श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-08
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-अष्टमोऽध्यायः
आठवाँ अध्याय
सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण का वर्णन
गुणानां रूपसंस्थानादिवर्णनम्

ब्रह्माजी बोले — हे तात! आपने जो मुझसे पूछा था, वह सृष्टि का वर्णन मैंने कर दिया। अब गुणों का स्वरूप कहता हूँ, उसे एकाग्रचित्त होकर सुनो ॥ १ ॥ सत्त्वगुण को प्रीतिस्वरूप समझना चाहिये, वह प्रीति सुख से उत्पन्न होती है। सरलता, सत्य, शौच, श्रद्धा, क्षमा, धैर्य, कृपा, लज्जा, शान्ति और सन्‍तोष — इन लक्षणों से सदैव निश्चल सत्त्वगुण की प्रतीति होती है ॥ २-३ ॥ सत्त्वगुण का वर्ण श्वेत है, यह सर्वदा धर्म के प्रति प्रीति उत्पन्न करता है, सत्‌-श्रद्धा का आविर्भाव करता है तथा असत्‌-श्रद्धा को समाप्त करता है ॥ ४ ॥ तत्त्वदर्शी मुनियों ने तीन प्रकार की श्रद्धा बतलायी है — सात्त्विकी, राजसी एवं तीसरी तामसी ॥ ५ ॥

रजोगुण रक्तवर्ण वाला कहा गया है । यह आश्चर्य एवं अप्रीति को उत्पन्न करता है । दुःख से योग के कारण ही निश्चितरूप से अप्रीति उत्पन्न होती है ॥ ६ ॥ जहाँ ईर्ष्या, द्रोह, मत्सर, स्तम्भन, उत्कण्ठा एवं निद्रा होती है, वहाँ राजसी श्रद्धा रहती है ॥ ७ ॥ अभिमान, मद और गर्व — ये सब भी राजसी श्रद्धा से ही उत्पन्न होते हैं। अतः विद्वान्‌ मनुष्यों को चाहिये कि वे इन लक्षणों द्वारा राजसी श्रद्धा समझ लें ॥ ८ ॥

तमोगुण का वर्ण कृष्ण होता है। यह मोह और विषाद उत्पन्न करता है। आलस्य, अज्ञान, निद्रा, दीनता, भय, विवाद, कायरता, कुटिलता, क्रोध, विषमता, अत्यन्त नास्तिकता और दूसरों के दोष को देखने का स्वभाव — ये तामसिक श्रद्धा के लक्षण हैं । पण्डितजन इन लक्षणों से तामसी श्रद्धा जान लें; तामसी श्रद्धा से युक्त ये सभी लक्षण परपीडादायक हैं ॥ ९-११ ॥

आत्मकल्याण की इच्छा रखने वाले को अपने में निरन्तर सत्त्वगुण का विकास करना चाहिये, रजोगुण पर नियन्त्रण रखना चाहिये तथा तमोगुण का नाश कर डालना चाहिये ॥ १२ ॥ ये तीनों गुण एक-दूसरे का उत्कर्ष होने की दशा में परस्पर विरोध करने लगते हैं। ये सब एक- दूसरे के आश्रित हैं, निराश्रय होकर नहीं रहते ॥ १३ ॥ सत्त्वगुण, रजोगुण तथा तमोगुण में से कोई एक अकेला कभी नहीं रह सकता; ये सभी सदैव मिलकर रहते हैं, इसीलिये ये अन्योन्याश्रय सम्बन्ध वाले कहे गये हैं ॥ १४ ॥

