श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वादशः स्कन्धः-अध्याय-09
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-द्वादशः स्कन्धः-नवमोऽध्यायः
नौवाँ अध्याय
भगवती गायत्री की कृपा से गौतम के द्वारा अनेक ब्राह्मण परिवारों की रक्षा, ब्राह्मणों की कृतघ्नता और गौतम के द्वारा ब्राह्मणों को घोर शाप-प्रदान
ब्राह्मणादीनां गायत्रीभिन्नान्यदेवोपासनाश्रद्धाहेतुनिरूपणम्

व्यासजी बोले — हे विभो ! एक समय की बात है, प्राणियों को कर्म-फल का भोग कराने के लिये इन्द्र ने पन्द्रह वर्षों तक वृष्टि नहीं की ॥ १ ॥ इस अनावृष्टि के कारण घोर विनाशकारी दुर्भिक्ष पड़ गया। घर-घर में शवों की संख्या का आकलन नहीं किया जा सकता था ॥ २ ॥ क्षुधा से पीड़ित कुछ लोग घोड़ों और सूअरों का भक्षण कर जाते थे और कुछ लोग मनुष्यों के शव तक खा जाते थे। माता अपने बच्चे को और पुरुष पत्नी को खा जाते थे। इस प्रकार सभी लोग क्षुधा से पीड़ित होकर एक-दूसरे को खाने के लिये दौड़ पड़ते थे ॥ ३-४ ॥ तब बहुत-से ब्राह्मणों ने एकत्र होकर यह उत्तम विचार प्रस्तुत किया कि महर्षि गौतम तपस्या के महान् धनी हैं। वे हमारे कष्ट का निवारण कर देंगे। अतएव इस समय हम सभी लोगों को मिलकर गौतम के आश्रम में चलना चाहिये । सुना गया है कि गायत्रीजप में निरन्तर संलग्न रहने वाले गौतम के आश्रम में इस समय भी सुभिक्ष है और बहुत लोग वहाँ गये हुए हैं ॥ ५-६१/२

इस प्रकार परस्पर विचार करके वे सभी ब्राह्मण अग्निहोत्र की सामग्री, अपने परिवारजनों, गोधन तथा दासों को साथ में लेकर गौतमऋषि के आश्रम पर गये । कुछ लोग पूर्व दिशा से, कुछ लोग दक्षिण दिशा से, कुछ लोग पश्चिम दिशा से और कुछ लोग उत्तर दिशा से — इस प्रकार अनेक स्थलों से लोग वहाँ पहुँच गये ॥ ७-८१/२

ब्राह्मणों के उस समाज को देखकर उन गौतमऋषि ने प्रणाम किया और आसन आदि उपचारों से विप्रों की पूजा की। तत्पश्चात् महर्षि गौतम ने उनका कुशल-क्षेम तथा उनके वहाँ आने का कारण पूछा ॥ ९-१० ॥ उन सभी ब्राह्मणों ने उदास होकर अपना-अपना वृत्तान्त कहा। मुनि गौतम ने उन विप्रों को दुःखित देखकर उन्हें अभय प्रदान किया । [ और कहा —] हे विप्रो ! यह आश्रम आप लोगों का घर है और मैं हर तरह से आप लोगों का दास हूँ । मुझ दास के रहते आप लोगों को चिन्ता किस बात की ? आप सभी तपोधन ब्राह्मण यहाँ आये हैं, इसलिये मैं अपने को धन्य मानता हूँ। जिनके दर्शनमात्र से दुष्कृत भी सुकृत में परिणत हो जाता है, वे सभी विप्रगण अपने चरणरज से मेरे आश्रम को पवित्र बना रहे हैं। आप लोगों के अनुग्रह से मुझसे बढ़कर धन्य दूसरा कौन है ? सन्ध्या और जप में निरन्तर संलग्न रहने वाले आप सभी लोग सुखपूर्वक यहाँ रहिये ॥ ११–१४१/२

व्यासजी बोले — [हे राजन् ! ] इस प्रकार सभी ब्राह्मणों को आश्वस्त करके मुनिराज गौतम भक्ति-भाव से सिर झुकाकर गायत्री की प्रार्थना करने लगे —

