श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-02
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-द्वितीयोऽध्यायः
दूसरा अध्याय
भगवती आद्याशक्ति के प्रभाव का वर्णन
ब्रह्मादीनाङ्गतिवर्णनम्

व्यासजी बोले हे महाबाहो ! हे कुरुश्रेष्ठ ! आपने मुझसे जो प्रश्न पूछे हैं, उन्हीं प्रश्नों को मेरे द्वारा मुनिराज नारदजी से पूछे जाने पर उन्होंने इस विषय में ऐसा कहा था ॥ १ ॥

नारदजी बोले हे व्यासजी ! मैं आपसे इस समय क्या कहूँ ? प्राचीन काल में यही शंका मेरे भी मन में उत्पन्न हुई थी और सन्देह की बहुलता से मेरा मन उद्वेलित हो गया था ॥ २ ॥ हे व्यासजी ! तदनन्तर मैंने ब्रह्मलोक में अपने अमित तेजस्वी पिता ब्रह्माजी के पास पहुँचकर यही प्रश्न पूछा था, जो उत्तम प्रश्न आपने आज मुझसे पूछा है ॥ ३ ॥

[मैंने पूछा ] हे पिताजी ! इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का आविर्भाव कैसे हुआ ? हे विभो ! इसका निर्माण आपने किया है अथवा विष्णु ने अथवा शिव ने इसकी रचना की है ? हे विश्वात्मन् ! मुझे सही-सही बताइये। हे जगत्पते ! सर्वश्रेष्ठ ईश्वर कौन है और किसकी आराधना की जानी चाहिये ? ॥ ४-५ ॥ हे ब्रह्मन्! वह सब कुछ बताइए और मेरे सन्देहों को दूर कीजिये। हे निष्पाप ! मैं असत्य तथा दुःखरूप संसार में डूबा हुआ हूँ ॥ ६ ॥ सन्देहों से दोलायमान मेरा मन तीर्थों में, देवताओं में तथा अन्य साधनों में-कहीं भी शान्त नहीं हो पा रहा है ॥ ७ ॥ हे परन्तप! परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त किये बिना शान्ति मिल भी कैसे सकती है ? अनेक प्रकार से उलझा हुआ मेरा मन एक जगह स्थिर नहीं हो पा रहा है ॥ ८ ॥ मैं किसका स्मरण करूँ, किसका यजन करूँ, कहाँ जाऊँ, किसकी अर्चना करूँ और किसकी स्तुति करूँ ? हे देव! मैं तो उस सर्वेश्वर परमात्मा को जानता भी नहीं हूँ ॥ ९ ॥ हे सत्यवतीतनय व्यासजी ! मेरे द्वारा किये गये दुरूह प्रश्नों को सुनकर लोकपितामह ब्रह्मा ने तब मुझसे ऐसा कहा ॥ १० ॥

ब्रह्माजी बोले हे पुत्र ! तुमने आज एक दुरूह तथा उत्तम प्रश्न किया है, उसके विषय में मैं क्या कहूँ? हे महाभाग ! साक्षात् विष्णु द्वारा भी इन प्रश्नों का निश्चित उत्तर दिया जाना सम्भव नहीं है ॥ ११ ॥ हे महामते ! इस संसार के क्रियाकलापों में आसक्त कोई भी ऐसा नहीं है, जो इस तत्त्व का ज्ञान रखता हो । कोई विरक्त, निःस्पृह तथा विद्वेषरहित ही इसे जान सकता है ॥ १२ ॥ प्राचीन काल में जल – प्रलय के होने पर स्थावर- जंगमादिक प्राणियों के नष्ट हो जाने तथा मात्र पंचमहाभूतों की उत्पत्ति होने पर मैं कमल से आविर्भूत हुआ ॥ १३ ॥ उस समय मैंने सूर्य, चन्द्र, वृक्षों तथा पर्वतों को नहीं देखा और कमलकर्णिका पर बैठा हुआ मैं विचार करने लगा – ॥ १४ ॥

इस महासागर के जल में मेरा प्रादुर्भाव किससे हुआ? मेरा निर्माण करने वाला, रक्षा करने वाला तथा युगान्त के समय संहार करने वाला प्रभु कौन है ? ॥ १५ ॥ कहीं भूमि भी स्पष्ट दिखायी नहीं दे रही है, जिसके आधार पर यह जल टिका है तो फिर यह कमल कैसे उत्पन्न हुआ, जिसकी उत्पत्ति जल और पृथ्वी के संयोग से ही प्रसिद्ध है ? ॥ १६ ॥ आज मैं इस कमल का मूल आधार पंक अवश्य देखूँगा; और फिर उस पंक की आधारस्वरूपा भूमि भी अवश्य मिल जायगी, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १७ ॥ तदनन्तर मैं जल में नीचे उतरकर हजार वर्षों तक पृथ्वी को खोजता रहा, किंतु जब उसे नहीं पाया तब आकाशवाणी हुई कि ‘तपस्या करो’ । तत्पश्चात् मैं उसी कमल पर आसीन होकर हजार वर्षोंत क घोर तपस्या करता रहा ॥ १८-१९ ॥ इसके बाद पुन: एक अन्य वाणी उत्पन्न हुई – ‘सृष्टि करो’, इसे मैंने साफ-साफ सुना । उसे सुनकर व्याकुल चित्तवाला मैं सोचने लगा, किसका सृजन करूँ और किस प्रकार करूँ ? ॥ २० ॥

