कर लेता है। जल में खड़े होकर [ गायत्रीमन्त्र का जप करते हुए ] अंजलि से अपने ऊपर नित्य अभिषेक करने से मनुष्य बुद्धि, आरोग्य, उत्तम आयु और स्वास्थ्य प्राप्त करता है। यदि किसी अन्य व्यक्ति के निमित्त कोई ब्राह्मण ऐसा करे तो वह भी पुष्टि प्राप्त करता है ॥ ६१–६३ ॥ आयु की कामना करने वाले को किसी पवित्र स्थान में उत्तम विधि के साथ मासपर्यन्त प्रतिदिन एक-एक हजार गायत्री का जप करना चाहिये; इससे उसे उत्तम आयु प्राप्त होती है। आयु तथा आरोग्य दोनों की कामना करने वाले द्विज को दो मास तक गायत्रीजप करना चाहिये। इसी प्रकार आयु, आरोग्य तथा लक्ष्मी की कामना करने वाले को तीन मास तक जप करना चाहिये । द्विज को चार मास तक जप करने से आयु, लक्ष्मी, पुत्र, स्त्री तथा यश की प्राप्ति होती है और पाँच मास तक जप करने से पुत्र, स्त्री, आयु, आरोग्य, लक्ष्मी और विद्या की प्राप्ति होती है । इस तरह से जितने मनोरथ संख्या में बढ़ते जायँ, उसी के अनुसार जप के लिये मास – संख्या भी बढ़ानी चाहिये । विप्र को एक पैर पर स्थित होकर बिना किसी आश्रय के बाँहों को ऊपर किये हुए तीन सौ गायत्रीमन्त्रों का प्रतिदिन मास-पर्यन्त जप करना चाहिये; ऐसा करने से वह सभी मनोरथों को पूर्ण कर लेता है । इस प्रकार ग्यारह सौ मन्त्र नित्य मासपर्यन्त जप करके वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है ॥ ६४–६८ ॥ प्राण और अपान वायु रोककर प्रतिदिन तीन सौ गायत्रीमन्त्र का जप मासपर्यन्त करने से पुरुष को वह सब कुछ प्राप्त हो जाता है, जिसकी वह अभिलाषा रखता है; और इसी तरह एक हजार जप करने से सर्वस्व की प्राप्ति हो जाती है ॥ ६९ ॥ इन्द्रियों को वश में करके एक पैर पर स्थित होकर बाँहें ऊपर उठाये हुए श्वास निरुद्ध करके मास भर प्रतिदिन एक सौ गायत्रीमन्त्र जपने से मनुष्य जो चाहता है, उसकी वह अभिलाषा पूर्ण हो जाती है — ऐसा विश्वामित्रजी का कथन है । इसी प्रकार तेरह सौ मन्त्रों का जप करने से मनुष्य सब कुछ प्राप्त कर लेता है । जल में निमग्न होकर एक मास तक प्रतिदिन सौ मन्त्रों का जप करने से मनुष्य अपना अभीष्ट प्राप्त कर लेता है; इसी तरह तेरह सौ मन्त्रों का जप करने से वह सब कुछ पा लेता है ॥ ७०-७११/२ ॥ बिना किसी अवलम्ब के एक पैर पर खड़े होकर बाँहें ऊपर उठाये हुए श्वास- नियमन करके एक वर्ष तक जप करे और रात्रि में केवल हविष्यान्न भक्षण करे तो वह पुरुष ऋषित्व को प्राप्त हो जाता है । इसी तरह यदि मनुष्य दो वर्ष तक जप करे तो उसकी वाणी अमोघ हो जाती है ॥ ७२-७३ ॥ इसी प्रकार तीन वर्षों तक जप करे तो मनुष्य त्रिकालदर्शी हो जाता है और यदि चार वर्षों तक जप करे तो भगवान् सूर्यदेव स्वयं उस व्यक्ति के समक्ष प्रकट हो जाते हैं। इसी प्रकार पाँच वर्षों तक जप करने से मनुष्य अणिमा आदि सिद्धियाँ प्राप्त कर लेता है और इसी प्रकार छः वर्षों तक जप करके वह कामरूपित्व को प्राप्त हो जाता है ॥ ७४-७५ ॥ सात वर्षों तक जप करने से पुरुष को देवत्व, नौ वर्षों तक जप करने से मनुत्व और दस वर्षों तक जप करने से इन्द्रत्व की प्राप्ति हो जाती है। ग्यारह वर्षों तक जप करने से मनुष्य प्रजापति हो जाता है तथा बारह वर्षों तक जप करके वह ब्रह्मत्व को प्राप्त हो जाता है ॥ ७६-७७ ॥ इसी प्रकार की तपस्या के द्वारा नारद आदि ऋषियों ने सम्पूर्ण लोकों को जीत लिया था। कुछ ऋषि केवल शाक के आहार पर, कुछ फल पर, कुछ मूल पर और कुछ दूध के आहार पर रहते थे । कुछ ऋषिगण घी आहार पर, कुछ सोमरस के आहारपर और अन्य ऋषि चरु के आहार पर रहते थे। इसी प्रकार कुछ ऋषि पूरे पक्षभर केवल एक बार भोजन ग्रहण करते थे तथा कुछ ऋषि प्रतिदिन भिक्षान्न के आहार पर रहते थे और कुछ ऋषि हविष्यान्न ग्रहण करते हुए कठोर तपश्चर्या करते थे ॥ ७८-७९१/२ ॥ द्विज को चाहिये कि प्रच्छन्न पातकों की शुद्धि के लिये तीन हजार गायत्री के मन्त्रों का जप करे । द्विजों में श्रेष्ठ पुरुष एक महीने तक प्रतिदिन इस प्रकार जप करने से सुवर्ण की चोरी के पाप से मुक्त हो जाता है । सुरापान करने वाला मासपर्यन्त प्रतिदिन तीन हजार जप करे तो वह शुद्ध हो जाता है । गुरुपत्नी के साथ गमन करने वाला व्यक्ति महीने भर प्रतिदिन तीन हजार गायत्रीमन्त्र जपने से पवित्र हो जाता है । वन में कुटी बनाकर वहीं रहते हुए महीनेभर प्रतिदिन तीन हजार गायत्री जप करने से ब्रह्मघाती उस पाप से मुक्त हो जाता है — ऐसा विश्वामित्रऋषि ने कहा है । जल में निमग्न होकर बारह दिनों तक प्रतिदिन एक-एक हजार गायत्रीमन्त्र का जप करने से सभी महापातकी द्विज सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाते हैं ॥ ८०–८३१/२ ॥ महापातकी व्यक्ति मौन रहकर प्राणायामपूर्वक मासपर्यन्त प्रतिदिन तीन हजार गायत्रीमन्त्र का जप करे तो वह महान् भय से मुक्त हो जाता है । एक हजार प्राणायाम करने से ब्रह्महत्यारा भी पाप से मुक्त हो जाता है ॥ ८४-८५ ॥ प्राण और अपान वायु को ऊपर खींचकर संयमपूर्वक गायत्रीमन्त्र का छः बार जप करे; यह प्राणायाम सभी प्रकार के पापों का नाश करने वाला है ॥ ८६ ॥ मासपर्यन्त प्रतिदिन एक हजार गायत्री का जप करने से राजा पवित्र हो जाता है । गोवधजन्य पाप से शुद्धिहेतु द्विज को बारह दिनों तक प्रतिदिन तीन-तीन हजार गायत्री जप करना चाहिये ॥ ८७ ॥ दस हजार गायत्री का जप द्विज को अगम्यागमन, चोरी, हिंसा तथा अभक्ष्यभक्षण के पाप से शुद्ध कर देता है। सौ बार प्राणायाम करके मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। सभी प्रकार के मिले-जुले पापों से शुद्धि के लिये प्रतिदिन एक मास तक तत्सवितु० ऋचा का एक हजार जप वन में रहकर करना चाहिये। इसका तीन हजार जप उपवास के समकक्ष होता है ॥ ८८-९० ॥ चौबीस हजार गायत्री जप कृच्छ्रव्रत के समान और चौंसठ हजार गायत्री जप चान्द्रायणव्रत के समान कहा गया है ॥ ९१ ॥ प्रातः तथा सायंकालीन दोनों सन्ध्याओं के समय नित्य प्राणायाम करके ‘तत्सवितु०’ इस ऋचा का एक सौ जप करने वाले पुरुष के सभी पाप पूर्णरूप से विनष्ट हो जाते हैं ॥ ९२ ॥ जल में निमग्न होकर सूर्यस्वरूपिणी देवी का ध्यान करते हुए गायत्रीमन्त्र का नित्य सौ बार जप करने वाला समस्त पापों से मुक्त हो जाता है ॥ ९३ ॥ हे नारद! इस प्रकार मैंने शान्ति, शुद्धि आदि से सम्बन्धित अनुष्ठानों का वर्णन आपसे कर दिया। रहस्यों में भी अति रहस्य इस प्रसंग को आपको सदा गोपनीय रखना चाहिये; इस प्रकार यह सदाचार-संग्रह संक्षेप में बतला दिया । इस सदाचार का विधिपूर्वक पालन करने से महामाया दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं ॥ ९४-९५ ॥ जो मनुष्य नित्य, नैमित्तिक तथा काम्य कर्मों से सम्बद्ध आचारों का विधिपूर्वक पालन करता है, वह भोग तथा मोक्ष के फल का अधिकारी होता है ॥ ९६ ॥ आचार प्रथम धर्म है और धर्म की अधिष्ठात्री भगवती जगदम्बा हैं। इस प्रकार सभी शास्त्रों में सदाचार का महान् फल बताया गया है ॥ ९७ ॥ हे नारद! सदाचारपरायण पुरुष सर्वदा पवित्र, सुखी तथा धन्य होता है; यह सत्य है, सत्य है ॥ ९८ ॥ सदाचार का विधान देवी की प्रसन्नता को उत्पन्न करने वाला है। इस विधान को सुनने मात्र से मनुष्य विपुल सम्पदा तथा सुख का अधिकारी हो जाता है । सदाचार के पालन से मनुष्य को ऐहिक तथा पारलौकिक सुख सुलभ हो जाता है । उसी सदाचार का वर्णन मैंने आपसे किया है। [हे नारद!] अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ॥ ९९-१०० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘सदाचारनिरूपण’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥ ॥ एकादश स्कन्ध समाप्त ॥ Content is available only for registered users. 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