नमो देवि महाविद्ये वेदमातः परात्परे ॥ १६ ॥
व्याहृत्यादिमहामन्त्ररूपे प्रणवरूपिणि ।
साम्यावस्थात्मिके मातर्नमो ह्रींकाररूपिणि ॥ १७ ॥
स्वाहास्वधास्वरूपे त्वां नमामि सकलार्थदाम् ।
भक्तकल्पलतां देवीमवस्थात्रयसाक्षिणीम् ॥ १८ ॥
तुर्यातीतस्वरूपां च सच्चिदानन्दरूपिणीम् ।
सर्ववेदान्तसंवेद्यां सूर्यमण्डलवासिनीम् ॥ १९ ॥
प्रातर्बालां रक्तवर्णां मध्याह्ने युवतीं पराम् ।
सायाह्ने कृष्णवर्णां तां वृद्धां नित्यं नमाम्यहम् ॥ २० ॥
सर्वभूतारणे देवि क्षमस्व परमेश्वरि ।

हे देवि ! आपको नमस्कार है। आप महाविद्या, वेदमाता और परात्परस्वरूपिणी हैं । व्याहृति आदि महामन्त्रों तथा प्रणव के स्वरूपवाली, साम्यावस्था में विराजमान रहने वाली तथा ह्रींकार स्वरूप वाली हे मातः! आपको नमस्कार है ॥ १५–१७ ॥ स्वाहा और स्वधा-रूप से शोभा पाने वाली हे देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ । सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली, भक्तों के लिये कल्पलतासदृश, तीनों अवस्थाओं की साक्षिणी-स्वरूपा, तुरीयावस्था से अतीत स्वरूप वाली, सच्चिदानन्द-स्वरूपिणी, सभी वेदान्तों की वेद्यविषयरूपा, सूर्यमण्डल में विराजमान रहने वाली, प्रात:काल में बाल्यावस्था तथा रक्तवर्णवाली, मध्याह्नकाल में श्रेष्ठ युवती की भाँति शोभा पाने वाली और सायंकाल में वृद्धास्वरूपिणी तथा कृष्णवर्ण वाली उन भगवती को मैं नित्य प्रणाम करता हूँ । सम्पूर्ण प्राणियों को उत्पन्न करने वाली हे परमेश्वरि ! हे देवि ! आप क्षमा करें ॥ १८–२०१/२

गौतमजी के इस प्रकार स्तुति करने पर जगज्जननी भगवती ने उन्हें अपना प्रत्यक्ष दर्शन दिया । उन्होंने उन गौतमऋषि को एक ऐसा पूर्णपात्र प्रदान किया, जिसके द्वारा सबका भरण-पोषण हो सके ॥ २११/२

उन जगदम्बा ने मुनि से कहा — आप जिस-जिस वस्तु की कामना करेंगे, मेरे द्वारा प्रदत्त यह पूर्णपात्र उसकी पूर्ति करने वाला सिद्ध होगा ॥ २२१/२

ऐसा कहकर श्रेष्ठ कलास्वरूपिणी भगवती गायत्री अन्तर्धान हो गयीं । हे राजन् ! उस पात्र से पर्वत के समान विशाल अन्नराशि, छः प्रकार के रस, भाँति-भाँति के तृण, दिव्य आभूषण, रेशमी वस्त्र, यज्ञों की सामग्रियाँ तथा अनेक प्रकार के पात्र निकले ॥ २३–२५ ॥ हे राजन् ! उन महात्मा गौतम को जिस-जिस पदार्थ की अभिलाषा होती थी, वे सभी पदार्थ भगवती गायत्री के द्वारा प्रदत्त उस पूर्णपात्र से निकल आते थे ॥ २६ ॥ इसके बाद मुनिवर गौतम ने सभी मुनियों को बुलाकर उन्हें प्रसन्नतापूर्वक धन-धान्य, आभूषण तथा वस्त्र आदि प्रदान किये। उस पूर्णपात्र से निर्गत गाय-भैंस आदि पशु तथा स्रुक्-स्रुवा आदि यज्ञ की सामग्रियाँ सभी मुनियों को दी गयीं ॥ २७-२८ ॥ तदनन्तर वे सभी मुनि एकत्र होकर गौतमऋषि की आज्ञा से नानाविध यज्ञ करने लगे। इस प्रकार वह आश्रम स्वर्ग के समान एक अत्यन्त दिव्य स्थान हो गया ॥ २९ ॥