उसी समय मधु-कैटभ नामवाले दो भयानक दैत्य मेरे सम्मुख आ गये। उस महासागर में युद्ध के लिये तत्पर उन दोनों दैत्यों से मैं अत्यधिक भयभीत हो गया ॥ २१ ॥ तत्पश्चात् मैं उसी कमल की नाल का आश्रय लेकर जल के भीतर उतरा और वहाँ एक अत्यन्त अद्भुत पुरुष को मैंने देखा ॥ २२ ॥ उनका शरीर मेघ के समान श्याम वर्णवाला था । वे पीत वस्त्र धारण किये हुए थे और उनकी चार भुजाएँ थीं । वे जगत्पति वनमाला से अलंकृत थे तथा शेषशय्या पर सो रहे थे ॥ २३ ॥ वे शंख, चक्र, गदा, पद्म आदि आयुध धारण किये हुए थे । इस प्रकार मैंने शेषनाग की शय्या पर शयन करते हुए उन महाविष्णु को देखा ॥ २४ ॥ हे नारदजी! योगनिद्रा के वशीभूत होने के कारण निष्पन्द पड़े उन भगवान् अच्युत को शेषनाग के ऊपर सोया हुआ देखकर मुझे अद्भुत चिन्ता हुई और मैं सोचने लगा कि अब क्या करूँ ? तब मैंने निद्रास्वरूपा भगवती का स्मरण किया और मैं उनकी स्तुति करने लगा ॥ २५-२६ ॥

[मेरी स्तुति से] वे कल्याणी भगवती विष्णु- भगवान् ‌के शरीर से निकलकर आकाश में विराजमान हुईं। उस समय दिव्य आभूषणों से अलंकृत वे भगवती कल्पनाओं से परे विग्रह वाली प्रतीत हो रही थीं ॥ २७ ॥ इस प्रकार विष्णु का शरीर तत् काल छोड़कर जब वे आकाश में विराजित हो गयीं, तब उनके द्वारा मुक्त किये गये अनन्तात्मा वे जनार्दन उठ गये ॥ २८ ॥ तत्पश्चात् उन्होंने पाँच हजार वर्षों तक उन दैत्यों के साथ घोर युद्ध किया । पुनः उन महामाया भगवती के दृष्टिपात से मोहित किये गये उन दोनों दैत्यों को भगवान् विष्णु ने मार दिया। अपनी जाँघों को विस्तृत करके भगवान् विष्णु ने उसी पर उन दोनों का वध किया। उसी समय जहाँ हम दोनों थे, वहीं पर शंकरजी भी आ गये ॥ २९-३० ॥ तब हम तीनों ने गगन – मण्डल में विराजमान उन मनोहर देवी को देखा। हम लोगों के द्वारा उन परम शक्ति की स्तुति किये जाने पर अपनी पवित्र कृपादृष्टि से हमलोगों को प्रसन्न करके उन्होंने वहाँ स्थित हम लोगों से कहा — ॥ ३११/२

देवी बोलीं हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश ! अब आप लोग सृष्टि, पालन एवं संहार के अपने-अपने कार्य प्रमाद रहित होकर कीजिये। अब आप लोग अपना-अपना निवास बनाकर निर्भीकतापूर्वक रहिये; क्योंकि उन दोनों महादैत्यों का संहार हो गया है अतः आप लोग अपनी विभूतियों से अण्डज, पिण्डज, उद्भिज्ज और स्वेदज – चारों प्रकार की सभी प्रजाओं का सृजन कीजिये ॥ ३२-३३ ॥

ब्रह्माजी बोले उन भगवती का वह मनोहर, सुखकर तथा मधुर वचन सुनकर हम लोगों ने उनसे कहा हे माता ! हमलोग शक्तिहीन हैं, अतः इन प्रजाओं का सृजन कैसे करें ? अभी विस्तृत पृथ्वी ही नहीं है और सभी ओर जल-ही-जल फैला हुआ है । सृष्टिकार्य के लिये आवश्यक पंचतत्त्व, गुण, तन्मात्राएँ और इन्द्रियाँ ये कुछ भी नहीं हैं। हम लोगों के ये वचन सुनकर भगवती का मुखमण्डल मुसकान से भर उठा ॥ ३४–३६ ॥ उसी समय वहाँ आकाश से एक रमणीक विमान आ पहुँचा। तत्पश्चात् उन भगवती ने कहा हे देवताओ! आप लोग निर्भीक होकर इस विमान में इच्छानुसार बैठ जायँ ॥ ३७ ॥ हे ब्रह्मा, विष्णु और शिव ! मैं आप लोगों को आज इस विमान में एक अद्भुत दृश्य दिखाऊँगी। उनका यह वचन सुनकर हम तीनों उनकी बात स्वीकार करके रत्नजटित, मोतियों की झालरों से शोभायमान, घंटियों की ध्वनि गुंजित तथा देव – भवन के तुल्य उस रमणीक विमान पर संशयरहित भाव से चढ़कर बैठ गये । तब भगवती ने हम जितेन्द्रिय देवताओं को बैठा हुआ देखकर उस विमान को अपनी शक्ति से आकाशमण्डल में उड़ाया ॥ ३८–४१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का विमानेन ब्रह्मादीनाङ्गतिवर्णनं नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥

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