हे नारद! ध्यान से सुनिये, अब मैं इनके अन्योन्याश्रय-सम्बन्ध से होने वाले विस्तार का वर्णन करता हूँ, जिसे जानकर मनुष्य भव-बन्धन से छुटकारा प्राप्त कर लेता है। इसमें आपको किसी प्रकार का सन्देह नहीं करना चाहिये। सम्यक्‌ प्रकार से जानकर ही मैंने यह बात कही है। मैंने पहले इसे जाना, तत्पश्चात्‌ इसका अनुभव किया और पुनः परिणाम देखकर इसका परिज्ञान प्राप्त किया है ॥ १५-१६ ॥ हे महामते! मात्र देख लेने, सुन लेने अथवा संस्कारजनित अपने अनुभव से ही किसी भी वस्तु का तत्काल परिज्ञान नहीं हो जाता ॥ १७ ॥ जैसे किसी पवित्र तीर्थ के विषय में सुनकर किसी व्यक्ति के हृदय में राजसी श्रद्धा उत्पन्न हो गयी और वह उस तीर्थ में चला गया। वहाँ पहुँचकर उसने वही देखा जैसा पहले सुना था। उस तीर्थ में उसने स्नान करके तीर्थकृत्य किया और राजसी दान भी किया। रजोगुण से युक्त रहकर उस व्यक्ति नें कुछ समय तक वहाँ तीर्थवास भी किया। किंतु ऐसा करके भी वह राग-द्वेष से मुक्त नहीं हो पाया और काम-क्रोध आदि विकारों से आच्छादित ही रहा। पुनः अपने घर लौट आया और वह पूर्व की भाँति वैसे ही रहने लगा ॥ १८-२० ॥

हे मुनीश्वर! उस व्यक्ति ने तीर्थ की महिमा तो सुनी थी, किंतु उसका सम्यक्‌ अनुभव नहीं किया। इसी कारण उसे तीर्थयात्रा का कोई फल नहीं प्राप्त हुआ। अतः हे नारद! उसका सुनना न सुनने के बराबर समझें ॥ २१ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ। आप यह जान लें कि तीर्थयात्रा का फल पाप से छुटकारा प्राप्त करना है; यह वैसे ही है जैसे संसार में कृषि का फल उत्पादित अन्न का भक्षण है ॥ २२ ॥ जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, तृष्णा, द्वेष, राग, मद, परदोषदर्शन, ईर्ष्या, सहनशीलता का अभाव और अशान्ति आदि हैं, वे पापमय शरीर के विकार हैं। हे नारद! जबतक ये पाप शरीर से नहीं निकलते, तबतक मनुष्य पापी ही रहता है ॥ २३-२४ ॥ तीर्थयात्रा करने पर भी यदि ये पाप देह से नहीं निकले तो तीर्थाटन करने का वह परिश्रम उसी प्रकार व्यर्थ है, जैसे किसी किसान का । उस किसान ने परिश्रमपूर्वक खेत को खोदा, अत्यन्त कठोर भूमि को जोता, उसमें महँगा बीज बोया और अन्य आवश्यक कार्य किये तथा फलप्राप्ति की इच्छा से उसकी रक्षा के लिये दिन-रात अनेक कष्ट सहे, किंतु फल लगने का समय हेमन्त-काल आने पर वह सो गया, जिससे व्याघ्र आदि वन्य जन्तुओं तथा टिड्डियों ने उस ‘फसल को खा लिया और अन्‍त में वह किसान सर्वथा निराश हो गया। उसी प्रकार हे पुत्र! तीर्थ में किया गया वह श्रम भी कष्टदायक ही सिद्ध होता है, उसका कोई फल नहीं मिलता ॥ २५-२८ ॥

हे नारद! शास्त्र के अवलोकन से सत्त्वगुण समुन्नत होता है तथा बड़ी तेजी से बढ़ता है। उसका ‘फल यह होता है कि तामस पदार्थो के प्रति वैराग्य हो जाता है ॥ २९ ॥ वह सत्त्वगुण रज और तम-इन दोनों को बलपूर्वक दबा देता है, लोभ के कारण रजोगुण अत्यन्त तीव्र हो जाता है, वह बढ़ा हुआ रजोगुण सत्त्व तथा तम — इन दोनों को दबा देता है। उसी प्रकार तमोगुण मोह के कारण तीव्रता को प्राप्त होकर सत्त्वगुण तथा रजोगुण — इन दोनों को दबा देता है। ये गुण जिस प्रकार एक-दूसरे को दबाते हैं ? उसे मैं यहाँ पर विस्तारपूर्वक कह रहा हूँ ॥ ३०-३२ ॥

