श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-08
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-अष्टमोऽध्यायः
आठवाँ अध्याय
धृतराष्ट्र आदि का दावाग्नि में जल जाना, प्रभासक्षेत्र में यादवों का परस्पर युद्ध और संहार, कृष्ण और बलराम का परमधामगमन, परीक्षित् को राजा बनाकर पाण्डवों का हिमालय- पर्वत पर जाना, परीक्षित् को शाप की प्राप्ति, प्रमद्वरा और रुरु का वृत्तान्
रुरुचरित्रवर्णनम्

सूतजी बोले — वहाँ से पाण्डवों के प्रस्थित होने के तीसरे दिन उस वन में लगी दावाग्नि में कुन्ती एवं गान्धारीसहित राजा धृतराष्ट्र दग्ध हो गये ॥ १ ॥ संजय पहले ही धृतराष्ट्र को छोड़कर तीर्थयात्रा के लिये चले गये थे। नारदजी से यह वृत्तान्त सुनकर राजा युधिष्ठिर अत्यन्त दुःखी हुए ॥ २ ॥ कौरवों के विनाश के छत्तीस वर्ष बीतने पर विप्र-शाप के प्रभाव से सभी यादव प्रभासक्षेत्र में नष्ट हो गये । वे सभी यादव मदिरा पीकर मतवाले हो गये और आपस में लड़कर बलराम तथा श्रीकृष्ण के देखते-देखते मृत्यु को प्राप्त हो गये ॥ ३-४ ॥ तदनन्तर बलरामजी ने योगक्रिया द्वारा शरीर का त्याग किया और कमल के समान नेत्र वाले भगवान्‌ श्रीकृष्ण ने शाप की मर्यादा रखते हुए एक बहेलिये के बाण से आहत होकर महाप्रयाण किया ॥ ५ ॥ इसके पश्चात्‌ जब वसुदेवजी ने श्रीकृष्ण के शरीर-त्याग का समाचार सुना तो उन्होंने अपने चित्त में श्रीभुवनेश्वरी देवी का ध्यान करके अपने पवित्र प्राणों का परित्याग कर दिया ॥ ६ ॥

तत्पश्चात्‌ अत्यन्त शोक-संतप्त अर्जुन ने प्रभास- क्षेत्र में पहुँचकर सभी का यथोचित अन्तिम संस्कार सम्पन्न किया ॥ ७ ॥ भगवान्‌ श्रीकृष्ण का शरीर खोजकर और लकड़ी जुटाकर अर्जुन ने आठ पटरानियों के साथ उनका दाह-संस्कार किया ॥ ८ ॥ तदनन्तर रेवती के साथ बलरामजी के मृतशरीर का दाह-संस्कार करके अर्जुन ने द्वारकापुरी पहुँचकर उस नगरी से नागरिकों को बाहर निकाला ॥ ९ ॥ तत्पश्चात्‌ कुछ ही क्षणों में भगवान्‌ श्रीकृष्ण की वह द्वारकापुरी समुद्र में डूब गयी, किंतु अर्जुन सभी लोगों को साथ लेकर बाहर निकल गये थे ॥ १० ॥ मार्ग में चोरों और भीलों ने श्रीकृष्ण की पत्नियों को लूट लिया और समस्त धन छीन लिया; उस समय अर्जुन तेजहीन हो गये ॥ ११ ॥ तदनन्तर अपरिमित तेज से सम्पन्न अर्जुन ने इन्द्रप्रस्थ पहुँचकर अनिरुद्ध के वज्र नामक पुत्र को राजा बनाया ॥ १२ ॥ अर्जुन ने अपने तेजहीन होने का दुःख व्यासजी से निवेदित किया, जिस पर व्यासजी ने उस महारथी अर्जुन से कहा — हे महामते! जब भगवान्‌ श्रीकृष्ण और आपका पुनः अवतार होगा, तब उस युग में आपका तेज पुनः अत्यन्त उग्र हो जायगा। उनका यह वचन सुनकर अर्जुन वहाँ से हस्तिनापुर चले गये । वहाँ पर अत्यन्त दुःखी होकर अर्जुन ने धर्मराज युधिष्ठिर से समस्त वृत्तान्त कहा ॥ १३-१४१/२

