श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-17
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-सप्तदशोऽध्यायः
सत्रहवाँ अध्याय
युधाजित् ‌का अपने प्रधान अमात्य से परामर्श करना, प्रधान अमात्य का इस सन्दर्भ में वसिष्ठ-विश्वामित्र-प्रसंग सुनाना और परामर्श मानकर युधाजित्‌ का वापस लौट जाना, बालक सुदर्शन को दैवयोग से कामराज नामक बीजमन्त्र की प्राप्ति, भगवती की आराधना से सुदर्शन को उनका प्रत्यक्ष दर्शन होना तथा काशिराज की कन्या शशिकला को स्वप्न में भगवती द्वारा सुदर्शन का वरण करने का आदेश देना
विश्वामित्रकथोत्तरं राजपुत्रस्य कामबीजप्राप्तिवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे राजन्‌!] भारद्वाजमुनि का यह वचन सुनकर राजा युधाजित् ने अपने प्रधान अमात्य को बुलाकर बड़ी सावधानी से उनसे पूछा — हे सुबुद्धे! आप बतायें कि अब मुझे क्‍या करना चाहिये ? हे सुव्रत! क्‍या मधुर वचन बोलने वाली मनोरमा को पुत्रसहित बलपूर्वक ले चलूँ? अपना कल्याण चाहने वाले पुरुष को चाहिये कि वह तुच्छ शत्रु की भी उपेक्षा न करे; क्योंकि वह राजयक्ष्मा रोग के समान बढ़कर मृत्यु का कारण बन जाता है ॥ १-३ ॥ यहाँ न कोई सेना है और न कोई योद्धा ही है जो मुझे रोक सके । अतः मैं अपने दौहित्र के शत्रु उस सुदर्श को पकड़कर अभी मार डालूँगा। यदि मैं बलपूर्वक इस प्रयत्न में सफल हो जाता हूँ तो उसका राज्य निष्कंटक हो जायगा। सुदर्शन के मर जाने पर निश्चय ही वह निर्भय हो जायगा ॥ ४-५ ॥

प्रधान अमात्य ने कहा — हे राजन्‌! ऐसा दुःसाहस नहीं करना चाहिये। अभी आपने भारद्वाजमुनि का वचन सुना ही है। हे मान्य! उन्होंने [इस सम्बन्ध में ] विश्वामित्र का दृष्टान्त दिया है ॥ ६ ॥ प्राचीन समय में गाधितनय विश्वामित्र एक समृद्धिशाली तथा प्रसिद्ध राजा थे। एक बार वे महाराज घूमते हुए महर्षि वसिष्ठ के आश्रम में जा पहुँचे ॥ ७ ॥ प्रतापी राजाओं में श्रेष्ठ वे महाराज विश्वामित्र उन्हें प्रणाम करके मुनि द्वारा प्रदत्त आसन पर बैठ गये। उसके बाद महात्मा वसिष्ठजी ने उन्हें भोजन के लिये निमन्त्रित किया, तब वे महायशस्वी गाधिपुत्र विश्वामित्र अपने सैनिकों सहित उपस्थित हो गये ॥ ८-९ ॥  उस समय भक्ष्य तथा भोज्य आदि जो भी आवश्यक हुआ, वह सब उनकी नन्दिनी गौ ने उपस्थित कर दिया। सेनासमेत राजा विश्वामित्र मनोवांछित भोजन करके इसे नन्दिनी गौ का प्रभाव समझकर वे राजा उन मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी से नन्दिनी गौ माँगने लगे ॥ १०-११ ॥

विश्वामित्र बोले — हे मुने! मैं आपको पर्याप्त दूध देने वाली हजारों गौएँ दूँगा; आप मुझे यह अपनी नन्दिनी गौ दे दीजिये। हे परन्तप! में यही प्रार्थना कर रहा हूँ ॥ १२ ॥

वसिष्ठ बोले — हे राजन्‌! यह गौ होम के लिये हविष्य प्रदान करती है। अतः मैं इसे किसी प्रकार भी नहीं दे सकता। आपकी हजार गौएँ आपके ही पास रहें ॥ १३ ॥

