April 10, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-15 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-पञ्चदशोऽध्यायः पन्द्रहवाँ अध्याय राजा युधाजित् और वीरसेन का युद्ध, वीरसेन की मृत्यु, राजा ध्रुवसन्धि की रानी मनोरमा का अपने पुत्र सुदर्शन को लेकर भारद्वाजमुनि के आश्रम में जाना तथा वहीं निवास करना मनोरमया भारद्वाजाश्रमं प्रति गमनम् व्यासजी बोले — [हे राजन् ! ] युद्ध आरम्भ हो जाने पर क्रोध एवं लोभ के वशीभूत उन दोनों राजाओं ने लड़ने के लिये शस्त्र उठा लिये और तब उनके बीच भयानक संग्राम आरम्भ हो गया ॥ १ ॥ युद्ध के लिये कृतसंकल्प वे विशालबाहु राजा युधाजित् धनुष धारण करके अपनी सेना तथा वाहन आदि के साथ रणभूमि में डट गये ॥ २ ॥ इधर इन्द्र के समान तेजस्वी राजा वीरसेन भी क्षत्रियोचित धर्म का अनुसरण करते हुए अपने दौहित्र के हित-साधन हेतु विशाल सेना के साथ रणक्षेत्र में उपस्थित हो गये ॥ ३ ॥ सत्यपराक्रमी राजा वीरसेन ने युधाजित् को समरांगण में उपस्थित देखकर क्रोधयुक्त होकर इस प्रकार बाणों की वृष्टि आरम्भ कर दी, मानो पर्वत पर मेघ जल बरसा रहा हो ॥ ४ ॥ राजा वीरसेन ने पत्थर पर घिसकर तीक्ष्ण बनाये गये, द्रुतगामी तथा सीधे प्रवेश करने वाले बाणों से युधाजित् को आच्छादित कर दिया और युधाजित् के द्वारा छोड़े गये अत्यन्त तीव्रगामी बाणों को उन्होंने अपने बाणों से टुकड़े-टुकड़े कर दिया ॥ ५ ॥ इस प्रकार हाथियों, रथों तथा घोड़ों से अतिभयंकर युद्ध होने लगा जिसे देवता, मनुष्य तथा मुनिगण देख रहे थे। मांसभक्षण की लालसा वाले कौए, गीध आदि पक्षियों के विस्तृत समूह से शीघ्र ही वहाँ का आकाशमण्डल ढक गया ॥ ६ ॥ उस युद्धभूमि में हाथियों, घोड़ों तथा सैन्यसमूहों के शरीर से निकले रक्त से अद्भुत तथा भयंकर नदी बह चली, जो लोगों को उसी प्रकार दिखायी पड़ रही थी, जैसे यमलोक के मार्ग में प्रवाहित वैतरणी पापियों को भयावह दीखती है ॥ ७ ॥ [तीव्र धार के वेग से] कटे हुए तट वाली उस नदी में मनुष्यों के केशयुक्त इधर-उधर बिखरे मस्तक, खेलने में तत्पर बालकों द्वारा यमुना में फेंके गये तुम्बीफलों के समान प्रतीत हो रहे थे ॥ ८ ॥ रथ से गिरे हुए किसी मृत वीर को पृथ्वी पर पड़ा हुआ देखकर मांस की इच्छा से गीध उसके ऊपर मँडराने लगता था, इससे ऐसा प्रतीत होता था मानो उस वीर का जीव अपने शरीर को अति सुन्दर देखकर अत्यन्त विवश हो उसमें पुनः प्रवेश करने की इच्छा कर रहा हो ॥ ९ ॥ युद्धभूमि में हत कोई वीर योद्धा सुन्दर विमान में आरूढ़ होकर अपनी गोद में बैठी हुई किसी देवांगना से अपना मनोभाव इस प्रकार व्यक्त करता था — हे करभोरु ! इस समय बाणों से आहत होकर धरती पर पड़े हुए मेरे इस कान्तियुक्त शरीर को देखो ॥ १० ॥ शत्रु के द्वारा मारा गया एक वीर ज्यों ही अन्तरिक्ष में पहुँचा और अप्सरा के पास जाकर विमान में बैठा, त्यों ही उसकी अपनी प्रिय स्त्री अपना शरीर अग्नि को भलीभाँति समर्पित करके पुनः दिव्य शरीर पाकर अपने पति के पास जा पहुँची ॥ ११ ॥ उस युद्ध में दो वीर परस्पर एक-दूसरे के शस्त्र-प्रहार से आहत होकर मर गये और साथ-साथ ही स्वर्गलोक में पहुँचे। वहाँ पर भी एक अप्सरा को प्राप्त करने के लिये वे दोनों वीर शस्त्रयुक्त होकर एक- दूसरे को मारने हेतु युद्ध करने लगे ॥ १२ ॥ कोई अनुरागमय युवा वीर अतिशय रूपवती तथा गुणवती अप्सरा को प्राप्त करके अत्यन्त बढ़ा-चढ़ाकर अपने गुणों का वर्णन करते हुए उसके प्रति भक्तिपरायण होकर प्रयत्नपूर्वक उस प्रेमदायिनी के गुण आदि का अनुकरण करने लगा ॥ १३ ॥ घोर युद्ध के कारण रणभूमि से उड़ी हुई अत्यधिक धूल ने अन्तरिक्ष स्थित सूर्य को ढक दिया और दिन में ही रात हो गयी। पुनः वही धूल जब अथाह रक्त-सिन्धु में विलीन हो जाती तब अत्यन्त प्रभावाले सूर्य अचानक प्रकट हो जाते ॥ १४ ॥ कोई युवक वीर युद्ध में मरकर स्वर्ग पहुँचा तो उसे एक सुन्दर रूपवाली देवकन्या मिली, जो उसके ऊपर आसक्त हो गयी। किंतु ब्रह्मचर्यव्रत के नाश होने से भयभीत उस चतुर वीर ने उसे स्वीकार नहीं किया; [उसने सोचा कि ऐसा करने से ] मेरे अनुरूप यह ब्रह्मचारी शब्द व्यर्थ हो जायगा ॥ १५ ॥ तदनन्तर घोर संग्राम छिड़ जाने पर राजा युधाजित् ने अपने तीक्ष्ण तथा अत्यन्त भीषण बाणों से वीरसेन को मार डाला ॥ १६ ॥ इस प्रकार कटे मस्तक वाले महाराज वीरसेन पृथ्वी पर गिर पड़े। उनकी सम्पूर्ण सेना नष्ट हो गयी और चारों दिशाओं में भाग गयी ॥ १७ ॥ अपने पिता वीरसेन को समरांगण में मारा गया सुनकर तथा अपने पिता के वैर का स्मरण करते हुए मनोरमा भय से व्याकुल हो गई। वह इस चिन्ता में पड़ गई कि बुरे विचारों वाला वह पापी युधाजित् राज्य के लोभ से मेरे पुत्र को अवश्य ही मार डालेगा ॥ १८-१९ ॥ अब मैं क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ? मेरे पिताजी युद्ध में मारे गये तथा पतिदेव भी मर चुके हैं और मेरा यह पुत्र अभी बालक ही है ॥ २० ॥ लोभ बड़ा ही पापी होता है, इसने किसको अपने वश में नहीं किया । लोभ से ग्रस्त हो जाने पर श्रेष्ठ राजा भी कौन-सा पाप नहीं कर सकता । लोभ से अभिभूत मनुष्य अपने माता-पिता, भाई, गुरु तथा बन्धु-बान्धवों को भी मार डालता है; इसमें सन्देह नहीं है। लोभ के कारण मनुष्य अभक्ष्य का भक्षण तथा अगम्या स्त्री के साथ गमन भी कर लेता है; यहाँतक कि लोभ से व्याकुल होकर वह धर्म का त्याग भी कर देता है ॥ २१–२३ ॥ अब इस नगर में कोई बलवान् पुरुष मुझे सहायता देने वाला भी नहीं रह गया, जिसके आश्रय में रहकर मैं अपने सुन्दर पुत्र का पालन कर सकूँ ॥ २४ ॥ यदि राजा युधाजित् मेरे पुत्र को मार डाले, तो मैं फिर क्या करूँगी ? इस संसार में मेरा कोई रक्षक नहीं है, जिसके सहारे मैं निश्चिन्त रह सकूँ ? ॥ २५ ॥ मेरी सौत लीलावती भी सदा मुझसे वैरभाव रखती है, अत: वह भी मेरे पुत्र पर दया नहीं करेगी ॥ २६ ॥ युधाजित् के रणभूमि से लौटकर आ जाने पर मेरा यहाँ से निकल भागना सम्भव नहीं हो सकेगा; वह मेरे अपने पुत्र को बालक जानकर उसे कारागार में डाल देगा ॥ २७ ॥ सुना जाता है कि पूर्वकाल में इन्द्र ने वज्र को अत्यन्त छोटा बनाकर अपनी सौतेली माता दिति के गर्भ में प्रवेश करके गर्भस्थ शिशु को काटकर उसके सात टुकड़े कर दिये थे। इसके बाद उसने पुनः एक-एक टुकड़े के सात-सात खण्ड कर दिये थे। वे ही आगे चलकर देवलोक में उनचास मरुत् के रूप में प्रतिष्ठित हुए ॥ २८-२९ ॥ मैंने यह भी सुना है कि पूर्वकाल में एक राजा की किसी रानी ने अपनी सौत के गर्भ को नष्ट करने के उद्देश्य से उसे विष दे दिया था । कुछ समय बीतने पर वह बालक विष के साथ उत्पन्न हुआ, इसीसे वह भूमण्डल पर ‘सगर’ नाम से प्रसिद्ध हो गया ॥ ३०-३१ ॥ महाराज दशरथ की भार्या कैकेयी ने पति के जीवनकाल में ही उनके ज्येष्ठ पुत्र रामचन्द्र को वनवास दे दिया था, जिसके फलस्वरूप राजा दशरथ की मृत्यु भी हो गयी ॥ ३२ ॥ जो मन्त्री मेरे पुत्र सुदर्शन को राजा बनाना चाहते थे, वे भी अब विवश होकर युधाजित् के अधीन हो गये हैं । मेरा भाई भी ऐसा योद्धा नहीं है, जो मुझे बन्धन से छुड़ा सके । दैवयोग से मैं महान् संकट में पड़ गयी हूँ। फिर भी उद्योग तो सर्वथा करना ही चाहिये, सफलता तो दैव के आधीन है । अत: अब मैं अपने पुत्र की रक्षा के लिये शीघ्र ही कोई उपाय करूँगी ॥ ३३-३५ ॥ ऐसा सोचकर वह रानी अतिसम्मानित, सभी कार्यों में दक्ष तथा विचार-कुशल श्रेष्ठ मन्त्रिप्रवर विदल्ल को बुलवाकर उन्हें एकान्त में ले गयी और बालक को हाथ में लेकर रोती हुई दीन मन वाली उस मनोरमा ने अत्यन्त दुःखित होकर उनसे कहा — मेरे पिता युद्ध में मारे गये और मेरा यह पुत्र अभी अबोध बालक है । राजा युधाजित् बलवान् हैं । [ ऐसी परिस्थिति में] मुझे क्या करना चाहिये ? मुझे बतायें ॥ ३६-३८ ॥ तब विदल्ल ने उससे कहा — अब यहाँ नहीं रहना चाहिये, हम लोग यहाँ से वाराणसी के वन में चलेंगे। वहाँ सुबाहु नाम से विख्यात मेरे मामा रहते हैं। वे समृद्धिशाली तथा महाबलशाली हैं; वे ही हमारे रक्षक होंगे ॥ ३९-४० ॥ मन में युधाजित् के दर्शन की लालसा से नगर से बाहर निकल चलना चाहिये और रथ पर सवार हो प्रस्थान कर देना चाहिये; इसमें शंका की आवश्यकता नहीं है ॥ ४१ ॥ विदल्ल के ऐसा कहने पर रानी मनोरमा लीलावती के पास गयी और बोली — हे सुनयने ! मैं [तुम्हारे ] पिताजीका दर्शन करने जा रही हूँ ॥ ४२ ॥ ऐसा कहकर मनोरमा एक दासी और मन्त्री विदल्ल को साथ लेकर रथ पर सवार हो नगर से बाहर निकल गयी। उस समय बहुत डरी हुई, दुःखित, अत्यन्त दीन तथा पिता के मृत्युजन्य शोक से व्याकुल वह मनोरमा राजा युधाजित् से मिलकर तत्काल अपने मृत पिता का दाहसंस्कार कराकर भय से व्याकुल हो काँपती हुई दो दिनों में गंगाजी के तट पर पहुँच गयी ॥ ४३–४५ ॥ वहाँ के निषादों ने उसे लूट लिया तथा उसका सारा धन और रथ छीन लिया । सब कुछ लेकर वे धूर्त दस्यु चले गये। तब वह रोती हुई अपने पुत्र को लेकर सैरंध्री के हाथ का सहारा लेकर किसी प्रकार गंगा तट पर गयी और एक छोटी-सी नौका पर डरती हुई बैठकर पवित्र गंगा को पार करके वह भयाक्रान्त मनोरमा त्रिकूटपर्वत पर पहुँच गयी ॥ ४६–४८ ॥ वह भयभीत मनोरमा भारद्वाजमुनि के आश्रम में शीघ्रता से पहुँची । तब वहाँ तपस्वियों को देखकर वह निर्भय हो गयी। तदनन्तर भारद्वाजमुनि ने पूछा — हे शुचिस्मिते! तुम कौन हो, किसकी पत्नी हो ? इतने कष्ट से तुम यहाँ कैसे आ गयी हो ? मुझसे सत्य कहो । तुम कोई देवी हो अथवा मानवी हो । अपने इस बालक पुत्र के साथ वन में क्यों विचरण कर रही हो? हे सुन्दरि! हे कमलनयने ! तुम राज्यभ्रष्ट – जैसी प्रतीत हो रही हो ॥ ४९–५१ ॥ मुनि के पूछने पर उस रूपवती रानी ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया और दुःख से सन्तप्त होकर रोती हुई उसने अपने मन्त्री विदल्ल को सारी बातें बताने के लिये संकेत किया ॥ ५२ ॥ तब विदल्ल ने मुनि से कहा — ध्रुवसन्धि एक श्रेष्ठ नरेश थे । ये उन्हीं की मनोरमा नाम वाली धर्मपत्नी हैं ॥ ५३ ॥ सूर्यवंश में उत्पन्न उन महाबली महाराज को सिंह ने मार डाला। सुदर्शन नाम का यह बालक उन्हीं राजा का पुत्र है ॥ ५४ ॥ इनके अत्यन्त धर्मात्मा पिता अपने इसी दौहित्र के लिये संग्राम में मारे गये । अतएव युधाजित् के भय से संत्रस्त होकर ये इस निर्जन वन में आयी हुई हैं ॥ ५५ ॥ हे महाभाग ! हे मुनिश्रेष्ठ ! अबोध पुत्र वाली ये राजपुत्री अब आपकी शरण में आयी हैं। अतः आप इनकी रक्षा कीजिये ॥ ५६ ॥ किसी दु:खी प्राणी की रक्षा करने में यज्ञ करने से भी अधिक पुण्य बताया गया है। भयभीत तथा दीन की रक्षा को तो और भी अधिक फलदायक कहा गया है ॥ ५७ ॥ ऋषि बोले — हे कल्याणि ! तुम यहाँ भयरहित होकर निवास करो; हे सुव्रते ! अपने पुत्र का पालन- पोषण करो। हे विशालनयने ! यहाँ तुम्हें शत्रुओं से उत्पन्न होने वाला किसी प्रकार का भी भय नहीं करना चाहिये। तुम अपने इस कान्तिमान् पुत्र का पालन करो, तुम्हारा यह पुत्र आगे चलकर राजा होगा । यहाँ तुम लोगों को कभी भी कोई दुःख तथा शोक नहीं होगा ॥ ५८-५९ ॥ व्यासजी बोले — मुनि के इस प्रकार कहने पर महारानी मनोरमा निश्चिन्त हो गयीं और मुनि के द्वारा प्रदान की गयी एक कुटिया में वे शोकरहित होकर निवास करने लगीं ॥ ६० ॥ इस प्रकार सुदर्शन का पालन-पोषण करती हुई वे मनोरमा अपनी दासी तथा मन्त्री विदल्ल के साथ वहाँ रहने लगीं ॥ ६१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का मनोरमया भारद्वाजाश्रमं प्रति गमनं नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५ ॥ Content is available only for registered users. 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