March 26, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत महापुराण देवीमाहात्म्य-अध्याय-05 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ अथ पञ्चमोऽध्यायः पाँचवाँ अध्याय श्रीमद्देवीभागवत पुराण की श्रवण विधि, श्रवणकर्ता के लिये पालनीय नियम, श्रवणके फल तथा माहात्म्य का वर्णन देवीभागवत-श्रवणविधिवर्णनम् ॥ ऋषय ऊचुः ॥ सूत सूत महाभाग श्रुतं माहात्म्यमुत्तमम् । अधुना श्रोतुमिच्छामः पुराणश्रवणे विधिम् ॥ १ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ श्रूयतां मुनयः सर्वे पुराणश्रवणे विधिम् । नराणां शृण्वतां येन सिद्धिः स्यात्सार्वकामिकी ॥ २ ॥ आदौ दैवज्ञमाहूय मुहूर्तं कल्पयेत्सुधीः । आरभ्य शुचिमासं तु मासषट्कं शुभावहम् ॥ ३ ॥ हस्ताश्विमूलपुष्यर्क्षे ब्रह्ममैत्रेन्दुवैष्णवे । सत्तिथौ शुभवारे च पुराणश्रवणं शुभम् ॥ ४ ॥ गुरुभाद्वेदवेदाब्जशराङ्गाब्धिगुणैः क्रमात् । धर्माप्तिरिन्दिराप्राप्तिः कथासिद्धिः परं सुखम् ॥ ५ ॥ पीडाथ भूपतिभयं ज्ञानप्राप्तिः क्रमात्फलम् । पुराणश्रवणे चक्रं शोधयेच्छिवभाषितम् ॥ ६ ॥ अथवा प्रीतये देव्या नवरात्रचतुष्टये । शृणुयादन्यमासेऽपि तिथिवारर्क्षशोधिते ॥ ७ ॥ सम्भारं तादृशं कार्यं विवाहादौ च यादृशम् । नवाहयज्ञे चाप्यस्मिन्विधेयं यत्नतो बुधैः ॥ ८ ॥ सहाया बहवः कार्या दम्भलोभविवर्जिताः । चतुराश्च वदान्याश्च देवीभक्तिपरा नराः ॥ ९ ॥ प्रेष्या यत्नेन वार्तेयं देशे देशे जने जने । आगन्तव्यमिहावश्यं कथा देव्या भविष्यति ॥ १० ॥ सौराश्च गाणपत्याश्च शैवाः शाक्ताश्च वैष्णवाः । सर्वेषामपि सेव्येयं यतो देवाः सशक्तयः ॥ ११ ॥ श्रीमद्देवीभागवतपीयूषरसलोलुपैः । आगन्तव्यं विशेषेण कथार्थं प्रेमतत्परैः ॥ १२ ॥ ब्राह्मणाद्याश्च ये वर्णाः स्त्रियश्चाश्रमिणस्तथा । सकामाश्चापि निष्कामाः पातव्यं तैः कथामृतम् ॥ १३ ॥ नावकाशः कदाचित्स्यान्नवाहश्रवणेऽपि तैः । आगन्तव्यं यथाकालं यज्ञे पुण्या क्षणस्थितिः ॥ १४ ॥ विनयेनैव कर्तव्यमेवमाकारणं नृणाम् । आगतानाञ्च कर्तव्यं वासस्थानं यथोचितम् ॥ १५ ॥ कथास्थानं प्रकर्तव्यं भूमौ मार्जनपूर्वकम् । लेपनं गोमयेनाथ विशालायां मनोरमम् ॥ १६ ॥ कार्यस्तु मण्डपो रम्यो रम्भास्तम्भोपशोभितः । वितानमुपरिष्ठात्तु पताकाध्वजराजितः ॥ १७ ॥ ऋषियों ने कहा — हे महाभाग सूतजी ! हम लोगों ने श्रीमद्देवीभागवत माहात्म्य सुन लिया और अब इस पुराण के श्रवण की विधि सुनना चाहते हैं ॥ १ ॥ सूतजी बोले — हे मुनियो ! अब आपलोग इस पुराण के श्रवण का विधान सुनें, जिसे सुनने वाले मनुष्यों की समस्त कामनाएँ सिद्ध हो जाती हैं ॥ २ ॥ पुराण श्रवण के इच्छुक विद्वान् मनुष्य को चाहिये कि वह सर्वप्रथम ज्योतिषी को बुलाकर शुभ मुहूर्त निर्धारित कर ले । इसके लिये ज्येष्ठमास से लेकर छः महीने शुभकारक होते हैं ॥ ३ ॥ हस्त, अश्विनी, मूल, पुष्य, रोहिणी, अनुराधा, मृगशिरा तथा श्रवण नक्षत्र, पुण्य तिथि तथा शुभ दिन में श्रीमद्देवीभागवत पुराण का श्रवण कल्याणकारी होता है ॥ ४ ॥ जिस नक्षत्र में बृहस्पति हों, उससे चन्द्रमा तक गिनने पर क्रमश: इस प्रकार फल होते हैं — चार नक्षत्र तक धर्म-प्राप्ति, पुनः चार तक लक्ष्मी की प्राप्ति, इसके बाद एक नक्षत्र कथा में सिद्धि प्रदान करने वाला, फिर पाँच नक्षत्र परम सुख की प्राप्ति कराने वाले, बाद में छः नक्षत्र पीड़ा करने वाले, इसके बाद चार नक्षत्र राज भय उत्पन्न करने वाले और तत्पश्चात् तीन नक्षत्र ज्ञान-प्राप्ति में सहायक होते हैं । पुराण श्रवण के आरम्भ में शिवोक्त चक्र का शोधन कर लेना चाहिये ॥ ५-६ ॥ देवी की प्रसन्नता के लिये इसे चारों नवरात्रों में 1 सुनना चाहिये अथवा तिथि, वार और नक्षत्र पर सम्यक् विचार करके यह पुराण अन्य मासों में भी सुना जा सकता है ॥ ७ ॥ विवाह आदि में जिस प्रकार [उत्साहपूर्वक ] तैयारी की जाती है, उसी प्रकार नवाह यज्ञ के अवसर पर भी बुद्धिमान् मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक सामग्री आदि की तैयारी करनी चाहिये ॥ ८ ॥ पाखण्ड तथा लोभ से रहित, चतुर, उदार एवं देवीभक्त सज्जनों को भी सहायक के रूप में लेना चाहिये ॥ ९ ॥ देश-देश में भी यत्नपूर्वक यह सन्देश भेजना चाहिये — [हे कथानुरागी सज्जनो!] यहाँ श्रीमद्देवीभागवत की कथा होने जा रही है, आप अवश्य पधारें ॥ १० ॥ चाहे सूर्य की उपासना करने वाले हों, चाहे गणेशभक्त हों, चाहे शैव हों, चाहे वैष्णव अथवा शक्ति के उपासक हों, सभी इस कथा के श्रवण के अधिकारी हैं; क्योंकि सभी देवता शक्ति के साथ ही रहते हैं ॥ ११ ॥ इसलिये श्रीमद्देवीभागवत की कथारूपी सुधा के रसिक प्रेमीजनों को कथाश्रवण के लिये विशेषरूप से आना चाहिये ॥ १२ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र – चारों वर्णके स्त्री, पुरुष एवं ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ, संन्यास – इन चारों आश्रमों में निरत मनुष्यों को चाहे सकामभाव से अथवा निष्कामभाव से- अवश्य ही इस कथा – सुधा का पान करना चाहिये ॥ १३ ॥ जिन लोगों को पूरे नौ दिन तक कथा सुनने का अवकाश न मिल सके, वे जब भी समय मिले तभी आ जायँ; क्योंकि यज्ञ में क्षणभर भी पहुँच जाना विशेष पुण्यदायक होता है ॥ १४ ॥ बड़ी नम्रता के साथ मनुष्यों को निमन्त्रण देना चाहिये और आये हुए श्रोताओं के बैठने का भी समुचित प्रबन्ध करना चाहिये ॥ १५ ॥ विस्तृत भूमि में कथा प्रवचन का सुन्दर स्थान बनाना चाहिये। उस स्थान की सफाई कराकर गोबर से लिपवा देना चाहिये। केले के स्तम्भों से सुशोभित और ध्वज पताकाओं से अलंकृत एक सुरम्य मण्डप का निर्माण करना चाहिये और उसके ऊपर सुन्दर चाँदनी लगा देनी चाहिये ॥ १६-१७ ॥ वक्तुश्चैवासनं दिव्यं सुखास्तरणसंयुतम् । रचितव्यं प्रयत्नेन प्राङ्मुखं वाप्युदङ्मुखम् ॥ १८ ॥ यथोचितानि कुर्वीत श्रोतॄणामासनानि च । नृणां चैवाथ नारीणां कथाश्रवणहेतवे ॥ १९ ॥ वाग्मी दान्तश्च शास्त्रज्ञो देव्याराधनतत्परः । दयालुर्निस्पृहो दक्षो धीरो वक्तोत्तमो मतः ॥ २० ॥ ब्रह्मण्यो देवताभक्तः कथारसपरायणः । उदारोऽलोलुपो नम्रः श्रोता हिंसादिवर्जितः ॥ २१ ॥ पाखण्डनिरतो लुब्धः स्त्रैणो धर्मध्वजस्तथा । निष्ठुरः क्रोधनो वक्ता देवीयज्ञे न शस्यते ॥ २२ ॥ संशयच्छेदनायैकः पण्डितश्च तथागुणः । श्रोतृबोधकृदव्यग्रः कार्यो वक्तुः सहायकृत् ॥ २३ ॥ मुहूर्तदिवसादर्वाग्वक्तृश्रोत्रादिभिर्जनैः । कर्तव्यं क्षौरकर्मादि ततो नियमकल्पनम् ॥ २४ ॥ कथावाचक का आसन दिव्य तथा सुखकर आस्तरण से युक्त होना चाहिये । उसे प्रयत्नपूर्वक पूर्वाभिमुख अथवा उत्तराभिमुख रखना चाहिये ॥ १८ ॥ कथा श्रवण के लिये आने वाले पुरुष तथा स्त्री श्रोताओं के लिये भी यथायोग्य पृथक् पृथक् आसनों की व्यवस्था करनी चाहिये ॥ १९ ॥ वक्तृत्वसम्पन्न, संयमी, शास्त्रज्ञ, देवी की आराधना में तत्पर, दयालु, लोभहीन, दक्ष तथा धैर्यशाली कथावाचक उत्तम माना गया है ॥ २० ॥ इसी प्रकार श्रोता भी ऐसा होना चाहिये जो ब्राह्मणसेवी, देवभक्त, कथा-रस का पान करने वाला, उदार, लोभरहित, विनम्र और हिंसा आदि से रहित हो ॥ २१ ॥ पाखण्डी, लोभी, स्त्रीस्वभाव, कामी, धर्म का दिखावा मात्र करने वाला, निष्ठुर तथा क्रोधी वक्ता देवीभागवत के नवाहयज्ञ में श्रेष्ठ नहीं माना जाता है ॥ २२ ॥ श्रोताओं की शंकाओं के निवारणहेतु कथावाचक के साथ एक ऐसा सहायक भी लगा देना चाहिये, जो पण्डित, गुणवान्, शान्त तथा श्रोताओं को समझाने में कुशल हो ॥ २३ ॥ कथा प्रारम्भ होने के एक दिन पूर्व ही वक्ता एवं श्रोतागणों को क्षौरकर्म करा लेना चाहिये। तत्पश्चात् अन्यान्य नियमों का पालन करना चाहिये ॥ २४ ॥ अरुणोदयवेलायां स्नायाच्छौचं विधाय च । सस्थातर्पणकार्यञ्च नित्यं संक्षेपतश्चरेत् ॥ २५ ॥ कथाश्रवणयोग्यत्वसिद्धये गाश्च दापयेत् । समस्तविघ्नहर्तारमादौ गणपतिं यजेत् ॥ २६ ॥ कलशांश्चापि संस्थाप्य पूजयेत्तत्र दिग्भवान् । वटुकं क्षेत्रपालञ्च योगिनीर्मातृकास्तथा ॥ २७ ॥ तुलसीञ्चापि सम्पूज्य ग्रहान्विष्णञ्च शङ्करम् । नवाक्षरेण मनुना पूजयेज्जगदम्बिकाम् ॥ २८ ॥ सर्वोपचारैः सम्पूज्य श्रीभागवतपुस्तकम् । श्रीदेव्या वाङ्मयी मूर्तिं यथावच्छोभनाक्षरम् ॥ २९ ॥ कथाविघ्नोपशान्त्यर्थं वृणुयात्पञ्च वाडवान् । जाप्यो नवार्णमन्त्रस्तैः पाठ्यः सप्तशतीस्तवः ॥ ३० ॥ उस दिन शौचादि से निवृत्त हो अरुणोदयवेला में ही स्नान कर लेना चाहिये । सन्ध्या तथा तर्पण आदि नित्यकर्म संक्षेप में ही करना चाहिये ॥ २५ ॥ तत्पश्चात् कथाश्रवण का अधिकारी बनने के लिये गोदान करे और सब विघ्नों को दूर करने वाले श्रीगणेशजी का सर्वप्रथम पूजन करे। कलश स्थापन करके वहाँ दस दिक्पालों, बटुक, क्षेत्रपाल, सभी योगिनियों और मातृकाओं का भी पूजन करे । तुलसी, नवग्रह, विष्णु तथा शिवजी का पूजन करके नवाक्षरमन्त्र से जगदम्बा का पूजन करना चाहिये ॥ २६-२८ ॥ तत्पश्चात् सुन्दर अक्षरों में लिखी हुई भगवती की वाङ्मयी मूर्तिस्वरूप श्रीमद्देवीभागवत पुस्तक की सभी उपचारों से विधिवत् पूजा करके कथा की निर्विघ्न समाप्ति के लिये पाँच विद्वान् ब्राह्मणों का वरण करना चाहिये। उनसे निरन्तर नवार्णमन्त्र का जप एवं दुर्गासप्तशती का पाठ कराना चाहिये ॥ २९-३० ॥ प्रदक्षिणनमस्कारान्कृत्वान्ते स्तुतिमाचरेत् । कात्यायनि महामाये भवानि भुवनेश्वरि ॥ ३१ ॥ संसारसागरे मग्नं मामुद्धर कृपामये । ब्रह्मविष्णुशिवाराध्ये प्रसीद जगदम्बिके ॥ ३२ ॥ मनोऽभिलषितं देवि वरं देहि नमोऽस्तु ते । इति सम्प्रार्थ्य शृणुयात्कथां नियतमानसः ॥ ३३ ॥ वक्तारञ्चापि सम्पूज्य व्यासबुध्या यतात्मवान् । माल्यालङ्कारवस्त्राद्यैः सम्भूष्य प्रार्थयेच्च तम् ॥ ३४ ॥ सर्वशास्त्रेतिहासज्ञ व्यासरूप नमोऽस्तु ते । कथाचन्द्रोदयेनान्तस्तमःस्तोमं निराकुरु ॥ ३५ ॥ तदग्रे तु नवाहान्तं कर्तव्या नियमास्तदा । विप्रादीनुपवेश्यादौ सम्पूज्योपविशेत्स्वयम् ॥ ३६ ॥ श्रोतव्यं सावधानेन चतुर्वर्गफलाप्तये । गृहपुत्रकलत्राप्तधनचिन्तामपास्य च ॥ ३७ ॥ सूर्योदयं समारभ्य किञ्चित्सूर्येऽवशेषिते । मुहूर्तमात्रं विश्रम्य मध्याह्ने वाचयेत्सुधीः ॥ ३८ ॥ मलमूत्रजयायैषां लघु भोजनमिष्यते । हविष्यान्नं वरं भोज्यं सकृदेव कथार्थिना ॥ ३९ ॥ अथवा स्यात्फलाहारी पयोभुग्वा धृताशनः । यथा स्यान्न कथाविघ्नस्तथा कार्यं विचक्षणैः ॥ ४० ॥ अन्त में प्रदक्षिणा तथा नमस्कार के बाद इस प्रकार स्तुति करे — ‘हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे भुवनेश्वरि ! हे कृपामये ! हे भवानि ! मैं संसार-सागर में डूब रहा हूँ; मेरा उद्धार कीजिये तथा हे ब्रह्मा, विष्णु, महेश से पूजनीया माता जगदम्बिके! मेरे ऊपर प्रसन्न होइये। हे देवि ! आप मुझे मनोवांछित वर प्रदान कीजिये, आपको बार-बार प्रणाम है। इस प्रकार प्रार्थना करके स्वस्थचित्त होकर कथा सुने ॥ ३१-३३ ॥ उस समय संयतचित्त होकर वक्ता को साक्षात् व्यास समझकर विधिवत् उनकी पूजा करे और वस्त्राभूषण तथा माला आदि पहनाकर उनसे प्रार्थना करे — ‘समस्त शास्त्र तथा पुराणेतिहास के ज्ञाता हे व्यासजी ! आपको नमस्कार है। आप कथारूपी चन्द्रमा की ज्योति से हमारे अन्तःकरण के अन्धकारसमूह को नष्ट कीजिये ‘ ॥ ३४-३५ ॥ इसके बाद नवाह के नियमों का व्रत ले और ब्राह्मणों का यथाशक्ति पूजन करके उन्हें पहले यथास्थान बैठा दे, तत्पश्चात् स्वयं भी अपने आसन पर बैठ जाय ॥ ३६ ॥ तब सावधान मन से चारों पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) – फल को प्राप्त करने के लिये पुत्र – कलत्र, धन- धान्य तथा गृह की चिन्ता छोड़कर कथा सुने ॥ ३७ ॥ विद्वान् वक्ता को चाहिये कि वह सूर्योदय से आरम्भ करके पुनः दोपहर में दो घड़ी विश्राम करके सूर्यास्त के कुछ समय पहले तक कथा वाचन करे ॥ ३८ ॥ मल-मूत्र के वेग को रोकने के लिये स्वल्पाहार उत्तम होता है। कथार्थी को दिन-रात में केवल एक बार हविष्यान्न का भोजन करना ही ठीक है; अथवा फलाहार करे या केवल दूध-घी के आहार पर ही रहे। बुद्धिमान् को चाहिये कि ऐसा आहार ग्रहण करे, जिससे कथा में किसी प्रकार की बाधा न हो । ३९-४० ॥ कथाश्रवणनिष्ठानां वक्ष्यामि नियमं द्विजाः । ब्रह्मविष्णुमहेशानां मध्ये ये भेददर्शिनः ॥ ४१ ॥ देवीभक्तिविहीना ये पाखण्डा हिंसकाः खलाः । विप्रदुहो नास्तिका ये न ते योग्याः कथाश्रवे ॥ ४२ ॥ ब्रह्मस्वहरणे लुब्धाः परदारधनेषु च । देवस्वहरणे तेषां नाधिकारः कथाश्रवे ॥ ४३ ॥ ब्रह्मचारी च भूशायी सत्यवक्ता जितेन्द्रियः । कथासमाप्तौ भुञ्जीत पत्रावल्यां यतात्मवान् ॥ ४४ ॥ वृन्ताकञ्च कलिन्दञ्च तैलञ्च द्विदलं मधु । दग्धमन्नं पर्युषितं भावदुष्टं त्यजेद् व्रती ॥ ४५ ॥ आमिषञ्च मसूरान्नमुदक्यादृष्टमेव च । रसोनं मूलकं हिङ्गुं पलाण्डुं गृञ्जनं तथा ॥ ४६ ॥ कूष्माण्डं नलिकाशाकं न भुञ्जीत कथाव्रती । कामं क्रोधं मदं लोभं दम्भ मानञ्च वर्जयेत् ॥ ४७ ॥ विप्रध्रुक्पतितव्रात्यश्वपाकयवनान्त्यजैः । उदक्यया वेदबाह्यैर्न वदेद्यः कथाव्रती ॥ ४८ ॥ वेदगोगुरुविप्राणां स्त्रीराज्ञां महतां तथा । देवानां देवभक्तानां न निन्दां शृणुयादपि ॥ ४९ ॥ विनयं चार्जवं शौचं दयां च मितभाषणम् । उदारं मानसञ्चैव कुर्याद्यस्तु कथावती ॥ ५० ॥ श्वित्री कुष्ठी क्षयी रुग्णो भाग्यहीनश्च पापकृत् । दरिद्रश्चानपत्यश्च भक्त्येमां शृणयात्कथाम् ॥ ५१ ॥ हे द्विजगण ! अब मैं कथाश्रवण में निष्ठा रखने वालों के नियम बताता हूँ। जो लोग ब्रह्मा, विष्णु और शिव में भेददृष्टि रखते हैं, देवी की भक्ति से रहित हैं, जो पाखण्डी, हिंसक तथा दुष्ट हैं और जो ब्राह्मणों से द्वेष रखने वाले तथा नास्तिक हैं, वे कथाश्रवण के योग्य नहीं हैं ॥ ४१-४२ ॥ जो परस्त्री, पराया धन, ब्राह्मणधन तथा देवसम्पत्ति के हरण में लुब्ध रहते हैं, उनका कथाश्रवण में अधिकार नहीं है ॥ ४३ ॥ श्रोता को चाहिये कि वह ब्रह्मचर्य का पालन करे, पृथ्वी पर सोये, सत्य बोले, जितेन्द्रिय रहे तथा कथा की समाप्ति पर संयमपूर्वक पत्तल पर भोजन करे ॥ ४४ ॥ व्रती को बैगन, बहेड़ा (कलिन्द), तेल, दाल, मधु और जला हुआ, बासी तथा भावदूषित अन्न का त्याग कर देना चाहिये ॥ ४५ ॥ कथा सुनने वाला व्रती मांस, मसूर, रजस्वला स्त्री का देखा हुआ खाद्यान्न, लहसुन, मूली, हींग, प्याज, गाजर, कोहड़ा और करमी का साग न खाये। काम, क्रोध, मद, लोभ, पाखण्ड और अहंकार को छोड़ दे ॥ ४६-४७ ॥ विप्रद्रोही, पतित, संस्कारहीन, चाण्डाल, यवन, अन्त्यज, रजस्वला स्त्री और वेदविहीन मनुष्योंसे कथाव्रतीको वार्तालाप नहीं करना चाहिये ॥ ४८ ॥ श्रोता को चाहिये कि वह वेद, गौ, गुरु, ब्राह्मण, स्त्री, राजा, महापुरुष, देवताओं और देवभक्तों की निन्दा कभी न सुने ॥ ४९ ॥ जो कथाव्रती हो उसे सर्वदा विनयशील, सरलचित्त, पवित्र, दयालु, कम बोलने वाला तथा उदार मन वाला होना चाहिये ॥ ५० ॥ श्वेतकुष्ठी, कुष्ठी, क्षयरोगी, अभागा, पापी, दरिद्र तथा सन्तानहीन मनुष्य इस कथा को भक्तिपूर्वक सुने ॥ ५१ ॥ वन्ध्या वा काकवन्ध्या वा दुर्भगा वा मृतार्भका । पतद्गर्भाङ्गना या च ताभिः श्राव्या तथा कथा ॥ ५२ ॥ धर्मार्थकाममोक्षांश्च यो वाच्छति विना श्रमम् । भगवत्या भागवतं श्रोतव्यं तेन यत्नतः ॥ ५३ ॥ कथादिनानि चैतानि नवयज्ञैः समानि हि । तेषु दत्तं हुतं जप्तमनन्तफलदं भवेत् ॥ ५४ ॥ एवं व्रतं नवाहं तु कृत्वोद्यापनमाचरेत् । महाष्टमीव्रतं यद्वत्तथा कार्यं फलेप्सुभिः ॥ ५५ ॥ निष्कामाः श्रवणेनैव पूता मुक्तिं व्रजन्ति हि । भोगमोक्षप्रदा नॄणां यतो भगवती परा ॥ ५६ ॥ पुस्तकस्य च वक्तुश्च पूजा कार्या तु नित्यशः । वक्त्रा दत्तं प्रसादं तु गह्णीयाद्भक्तिपूर्वकम् ॥ ५७ ॥ कुमारीः पूजयेन्नित्यं भोजयेत्पार्थयेच्च यः । सुवासिनीश्च विप्रांश्च तस्य सिद्धिर्न संशयः ॥ ५८ ॥ गायत्र्या नाम साहस्रं समाप्तावथ वा पठेत् । विष्णोर्नामसहस्रञ्च सर्वदोषोपशान्तये ॥ ५९ ॥ यस्य स्मृत्या च नामोक्त्या तपोयज्ञक्रियादिषु । न्यूनं सम्पूर्णतां याति तस्माद्विष्णुञ्च कीर्तयेत् ॥ ६० ॥ जो स्त्री वन्ध्या, काकवन्ध्या (जिस स्त्रीको एक बार सन्तान होकर बन्द हो जाय ), अभागिन तथा मृतवत्सा हो और जिसका गर्भ गिर जाता हो, ऐसी सभी स्त्रियोंको इस देवीभागवतकथा का श्रवण करना चाहिये ॥ ५२ ॥ जो मनुष्य बिना परिश्रम के ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त करना चाहता है, वह यत्नपूर्वक इस देवी भागवत की कथा अवश्य सुने ॥ ५३ ॥ इस नवाहकथा के नौ दिन नौ यज्ञों के समान हैं। उनमें किया गया दान, हवन तथा जप अनन्त फल देने वाला होता है ॥ ५४ ॥ इस प्रकार नवाहव्रत करके उसका उद्यापन करना चाहिये। फल की कामना करने वाले पुरुषों को महाष्टमीव्रत के उद्यापन की भाँति नवाहव्रत का भी उद्यापन करना चाहिये ॥ ५५ ॥ निष्काम व्यक्ति कथा के श्रवणमात्र से पवित्र होकर मुक्ति पा जाते हैं; क्योंकि परा भगवती मनुष्यों को भोग और मोक्ष सब कुछ देनेवाली हैं ॥ ५६ ॥ पुस्तक और कथावाचक — दोनों की प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये और वक्ता द्वारा दिया हुआ प्रसाद भक्तिपूर्वक ग्रहण करना चाहिये ॥ ५७ ॥ नवाह यज्ञ में जो श्रोता नित्य कुमारी कन्याओं, सुहागिन स्त्रियों तथा ब्राह्मणों को भोजन कराता तथा उनसे प्रार्थना करता है, उसकी कार्यसिद्धि अवश्य हो जाती है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५८ ॥ सभी त्रुटियों की शान्ति के निमित्त कथासमाप्ति के दिन गायत्रीसहस्रनाम अथवा विष्णुसहस्रनाम का पाठ करना चाहिये ॥ ५९ ॥ जिनके स्मरण तथा नामकीर्तन से तप, यज्ञ, क्रिया आदि में न्यूनता समाप्त हो जाती है, उन विष्णुभगवान् का नाम-कीर्तन करना चाहिये ॥ ६० ॥ देव्याः सप्तशतीमन्त्रैः समाप्तौ होममाचरेत् । देवीमाहात्म्यमूलेन नवार्णमनुनाथवा ॥ ६१ ॥ गायत्र्या त्वथवा होमः पायसेन ससर्पिषा । यतो भागवतं त्वेतद् गायत्रीमयमीरितम् ॥ ६२ ॥ वाचकं तोषयेत्सम्यग्वस्त्रभूषाधनादिभिः । प्रसन्ने वाचके सर्वाः प्रसनास्तस्य देवताः ॥ ६३ ॥ ब्राह्मणान्भोजयेद्भक्त्या दक्षिणाभिश्च तोषयेत् । पृथिव्यां देवरूपास्ते तुष्टेष्वेष्वीप्सितं फलम् ॥ ६४ ॥ सुवासिनीः कुमारीश्च देवीभक्त्या च भोजयेत् । ताभ्योऽपि दक्षिणां दत्त्वा प्रार्थयेत्सिद्धिमात्मनः ॥ ६५ ॥ दद्याद्दानानि चान्यानि सुवर्णं गाः पयस्विनीः । हयानिभान्मेदिनीञ्च तस्य स्यादक्षयं फलम् ॥ ६६ ॥ देवीभागवतं चैतल्लिखितं शोभनाक्षरम् । हेमसिंहासने स्थाप्य पट्टवस्त्रेण वेष्टितम् ॥ ६७ ॥ अष्टम्यां वा नवम्याञ्च वाचकायार्चिताय च । दद्यात्स भोगान्भुक्त्वेह दुर्लभं मोक्षमाप्नुयात् ॥ ६८ ॥ कथासमाप्ति के दिन दुर्गासप्तशती के मन्त्रों से अथवा देवीमाहात्म्य के मूलपाठ से या नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे।) से होम करना चाहिये अथवा घृतसहित पायस द्वारा गायत्री मन्त्र का उच्चारण करके हवन करे; क्योंकि यह श्रीमद्देवीभागवत महापुराण गायत्रीमय कहा गया है ॥ ६१-६२ ॥ कथावाचक को वस्त्र, भूषण, धन आदि के द्वारा सन्तुष्ट करे; क्योंकि कथावाचक के प्रसन्न होने पर सभी देवता उसपर प्रसन्न हो जाते हैं ॥ ६३ ॥ श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को भोजन कराये और नानाविध दक्षिणाओं से उन्हें सन्तुष्ट करे; क्योंकि वे विप्र पृथ्वी पर देवता के स्वरूप हैं। उनके सन्तुष्ट होने पर वांछित फल प्राप्त होता है ॥ ६४ ॥ सुहागिन स्त्रियों तथा कुमारी कन्याओं को साक्षात् देवी समझकर उन्हें भोजन कराये और उन्हें दक्षिणा देकर अपने मनोरथ की सिद्धि के लिये प्रार्थना करे ॥ ६५ ॥ सुवर्ण, दूध देनेवाली गौ, हाथी, घोड़े और भूमि का दान करना चाहिये; क्योंकि उसका अक्षय फल होता है ॥ ६६ ॥ सुन्दर अक्षरों में लिखी देवीभागवत की पुस्तक को रेशमी- वस्त्र में लपेटकर उसे सुवर्णनिर्मित सिंहासन पर रखकर अष्टमी या नवमी तिथि को विधिपूर्वक कथावाचक को दान करना चाहिये। ऐसा करने से वह इस संसार में सभी सुखों को भोगकर अन्त में दुर्लभ मोक्ष प्राप्त करता है ॥ ६७-६८ ॥ दरिद्रो दुर्बलो बालस्तरुणो जरठोऽपि वा । पुराणवेत्ता वन्द्यः स्यात्पूज्यो मान्यश्च सर्वदा ॥ ६९ ॥ सन्ति लोकस्य बहवो गुरवो गुणजन्मतः । सर्वेषामपि तेषाञ्च पुराणज्ञः परो गुरुः ॥ ७० ॥ पौराणिको ब्राह्मणस्तु व्यासासनसमाश्रितः । आसमाप्ते प्रसङ्गे तु नमस्कुर्यान्न कस्यचित् ॥ ७१ ॥ पौराणिकीं कथां दिव्यां येऽपि शृण्वन्त्यभक्तितः । तेषां पुण्यफलं नास्ति दुःखदारिद्र्यभागिनाम् ॥ ७२ ॥ असम्पूज्य पुराणं तु ताम्बूलकुसुमादिभिः । ये शृण्वन्ति कथां देव्यास्ते दरिद्रा भवन्तिहि ॥ ७३ ॥ कीर्त्यमानां कथां त्यक्त्या ये व्रजन्त्यन्यतो नराः । भोगान्तरे प्रणश्यन्ति तेषां दाराश्च सम्पदः ॥ ७४ ॥ ये च तुङ्गासनारूढाः कथां शृण्वन्ति दाम्भिकाः । ते वायसा भवन्त्यत्र भुक्त्वा निरययातनाम्॥ ७५ ॥ ये चाढ्यासनसंस्थाश्च ये वीरासनसंस्थिताः । शृण्वन्ति च कथां दिव्यां ते स्युरर्जुनशाखिनः ॥ ७६ ॥ कथायां कीर्त्यमानायां ये वदन्ति दुरुत्तरम् । रासभास्ते भवन्तीह कृकलासास्ततः परम् ॥ ७७ ॥ निन्दन्ति ये पुराणज्ञान् कथां वा पापहारिणीम् । ते तु जन्मशतं दुष्टाः शुनकाः स्युर्न संशयः ॥ ७८ ॥ ये शृण्वन्ति कथां वक्तुः समानासनसंस्थिताः । गुरुतल्पसमं पापं लभन्ते नरकालयाः ॥ ७९ ॥ ये चाप्रणम्य शृण्वन्ति ते भवन्ति विषद्रुमाः । शयाना येऽपि शृण्वन्ति भवन्त्यजगराहयः ॥ ८० ॥ पुराण को जानने वाला वक्ता चाहे दरिद्र हो, दुर्बल हो, बालक हो, युवक हो अथवा वृद्ध हो, वह सर्वदा वन्दनीय पूज्य एवं मान्य होता है ॥ ६९ ॥ यद्यपि संसार में जन्म अथवा गुण के कारण अनेक गुरु हैं, परंतु पुराण का ज्ञाता उन सबमें श्रेष्ठ गुरु है ॥ ७० ॥ व्यास के आसन पर बैठा हुआ पौराणिक ब्राह्मण जबतक कथा समाप्त न हो जाय, तबतक किसी को भी प्रणाम न करे ॥ ७१ ॥ जो लोग इस दिव्य पौराणिक कथा को श्रद्धारहित होकर सुनते हैं, उन दुःख तथा दारिद्र्य युक्त मनुष्यों को कथाश्रवण का पुण्य फल प्राप्त नहीं होता ॥ ७२ ॥ जो लोग ताम्बूल, पुष्प आदि उपचारों से पुराण का पूजन किये बिना ही देवी की कथा सुनते हैं, वे दरिद्र होते हैं और जो लोग कथा के बीच में ही उसे छोड़कर अन्यत्र चले जाते हैं, कुछ ही समय बाद उनकी सम्पदाएँ एवं स्त्री आदि नष्ट हो जाती हैं ॥ ७३-७४ ॥ जो अभिमानवश व्यास से ऊँचे स्थान पर बैठकर कथा सुनते हैं, वे नरक यातना भोगकर इस लोक में कौए की योनि पाते हैं ॥ ७५ ॥ बहुमूल्य आसन पर अथवा वीरासन से बैठकर दिव्य कथा का श्रवण करते हैं, वे ‘अर्जुन’ वृक्ष होते हैं ॥ ७६ ॥ कथा होते समय जो लोग व्यर्थ तर्क-वितर्क करते हैं, वे इस लोक में पहले गर्दभयोनि में तत्पश्चात् गिरगिट की योनि में जाते हैं ॥ ७७ ॥ जो लोग पुराण जानने वालों की अथवा पापनाशिनी कथा की निन्दा करते हैं, वे सैकड़ों जन्म तक दुष्ट कुत्ते होते हैं; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७८ ॥ जो लोग कथावाचक के बराबर आसनप र बैठकर कथा सुनते हैं, उन्हें गुरु के आसन पर बैठने का पाप लगता है और वे नरक में वास करते हैं। जो लोग वक्ता को प्रणाम किये बिना ही कथा सुनने लगते हैं, वे जन्मान्तर में विषैले वृक्ष होते हैं। इसी प्रकार जो लोग लेटे-लेटे कथा सुनते हैं; वे अजगर, साँप की योनि पाते हैं ॥ ७९-८० ॥ ये कदाचन पौराणीं न शृण्वन्ति कथां नराः । ते घोरं नरकं भुक्त्या भवन्ति वनसूकराः ॥ ८१ ॥ ये कथां नानुमोदन्ते विघ्नं कुर्वन्ति ये शठाः । कोट्यब्दं निरयं भुक्त्वा भवन्ति ग्रामसूकराः ॥ ८२ ॥ आसनं भाजनं द्रव्यं फलं वस्वाणि कम्बलम् । पुराणज्ञाय यच्छन्ति ते व्रजन्ति हरेः पदम् ॥ ८३ ॥ पुराणपुस्तकस्यापि ये पट्टवसनं नवम् । प्रयच्छन्ति शुभं सूत्रं ते नराः सुखभागिनः ॥ ८४ ॥ पुराणानां तु सर्वेषां श्रवणाद्यत्फलं लभेत् । तस्माच्छतगुणं पुण्यं देवीभागवताल्लभेत् ॥ ८५ ॥ यथा सरित्सु प्रवरा गङ्गा देवेषु शङ्करः । काव्ये रामायणं यद्वज्ज्योतिष्मत्सु यथा रविः ॥ ८६ ॥ आह्लादकानां चन्द्रश्च धनानाञ्च यथा यशः । क्षमावतां यथा भूमिर्गाम्भीर्ये सागरो यथा ॥ ८७ ॥ मन्त्राणां चैव सावित्री पापनाशे हरिस्मृतिः । अष्टादशपुराणानां देवीभागवतं तथा ॥ ८८ ॥ येन केनाप्युपायेन नवकृत्व शृणोति चेत् । न शक्यं तत्कलं वक्तुं जीवन्मुक्तः स एव हि ॥ ८९ ॥ जो मनुष्य कभी भी पुराण की कथा नहीं सुनते, वे घोर नरक भोगकर बनैले सूअर की योनि में जाते हैं। जो शठ मनुष्य कथा का अनुमोदन नहीं करते अपितु उसमें विघ्न डाला करते हैं, वे करोड़ों वर्षों तक नरक यातना भोगकर अन्त में ग्रामसूकर होते हैं ॥ ८१-८२ ॥ जो लोग पुराणवेत्ता को आसन, पात्र, द्रव्य, फल, वस्त्र तथा कम्बल प्रदान करते हैं, वे भगवान् के परम पद को प्राप्त करते हैं ॥ ८३ ॥ जो मनुष्य पुराणपुस्तक के लिये नवीन रेशमी वस्त्र तथा सुन्दर सूत्र का दान करते हैं, वे सुखी रहते हैं ॥ ८४ ॥ सभी पुराणों के सुनने से जो फल प्राप्त होता है, उससे सौगुना पुण्य श्रीमद्देवीभागवत पुराण के श्रवण से होता है ॥ ८५ ॥ जिस प्रकार नदियों में गंगा श्रेष्ठ हैं; देवताओं में शिव, काव्यों में वाल्मीकीय रामायण तथा तेजस्वियों में भगवान् सूर्य श्रेष्ठ हैं; और जैसे आनन्द देने वालों में चन्द्रमा, सब धनों में सुयश, क्षमाशीलों में पृथ्वी, गम्भीरता में समुद्र, मन्त्रों में गायत्री तथा पापनाश के उपायों में भगवत्स्मरण श्रेष्ठ है, उसी प्रकार अठारहों पुराणों में यह श्रीमद्देवीभागवत पुराण सर्वश्रेष्ठ है ॥ ८६–८८ ॥ जिस किसी भी उपाय से यदि कोई मनुष्य इस महापुराण की नौ आवृत्तियाँ सुन ले तो उसके फल का वर्णन नहीं किया जा सकता, वह तो जीवन्मुक्त ही हो जाता है ॥ ८९ ॥ राजशत्रुभये प्राप्ते महामारीभये तथा । दुर्भिक्षे राष्ट्रभङ्गे च तच्छान्त्यै शृणयादिदम् ॥ ९० ॥ भूतप्रेतविनाशाय राज्यलाभाय शत्रुतः । पुत्रलाभाय शृणुयाद्देवीभागवतं द्विजाः ॥ ९१ ॥ श्रीमद्भागवतं यस्तु पठेद्वा शृणुयादपि । श्लोकार्धं श्लोकपादं वा स याति परमां गतिम् ॥ ९२ ॥ भगवत्या स्वयं देव्या श्लोकार्धेन प्रकाशितम् । शिष्यप्रशिष्यद्वारेण तदेव विपुलीकृतम् ॥ ९३ ॥ न गायत्र्या परो धर्मो न गायत्र्याः परं तपः । न गायत्र्या समो देवो न गायत्र्याः परो मनुः ॥ ९४ ॥ गातारं त्रायते यस्माद् गायत्री तेन सोच्यते । सात्र भागवते देवी सरहस्या प्रतिष्ठिता ॥ ९५ ॥ अतो भागवतस्यास्य देव्याः प्रीतिकरस्य च । महान्त्यपि पुराणानि कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ९६ ॥ श्रीमद्भागवतं पुराणममलं यद्ब्राह्मणानां धनं धर्मो धर्मसुतेन यत्र गदितो नारायणेनामलः । गायत्र्याश्च रहस्यमत्र च मणिद्वीपश्च संवर्णितः श्रीदेव्या हिमभूभृते भगवती गीता च गीता स्वयम् ॥ ९७ ॥ तस्मान्नास्य पुराणस्य लोकेऽन्यत्सदृशं परम् । अतः सदैव संसेव्यं देवीभागवतं द्विजाः ॥ ९८ ॥ यस्याः प्रभावमखिलं न हि वेद धाता नो वा हरिर्न गिरिशो न हि चाप्यनन्तः । अंशांशका अपि च ते किमुतान्यदेवा- स्तस्यै नमोऽस्तु सततं जगदम्बिकायै ॥ ९९ ॥ यत्पादपङ्कजरजः समवाप्य विश्वं ब्रह्मा सृजत्यनुदिनञ्च बिभर्ति विष्णुः । रुद्रश्च संहरति नेतरथा समर्था- स्तस्यै नमोऽस्तु सततं जगदम्बिकायै ॥ १०० ॥ सुधाकूपारान्तस्त्रिदशतरुवाटीविलसिते मणिद्वीपे चिन्तामणिमयगृहे चित्ररुचिरे । विराजन्तीमम्बां परशिवहृदि स्मेरवदनां नरो ध्यात्वा भोगं भजति खलु मोक्षञ्च लभते ॥ १०१ ॥ ब्रह्मेशाच्युतशक्राद्यैर्महर्षिभिरुपासिता । जगतां श्रेयसे सास्तु मणिद्वीपाधिदेवता ॥ १०२ ॥ ॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहाम्ये देवीभागवत-श्रवणविधिवर्णनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ ॥ समाप्तमिदं श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्यम् ॥ किसी शत्रु राजा से भय होने पर, महामारी के समय, अकाल पड़ने पर तथा राष्ट्र-भंग के अवसर पर उसकी शान्ति के लिये यह पुराण सुनना चाहिये ॥ ९० ॥ हे विप्रो ! भूत-प्रेतादि के शमन के लिये, शत्रु से राज्य प्राप्त करने के लिये और पुत्र प्राप्ति के लिये श्रीमद्देवीभागवत का श्रवण करना चाहिये ॥ ९१ ॥ जो देवीभागवत के आधे श्लोक या चौथाई श्लोक को भी प्रतिदिन सुनता या पढ़ता है, वह परमगति को प्राप्त होता है ॥ ९२ ॥ स्वयं भगवती जगदम्बा ने इस पुराण को सर्वप्रथम केवल आधे श्लोक में ही प्रकाशित किया, वही बाद में शिष्य-प्रशिष्यों के द्वारा देवीभागवत के रूप में विस्तृत कर दिया गया ॥ ९३ ॥ गायत्री से बढ़कर न कोई धर्म है, न तप है, न कोई देवता है और न कोई मन्त्र ही है ॥ ९४ ॥ भगवती अपना गुणगान करने वाले की रक्षा करती हैं, इसी कारण से उन्हें गायत्री कहा जाता है। वे भगवती गायत्री इस पुराण में अपने रहस्योंसहित विराजती हैं। अतः भगवती को प्रसन्न करने वाले इस देवी भागवत की सोलहवीं कला के समान भी अन्य महापुराण नहीं हो सकते ॥ ९५-९६ ॥ श्रीमद्देवीभागवतपुराण अत्यन्त निर्मल है। जो ब्राह्मणों का अमूल्य धन है और जिसमें स्वयं धर्मपुत्र नारायण ने पवित्र धर्म का वर्णन किया है। इसमें श्रीगायत्रीदेवी का रहस्य एवं मणिद्वीप का सम्यक् वर्णन किया गया है। साथ ही इसमें हिमालय के प्रति स्वयं भगवती द्वारा कही गयी देवीगीता विद्यमान है ॥ ९७ ॥ इस कारण हे विप्रो ! इस महापुराण के सदृश दूसरा कोई उत्तम पुराण लोक में नहीं है, अतः आप लोग सदा इस श्रीमद्देवीभागवत का भलीभाँति सेवन करें ॥ ९८ ॥ जिनके सम्पूर्ण प्रभाव को ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा भगवान् शेष भी भलीभाँति नहीं जान सकते जबकि वे उन्हीं के अंशज भी हैं, तब दूसरे देवता उन्हें कैसे जान सकेंगे ? उन भगवती जगदम्बिका को मेरा निरन्तर प्रणाम है ॥ ९९ ॥ जिनके चरण-कमलों की धूलि पाकर ब्रह्मा समस्त संसारकी रचना करते हैं, भगवान् विष्णु निरन्तर पालन करते हैं और रुद्र संहार करते हैं; दूसरे किसी उपायसे वे अपना-अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हो सकते – ऐसी उन भगवती जगदम्बिका को मेरा सतत प्रणाम है ॥ १०० ॥ अमृत-सागर के तट पर कल्पवृक्ष की वाटिका से सुशोभित मणिद्वीप में स्थित बहुवर्णचित्रित चिन्तामणिमय भवन में तथा परम शिव के हृदय में विराजमान रहने वाली और मन्द मन्द मुसकानयुक्त मुखमण्डल वाली जगदम्बा का ध्यान करके मनुष्य सांसारिक सुखों का उपभोग करता है और अन्त में निश्चय ही मोक्ष प्राप्त करता है ॥ १०१ ॥ इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र-आदि देवताओं एवं समस्त महर्षियोंद्वारा पूजित मणिद्वीपनिवासिनी वे भगवती संसारका कल्याण करती रहें ॥ १०२ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दपुराणके अन्तर्गत मानसखण्डमें श्रीमद्देवीभागवत-माहात्म्यका ‘देवीभागवतश्रवणविधिवर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ 1. सामान्यतः नवरात्र चार हैं-१ चैत्र शुक्ल प्रतिपदासे दशमीतक, २ आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदासे दशमीतक (इसी नवरात्रके बाद हरिशयनी एकादशी), ३ आश्विन शुक्ल प्रतिपदासे विजयादशमीतक (इसके बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी देवोत्थानी – प्रबोधिनी एकादशी) तथा ४- माघ शुक्ल प्रतिपदासे दशमीतक सारस्वत – नवरात्र । Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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