विश्वामित्र बोले — हे साधो! मैं आपकी इच्छा के अनुसार दस हजार अथवा एक लाख गौएँ दे रहा हूँ, आप नन्दिनी मुझे दे दीजिये, नहीं तो मैं इसे बलपूर्वक ग्रहण कर लूँगा ॥ १४ ॥

वसिष्ठ बोले — हे नृपते! जैसी आपकी रुचि हो, आप इसे बलपूर्वक अभी ले लीजिये, किंतु हे राजन! मैं तो इस नन्दिनी को स्वेच्छा से अपने आश्रम से आपको नहीं दूँगा ॥ १५ ॥

यह सुनकर राजा विश्वामित्र ने अपने महाबली अनुचरों को आदेश दिया कि तुम लोग इस नन्दिनी गौ को ले चलो। तब बल के अभिमान में चूर उन अनुचरों ने आक्रमण करके उस धेनु को बलपूर्वक बाँधकर पकड़ लिया ॥ १६१/२

तब आँखों में आँसू भरकर काँपती हुई उस नन्दिनी ने मुनि से कहा — हे मुने! आप मुझे क्यों त्याग रहे हैं? ये सब मुझे बाँधकर खींच रहे हैं ॥ १७१/२

वसिष्ठजी ने उससे कहा — हे उत्तम दूध देने वाली नन्दिनी ! मैं तुम्हें त्याग नहीं रहा हूँ। ये राजा तुम्हें बलपूर्वक ले जा रहे हैं; जबकि मैंने अभी इनका स्वागत किया है। हे शुभे! मैं क्या करूँ? मैं अपने मन से तुम्हें छोड़ना नहीं चाहता ॥ १८-१९ ॥

मुनि के ऐसा कहने पर वह धेनु क्रोधित हो गयी और कर्कश शब्दों वाला अत्यन्त भयंकर हम्भारव करने लगी ॥ २० ॥ उसी समय उसके शरीर से महाभयंकर दैत्य “ठहरो-ठहरो ‘ ऐसा कहते हुए निकल पड़े। वे शस्त्र धारण किये हुए थे और उनका शरीर कवच से ढँका हुआ था ॥ २१ ॥ उन्होंने सारी सेना का संहार कर दिया और नन्दिनी को उनसे छुड़ा लिया। तब अत्यन्त व्यथित होकर राजा विश्वामित्र अकेले ही घर लौट गये। [वे अपने मन में सोचने लगे ] हाय! मैं कितना पापी एवं दीनात्मा हूँ। क्षत्रियबल की निन्‍दा करते हुए वे विश्वामित्र ब्राह्मण के बल को महान्‌ तथा दुराराध्य समझकर तप करने लगे। महावन में अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या करके विश्वामित्र ने क्षात्रधर्म का त्याग करके अन्त में ऋषित्व प्राप्त कर लिया ॥ २२-२४ ॥

अतः हे राजेन्द्र! आप भी ऐसा अद्भुत वैर न करें; क्योंकि तपस्वियों के साथ किया जाने वाला युद्ध निश्चित ही कुल का नाश करने वाला होता है ॥ २५ ॥ अतः आप तपोनिधि मुनिवर भारद्वाज के पास अभी जाइये और उन्हें आश्वासन दीजिये। हे राजेन्द्र। सुदर्शन को यहीं छोड़ दीजिये, जिससे वह आनन्दपूर्वक रह सके ॥ २६ ॥ हे राजन! यह दीन बालक आपका क्‍या अहित कर सकेगा ? ऐसे दुर्बल एवं अनाथ बालक के प्रति आपका यह वैरभाव व्यर्थ है ॥ २७ ॥ हे नृपश्रेष्ठ। सर्वत्र दया करनी चाहिये। यह संसार सदा दैव के अधीन रहता है। ईर्ष्या करने से क्या लाभ? जो होनी होगी, वह तो होकर ही रहेगी ॥ २८ ॥ हे राजन्‌! दैवयोग से कभी वज्र तृण बन जाता है और किसी समय तृण वज्र बन जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। दैवयोग से ही खरगोश सिंह को और मच्छर हाथी को मार देता है। अतः हे मेधाविन्‌! आप दुःसाहस छोड़िये तथा मेरा हितकर वचन मानिये ॥ २९-३० ॥