तीनों लोकों में जो कुछ भी सुन्दर वस्तु दृष्टिगत होती, वह सब कुछ गायत्री के द्वारा दिये गये पात्र से प्राप्त हो जाती थी ॥ ३० ॥ मुनियों की स्त्रियाँ भूषण आदि के द्वारा देवांगनाओं की भाँति और मुनिगण वस्त्र, चन्दन तथा आभूषणों से देवताओं के समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३१ ॥ गौतमऋषि के आश्रम में चारों ओर नित्य उत्सव मनाया जाने लगा। किसी को भी रोग आदि का कोई भी भय नहीं था और दैत्यों का कहीं भी भय नहीं रहा ॥ ३२ ॥ गौतममुनि का वह आश्रम चारों ओर से सौ योजन के विस्तारवाला हो गया; और भी अन्य जिन प्राणियों को इसकी जानकारी हुई, वे भी वहाँ आ गये। तब आत्मज्ञानी गौतममुनि ने उन्हें अभय प्रदान करके उन सभी के भरण-पोषण का समुचित प्रबन्ध कर दिया। अनेक प्रकार के महायज्ञों के विधिपूर्वक सम्पन्न हो जाने से देवतागण परम प्रसन्न हुए और मुनि का यशोगान करने लगे । वृत्रासुर का संहार करने वाले महान् यशस्वी इन्द्र ने भी अपनी सभा में बार-बार यह श्लोक कहा — अहो, इस समय ये गौतमऋषि हमारे लिये साक्षात् कल्पवृक्ष के रूप में प्रतिष्ठित होकर हमारे सभी मनोरथ पूर्ण कर रहे हैं, अन्यथा इस दुष्काल में जहाँ जीवन की आशा भी अत्यन्त दुर्लभ थी, फिर हम लोग हवि कैसे प्राप्त करते ? ॥ ३३–३६ ॥

इस प्रकार वे मुनिवर गौतम अभिमान की गन्ध तक से रहित होकर बारह वर्षों तक उन श्रेष्ठ मुनियों का पुत्रवत् पालन-पोषण करते रहे ॥ ३७ ॥ उन मुनिश्रेष्ठ गौतम ने गायत्री की उपासना हेतु एक पवित्र स्थल का निर्माण कराया, जहाँ सभी श्रेष्ठ मुनिगण पुरश्चरण आदि कर्मों के द्वारा परम भक्ति के साथ तीनों कालों – प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल में भगवती जगदम्बा की पूजा करते थे। उस स्थान पर आज भी वे भगवती प्रातः काल बाला-रूप में, मध्याह्न -काल में युवती के रूप में तथा सायंकाल में वृद्धा के रूप में दृष्टिगोचर होती हैं ॥ ३८-३९१/२

एक बार मुनिश्रेष्ठ नारदजी अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए और गायत्री के उत्तम गुणों का गान करते हुए वहाँ आये और पुण्यात्मा मुनियों की सभा में बैठ गये ॥ ४०-४१ ॥ तत्पश्चात् गौतम आदि श्रेष्ठ मुनियों से विधिवत् पूजित होकर शान्त मन वाले नारदजी गौतम की यश-सम्बन्धी विविध कथाओं का वर्णन करने लगे — हे ब्रह्मर्षे ! देवराज इन्द्र ने मुनियों के भरण-पोषण से सम्बन्धित आपकी विमल कीर्ति का गान देवताओं की सभा अनेक प्रकार से किया है । शचीपति इन्द्र की वही वाणी सुनकर आपका दर्शन करने के लिये मैं यहाँ आया हूँ । हे मुनिश्रेष्ठ ! जगदम्बा की कृपा से आप धन्य हैं ॥ ४२–४४ ॥

