श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-05
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-पञ्चमोऽध्यायः
पाँचवाँ अध्याय
ब्रह्मा और शिवजी का भगवती की स्तुति करना
हरब्रह्मकृतस्तुतिवर्णनम्

ब्रह्माजी बोले [ हे नारद!] इस प्रकार देवदेव जनार्दन भगवान् विष्णु के स्तुति कर लेने के उपरान्त भगवान् शिवशंकर विनीत भाव से देवीके सम्मुख स्थित होकर कहने लगे ॥ १ ॥

॥ शिवकृत देवी स्तुति ॥
॥ शिव उवाच ॥

यदि हरिस्तव देवि विभावज-स्तदनु पद्मज एव तवोद्‌भवः ।
किमहमत्र तवापि न सद्‌गुणः सकललोकविधौ चतुरा शिवे ॥ २ ॥
त्वमसि भूः सलिलं पवनस्तथा खमपि वह्निगुणश्च तथा पुनः ।
जननि तानि पुनः करणानि च त्वमसि बुद्धिमनोऽप्यथ हङ्कृतिः ॥ ३ ॥
न च विदन्ति वदन्ति च येऽन्यथा हरिहराजकृतं निखिलं जगत् ।
तव कृतास्त्रय एव सदैव ते विरचयन्ति जगत्सचराचरम् ॥ ४ ॥
अवनिवायुखवह्निजलादिभिः सविषयैः सगुणैश्च जगद्‌भवेत् ।
यदि तदा कथमद्य च तत्स्फुटं प्रभवतीति तवाम्ब कलामृते ॥ ५ ॥


भवसि सर्वमिदं सचराचरं त्वमजविष्णुशिवाकृतिकल्पितम् ।
विविधवेषविलासकुतूहलै-र्विरमसे रमसेऽम्ब यथारुचि ॥ ६ ॥
सकललोकसिसृक्षुरहं हरिः कमलभूश्च भवाम यदाऽम्बिके ।
तव पदाम्बुजपांसुपरिग्रहं समधिगम्य तदा ननु चक्रिम ॥ ७ ॥
यदि दयार्द्रमना न सदाम्बिके कथमहं विहितश्च तमोगुणः ।
कमलजश्च रजोगुणसंभवः सुविहितः किमु सत्त्वगुणो हरिः ॥ ८ ॥
यदि न ते विषमा मतिरम्बिके कथमिदं बहुधा विहितं जगत् ।
सचिवभूपतिभृत्यजनावृतं बहुधनैरधनैश्च समाकुलम् ॥ ९ ॥
तव गुणास्रय एव सदा क्षमाः प्रकटनावनसंहरणेषु वै ।
हरिहरद्रुहिणाश्च क्रमात्त्वया विरचितास्त्रिजगतां किल कारणम् ॥ १० ॥
परिचितानि मया हरिणा तथा कमलजेन विमानगतेन वै ।
पथिगतैर्भुवनानि कृतानि वा कथय केन भवानि नवानि च ॥ ११ ॥
सृजसि पासि जगज्जगदम्बिके स्वकलया कियदिच्छसि नाशितुम् ।
रमयसे स्वपतिं पुरुषं सदा तव गतिं न हि विद्म वयं शिवे ॥ १२ ॥
जननि देहि पदाम्बुजसेवनं युवतिभागवतानपि नः सदा ।
पुरुषतामधिगम्य पदाम्बुजाद्विरहिताः क्व लभेम सुखं स्फुटम् ॥ १३ ॥
न रुचिरस्ति ममाम्ब पदाम्बुजं तव विहाय शिवे भुवनेष्वलम् ।
निवसितुं नरदेहमवाप्य च त्रिभुवनस्य पतित्वमवाप्य वै ॥ १४ ॥
सुदति नास्ति मनागपि मे रतिर्युवतिभावमवाप्य तवान्तिके ।
पुरुषता क्व सुखाय भवत्यलं तव पदं न यदीक्षणगोचरम् ॥ १५ ॥
त्रिभुवनेषु भवत्वियमम्बिके मम सदैव हि कीर्तिरनाविला ।
युवतिभावमवाप्य पदाम्बुजं परिचितं तव संसृतिनाशनम् ॥ १६ ॥
भुवि विहाय तवान्तिकसेवनं क इह वाञ्छति राज्यमकंटकम् ।
त्रुटिरसौ किल याति युगात्मतां न निकटं यदि तेऽङ्‌घ्रिसरोरुहम् ॥ १७ ॥
तपसि ये निरता मुनयोऽमला-स्तव विहाय पदाम्बुजपूजनम् ।
जननि ते विधिना किल वञ्चिताः परिभवो विभवे परिकल्पितः ॥ १८ ॥
न तपसा न दमेन समाधिना न च तथा विहितैः क्रतुभिर्यथा ।
तव पदाब्जपरागनिषेवणाद्‌भवति मुक्तिरजे भवसागरात् ॥ १९ ॥
कुरु दयां दयसे यदि देवि मां कथय मन्त्रमनाविलमद्‌भुतम् ।
समभवं प्रजपन्सुखितो ह्यहं सुविशदं च नवार्णमनुत्तमम् ॥ २० ॥
प्रथमजन्मनि चाधिगतो मया तदधुना न विभाति नवाक्षरः ।
कथय मां मनुमद्य भवार्णवाज्जननि तारय तारय तारके ॥ २१ ॥