श्रीकृष्ण के देहत्याग एवं यादवों के विनाश का समाचार सुनकर राजा युधिष्ठिर ने हिमालय की ओर जाने का निश्चय कर लिया। इसके बाद छत्तीसवर्षीय उत्तरापुत्र परीक्षित् को राजसिंहासन पर प्रतिष्ठित करके वे राजा युधिष्ठिर द्रौपदी तथा भाइयों के साथ वन को ओर निकल गये। इस प्रकार छत्तीस वर्ष की अवधि तक हस्तिनापुर में राज्य करके द्रौपदी तथा कुन्तीपुत्रों – इन छहों ने हिमालयपर्वत पर जाकर प्राण त्याग दिये ॥ १५-१७१/२

इधर धर्मनिष्ठ राजर्षि परीक्षित् ने भी आलस्यरहित भाव से साठ वर्षों तक सम्पूर्ण प्रजा का पालन किया। वे एक बार आखेट हेतु एक विशाल जंगल में गये ॥ १८-१९ ॥ अपने बाण से विद्ध एक मृग को खोजते-खोजते मध्याह्नकाल में उत्तरापुत्र राजा परीक्षित्‌ भूख-प्यास तथा थकान से व्याकुल हो गये ॥ २० ॥ धूप से पीड़ित राजा ने समीप में ही एक ध्यानमग्न मुनि को विराजमान देखा और प्यास से व्याकुल उन्होंने मुनि से जल माँगा ॥ २१ ॥ मौन व्रत में स्थित वे मुनि कुछ भी नहीं बोले, जिससे राजा कुपित हो गये और प्यास से आकुल तथा कलि से प्रभावित चित्तवाले राजा ने अपने धनुष की नोक से एक मृत साँप उठाकर उनके गले में डाल दिया। गले में सर्प डाल दिये जाने के बाद भी वे मुनिश्रेष्ठ कुछ भी नहीं बोले ॥ २२-२३ ॥ वे थोड़ा भी विचलित नहीं हुए और समाधि में स्थित रहे । राजा भी अपने घर चले गये । उन मुनि का पुत्र गविजात अत्यन्त तेजस्वी तथा महातपस्वी था ॥ २४ ॥

पराशक्ति के आराधक उस गविजात ने पास के वन में खेलते हुए अपने मित्रों को ऐसा कहते हुए सुना कि हे मुनिश्रेष्ठ! तुम्हारे पिता के गले में किसी ने मृत सर्प डाल दिया है। उनकी यह बात सुनकर वह अत्यन्त कुपित हुआ और शीघ्र ही हाथ में जल लेकर उसने कुपित होकर राजा को शाप दे दिया — जिस व्यक्ति ने मेरे पिताजी के कण्ठ में मृत सर्प डाला है, उस पापी पुरुष को एक सप्ताह में तक्षक डस लेगा। मुनि के शिष्य ने महल में स्थित राजा परीक्षित्‌ के समीप जाकर मुनिपुत्र के द्वारा दिये गये शाप की बात कही।