उन मुनिवर गौतम से ऐसा कहकर नारदजी गायत्री-सदन में गये। प्रेम से प्रफुल्लित नेत्रों वाले नारदजी ने वहाँ उन भगवती जगदम्बा का दर्शन किया और विधिवत् उनकी स्तुति की । तत्पश्चात् उन्होंने स्वर्ग के लिये प्रस्थान किया। इसके बाद वहाँ पर मुनि गौतम के द्वारा पालित-पोषित जो ब्राह्मण थे, वे मुनि का उत्कर्ष सुनकर ईर्ष्या से दुःखी हो गये । कुछ समय बीतने के बाद उन सभी ने यह निश्चय किया कि किसी भी प्रकार से हम लोगों को सर्वथा वही प्रयत्न करना चाहिये, जिससे इस गौतमऋषि का यश न बढ़े ॥ ४५-४७१/२

हे महाराज ! कुछ काल के अनन्तर पृथ्वी तल पर वृष्टि भी होने लगी और सभी देशों में सुभिक्ष हो गया। सर्वत्र सुभिक्ष की बात सुनकर वे ब्राह्मण एकत्र हो गये और हे राजन्! हाय-हाय ! वे गौतम को शाप देने का प्रयत्न करने लगे। वे माता-पिता भी आज धन्य हो गये, जिनके यहाँ ऐसे [ कृतघ्न ब्राह्मण – ] पुत्रों का जन्म हुआ है ॥ ४८-५० ॥