शिवजी बोले हे देवि ! यदि भगवान् विष्णु आपके प्रभाव से प्रादुर्भूत हुए तथा उनके बाद ब्रह्माजी भी आपसे उत्पन्न हुए तो क्या मुझ तमोगुणी की आपसे उत्पत्ति नहीं हुई है ? हे शिवे ! आप तो समग्र लोक की रचना में चतुर हैं ॥ २ ॥ पृथ्वी, जल, वायु, आकाश और अग्नि आप ही हैं । हे माता ! आप ही इन्द्रियरूपिणी तथा आप ही बुद्धि, मन और अहंकारस्वरूपा हैं ॥ ३ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और शंकर ने अखिल जगत् की रचना की है ऐसा जो लोग अन्यथा बोलते हैं, वे कुछ भी नहीं जानते। आपने ही सदा से इन तीनों की सृष्टि की है, जो [ आपकी ही प्रेरणा से] चराचर जगत् का सृजन-पालन – संहार करते हैं ॥ ४ ॥ यदि पृथ्वी, वायु, आकाश, अग्नि, जल आदि महाभूतों के गुणों तथा विषयों से ही जगत् का निर्माण सम्भव हो तो भी हे अम्ब! आपकी [ चिन्मयी ] कला के बिना वह कैसे व्यक्त हो सकता है ? ॥ ५ ॥ हे अम्ब! आपने ब्रह्मा, विष्णु और महेश द्वारा निर्मित इस सम्पूर्ण चराचर जगत् को व्याप्त कर रखा है। आप अनेक प्रकार के वेष धारण करके कुतूहलपूर्ण क्रीड़ाएँ करती हुई यथेच्छ विहार करती हैं और पुनः शान्त भी हो जाती हैं ॥ ६ ॥ अम्बिके! जब मैं (शिव), विष्णु और ब्रह्मा सृष्टिकाल में इस ब्रह्माण्ड की रचना करने की इच्छा करते हैं, तब निश्चित ही आपके चरणकमलों का रजकण प्राप्त करके ही हम लोग अपने-अपने कार्य करने में समर्थ होते हैं ॥ ७ ॥ अम्ब! यदि आप सदा दयालु चित्तवाली न होतीं तो मैं तमोगुणयुक्त, ब्रह्मा रजोगुणसम्पन्न और विष्णु सत्त्वगुणयुक्त कैसे बनते ? ॥ ८ ॥