जब सत्त्वगुण बढ़ता है, उस समय बुद्धि धर्म में स्थित रहती है। उस समय वह रजोगुण या तमोगुण से उत्पन्न बाह्य विषयों का चिन्तन नहीं करती है ॥ ३३ ॥ उस समय बुद्धि सत्त्वगुण से उत्पन्न होने वाले कार्य को अपनाती है; इसके अतिरिक्त वह अन्य कार्यों में नहीं फँसती। बुद्धि बिना प्रयास के ही धर्म तथा यज्ञादि कर्म में प्रवृत्त हो जाती है। मोक्ष की अभिलाषा से मनुष्य उस समय सात्त्विक पदार्थों के भोग में प्रवृत्त रहता है; वह राजसी भोगों में लिप्त नहीं होता, तब भला वह तमोगुणी कार्यों में क्‍यों लगेगा ?॥ ३४-३५ ॥ इस प्रकार पहले रजोगुण को जीत करके वह तमोगुण को पराजित करता है। हे तात ! उस समय एकमात्र विशुद्ध सत्तगगुण ही स्थित रहता है ॥ ३६ ॥ जब मनुष्य के मन में रजोगुण की वृद्धि होती है, तब वह सनातन धर्मों को त्यागकर राजसी श्रद्धा के वशीभूत हो विपरीत धर्माचरण करने लगता है ॥ ३७ ॥ रजोगुण बढ़ने से धन की वृद्धि होती है और भोग भी राजसी हो जाता है। उस दशा में सत्त्वगुण दूर चला जाता है और उससे तमोगुण भी दब जाता है ॥ ३८ ॥ जब तमोगुण की वृद्धि होती है और वह उत्कट हो जाता है, तब वेद तथा धर्मशास्त्र में विश्वास नहीं रह जाता। उस समय मनुष्य तामसी श्रद्धा प्राप्त करके धन का दुरुपयोग करता है, सबसे द्रोह करने लगता है तथा उसे शान्ति नहीं मिलती। वह क्रोधी, दुर्बुद्धि तथा दुष्ट मनुष्य सत्तत तथा रजोगुण को दबाकर अनेकविध तामसिक विचारों में लीन रहता हुआ मनमाना आचरण करने लगता है ॥ ३९-४१ ॥

किसी भी प्राणी में सत्तगुण, रजोगुण तथा तमोगुण अकेले नहीं रहते; अपितु मिश्रित धर्मवाले वे तीनों गुण एक-दूसरे के आश्रयीभूत होकर रहते हैं ॥ ४२ ॥ हे पुरुषश्रेष्ठ! रजोगुण के बिना सत्त्वगुण और सत्त्वगुण के बिना रजोगुण कदापि रह नहीं सकते। इसी प्रकार तमोगुण के बिना ये दोनों गुण नहीं रह सकते। इस प्रकार ये गुण परस्पर स्थित रहते हैं। सत्त्वगुण तथा रजोगुण के बिना तमोगुण नहीं रहता; क्योंकि इन मिश्रित धर्मवाले सभी गुणों की स्थिति कार्य-कारण- भाव से विभिन्‍न प्रकार की होती है ॥ ४३-४४ ॥ ये सभी गुण अन्योन्याश्रयभाव से विद्यमान रहते हैं, अलग-अलग भाव से नहीं। प्रसवधर्मी होने के कारण ये एक-दूसरे के उत्पादक भी होते हैं ॥ ४५ ॥ सत्त्वगुण कभी रजोगुण को और कभी तमोगुण को उत्पन्न करता है; इसी तरह रजोगुण कभी सत्त्वगुण को तथा कभी तमोगुण को उत्पन्न करता है। इसी प्रकार तमोगुण कभी सत्त्वगुण को एवं कभी रजोगुण को भी उत्पन्न करता है। ये तीनों गुण आपस में एक-दूसरे को उसी प्रकार उत्पन्न कर देते हैं, जिस प्रकार मिट्टी का लोंदा घड़े को उत्पन्न कर देता है ॥ ४६-४७ ॥ मनुष्यों की बुद्धि में स्थित ये तीनों गुण परस्पर कामनाओं को उसी प्रकार जाग्रत् करते हैं; जैसे देवदत्त, विष्णुमित्र और यज्ञदत्त आदि मिलकर काम करते हैं ॥ ४८ ॥