हे राजन् ! काल की महिमा भला कौन जान सकता है? उस समय उन ब्राह्मणों ने माया के द्वारा एक मरणासन्न वृद्ध गाय बनायी, जब मुनि हवन कर रहे थे, उसी समय वह गाय यज्ञशाला में पहुँची । मुनि गौतम ने ‘हुं हुं’ शब्दों से उसे आने से रोका; उसी क्षण उसने अपने प्राण त्याग दिये ॥ ५१-५२ ॥ तब वे ब्राह्मण जोर-जोर से कहने लगे कि इस दुष्ट गौतम ने गौ की हत्या कर दी। तब मुनिराज गौतम हवन समाप्त करने के पश्चात् इस घटना से अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे। वे अपने नेत्र बन्द करके समाधि में स्थित होकर इसके कारण पर विचार करने लगे। यह सब कुछ ब्राह्मणों ने ही किया है — ऐसा जानकर उन्होंने प्रलयकालीन रुद्र के क्रोध के समान परम कोप किया। इस प्रकार कोप से लाल नेत्रों वाले उन गौतम ने सभी ऋषियों को यह शाप दे दिया — ‘अधम ब्राह्मणो! तुम लोग वेदमाता गायत्री की उपासना, ध्यान और उनके मन्त्र-जप से सर्वथा विमुख हो जाओ । हे अधम ब्राह्मणो ! वेद, वेदोक्त यज्ञों तथा वेदसम्बन्धी वार्ताओं से तुम सभी सदा वंचित रहो । हे अधम ब्राह्मणो ! तुम सभी शिवोपासना, शिव-मन्त्र के जप तथा शिव-सम्बन्धी शास्त्रों से सर्वदा विमुख हो जाओ ॥ ५३–५८ ॥ हे अधम ब्राह्मणो! मूलप्रकृति भगवती श्रीदेवी की उपासना, उनके ध्यान तथा उनकी कथाओं से तुम लोग सदा विमुख हो जाओ । हे अधम ब्राह्मणो ! देवी के मन्त्र-जप, उनकी प्रतिष्ठास्थली तथा उनके अनुष्ठान-कर्म से तुम लोग सदा पराङ्मुख हो जाओ ॥ ५९-६० ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! देवी का उत्सव देखने तथा उनके नामों के कीर्तन से तुम सब सदा विमुख रहो । हे अधम ब्राह्मणो! देवी-भक्त के समीप रहने तथा देवी-भक्तों की अर्चना करने से तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ ६१-६२ ॥ हे अधम ब्राह्मणो! भगवान् शिव का उत्सव देखने तथा शिवभक्त का पूजन करने से तुम सदा विमुख रहो । हे अधम ब्राह्मणो! रुद्राक्ष, बिल्वपत्र तथा शुद्ध भस्म से तुम लोग सर्वदा वंचित रहो ॥ ६३-६४ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! श्रौतस्मार्त-सम्बन्धी सदाचार तथा ज्ञान-मार्ग से तुम लोग सदा वंचित रहो । हे अधम ब्राह्मणो ! अद्वैत ज्ञाननिष्ठा और शम – दम आदि साधनों से तुम लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ ६५-६६ ॥ हे अधम ब्राह्मणो! नित्यकर्म आदि के अनुष्ठान तथा अग्निहोत्र आदि सम्पन्न करने से भी तुम लोग सदा वंचित हो जाओ ॥ ६७ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! स्वाध्याय- अध्ययन तथा प्रवचन आदि से भी तुम सभी लोग सर्वदा विमुख रहो ॥ ६८ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! गौ आदि के दान और पितरों के श्राद्धकर्म से तुम सभी लोग सदा के लिये विमुख हो जाओ ॥ ६९ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! कृच्छ्रचान्द्रायण आदि व्रतों तथा पाप आदि के प्रायश्चित्त कर्मों से तुम सभी लोग सर्वदा के लिये विमुख हो जाओ ॥ ७० ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! तुम लोग देवी भगवती के अतिरिक्त अन्य देवताओं के प्रति श्रद्धा तथा भक्ति से युक्त होकर और शंख-चक्र आदि का चिह्न धारण करने वाले हो जाओ ॥ ७१ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! तुम लोग कापालिक मत में आसक्त, बौद्ध शास्त्रों के परायण तथा पाखण्डपूर्ण आचार में निरत रहो ॥ ७२ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! तुमलोग पिता, माता, पुत्री, भाई, कन्या और पत्नी का विक्रय करने वाले व्यक्तियों के समान हो जाओ ॥ ७३ ॥ हे अधम ब्राह्मणो ! वेद का विक्रय करने वाले, तीर्थ बेचने वाले और धर्म बेचने वाले व्यक्तियों के समान तुम लोग हो जाओ ॥ ७४ ॥ हे अधम ब्राह्मणो! तुम लोग पांचरात्र, कामशास्त्र, कापालिक मत और बौद्ध मत के प्रति श्रद्धा रखने वाले हो जाओ ॥ ७५ ॥ हे अधम ब्राह्मणो! तुम लोग माता, कन्या, भगिनी तथा परायी स्त्रियों के साथ व्यभिचार करने वाले हो जाओ ॥ ७६ ॥ तुम्हारे वंश में उत्पन्न स्त्रियाँ तथा पुरुष मेरे द्वारा दिये हुए इस शाप से दग्ध होकर तुम लोगों के ही समान हो जायँगे ॥ ७७ ॥ मेरे अधिक कहने से क्या प्रयोजन! मूलप्रकृति परमेश्वरी भगवती गायत्री का अवश्य ही तुम लोगों पर महान् कोप है। अत: तुम लोगों का अन्धकूप आदि नरककुण्डों में सदा वास होगा ॥ ७८१/२

व्यासजी बोले — इस प्रकार का वाग्दण्ड देकर गौतममुनि ने आचमन किया और तत्पश्चात् भगवती गायत्री के दर्शनार्थ अत्यन्त उत्सुक होकर वे देवी-मन्दिर गये । वहाँ उन्होंने महादेवी को प्रणाम किया । वे परात्परा भगवती गायत्री भी ब्राह्मणों की कृतघ्नता को देखकर स्वयं अपने मन में चकित हो रही थीं और आज भी उनका मुख आश्चर्य से युक्त दिखायी पड़ता है ॥ ७९–८१ ॥

आश्चर्ययुक्त मुखकमल वाली भगवती गायत्री ने उन मुनिवर गौतम से कहा ‘ हे महाभाग ! सर्प को दिया गया दुग्ध उसके विष को ही बढ़ाने वाला होता है। अब आप धैर्य धारण कीजिये, क्योंकि कर्म की ऐसी ही गति होती है । ‘ तत्पश्चात् भगवती को प्रणामकर गौतमजी अपने आश्रम के लिये चल दिये ॥ ८२-८३ ॥