हे अम्बिके! यदि आपकी वैविध्यपूर्ण बुद्धि न होती तो यह संसार इतना विविधतापूर्ण कैसे होता, जिसमें मन्त्री, राजा, सेवक, धनी और निर्धन भरे पड़े हैं ॥ ९ ॥ इस ब्रह्माण्ड की सृष्टि, स्थिति और संहार करने में आपके तीनों गुण (सत्-रज-तम) ही सर्वथा समर्थ हैं; फिर भी आपने हम ब्रह्मा, विष्णु और महेश को क्रमशः इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिये तीनों लोकों के कारणरूप में उत्पन्न किया है ॥ १० ॥ विमान में बैठा हुआ मैं, ब्रह्मा तथा विष्णु — हम लोग इन भुवनों से पूर्णरूपेण परिचित हो गये हैं। हे भवानि ! मार्ग में स्थित इन नवीन भुवनों को किसने बनाया? इसे आप बतायें ॥ ११ ॥ हे जगदम्बिके! आप अपनी कला से जगत् की रचना तथा पालन करती हैं और जब चाहती हैं तब उसका संहार कर देती हैं। आप सदा अपने पति परमपुरुष को रमण कराती रहती हैं । हे शिवे ! आपकी इस लीला को हम नहीं जान सकते ॥ १२ ॥ हे जननि ! नारीभाव को प्राप्त हम लोगों को सदा अपने चरणकमलों की सेवा करने का अवसर दें; क्योंकि कालान्तर में पुनः पुंस्त्व प्राप्त होने पर आपके चरणकमलों से पृथक् रहकर हम लोगों को वह प्रत्यक्ष सुख कहाँ प्राप्त होगा ! ॥ १३ ॥ हे अम्ब! हे शिवे ! आपके चरणकमलों को त्यागकर यह नर देह प्राप्त करके तीनों लोकों का स्वामित्व प्राप्त करके भी समस्त लोकों में कहीं भी रहने की मेरी रुचि नहीं है – चाहे मुझे त्रिभुवन का स्वामित्व ही क्यों न मिल जाय ॥ १४॥ हे सुदति ! आपके सांनिध्य में स्त्रीभाव को प्राप्त कर लेने पर अब पुरुषभाव में मेरी थोड़ी भी रुचि नहीं है । जिसे पाकर आपके चरणारविन्द के दर्शन का सौभाग्य न मिले, वह पुरुषता कैसे सुख प्रदान कर सकती है ? ॥ १५ ॥ हे अम्बिके ! स्त्री का रूप पाकर मैं भवबन्धन से मुक्त करने वाले आपके चरणकमलों से परिचित हो गया हूँ। आपकी कृपा से तीनों लोकों में मेरा सुयश स्थिर रहे ॥ १६ ॥

इस संसार में ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके सांनिध्य का सेवन छोड़कर निष्कण्टक राज्य करना चाहेगा? क्योंकि जिसे आपके चरणकमल का सांनिध्य प्राप्त नहीं होता, उसके लिये क्षणांश भी युग के समान प्रतीत होता है ॥ १७ ॥ हे जननि ! जो शुद्ध चित्तवाले मुनि आपके चरण कमल की सेवा त्यागकर केवल तपश्चर्या में लगे रहते हैं, वे निश्चितरूप से विधाता के द्वारा ठगे गये हैं और अपनी हानि को ही लाभ समझते हैं ॥ १८ ॥ हे अजे ! आपके पदारविन्द के पराग की सेवासे जैसी मुक्ति इस संसार सागर से प्राप्त होती है, वैसी मुक्ति तपस्या, इन्द्रियदमन, समाधि तथा विभिन्न वेदविहित यज्ञों से भी नहीं होती ॥ १९ ॥ हे देवि ! यदि आप मेरे प्रति दयालु हैं तो मुझ पर दया कीजिये और अपना निर्मल, अद्भुत, सर्वश्रेष्ठ एवं विशद नवार्ण मन्त्र (ॐ ऐं हीं क्लीं चामुण्डाये विच्चे) मुझे प्रदान कीजिये, जिससे उसका निरन्तर जप करके मैं सर्वदाके लिये सुखी हो जाऊँ ॥ २० ॥ पूर्वजन्म में मैंने नवार्ण मन्त्र की दीक्षा पायी थी; परंतु वह मुझे अब स्मरण नहीं रह गया है। इसलिये हे तारके ! हे जननि! आज पुनः वह मन्त्र मुझे प्रदान कीजिये और भवसागर से मेरा उद्धार कीजिये, उद्धार कीजिये ॥ २१ ॥

