श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-12
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-द्वादशोऽध्यायः
बारहवाँ अध्याय
आस्तीक मुनि के जन्म की कथा, कद्रू और विनता द्वारा सूर्य के घोड़े के रंग के विषय में शर्त लगाना और विनता को दासी भाव की प्राप्ति, कद्रू द्वारा अपने पुत्रों को शाप
श्रोतृप्रवक्तृप्रसङ्गः

सूतजी बोले — राजा जनमेजय का वचन सुनकर सत्यवतीपुत्र व्यास ने सभा में उन राजा से कहा — ॥ १ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन्‌! सुनिये, मैं आपसे एक पुनीत, कल्याणकारक, रहस्यमय, अद्भुत तथा विविध कथानकों से युक्त देवीभागवत नामक पुराण कहूँगा ॥ २ ॥ मैने पूर्वकाल में उसे अपने पुत्र शुकदेव को पढ़ाया था। हे राजन्‌! मैं अपने परम रहस्यमय पुराण का श्रवण आपको कराऊँगा ॥ ३ ॥ सभी वेदों एवं शास्त्रों के सारस्वरूप तथा धर्म- अर्थ-काम-मोक्ष के कारणभूत इस पुराण का श्रवण करने से यह मंगल तथा आनन्द प्रदान करने वाला होता है ॥ ४ ॥

जनमेजय बोले — हे प्रभो! यह आस्तीक किसका पुत्र था और यज्ञ में विघ्न डालने के लिये क्यों आया ? यज्ञ में सर्पों की रक्षा करने के पीछे इसका क्या उद्देश्य था ?॥ ५ ॥ हे महाभाग! उस आख्यान को विस्तारपूर्वक बताइये । हे सुव्रत ! उस सम्पूर्ण पुराण को भी विस्तार के साथ कहिये ॥ ६ ॥

व्यासजी बोले —_जरत्कारु एक शान्त स्वभाव वाले ऋषि थे, उन्होंने गार्हस्थ्य-जीवन अंगीकार नहीं किया था। उन्होंने एक बार वन में एक गड्ढे के भीतर अपने पूर्वजों को लटकते हुए देखा ॥ ७ ॥ तदनन्तर पूर्वजों ने उनसे कहा हे पुत्र! तुम विवाह कर लो, जिससे हमारी परम तृप्ति हो सके। तुझ सदाचारी पुत्र के ऐसा करने पर हम- लोग निश्चितरूप से दुःखमुक्त होकर स्वर्ग की प्राप्ति कर लेंगे ॥ ८ ॥

तब उन जरत्कारु ने उनसे कहा — हे मेरे पूर्वजो ! जब मुझे अपने समान नामवाली तथा अत्यन्त वशवर्तिनी कन्या बिना माँगे ही मिलेगी तभी मैं विवाह करके गृहस्थी बसाऊँगा, मैं यह सत्य कह रहा हूँ ॥ ९ ॥ उनसे ऐसा कहकर ब्राह्मण जरत्कारु तीर्थाटन के लिये चल पड़े। उसी समय सर्पोंं को उनकी माता ने शाप दे दिया कि वे अग्नि में गिर जायँ ॥ १० ॥ कश्यप ऋषि की कद्रू और विनता नामक दो पत्नियाँ थीं । सूर्य के रथ में जुते हुए घोड़े को देखकर वे आपस में वार्तालाप करने लगीं ॥ ११ ॥

उस घोड़े को देखकर कद्रू ने विनता से यह कहा — हे कल्याणि! यह घोड़ा किस रंग का है? यह मुझे शीघ्र ही सही-सही बताओ ॥ १२ ॥

विनता बोली — यह अश्वराज श्वेत रंग का है। हे शुभे! तुम इसे किस रंग का मानती हो? तुम भी इसका रंग बता दो। तब हम दोनों आपस में इस पर शर्त लगायें ॥ १३ ॥

कद्रू बोली — हे शुभ मुसकानवाली! मैं तो इस घोड़े को कृष्णवर्ण का समझती हूँ। हे भामिनि! आओ, मेरे साथ शर्त लगाओ कि जो हारेगी, वह दूसरे की दासी होना स्वीकार करेगी ॥ १४ ॥