ब्राह्मण के द्वारा दिये गये शाप को सुनकर अभिमन्युपुत्र परीक्षित्‌ ने उसे अनिवार्य समझकर वृद्ध मन्त्रियाँ से कहा — अपने अपराध के कारण मैं मुनिपुत्र से शापित हुआ हूँ ॥ २५-३० ॥ हे मन्त्रियो ! अब मुझे क्या करना चाहिये ? आप लोग कोई उपाय सोचें। मृत्यु तो अनिवार्य है — ऐसा वेदवादी लोग कहते हैं, तथापि बुद्धिमान्‌ पुरुषों को शास्त्रोक्त रीति से सर्वथा प्रयत्न करना ही चाहिये। कुछ पुरुषार्थवादी विद्वान्‌ ऐसा कहते हैं कि बुद्धिमानी के साथ उपाय करने पर कार्य सिद्ध हो जाते हैं; न करने पर नहीं । मणि, मन्त्र और औषधों के प्रभाव अत्यन्त ही दुर्शेय होते हैं। मणि धारण करने वाले सिद्धजनों के द्वारा क्या नहीं सम्भव हो जाता? पूर्वकाल में किसी ऋषिपत्नी को सर्प ने काट लिया था, जिससे वह मर गयी थी; उस समय उस मुनि ने अपनी आयु का आधा भाग देकर उस श्रेष्ठ अप्सरा को जीवित कर दिया था। अतः बुद्धिमान्‌ लोगों को चाहिये कि वे भवितव्यता पर विश्वास न करें, उपाय भी करें ॥ ३१-३५ ॥ हे सचिवो! आपलोग यह दृष्टान्त प्रत्यक्ष देख लें। इस लोक या परलोक में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं दिखायी देता, जो केवल भाग्य के भरोसे रहकर उद्यम न करता हो। गृहस्थी से विरक्त मनुष्य संन्यासी होकर जगह-जगह भिक्षाटन के लिये बुलाने पर अथवा बिना बुलाये भी गृहस्थों के घर जाता ही है। दैवात्प्राप्त उस भोजन को भी क्या कोई मुख में डाल देता है ? उद्यम के बिना वह भोजन मुख से उदर में कैसे प्रवेश कर सकता है? अतः प्रयत्नपूर्वक उद्यम तो करना ही चाहिये, यदि सफलतान मिले तो बुद्धिमान्‌ मनुष्य मन में विश्वास कर ले कि दैव यहाँ प्रबल है ॥ ३६-३९१/२

मन्त्रियों ने कहा — हे महाराज! वे कौन मुनि थे, जिन्होंने अपनी आधी आयु देकर अपनी प्रिय पत्नी को जीवित किया था? वह कैसे मरी थी? यह कथा विस्तार से हमसे कहिये ॥ ४०१/२  ॥

राजा बोले — महर्षि भृगु की एक सुन्दर स्त्री थी, जिसका नाम पुलोमा था। उससे परम विख्यात च्यवनमुनि का जन्म हुआ। च्यवन की पत्नी का नाम सुकन्या था, वह महाराज शर्याति की रूपवती कन्या थी ॥ ४१-४२ ॥ उस सुकन्या से श्रीमान्‌ प्रमति ने जन्म लिया, जो बड़े यशस्वी थे। उस प्रमति की प्रिय पत्नी का नाम प्रतापी था। उन्हीं राजा प्रमति के पुत्र परम तपस्वी ‘रुरु’ हुए ॥ ४३१/२ ॥ उन्हीं दिनों स्थूलकेश नामक एक विख्यात ऋषि थे, जो बड़े ही तपस्वी, धर्मात्मा एवं सत्यनिष्ठ थे। इसी बीच त्रिलोकसुन्दरी मेनका नाम की श्रेष्ठ अप्सरा नदी के किनारे जलक्रीडा कर रही थी। वह अप्सरा विश्वावसु के द्वारा गर्भवती होकर वहाँ से निकल पड़ी ॥ ४४-४६ ॥ उस श्रेष्ठ अप्सरा ने स्थूलकेश के आश्रम में जाकर नदीतट पर एक त्रैलोक्यसुन्दरी कन्या को जन्म दिया और वह उसे छोड़कर चली गयी। तब उस नवजात शिशु कन्या को अनाथ जानकर मुनिवर स्थूलकेश अपने आश्रम में ले गये और उसका पालन-पोषण करने लगे। उन्होंने उसका नाम प्रमद्वरा रखा ॥ ४७-४८ ॥ वह सर्वलक्षणसम्पन्न कन्या यथासमय यौवन को प्राप्त हुई। उस सुन्दरी को देखकर रुरु काममोहित हो गये ॥ ४९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का रुरुचरित्रवर्णनं नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

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