ब्रह्माजी बोले — [हे नारद!] अद्भुत तेजस्वी शिवजी के ऐसा कहने पर जगदम्बा ने स्पष्ट शब्दों में नवाक्षर मन्त्र का उच्चारण किया। उस मन्त्र को ग्रहण करके शिवजी बहुत प्रसन्‍न हो गये और भगवती के चरणों में प्रणाम करके वहीं पर स्थित हो गये ॥ २२-२३ ॥ उस समय सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ, मुक्तिप्रदायक तथा शुभ उच्चारण से सम्पन्न उस बीजयुक्त नवाक्षर मन्त्र का जप करते हुए शंकरजी वहाँ विराजमान रहे ॥ २४ ॥ संसार का कल्याण करने वाले शिवजी को इस प्रकार बैठा देखकर मैं उन महामाया के चरणों के समीप बैठ गया और उनसे कहने लगा ॥ २५ ॥

॥ ब्रह्माकृत देवी स्तुति ॥
न वेदास्त्वामेवं कलयितुमिहासन्नपटवो
यतस्ते नोचुस्त्वां सकलजनधात्रीमविकलाम् ।
स्वधाभूता देवी सकलमखहोमेषु विहिता
तदा त्वं सर्वज्ञा जननि खलु जाता त्रिभुवने ॥ २६ ॥
कर्ताऽहं प्रकरोमि सर्वमखिलं ब्रह्माण्डमत्यद्‌भुतं
कोऽन्योस्तीह चराचरे त्रिभुवने मत्तः समर्थः पुमान् ।
धन्योऽस्म्यत्र न संशयः किल यदा ब्रह्माऽस्मि लोकातिगो
मग्नोऽहं भवसागरे प्रवितते गर्वाभिवेशादिति ॥ २७ ॥
अद्याहं तव पादपङ्कजपरागादानगर्वेण वै
धन्योऽस्मीति यथार्थवादनिपुणो जातः प्रसादाच्च ते ।
याचे त्वां भवभीतिनाशचतुरां मुक्तिप्रदां चेश्वरीं
हित्वा मोहकृतं महार्तिनिगडं त्वद्‌भक्तियुक्तं कुरु ॥ २८ ॥
अतोऽहञ्च जातो विमुक्तः कथं स्यां सरोजादमेयात्त्वदाविष्कृताद्वै ।
तवाज्ञाकरः किङ्करोऽस्मीति नूनं शिवे पाहि मां मोहमग्नं भवाब्धौ ॥ २९ ॥
न जानन्ति ये मानवास्ते वदन्ति प्रभुं मां तवाद्यं चरित्रं पवित्रम् ।
यजन्तीह ये याजकाः स्वर्गकामा न ते ते प्रभावं विदन्त्येव कामम् ॥ ३० ॥
त्वया निर्मितोऽहं विधित्वे विहारं विकर्तुं चतुर्धा विधायादिसर्गम् ।
अहं वेद्मि कोऽन्यो विवेदातिमाये क्षमस्वापराधं त्वहङ्कारजं मे ॥ ३१ ॥
श्रमं येऽष्टधा योगमार्गे प्रवृत्ताः प्रकुर्वन्ति मूढाः समाधौ स्थिता वै ।
न जानन्ति ते नाम मोक्षप्रदं वा समुच्चारितं जातु मातर्मिषेण ॥ ३२ ॥