जिस प्रकार स्त्री और पुरुष आपस में मिथुन- भाव को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार ये तीनों गुण परस्पर युग्म-भाव को प्राप्त रहते हैं ॥ ४९ ॥ रजोगुण का युग्म-भाव होने पर सत्त्वगुण, सत्त्वगुण का युग्म-भाव होने पर रजोगुण और तमोगुण के युग्म-भाव से सत्त्वगुण तथा रजोगुण — ये दोनों उत्पन्न होते हैं – ऐसा कहा गया है ॥ ५० ॥

नारदजी बोले — इस प्रकार पिताजी ने तीनों गुणों के अत्युत्तम स्वरूप का वर्णन किया। इसे सुनने के पश्चात् मैंने पुनः पितामह ब्रह्माजी से पूछा ॥ ५१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का गुणानां रूपसंस्थानादिवर्णनं नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८ ॥

श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण
तृतीयः स्कन्धः अष्टमोऽध्यायः
गुणानां रूपसंस्थानादिवर्णनम्

॥ ब्रह्मोवाच ॥
सर्गोऽयं कथितस्तात यत्पृष्टोऽहं त्वयाऽधुना ।
गुणानां रूपसंस्थां वै शृणुष्वैकाग्रमानसः ॥ १ ॥
सत्त्वं प्रीत्यात्मकं ज्ञेयं सुखात्प्रीतिसमुद्‌भवः ।
आर्जवं च तथा सत्यं शौचं श्रद्धा क्षमा धृतिः ॥ २ ॥
अनुकम्पा तथा लज्जा शान्तिः सन्तोष एव च ।
एतैः सत्त्वप्रतीतिश्च जायते निश्चला सदा ॥ ३ ॥
श्वेतवर्णं तथा सत्त्वं धर्मे प्रीतिकरः सदा ।
सच्छ्रद्धोत्पादकं नित्यमसच्छ्रद्धानिवारकम् ॥ ४ ॥
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी च तथापरा ।
श्रद्धा तु त्रिविधा प्रोक्ता मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ५ ॥
रक्तवर्णं रजः प्रोक्तमप्रीतिकरमद्‌भुतम् ।
अप्रीतिर्दुःखयोगत्वाद्‌भवत्येव सुनिश्चिता ॥ ६ ॥
प्रद्वेषोऽथ तथा द्रोहो मत्सरः स्तम्भ एव च ।
उत्कण्ठा च तथा निद्रा श्रद्धा तत्र च राजसी ॥ ७ ॥
मानो मदस्तथा गर्वो रजसा किल जायते ।
प्रत्येतव्यं रजस्त्वेतैर्लक्षणैश्च विचक्षणैः ॥ ८ ॥
कृष्णवर्णं तमः प्रोक्तं मोहनं च विषादकृत् ।
आलस्यं च तथाऽज्ञानं निद्रा दैन्यं भयं तथा ॥ ९ ॥
विवादश्चैव कार्पण्यं कौटिल्यं रोष एव च ।
वैषम्यं वातिनास्तिक्यं परदोषानुदर्शनम् ॥ १० ॥
प्रत्येतव्यं तमस्त्वेतैर्लक्षणैः सर्वथा बुधैः ।
तामस्या श्रद्धया युक्तं परतापोपपादकम् ॥ ११ ॥
सत्त्वं प्रकाशयितव्यं नियन्तव्यं रजः सदा ।