तब शापदग्ध वे ब्राह्मण वेदों को भूल गये । उन सभी को गायत्री मन्त्र भी विस्मृत हो गया। ऐसी आश्चर्यकारी घटना हुई ॥ ८४ ॥ अब वे सभी ब्राह्मण एकत्र होकर पश्चात्ताप करने लगे और दण्ड की भाँति पृथ्वी पर गिरकर उन्होंने मुनिवर गौतम को प्रणाम किया ॥ ८५ ॥ लज्जा से अपने मुख नीचे की ओर किये हुए वे कुछ भी वाक्य नहीं बोल सके। वे चारों ओर से मुनीश्वर को घेरकर बार-बार यही प्रार्थना करने लगे आप प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये, प्रसन्न हो जाइये ॥ ८६१/२

इस पर मुनि का हृदय करुणा से भर आया और वे उन ब्राह्मणों से बोले — ‘कृष्णावतारपर्यन्त तुम लोगों को कुम्भीपाक नरक में वास करना पड़ेगा; क्योंकि मेरा वचन मिथ्या कदापि नहीं हो सकता इसे तुम लोग भलीभाँति जान लो । तत्पश्चात् कलियुग में भूमण्डल पर तुम लोगों का जन्म होगा। मेरे द्वारा कही गयी ये सारी बातें अन्यथा नहीं हो सकतीं। यदि मेरे शाप से मुक्ति की तुम लोगों को इच्छा है, तो तुम सब भगवती गायत्री के चरणकमल की सदा उपासना करो’ ॥ ८७–९० ॥

व्यासजी बोले — ऐसा कहकर मुनिश्रेष्ठ गौतम ने सभी ब्राह्मणों को विदा कर दिया। तत्पश्चात् ‘यह सब प्रारब्ध का प्रभाव है’ ऐसा मानकर उन्होंने अपना चित्त शान्त कर लिया । हे राजन् ! यही कारण है कि बुद्धिसम्पन्न भगवान् श्रीकृष्ण के महाप्रयाण करने के पश्चात् कलियुग आने पर वे सभी ब्राह्मण कुम्भीपाक नरककुण्ड से निकल आये ॥ ९१-९२ ॥ इस प्रकार पूर्वकाल में शाप से दग्ध वे ब्राह्मण भूमण्डल पर उत्पन्न हुए; जो त्रिकाल सन्ध्या से हीन, भगवती गायत्री की भक्ति से विमुख, वेदों के प्रति श्रद्धारहित, पाखण्डमत का अनुसरण करने वाले, अग्निहोत्र आदि सत्कर्म न करने वाले और स्वाहा स्वधा से रहित हैं । उनमें कुछ ऐसे हैं, जो मूलप्रकृति तथा अव्यक्तस्वरूपिणी गायत्री के विषय में कुछ भी नहीं जानते । कोई-कोई तप्तमुद्रा धारण करके स्वेच्छाचार-परायण हो गये हैं । उनमें से कुछ कापालिक, कौलिक, बौद्ध तथा जैनमत को मानने वाले हैं, वे सभी पण्डित होते हुए भी दुराचार के प्रवर्तक हैं । परायी स्त्रियों के साथ दुराचार करने वाले सभी लम्पट अपने कुत्सित कर्मों के कारण पुन: उसी कुम्भीपाक नरककुण्ड में जायँगे ॥ ९३–९७ ॥

अतएव हे राजन् ! हर प्रकार से परमेश्वरी की उपासना करनी चाहिये । न विष्णु की उपासना नित्य है और न तो शिव की ही उपासना नित्य है; केवल शक्ति की उपासना नित्य है, जिसके न करने से मनुष्य का अधःपतन हो जाता है। हे निष्पाप ! आपने मुझसे जो पूछा था, वह सब मैंने संक्षेप में बता दिया। अब आप मणिद्वीप का मनोरम वर्णन सुनिये, जो जगत् को उत्पन्न करने वाली आदिशक्तिस्वरूपिणी भुवनेश्वरी का परमधाम है ॥ ९८–१०० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत बारहवें स्कन्ध का ‘ब्राह्मणों का गायत्री से भिन्न अन्य देवोपासना में श्रद्धा के हेतु का निरूपण’ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥

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