विचारे परे तत्त्वसंख्याविधाने पदे मोहिता नाम ते संविहाय ।
न किं ते विमूढा भवाब्धौ भवानि त्वमेवासि संसारमुक्तिप्रदा वै ॥ ३३ ॥
परं तत्त्वविज्ञानमाद्यैर्जनैर्यैरजे चानुभूतं त्यजन्त्येव ते किम् ।
निमेषार्धमात्रं पवित्रं चरित्रं शिवा चाम्बिका शक्तिरीशेति नाम ॥ ३४ ॥
न किं त्वं समर्थाऽसि विश्वं विधातुं दृशैवाशु सर्वं चतुर्धा विभक्तम् ।
विनोदार्थमेवं विधिं मां विधाया-दिसर्गे किलेदं करोषीति कामम् ॥ ३५ ॥
हरिः पालकः किं त्वयाऽसौ मधोर्वा तथा कैटभाद्रक्षितः सिन्धुमध्ये ।
हरः संहृतः किं त्वयाऽसौ न काले कथं मे भ्रुवोर्मध्यदेशात्स जातः ॥ ३६ ॥
न ते जन्म कुत्रापि दृष्टं श्रुतं वा कुतः सम्भवस्ते न कोऽपीह वेद ।
किलाद्यासि शक्तिस्त्वमेका भवानि स्वतन्त्रैः समस्तैरतो बोधिताऽसि ॥ ३७ ॥
त्वया संयुतोऽहं विकर्तुं समर्थो हरिस्त्रातुमम्ब त्वया संयुतश्च ।
हरः सम्प्रहर्तुं त्वयैवेह युक्तः क्षमा नाद्य सर्वे त्वया विप्रयुक्ताः ॥ ३८ ॥
यथाऽहं हरिः शङ्करः किं तथाऽन्ये न जाता न सन्तीह नो वाऽभविष्यन् ।
न मुह्यन्ति केऽस्मिंस्तवात्यन्तचित्रे विनोदे विवादास्पदेऽल्पाशयानाम् ॥ ३९ ॥
अकर्ता गुणस्पष्ट एवाद्य देवो निरीहोऽनुपाधिः सदैवाकलश्च ।
तथापीश्वरस्ते वितीर्णं विनोदं सुसम्पश्यतीत्याहुरेवं विधिज्ञाः ॥ ४० ॥
दृष्टादृष्टविभेदेऽस्मिन्प्राक्त्वत्तो वै पुमान्परः ।
नान्यः कोऽपि तृतीयोऽस्ति प्रमेये सुविचारिते ॥ ४१ ॥
न मिथ्या वेदवाक्यं वै कल्पनीयं कदाचन ।
विरोधोऽयं मयाऽत्यन्तं हृदये तु विशङ्‌कितः ॥ ४२ ॥
एकमेवाद्वितीयं यद्‌‌ब्रह्म वेदा वदन्ति वै ।
सा किं त्वं वाप्यसौ वा किं सन्देहं विनिवर्तय ॥ ४३ ॥
निःसंशयं न मे चेतः प्रभवत्यविशङ्‌कितम् ।
द्वित्वैकत्वविचारेऽस्मिन्निमग्नं क्षुल्लकं मनः ॥ ४४ ॥
स्वमुखेनापि सन्देहं छेत्तुमर्हसि मामकम् ।
पुण्यभोगाच्च मे प्राप्ता सङ्गतिस्तव पादयोः ॥ ४५ ॥
पुमानसि त्वं स्त्री वासि वद विस्तरतो मम ।
ज्ञात्वाऽहं परमां शक्तिं मुक्तः स्यां भवसागरात् ॥ ४६ ॥