संहर्तव्यं तमः कामं जनेन शुभमिच्छता ॥ १२ ॥
अन्योन्याभिभवाच्चैते विरुध्यन्ति परस्परम् ।
तथोऽन्योन्याश्रयाः सर्वे न तिष्ठन्ति निराश्रयाः ॥ १३ ॥
सत्त्वं न केवलं क्वापि न रजो न तमस्तथा ।
मिलिताश्च सदा सर्वे तेनान्योन्याश्रयाः स्मृताः ॥ १४ ॥
अन्योन्यमिथुनाच्चैव विस्तारं कथयाम्यहम् ।
शृणु नारद यज्ज्ञात्वा मुच्यते भवबन्धनात् ॥ १५ ॥
सन्देहोऽत्र न कर्तव्यो ज्ञात्वेत्युक्तं मया वचः ।
ज्ञातं तदनुभूतं यत्परिज्ञातं फले सति ॥ १६ ॥
श्रवणाद्दर्शनाच्चैव सपद्येव महामते ।
संस्कारानुभवाच्चैव परिज्ञातं न जायते ॥ १७ ॥
श्रुतं तीर्थं पवित्रञ्च श्रद्धोत्पन्ना च राजसी ।
निर्गतस्तत्र तीर्थे वै दृष्टं चैव यथाश्रुतम् ॥ १८ ॥
स्नातस्तत्र कृतं कृत्यं दत्तं दानं च राजसम् ।
स्थितस्तत्र कियत्कालं रजोगुणसमावृतः ॥ १९ ॥
रागद्वेषान्न निर्मुक्तः कामक्रोधसमावृतः ।
पुनरेव गृहं प्राप्तो यथापूर्वं तथा स्थितः ॥ २० ॥
श्रुतं च नानुभूतं वै तेन तीर्थं मुनीश्वर ।
न प्राप्तं च फलं यस्मादश्रुतं विद्धि नारद ॥ २१ ॥
निष्पापत्वं बलं विद्धि तीर्थस्य मुनिसत्तम ।
कृषेः फलं यथा लोके निष्पन्नान्नस्य भक्षणम् ॥ २२ ॥
पापदेहविकारा ये कामक्रोधादयः परे ।
लोभो मोहस्तथा तृष्णा द्वेषो रागस्तथा मदः ॥ २३ ॥
असूयेर्ष्याक्षमाशान्तिः पापान्येतानि नारद ।
न निर्गतानि देहात्तु तावत्पापयुतो नरः ॥ २४ ॥
कृते तीर्थे यदैतानि देहान्न निर्गतानि चेत् ।
निष्फलः श्रम एवैकः कर्षकस्य यथा तथा ॥ २५ ॥
श्रमेणापीडितं क्षेत्रं कृष्टा भूमिः सुदुर्घटा ।
उप्तं बीजं महार्घं च हिता वृत्तिरुदाहृता ॥ २६ ॥
अहोरात्रं परिक्लिष्टो रक्षणार्थं फलोत्सुकः ।
काले सुप्तस्तु हेमन्ते वने व्याघ्रादिभिर्भृशम् ॥ २७ ॥
भक्षितं शलभैः सर्वं निराशश्च कृतः पुनः ।
तद्वत्तीर्थश्रमः पुत्र कष्टदो न फलप्रदः ॥ २८ ॥
सत्त्वं समुत्कटं जातं प्रवृद्धं शास्त्रदर्शनात् ।
वैराग्यं तत्फलं जातं तामसार्थेषु नारद ॥ २९ ॥
प्रसह्याभिभवत्येव तद्‌रजस्तमसी उभे ।
रजः समुत्कटं जातं प्रवृत्तं लोभयोगतः ॥ ३० ॥
तत्तथाभिभवत्येव तमःसत्त्वे तथा उभे ।
तमस्तथोत्कटं भूत्वा प्रवृद्धं मोहयोगतः ॥ ३१ ॥
तत्सत्त्वरजसी चोभे सङ्गम्याभिभवत्यपि ।
विस्तरं कथयाम्यद्य यथाभिभवतीति वै ॥ ३२ ॥
यदा सत्त्वं प्रवृद्धं वै मतिर्धर्मे स्थिता तदा ।