व्यासजी बोले — [ हे जनमेजय !] मन्त्री की यह बात सुनकर नृपश्रेष्ठ राजा युधाजित्‌ भारद्वाजमुनि को सिर झुकाकर प्रणाम करके अपने पुर को चले गये। तब रानी मनोरमा भी निश्चिन्त हो गयीं और उस आश्रम में रहती हुई अपने सत्यव्रती पुत्र सुदर्शन का पालन करने लगीं ॥ ३१-३२ ॥ अब वह सुन्दर कुमार मुनिबालकों के साथ सर्वत्र निर्भय होकर क्रीड़ा करता हुआ दिनोंदिन बढ़ने लगा। एक दिन सुदर्शन के पास आये हुए विदल्ल को किसी मुनिकुमार ने ‘क्लीब’ इस नाम से पुकारा ॥ ३३-३४ ॥ उसे सुनकर सुदर्शन ने उसके एकाक्षर ‘क्ली’ शब्द को स्पष्टरूप से धारण कर लिया और उस अनुस्वारविहीन अक्षर का ही वह बार-बार उच्चारण करने लगा ॥ ३५ ॥ बालक ने इस कामराज नामक बीजमन्त्र को मन से ग्रहण कर लिया और उसे हृदयंगम करके आदरपूर्वक जपना प्रारम्भ कर दिया। हे महाराज ! दैवयोग से ही उस बालक सुदर्शन को यह कामराज नामक अद्भुत बीजमन्त्र स्वयमेव प्राप्त हो गया ॥ ३६-३७ ॥

उस समय केवल पाँच वर्ष की अवस्था में ही वह ऋषि तथा छन्द से विहीन और ध्यान तथा न्‍यासरहित मन्त्र प्राप्त कर मन-ही-मन उसे जपता हुआ खेलता तथा सोता था; उस मन्त्र को स्वयं सबका सार समझकर वह सुदर्शन उसे कभी नहीं भूलता था ॥ ३८-३९ ॥ मुनि ने ग्यारहवें वर्ष में उस राजकुमार का उपनयन संस्कार किया और उसे वेद पढ़ाया एवं सांगोपांग धनुर्वेद तथा नीतिशास्त्र की विधिवतू शिक्षा दी। उस बालक ने उसी मन्त्र के प्रभाव से समस्त विद्याओं का सम्यक्‌ अभ्यास कर लिया ॥ ४०-४१ ॥

एक बार उसने देवी के रूप का प्रत्यक्ष दर्शन भी किया। उस समय वे लाल वस्त्र धारण किये थीं, उनके विग्रह का रंग भी लाल था और उनके सभी अंगों में रक्तवर्ण के ही आभूषण सुशोभित हो रहे थे। [इस प्रकार का दिव्य स्वरूप धारणकर] वाहन गरुड पर विराजमान उन अद्भुत वैष्णवी शक्ति को देखकर राजकुमार सुदर्शन के मुखमण्डल पर प्रसन्नता छा गयी ॥ ४२-४३ ॥ इस प्रकार समस्त विद्याओं का रहस्य जानने वाला वह सुदर्शन उस वन में रहकर जगदम्बा की उपासना करता हुआ नदीतट पर विचरण करने लगा। उसी वन में भगवती जगदम्बा ने उसे धनुष, अनेक तीक्ष्ण बाण, तूणीर तथा कवच प्रदान किये ॥ ४४-४५ ॥

इसी समय सभी शुभ लक्षणों से युक्त ‘शशिकला’ नाम से विख्यात काशिराज की परम प्रिय पुत्री ने उस वन में रहने वाले समस्त शुभ लक्षणों से सम्पन्न, पराक्रमी तथा दूसरे कामदेव के समान प्रतीत होने वाले राजकुमार सुदर्शन के विषय में सुना ॥ ४६-४७ ॥ बन्दीजनों के मुख से अतिसम्मानित राजकुमार के विषय में सुनकर शशिकला ने मन-ही-मन बुद्धिपूर्वक उसे पतिरूप में वरण करने का निश्चय कर लिया ॥ ४८ ॥