सूतजी बोले — कद्रू ने अपने सभी आज्ञाकारी सर्पपुत्रों से कहा कि तुम सभी लिपटकर उस घोड़े के शरीर में जितने बाल हैं, उन्हें काला कर दो ॥ १५ ॥ उनमें से कुछ सर्पों ने कहा कि हम ऐसा नहीं करेंगे। उन सर्पों को कद्रू ने शाप दे दिया कि तुम लोग जनमेजय के यज्ञ में हवन की अग्नि में गिर पड़ोगे ॥ १६ ॥ अन्य सर्पों ने माता को प्रसन्न करने की कामना से उस घोड़े की पूँछ में लिपटकर अपने विभिन्न रंगों से घोड़े को चितकबरा कर दिया ॥ १७ ॥ तदनन्तर दोनों बहनों ने साथ-साथ जाकर घोड़े को देखा। उस घोड़े को चितकबरा देखकर विनता बहुत दुःखी हुई ॥ १८ ॥ उसी समय सर्पों का आहार करने वाले महाबली विनतापुत्र गरुडजी वहाँ आ गये। उन्होंने अपनी माता को दुःखित देखकर उनसे पूछा ॥ १९ ॥ हे माता! आप बहुत उदास क्यों हैं? आप मुझे रोती हुई प्रतीत हो रही हैं। हे सुनयने! मेरे एवं सूर्यसारथि अरुणसदृश पुत्रों के जीवित रहते यदि आप दुःखी हैं, तब हमारे जीवन को धिक्कार है! यदि माता ही परम दुःखी हों तो पुत्र के उत्पन्न होने से क्या लाभ? हे माता! आप मुझे अपने दुःख का कारण बताइये, मैं आपको दुःख से मुक्त करूँगा ॥ २०-२११/२

विनता बोली — हे पुत्र! मैं अपनी सौत की दासी हो गयी हूँ। अब व्यर्थ में मारी गयी मैं क्या कहूँ ? वह मुझसे अब कह रही है कि मैं उसे अपने कन्धे पर ढोऊँ। हे पुत्र! मैं इसी से दुःखी हूँ ॥ २२१/२

गरुडजी बोले — वे जहाँ भी जाने की कामना करेंगी, मैं उन्हें ढोकर वहाँ ले जाऊँगा। हे कल्याणि ! आप शोक न करें, मैं आपको निश्चिन्त कर देता हूँ ॥ २३१/२

व्यासजी बोले — गरुडट्वारा ऐसा कहे जाने पर विनता उसी समय कद्रू के पास चली गयी। महाबली गरुड भी अपनी माता विनता को दास्य-भाव से मुक्ति दिलाने के उद्देश्य से कद्रू को उसके पुत्रों सहित अपनी पीठ पर बैठाकर सागर के उस पार ले गये ॥ २४-२५ ॥ वहाँ जाकर गरुडने कद्रू से कहा हे जननि! आपको बार-बार प्रणाम है। अब आप मुझे यह बतायें कि मेरी माता दासीभाव से निश्चित ही कैसे मुक्त होंगी ?॥ २६ ॥

कद्रू बोली — हे पुत्र! तुम स्वर्गलोक से बलपूर्वक अमृत लाकर मेरे पुत्रों को दे दो और शीघ्र ही अपनी अबला माता को मुक्त करा लो ॥ २७ ॥