न चिन्तयति बाह्यार्थं रजस्तमःसमुद्‌भवम् ॥ ३३ ॥
अर्थं सत्त्वसमुद्‌भूतं गृह्णाति च न चान्यथा ।
अनायासकृतं चार्थं धर्मं यज्ञं च वाञ्छति ॥ ३४ ॥
सात्त्विकेष्वेव भोगेषु कामं वै कुरुते तदा ।
राजसेषु न मोक्षार्थं तामसेषु पुनः कुतः ॥ ३५ ॥
एवं जित्वा रजः पूर्वं ततश्च तमसो जयः ।
सत्त्वं च केवलं पुत्र तदा भवति निर्मलम् ॥ ३६ ॥
यदा रजः प्रवृद्धं वै त्यक्त्वा धर्मान् सनातनान् ।
अन्यथाकुरुते धर्माच्छ्रद्धां प्राप्य तु राजसीम् ॥ ३७ ॥
राजसादर्थसंवृद्धिस्तथा भोगस्तु राजसः ।
सत्त्वं विनिर्गतं तेन तमसश्चापि निग्रहः ॥ ३८ ॥
यदा तमो विवृद्धं स्यादुत्कटं सम्बभूव ह ।
तदा वेदे न विश्वासो धर्मशास्त्रे तथैव च ॥ ३९ ॥
श्रद्धां च तामसीं प्राप्य करोति च धनात्ययम् ।
द्रोहं सर्वत्र कुरुते न शान्तिमधिगच्छति ॥ ४० ॥
जित्वा सत्त्वं रजश्चैव क्रोधनो दुर्मतिः शठः ।
वर्तते कामचारेण भावेषु विततेषु च ॥ ४१ ॥
एकं सत्त्वं न भवति रजश्चैकं तमस्तथा ।
सहैवाश्रित्य वर्तन्ते गुणा मिथुनधर्मिणः ॥ ४२ ॥
रजो विना न सत्त्वं स्याद्‌रजः सत्त्वं विना क्वचित् ।
तमो विना न चैवैते वर्तन्ते पुरुषर्षभ ॥ ४३ ॥
तमस्ताभ्यां विहीनं तु केवलं न कदाचन ।
सर्वे मिथुनधर्माणो गुणाः कार्यान्तरेषु वै ॥ ४४ ॥
अन्योन्यसंश्रिताः सर्वे तिष्ठन्ति न वियोजिताः ।
अन्योन्यजनकाश्चैव यतः प्रसवधर्मिणः ॥ ४५ ॥
सत्त्वं कदाचिच्च रजस्तमसी जनयत्युत ।
कदाचित्तु रजः सत्त्वतमसी जनयत्यपि ॥ ४६ ॥
कदाचित्तु तमः सत्त्वरजसी जनयत्युभे ।
जनयन्त्येवमन्योन्यं मृत्पिण्डश्च घटं यथा ॥ ४७ ॥
बुद्धिस्थास्ते गुणाः कामान्बोधयन्ति परस्परम् ।
देवदत्तविष्णुमित्रयज्ञदत्तादयो यथा ॥ ४८ ॥
यथा स्त्रीपुरुषश्चैव मिथुनौ च परस्परम् ।
तथा गुणाः समायान्ति युग्मभावं परस्परम् ॥ ४९ ॥
रजसो मिथुने सत्त्वं सत्त्वस्य मिथुने रजः ।
उभे ते सत्त्वरजसी तमसो मिथुने विदुः ॥ ५० ॥
॥ नारद उवाच ॥
इत्येतत्कथितं पित्रा गुणरूपमनुत्तमम् ।
श्रुत्वाप्येतत्स एवाहं ततोऽपृच्छं पितामहम् ॥ ५१ ॥
॥ इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे गुणानां रूपसंस्थानादिवर्णनं नाम अष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥

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