[उसी दिन] आधी रात को जगदम्बा स्वप्न में शशिकला के पास आकर स्थित हो गयीं और उसे आश्वस्त करके यह वचन बोलीं — ‘हे सुश्रोणि! सुदर्शन मेरा भक्त है, तुम उसी को अपना पति स्वीकार कर लो। हे भामिनि! मेरी आज्ञा से वह तुम्हारी सब कामनाएँ पूर्ण करेगा! ॥ ४९-५० ॥

इस प्रकार स्वप्न में भगवती का मनोहर स्वरूप देखकर तथा उनके इस वचन को स्मरण करके परम मानिनी शशिकला प्रसन्‍न हो गयी ॥ ५१ ॥ वह प्रसन्‍नता के साथ उठ गयी। उसकी माता ने उसे हर्षित देखकर बार-बार प्रसन्‍नता का कारण पूछा, किंतु उस सुन्दरी ने अति लज्जा के कारण कुछ नहीं बताया ॥ ५२ ॥ स्वप्न का बार-बार स्मरण करके प्रसन्‍नता से युक्त होकर वह जोर से हँस पड़ती थी। तब उसने अपनी एक अन्य सखी से स्वप्न का सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक कह दिया ॥ ५३ ॥ किसी दिन वह विशालनयनी शशिकला अपनी सखी के साथ चम्पा के वृक्षों से सुशोभित एक सुन्दर उपवन में विहार के लिये गयी। वहाँ पुष्प चुनती हुई वह कुमारी एक चम्पावृक्ष के नीचे खड़ी हो गयी। तभी उसने मार्ग में शीघ्रतापूर्वक आते हुए किसी ब्राह्मण को देखा। उस ब्राह्मण को प्रणाम करके सुन्दरी शशिकला ने मधुर वाणी में कहा — हे महाभाग! आप किस देश से आये हैं ?॥ ५४-५६ ॥

ब्राह्मण ने कहा — हे बाले! एक कार्यवश भारद्वाजमुनि के आश्रम से मेरा आगमन हुआ है। तुम क्या पूछ रही हो; मुझे बताओ ॥ ५७ ॥

शशिकला बोली — हे महाभाग! उस आश्रम में अत्यन्त प्रशंसनीय, संसार में सबसे बढ़कर तथा विशेषरूप से दर्शनीय कौन-सी वस्तु है ?॥ ५८ ॥

ब्राह्मण ने कहा — हे सुश्रोणि! महाराज ध्रुवसन्धि के पुत्र श्रीमान्‌ सुदर्शन वहाँ रहते हैं। पुरुषों में श्रेष्ठ वे सुदर्शन अपने नाम के अनुरूप ही हैं ॥ ५९ ॥ हे सुन्दरि! जिसने राजकुमार सुदर्शन को नहीं देखा, मैं तो उसके नेत्रों को अत्यन्त निष्फल मानता हूँ ॥ ६० ॥ सृष्टि की अभिलाषा वाले ब्रह्मा ने कौतृहलवश उन एक सुदर्शन में सभी गुणों कों भर दिया है। अतः गुणों की खान सुदर्शन को ही मैं देखने योग्य मानता हूँ ॥ ६१ ॥ वे राजकुमार तुम्हारे अनुरूप हैं और तुम्हारे पति होने योग्य हैं। मणि और कांचन की भाँति यह तुम दोनों का संयोग पहले से ही निश्चित हो चुका है ॥ ६२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का विश्वामित्रकथोत्तरं राजपुत्रस्य कामबीजप्राप्तिवर्णन॑ नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥

श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण
तृतीयः स्कन्धः सप्तदशोऽध्यायः
विश्वामित्रकथोत्तरं राजपुत्रस्य कामबीजप्राप्तिवर्णनम्