हे जननि! वेद सभी लोगों को धारण करने वाली तथा सनातनी आप भगवती की कल्पना करमे में अकुशल हैं — ऐसी बात नहीं है; क्योंकि साधारण कार्यों में उन्होंने आप भगवती की चर्चा नहीं की है। यदि वे आपको न जानते तो सभी यज्ञों तथा हवन- कार्यों में आपको ही स्वाहादेवी के रूप में प्रतिष्ठित कैसे करते ? इसलिये आप तीनों लोकों में सर्वज्ञा के रूप में विख्यात हुईं ॥ २६ ॥

मैं स्रष्टा हूँ, मैं अत्यन्त अद्भुत सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का निर्माण करता हूँ, इस चराचर त्रिभुवन में मुझसे बढ़कर समर्थ दूसरा पुरुष कौन है, मैं निस्सन्देह धन्य हूँ, मैं लोकोत्तर ब्रह्मा हूँ — इस मिथ्या अहंकार के कारण मैं सर्वदा इस विस्तृत संसारसागर में निमग्न रहता हूँ; तथापि आज आपके चरण-कमलों की पराग- प्राप्ति के गर्व से मैं वस्तुतः धन्य हो गया हूँ और आपकी कृपा से ही आज मैं यथातथ्य के ज्ञान में निपुण हो गया हूँ। सांसारिक भयका नाश करने में दक्ष, मुक्तिदायिनी आप परमेश्वरी से मैं यही प्रार्थना करता हूँ कि मोहनिर्मित महादुःखदायी भवबन्धन से मुक्त करके आप मुझे अपनी भक्ति से समन्वित कीजिये ॥ २७-२८ ॥ आपसे ही निर्मित अद्भुत कमल से मैं आविर्भूत हुआ हूँ और मैं आपका आज्ञाकारी सेवक हूँ, अतः मैं कैसे मुक्त हो सकूँगा? हे शिवे! इस भवसागर में पड़े हुए मुझ मोहमग्न की रक्षा कीजिये ॥ २९ ॥ इस संसार में जो लोग आपके सनातन पवित्र चरित्र को नहीं जानते, वे लोग मुझे ही ईश्वर कहते हैं और जो यज्ञकर्ता स्वर्ग की इच्छा से [इन्द्र आदि देवताओं का] यजन करते हैं, वे भी सर्वथा आपके प्रभाव को नहीं जानते ॥ ३० ॥

हे आदिमाये! सर्वप्रथम सृष्टि को चार भागों [अण्डज, स्वेदज, उद्धिज और पिण्डज — जरायुज ] – में विभक्त करने के लिये ही आपने मुझे ब्रह्मा के पद पर बैठाया, परंतु [मैंने यह समझ लिया कि] मैं ही सब कुछ जानता हूँ, दूसरा कौन जान सकता है — मेरे इस अहंकारजन्य अपराध को आप क्षमा कीजिये ॥ ३१ ॥ जो लोग अष्टांगयोग का आश्रय लेते हैं और समाधि लगाकर व्यर्थ श्रम करते हैं, वे अज्ञानी हैं। हे माता! वे यह नहीं जानते कि किसी भी बहाने आपके नामोच्चारणमात्र से ही उन्हें मुक्ति प्राप्त हो सकती है ॥ ३२ ॥ कुछ लोग (सांख्यवादी) तो आपके नाम का आश्रय छोड़कर विमोहित हो तत्त्वों की संख्या के फेरमें पड़ जाते हैं; क्या वे इस भवसागर में मूर्ख नहीं हैं ? हे भवानि! संसार से मुक्ति प्रदान करने वाली तो आप ही हैं ॥ ३३ ॥ हे अजे! जिन विष्णु-शिव आदि ने परम तत्त्वज्ञान का अनुभव कर लिया है, वे क्‍या आधे निमेषमात्र के लिये भी आपके पवित्र चरित्र तथा शिवा, अम्बिका, शक्ति, ईश्वरी आदि नामों को विस्मृत करते हैं ॥ ३४ ॥ क्या आप विश्व की रचना करने में समर्थ नहीं हैं ? हे आदिसर्गे ! आपके दृष्टिनिक्षेपमात्र से ही यह सम्पूर्ण विश्व चार प्रकार के (अंडज, स्वेदज, उद्धिज्ज, पिण्डज — जरायुज) जीवों के रूप में शीघ्र ही विभक्त हुआ है। इस प्रकार मुझ ब्रह्मा की सृष्टि तो आप अपने मनोविनोद के लिये करके पुनः स्वतन्त्र भाव से जो चाहती हैं, वह करती हैं ॥ ३५ ॥