व्यासजी बोले — कद्रू के ऐसा कहनेपर पक्षिश्रेष्ठ महाबली गरुड उसी समय इन्द्रलोक गये और देवताओं से युद्ध करके उन्होंने सुधा-कलश छीन लिया। अमूत लाकर उन्होंने उसे अपनी विमाता कद्रू को अर्पण कर दिया और उन्होंने विनता को दासीभाव से निःसन्देह मुक्त करा लिया ॥ २८-२९ ॥ जब सभी सर्प स्नान करने के लिये चले गये, तब इन्द्र ने अमृत चुरा लिया। इस प्रकार गरुड के प्रताप से विनता दासीभाव से छूट गयी ॥ ३० ॥ अमृतघट के पास कुश बिछे हुए थे, जिन्हें सर्प अपनी जिह्वा से चाटने लगे। तब कुश के अग्रभाग के स्मर्शमात्र से ही वे दो जीभ वाले हो गये ॥ ३१ ॥ जिन सर्पों को उनकी माता ने शाप दिया था, वे वासुकि आदि नाग चिन्तित होकर ब्रह्माजी के पास गये और उन्होंने अपने शाप-जनित भय की बात बतायी। ब्रह्माजी ने उनसे कहा जरत्कारु नामके एक महामुनि हैं, तुमलोग उन्हीं के नाम वाली वासुकि नाग की बहन जरत्कारु को उन्हें अर्पित कर दो। उस कन्या से जो पुत्र उत्पन्न होगा, वही तुम लोगों का रक्षक होगा। वह ‘ आस्तीक ‘—इस नाम वाला होगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३२-३४ ॥ ब्रह्माजी का वह कल्याणकारी वचन सुनकर वासुकि ने वन में जाकर अपनी बहन उन्हें विनयपूर्वक समर्पित कर दी ॥ ३५ ॥

जरत्कारुमुनि ने उसे अपने ही समान नामवाली जानकर उनसे कहा — जब भी यह मेरा अप्रिय करेगी, तब मैं इसका परित्याग कर दूँगा ॥ ३६ ॥

वैसी प्रतिज्ञा करके जरत्कारुमुनि ने उस जरत्कारु को पत्नीरूप से ग्रहण कर लिया। वासुकिनाग भी अपनी बहन उन्हें प्रदानकर आनन्दपूर्वक अपने घर लौट गये ॥ ३७ ॥ हे परन्तप! मुनि जरत्कारु उस महावन में सुन्दर पर्णकुटी बनाकर उसके साथ रमण करते हुए सुख भोगने लगे ॥ ३८ ॥ एक समय मुनिश्रेष्ठ जरत्कारु भोजन करके विश्राम कर रहे थे, वासुकि की बहन सुन्दरी जरत्कारु भी वहीं बैठी हुई थी। [मुनि ने उससे कहा] हे कान्ते! तुम मुझे किसी भी प्रकार जगाना मत – उस सुन्दर दांतोंवाली से ऐसा कहकर वे मुनि सो गये ॥ ३९-४० ॥ सूर्य अस्ताचल को प्राप्त हो गये थे। सन्ध्या- वन्दन का समय उपस्थित हो जाने पर धर्मलोप के भय से डरी हुई जरत्कारु सोचने लगी – मैं क्या करूँ ? मुझे शान्ति नहीं मिल रही है। यदि मैं इन्हें जगाती हूँ तो ये मेरा परित्याग कर देंगे और यदि नहीं जगाती हूँ तो यह सन्ध्याकाल व्यर्थ ही चला जायगा ॥ ४१-४२ ॥ धर्मनाश की अपेक्षा त्याग श्रेष्ठ है; क्योंकि मृत्यु तो निश्चित है ही। धर्म के नष्ट होने पर मनुष्यों को निश्चित ही नरक में जाना पड़ता है — ऐसा निश्चय करके उस स्त्री ने उन मुनि को जगाया और कहा — हे सुव्रत! उठिये, उठिये, अब सन्ध्याकाल भी उपस्थित हो गया है ॥ ४३-४४ ॥ जगने पर मुनि जरत्कारु ने क्रोधित होकर उससे कहा — अब मैं जा रहा हूँ और मेरी निद्रा में विघ्न डालने वाली तुम अपने भाई वासुकि के घर चली जाओ ॥ ४५ ॥

मुनि के ऐसा कहने पर भय से काँपती हुई उसने कहा —  हे महातेजस्वी! मेरे भाई ने जिस प्रयोजन से मुझे आपको सौंपा था, वह प्रयोजन अब कैसे सिद्ध होगा ?॥ ४६ ॥