॥ व्यास उवाच ॥
इत्याकर्ण्य वचस्तस्य मुनेस्तत्रावनीपतिः ।
मन्त्रिवृद्धं समाहूय पप्रच्छ तमतन्द्रितः ॥ १ ॥
किं कर्तव्यं सुबुद्धेऽत्र मयाऽद्य वद सुव्रत ।
बलान्नयामि तां कामं सपुत्राञ्च सुभाषिणीम् ॥ २ ॥
रिपुरल्पोऽपि नोपेक्ष्यः सर्वथा शुभमिच्छता ।
राजयक्ष्मेव संवृद्धो मृत्यवे परिकल्पयेत् ॥ ३ ॥
नात्र सैन्यं न योद्धास्ति यो मामत्र निवारयेत् ।
गृहीत्वा हन्मि तं तत्र दौहित्रस्य रिपुं किल ॥ ४ ॥
निष्कण्टकं भवेद्राज्यं यताम्यद्य बलादहम् ।
हते सुदर्शने नूनं निर्भयोऽसौ भवेदिति ॥ ५ ॥
॥ प्रधान उवाच ॥
साहसं न हि कर्तव्यं श्रुतं राजन् मुनेर्वचः ।
विश्‍वामित्रस्य दृष्टान्तः कथितस्तेन मारिष ॥ ६ ॥
पुरा गाधिसुतः श्रीमान्विश्‍वामित्रोऽतिविश्रुतः ।
विचरन्स नृपश्रेष्ठो वसिष्ठाश्रममभ्यगात् ॥ ७ ॥
नमस्कृत्य च तं राजा विश्‍वामित्रः प्रतापवान् ।
उपविष्टो नृपश्रेष्ठो मुनिना दत्तविष्टरः ॥ ८ ॥
निमन्त्रितो वसिष्ठेन भोजनाय महात्मना ।
ससैन्यश्‍च स्थितो राजा गाधिपुत्रो महायशाः ॥ ९ ॥
नन्दिन्याऽऽसादितं सर्वं भक्ष्यभोज्यादिकं च यत् ।
भुक्त्वा राजा ससैन्यश्‍च वाञ्छितं तत्र भोजनम् ॥ १० ॥
प्रतापं तञ्च नन्दिन्याः परिज्ञाय स पार्थिवः ।
ययाचे नन्दिनीं राजा वसिष्ठं मुनिसत्तमम् ॥ ११ ॥
॥ विश्‍वामित्र उवाच ॥
मुने धेनुसहस्रं ते घटोध्नीनां ददाम्यहम् ।
नन्दिनीं देहि मे धेनुं प्रार्थयामि परन्तप ॥ १२ ॥
॥ वसिष्ठ उवाच ॥
होमधेनुरियं राजन्न ददामि कथञ्चन ।
सहस्रञ्चापि धेनूनां तवेदं तव तिष्ठतु ॥ १३ ॥
॥ विश्‍वामित्र उवाच ॥
अयुतं वाथ लक्ष्यं वा ददामि मनसेप्सितम् ।
द्देहि मे नन्दिनीं साधो ग्रहीष्यामि बलादथ ॥ १४ ॥
॥ वसिष्ठ उवाच ॥
कामं गृहाण नृपते बलादद्य यथारुचि ।
नाहं ददामि ते राजन्स्वेच्छया नन्दिनीं गृहात् ॥ १५ ॥
तच्छ्रुत्वा नृपतिर्भृत्यानादिदेश महाबलान् ।
नयघ्वं नन्दिनीं धेनुं बलदर्पसुसंस्थिताः ॥ १६ ॥
ते भृत्या जगृहुस्तां तु हठादाक्रम्य यन्त्रिताम् ।
वेपमाना मुनिं प्राह सुरभिः साश्रुलोचना ॥ १७ ॥
मुने त्यजसि मां कस्मात्कर्षयन्ति सुयन्त्रिताम् ।
मुनिस्तां प्रत्युवाचेदं त्यजे नाहं सुदुग्धदे ॥ १८ ॥
बलान्नयति राजाऽसौ पूजितोऽद्य मया शुभे ।
किं करोमि न चेच्छामि त्यक्तुं त्वां मनसा किल ॥ १९ ॥
इत्युक्ता मुनिना धेनुः क्रोधयुक्ता बभूव ह ।
हम्भारवं चकाराशु क्रूरशब्दं सुदारुणम् ॥ २० ॥
उद्‍गतास्तत्र देहात्तु दैत्या घोरतरास्तदा ।