[महाप्रलय की स्थिति में] यदि महासागर में आप मधु-कैटभ से विष्णु की रक्षा न करतीं तो वे सृष्टि- पालक कैसे बन पाते और यदि आप सबके संहारक शिव का संहार न करतीं तो वे मेरे भ्रूमध्य से कैसे प्रकट होते ॥ ३६ ॥ आपका जन्म कहाँ हुआ — इसे न तो किसी ने देखा और न सुना और कोई यह भी नहीं जान पाया कि आपकी उत्पत्ति कहाँ हुई ? हे भवानि! एकमात्र आप ही आद्या शक्ति हैं, अतएव वेदों ने इसी रूप में आपका वर्णन किया है ॥ ३७ ॥ हे अम्ब! आपकी ही शक्ति से प्रेरित होकर मैं सृष्टि करने में, विष्णु पालन करने में तथा शिव संहार करने में समर्थ होते हैं। आपकी शक्ति से विलग रहकर अब हम लोग कुछ भी करने में सक्षम नहीं हैं ॥ ३८ ॥ जिस प्रकार मैं (ब्रह्मा), विष्णु और शिव उत्पन्न हुए हैं, उसी प्रकार क्या अन्य प्राणी उत्पन्न नहीं हुए, अथवा विद्यमान नहीं हैं या उत्पन्न नहीं होंगे ? किंतु अल्प बुद्धि वाले प्राणियों के लिये विवादास्पद तथा अत्यन्त विचित्र आपके इस लीला-विनोद से कौन भ्रमित नहीं हो जाते ?॥ ३९ ॥ वे आदिदेव ईश्वर अकर्ता, गुणों से स्फुट होने वाले, निष्काम, उपाधिरहित तथा निर्गमुण हैं, फिर भी वे आपके विस्तृत लीला-विनोद को भली-भाँति देखते रहते हैं — ज्ञानीजन ऐसा ही कहते हैं ॥ ४० ॥

मूर्त और अमूर्त भेदों से युक्त इस संसार में आपसे पूर्व वे ही परमपुरुष थे; ज्ञान-तत्त्वपर सम्यक्‌ प्रकार से विचार करने पर यह सर्वथा सिद्ध होता है कि अन्य तीसरा कोई भी नहीं है ॥ ४१ ॥ [यह सिद्धान्त है कि] वेद-वाक्य को कभी मिथ्या नहीं समझना चाहिये । वेद ब्रह्म को अद्वितीय और एक बताते हैं; तो फिर आप क्या हैं और वह ब्रह्म क्या है? यह विरोध मेरे हृदय में महान्‌ शंका उत्पन्न करता है। आप मेरे इस सन्देह का निवारण करें ॥ ४२-४३ ॥ इस प्रकार द्वैत-अद्वैत के इस विचार में डूबा हुआ मेरा क्षुद्र मन निश्चितरूप से शंका-रहित नहीं हो पा रहा है ॥ ४४ ॥ अब आप ही स्वयं अपने मुख से मेरी इस शंका का निवारण करने की कृपा करें; क्योंकि [ अनेक जन्मों के] पुण्ययोग से ही आपके चरणों का यह सांनिध्य मुझे प्राप्त हुआ है ॥ ४५ ॥ आप पुरुष हैं अथवा स्त्री — यह मुझे विस्तारपूर्वक बतायें, जिससे मैं आप परम शक्ति को जानकर भवसागर से मुक्त हो जाऊँ ॥ ४६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘हरब्रह्मकृतस्तुतिवर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥

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