तदनन्तर मुनि ने शान्तचित्त होकर जरत्कारु से कहा — “ वह तो है ही।’ इसके बाद मुनि के द्वारा परित्यक्त वह कन्या वासुकि के घर चली गयी ॥ ४७ ॥ भाई वासुकि के पूछने पर उसने पति द्वारा कही गयी बात उनसे यथावत्‌ कह दी और [वह यह भी बोली कि] ‘अस्ति’ – ऐसा कहकर वे मुनिश्रेष्ठ मुझको छोड़कर चले गये ॥ ४८ ॥ यह सुनकर वासुकि ने सोचा कि मुनि सत्यवादी हैं; तत्पश्चात्‌ पूर्ण विश्वास करके उन्होंने अपनी उस बहन को अपने यहाँ आश्रय प्रदान किया ॥ ४९ ॥

हे कुरुश्रेष्ठ! कुछ समय बाद मुनि बालक उत्पन्न हुआ और वह आस्तीक नाम से विख्यात हुआ ॥ ५० ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! पवित्र आत्मा वाले उन्हीं आस्तीक – मुनि ने अपने मातृ-पक्ष की रक्षा के लिये आपका सर्पयज्ञ रुकवाया है ॥ ५१ ॥ हे महाराज ! यायावर वंश में उत्पन्न और वासुकि की बहन के पुत्र आस्तीक का आपने सम्मान किया, यह तो बड़ा ही उत्तम कार्य किया है ॥ ५२ ॥ हे महाबाहो! आपका कल्याण हो। आपने सम्पूर्ण महाभारत सुना, नानाविध दान दिये और मुनिजनों की पूजा की। हे भूपश्रेष्ठ! आपके द्वारा इतना महान्‌ पुण्यकार्यं किये जाने पर भी आपके पिता स्वर्ग को प्राप्त नहीं हुए और न आपका सम्पूर्ण कुल ही पवित्र हो सका। अतः हे महाराज जनमेजय! आप भक्तिभाव से युक्त होकर देवी भगवती के एक विशाल मन्दिर का निर्माण कराइये, जिसके द्वारा आप समस्त सिद्धि को प्राप्त कर लेंगे ॥ ५३-५५ ॥ सर्वस्व प्रदान करने वाली भगवती दुर्गा परम श्रद्धापूर्वक पूजित होने पर सदा वंश-वृद्धि करती हैं तथा राज्य को सदा स्थिरता प्रदान करती हैं ॥ ५६ ॥

हे भूपश्रेष्ठ! विधि-विधान के साथ देवीयज्ञ करके आप श्रीमद्देवीभागवत नामक महापुराण का श्रवण कीजिये ॥ ५७ ॥ अत्यन्त पुनीत, भवसागर से पार उतारने वाली, अलौकिक तथा विविध रसों से सम्पृक्त उस कथा को मैं आपको सुनाऊँगा ॥ ५८ ॥ हे राजन्‌! सम्पूर्ण संसार में इस पुराण से बढ़कर अन्य कुछ भी श्रवणीय नहीं है और भगवती के चरणारविन्द के अतिरिक्त अन्य कुछ भी आराधनीय नहीं है ॥ ५९ ॥ हे नृपश्रेष्ठ! जिनके प्रेमपूरित हृदय में सदा भगवती विराजमान रहती हैं; वे ही सौभाग्यशाली, ज्ञानवान्‌ एवं धन्य हैं ॥ ६० ॥ हे भारत! इस भारतभूमि पर वे ही लोग सदा दुःखी दिखायी देते हैं, जिन्होंने कभी भी महामाया अम्बिका की आराधना नहीं की है ॥ ६१ ॥ हे राजन्‌! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी जिन भगवती की आराधना में सर्वदा लीन रहते हैं, उनकी आराधना भला कौन मनुष्य नहीं करेगा ?॥ ६२ ॥ जो मनुष्य इस पुराण का नित्य श्रवण करता है, उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। स्वयं भगवती ने भगवान्‌ विष्णु के समक्ष इस अतिश्रेष्ठ पुराण का वर्णन किया था ॥ ६३ ॥ हे राजन्‌! इस पुराण के श्रवण से आपके चित्त को परम शान्ति प्राप्त होगी और आपके पितरों को अक्षय स्वर्ग प्राप्त होगा ॥ ६४ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का ‘श्रोतूप्रवक्तप्रसङ्को’ नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १२ ॥

॥ द्वितीयः स्कन्धः समाप्तः ॥

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