सायुधास्तिष्ठ तिष्ठेति ब्रुवन्तः कवचावृताः ॥ २१ ॥
सैन्यं सर्वं हतं तैस्तु नन्दिनी प्रतिमोचिता ।
एकाकी निर्गतो राजा विश्‍वामित्रोऽतिदुःखितः ॥ २२ ॥
हन्त पापोऽतिदीनात्मा निन्दन् क्षात्रबलं महत् ।
ब्राह्मं बलं दुराराध्यं मत्वा तपसि संस्थितः ॥ २३ ॥
तप्त्वा बहूनि वर्षाणि तपो घोरं महावने ।
ऋषित्वं प्राप गाधेयस्त्यक्त्वा क्षात्रं विधिं पुनः ॥ २४ ॥
तस्मात्त्वमपि राजेन्द्र मा कृथा वैरमद्‌भुतम् ।
कुलनाशकरं नूनं तापसैः सह संयुगम् ॥ २५ ॥
मुनिवर्यं व्रजाद्य त्वं समाश्‍वास्य तपोनिधिम् ।
सुदर्शनोऽपि राजेन्द्र तिष्ठत्वत्र यथासुखम् ॥ २६ ॥
बालोऽयं निर्धनः किं ते करिष्यति नृपाहितम् ।
वृथा ते वैरभावोऽयमनाथे दुर्बले शिशौ ॥ २७ ॥
दया सर्वत्र कर्तव्या दैवाधीनमिदं जगत् ।
ईर्ष्यया किं नृपश्रेष्ठ यद्‌भाव्यं तद्‌भविष्यति ॥ २८ ॥
वज्रं तृणायते राजन् दैवयोगान्न संशयः ।
तृणं वज्रायते क्वापि समये दैवयोगतः ॥ २९ ॥
शशको हन्ति शार्दूलं मशको वै तथा गजम् ।
साहसं मुञ्च मेधाविन् कुरु मे वचनं हितम् ॥ ३० ॥
॥ व्यास उवाच ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं तस्य युधाजिन्नृपसत्तमः ।
प्रणम्य तं मुनिं मूर्घ्ना जगाम स्वपुरं नृपः ॥ ३१ ॥
मनोरमाऽपि स्वस्थाऽभूदाश्रमे तत्र संस्थिता ।
पालयामास पुत्रं तं सुदर्शनमृतव्रतम् ॥ ३२ ॥
दिने दिने कुमारोऽसौ जगामोपचयं ततः ।
मुनिबालगतः क्रीडन्निर्भयः सर्वतः शुभः ॥ ३३ ॥
एकस्मिन्समये तत्र विदल्लं समुपागतम् ।
क्लीबेति मुनिपुत्रस्तमामन्त्रयत्तदन्तिके ॥ ३४ ॥
सुदर्शनस्तु तच्छ्रुत्वा दधारैकाक्षरं स्फुटम् ।
अनुस्वारयुतं तच्च प्रोवाचापि पुनः पुनः ॥ ३५ ॥
बीजं वै कामराजाख्यं गृहीतं मनसा तदा ।
जजाप बालकोऽत्यर्थं धृत्वा चेतसि सादरम् ॥ ३६ ॥
भावियोगान्महाराज कामराजाख्यमद्‌भुतम् ।
स्वभावेनैव तेनेत्थं गृहीतं बालकेन वै ॥ ३७ ॥
तदाऽसौ पञ्चमे वर्षे प्राप्य मन्त्रमनुत्तमम् ।
ऋषिच्छन्दोविहीनञ्च ध्यानन्यासविवर्जितम् ॥ ३८ ॥
प्रजपन्मनसा नित्यं क्रीडत्यपि स्वपित्यपि ।
विसस्मार न तं मन्त्रं ज्ञात्वा सारमिति स्वयम् ॥ ३९ ॥
वर्षे चैकादशे प्राप्ते कुमारोऽसौ नृपात्मजः ।
मुनिना चोपनीतोऽथ वेदमध्यापितस्तथा ॥ ४० ॥
धनुर्वेदं तथा साङ्गं नीतिशास्त्रं विधानतः ।
अभ्यस्ताः सकला विद्यास्तेन मन्त्रबलादिना ॥ ४१ ॥
कदाचित्सोऽपि प्रत्यक्षं देवीरूपं ददर्श ह ।
रक्ताम्बरं रक्तवर्णं रक्तसर्वाङ्गभूषणम् ॥ ४२ ॥
गरुडे वाहने संस्थां वैष्णवीं शक्तिमद्‌भुताम् ।
दृष्ट्वा प्रसन्नवदनः स बभूव नृपात्मजः ॥ ४३ ॥
वने तस्मिंस्थितः सोऽथ सर्वविद्यार्थतत्त्ववित् ।
मातरं सेवमानस्तु विजहार नदीतटे ॥ ४४ ॥
शरासनञ्च सम्प्राप्तं विशिखाश्‍च शिलाशिताः ।
तूणीरकवचं तस्मै दत्तं चाम्बिकया वने ॥ ४५ ॥
एतस्मिन्समये पुत्री काशिराजस्य सुप्रिया ।
नाम्ना शशिकला दिव्या सर्वलक्षणसंयुता ॥ ४६ ॥
शुश्राव नृपपुत्रं तं वनस्थञ्च सुदर्शनम् ।
सर्वलक्षणसम्पन्नं शूरं काममिवापरम् ॥ ४७ ॥
बन्दीजनमुखाच्छ्रुत्वा राजपुत्रं सुसङ्गतम् ।
चकमे मनसा तं वै वरं वरयितुं धिया ॥ ४८ ॥
स्वप्ने तस्याः समागम्य जगदम्बा निशान्तरे ।
उवाच वचनं चेदं समाश्‍वास्य सुसंस्थिता ॥ ४९ ॥
वरं वरय सुश्रोणि मम भक्तः सुदर्शनः ।
सर्वकामप्रदस्तेऽस्तु वचनान्मम भामिनि ॥ ५० ॥
एवं शशिकला दृष्टा स्वप्ने रूपं मनोहरम् ।
अम्बाया वचनं स्मृत्वा जहर्ष भृशभामिनी ॥ ५१ ॥
उत्थिता सा मुदा युक्ता पृष्टा मात्रा पुनः पुनः ।
प्रमोदे कारणं बाला नोवाचातित्रपान्विता ॥ ५२ ॥
जहास मुदमापन्ना स्मृत्वा स्वप्नं मुहुर्मुहुः ।
सखीं प्राह तदान्यां वै स्वप्नवृत्तं सविस्तरम् ॥ ५३ ॥
कदाचित्सा विहारार्थमवापोपवनं शुभम् ।
सखीयुक्ता विशालाक्षी चम्पकैरुपशोभितम् ॥ ५४ ॥
पुष्पाणि चिन्वती बाला चम्पकाधःस्थिताबला ।
अपश्यद्‍ब्राह्मणं मार्गे आगच्छन्तं त्वरान्वितम् ॥ ५५ ॥
तं प्रणम्य द्विजं श्यामा बभाषे मधुरं वचः ।
कुतो देशान्महाभाग कृतमागमनं त्वया ॥ ५६ ॥
॥ द्विज उवाच ॥
भारद्वाजाश्रमाद्‌बाले नूनमागमनं मम ।
जातं वै कार्ययोगेन किं पृच्छसि वदस्व मे ॥ ५७ ॥
॥ शशिकलोवाच ॥
तत्राश्रमे महाभाग वर्णनीयं किमस्ति वै ।
लोकातिगं विशेषेण प्रेक्षणीयतमं किल ॥ ५८ ॥
॥ ब्राह्मण उवाच ॥
ध्रुवसन्धिसुतः श्रीमानास्ते सुदर्शनो नृपः ।
यथार्थनामा सुश्रोणि वर्तते पुरुषोत्तमः ॥ ५९ ॥
तस्य लोचनमत्यन्तं निष्फलं प्रतिभाति मे ।
येन दृष्टो न वामोरु कुमारस्तु सुदर्शनः ॥ ६० ॥
एकत्र निहिता धात्रा गुणाः सर्वे सिसृक्षुणा ।
गुणानामाकरं द्रष्टुं मन्ये तेनैव कौतुकात् ॥ ६१ ॥
तव योग्यः कुमारोऽसौ भर्ता भवितुमर्हति ।
योगोऽयं विहितोऽप्यासीन्मणिकाञ्चनयोरिव ॥ ६२ ॥
॥ इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विश्वामित्रकथोत्तरं राजपुत्रस्य कामबीजप्राप्तिवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७ ॥

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