April 11, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-19 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-एकोनविंशोऽध्यायः उन्नीसवाँ अध्याय माता का शशिकला को समझाना, शशिकला का अपने निश्चय पर दृढ़ रहना, सुदर्शन तथा अन्य राजाओं का स्वयंवर में आगमन, युधाजित् द्वारा सुदर्शन को मार डालने की बात कहने पर केरल नरेश का उन्हें समझाना राजसंवादवर्णनम् व्यासजी बोले — पति के ऐसा कहने पर रानी ने सुन्दर मुसकान वाली उस कन्या को अपनी गोद में बैठाकर उसे आश्वासन दे करके यह मधुर वचन कहा — हे सुदति ! तुम मुझसे ऐसी अप्रिय एवं निष्प्रयोजन बात क्यों कह रही हो ? हे सुव्रते ! इस कथन से तुम्हारे पिता बहुत दुःखित हो रहे हैं ॥ १-२ ॥ वह सुदर्शन बड़ा ही अभागा, राजच्युत, आश्रयहीन और सेना तथा कोश से विहीन है; बन्धु बान्धवों ने उसका परित्याग कर दिया है। वह अपनी माता के साथ वन में रहकर फल- मूल खाता है और अत्यन्त दुर्बल है। इसलिये वह मन्दभाग्य एवं वनवासी बालक सर्वथा तुम्हारे योग्य वर नहीं है ॥ ३-४ ॥ हे पुत्रि ! तुम्हारे योग्य अनेक राजकुमार यहाँ उपस्थित हैं; जो बुद्धिमान्, रूपवान्, सम्माननीय और राजचिह्नों से अलंकृत हैं। इसी सुदर्शन का एक कान्तिमान्, रूपसम्पन्न तथा सभी शुभ लक्षणों से युक्त भाई भी है, जो इस समय कोसलदेश में राज्य करता है ॥ ५-६ ॥ हे सुभ्रु ! इसके अतिरिक्त मैंने एक और जो बात सुनी है, तुम उसे सुनो — राजा युधाजित् उस सुदर्शन का वध करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहता है ॥ ७ ॥ उसने घोर संग्राम करके [ इसके नाना ] राजा वीरसेन को मारकर पुनः मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करके अपने दौहित्र शत्रुजित् को राज्य पर अभिषिक्त कर दिया है। इसके बाद भारद्वाजमुनि के आश्रम में शरण लिये उस सुदर्शन को मारने की इच्छासे वह वहाँ भी पहुँचा, किंतु मुनि के मना करने पर अपने घर लौट गया ॥ ८-९ ॥ शशिकला बोली — हे माता ! मुझे तो वह वनवासी राजकुमार ही अत्यन्त अभीष्ट है। [ पूर्वकाल में] शर्याति की आज्ञा से ही उनकी पतिव्रता पुत्री सुकन्या च्यवनमुनि के पास जाकर उनकी सेवामें तत्पर हो गयी थी। उसी प्रकार मैं पतिसेवा करूँगी; पति की सेवा-शुश्रूषा स्त्रियों के लिये स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली होती है। अपने पति के लिये कपटरहित व्यवहार स्त्रियोंके लिये निश्चित रूपसे सुखदायक होता है ॥ १०-१११/२ ॥ स्वयं भगवती उस सर्वश्रेष्ठ वर का वरण करने के लिये मुझे स्वप्न में आज्ञा दे चुकी हैं। अतः उनको छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमार का वरण कैसे करूँ ? स्वयं भगवती ने मेरे चित्त की भित्ति पर सुदर्शन को ही अंकित कर दिया है। अतः उस प्रिय सुदर्शन को छोड़कर मैं किसी अन्य राजकुमार को पति नहीं बनाऊँगी ॥ १२-१३१/२ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] उस समय उस शशिकला ने अनेक प्रमाणों के द्वारा विदर्भराजकुमारी अपनी माता को समझा दिया। तत्पश्चात् पुत्री के द्वारा कही गयी सभी बातों को महारानी ने अपने पति से बताया ॥ १४१/२ ॥ उधर शशिकला ने विवाह के कुछ दिनों पूर्व ही एक विश्वस्त तथा वेदनिष्ठ ब्राह्मण को शीघ्र ही वहाँ भेज दिया। [ जाते समय उसने ब्राह्मण से कहा कि ] आप सुदर्शन के पास इस प्रकार जायँ, जिसे मेरे पिता न जान पायें ॥ १५-१६ ॥ हे विभो ! आप बहुत शीघ्र ही भारद्वाज के आश्रम पहुँचकर सुदर्शन को मेरी ओर से कहिये कि मेरे पिता ने मेरे विवाहार्थ एक स्वयंवर आयोजित किया है; उसमें अनेक बलवान् राजा आयेंगे, किंतु मैं तो मन से अत्यन्त प्रेमपूर्वक हर तरह से आपका वरण कर चुकी हूँ । हे देवोपम राजकुमार ! मुझे भगवती ने स्वप्न में आपको वरण करने का आदेश दिया है। मैं विष खा लूँगी अथवा जलती हुई अग्नि में कूद पडूंगी, किंतु माता-पिता के द्वारा बहुत प्रेरित किये जाने पर भी मैं आपके अतिरिक्त किसी अन्य का वरण नहीं करूँगी; क्योंकि मैं मन, वचन तथा कर्म से आपको अपना पति मान चुकी हूँ । भगवती की कृपा से हम दोनों का कल्याण होगा। प्रारब्ध को प्रबल मानकर आप इस स्वयंवर में अवश्य आयें। यह सम्पूर्ण चराचर जगत् जिनके अधीन है तथा शंकर आदि सभी देवगण जिनके वश में रहते हैं, उन भगवती ने जो आदेश दिया है, वह कभी भी असत्य नहीं होगा। हे ब्रह्मन् ! आप उस राजकुमार से यह सब एकान्त में बताइयेगा । हे निष्पाप ! आप वही कीजियेगा, जिससे मेरा काम बन जाय ॥ १७-२३१/२ ॥ ऐसा कहकर और दक्षिणा देकर शशिकला ने उस ब्राह्मण को भेज दिया। वह ब्राह्मण सुदर्शन से सारी बातें कहकर शीघ्र ही वापस आ गया। उन बातों को जानकर राजकुमार सुदर्शन ने स्वयंवर में जाने का निश्चय कर लिया; उन भारद्वाजमुनि ने भी उसे आदरपूर्वक भेज दिया ॥ २४-२५१/२ ॥ व्यासजी बोले — तब अत्यधिक दुःख से व्याकुल, काँपती हुई तथा भयभीत मनोरमा गमन के लिये तत्पर अपने पुत्र सुदर्शन से आँखों में आँसू भरकर बोली — पुत्र ! तुम इस समय राजाओं के उस समाज में कहाँ जा रहे हो ? तुम अकेले हो और तुमसे शत्रुता रखने वाला राजा युधाजित् तुम्हें मारने की इच्छा से उस स्वयंवर में अवश्य आयेगा, फिर तुम क्या सोचकर वहाँ जा रहे हो ? तुम्हारा कोई सहायक भी नहीं है। इसलिये हे पुत्र ! वहाँ मत जाओ। तुम ही मेरे एकमात्र पुत्र हो और मैं अति दीन हूँ तथा मुझे आश्रयहीन के लिये तुम्हीं एकमात्र आधार हो । हे महाभाग ! इस समय तुम मुझे निराश मत करो। जिसने मेरे पिता का वध कर दिया है, वह राजा युधाजित् भी वहाँ आयेगा और वहाँ तुझ अकेले गये हुए को मार डालेगा ॥ २६-३०१/२ ॥ सुदर्शन बोला — होनी तो होकर रहती है, इस विषय में सन्देह नहीं करना चाहिये। हे कल्याणि ! जगज्जननी के आदेश से मैं आज स्वयंवर में जा रहा हूँ । हे वरानने! तुम क्षत्राणी हो, अतः इस विषय में चिन्ता मत करो। भगवती की सदा अपने ऊपर कृपा रहने के कारण मैं किसी से भी भयभीत नहीं होता ॥ ३१-३२१/२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर रथ पर आरूढ़ होकर स्वयंवर में जाने के लिये उद्यत पुत्र सुदर्शन को देखकर मनोरमा ने इन आशीर्वादों से उसका अनुमोदन किया — अग्रतस्तेऽम्बिका पातु पार्वती पातु पृष्ठतः ॥ ३४ ॥ पार्वती पार्श्वयोः पातु शिवा सर्वत्र साम्प्रतम् । वाराही विषमे मार्गे दुर्गा दुर्गेषु कर्हिचित् । कालिका कलहे घोरे पातु त्वां परमेश्वरी ॥ ३५ ॥ मण्डपे तत्र मातङ्गी तथा सौम्या स्वयंवरे । भवानी भूपमध्ये तु पातु त्वां भवमोचनी ॥ ३६ ॥ गिरिजा गिरिदुर्गेषु चामुण्डा चत्वरेषु च । कामगा काननेष्वेवं रक्षतु त्वां सनातनी ॥ ३७ ॥ विवादे वैष्णवी शक्तिरवतात्त्वां रघूद्वह । भैरवी चरणे सौम्य शत्रूणां वै समागमे ॥ ३८ ॥ सर्वदा सर्वदेशेषु पातु त्वां भुवनेश्वरी । महामाया जगद्धात्री सच्चिदानन्दरूपिणी ॥ ३९ ॥ भगवती अम्बिका आगे से, पार्वती पीछे से अपर्णा दोनों पार्श्वभाग में तथा शिवा सर्वत्र तुम्हारी रक्षा करें। विषम मार्ग में वाराही, किसी भी प्रकार के दुर्गम स्थानों में दुर्गा और भयानक संग्राम में परमेश्वरी कालिका तुम्हारी रक्षा करें। उस मण्डप में देवी मातंगी, स्वयंवर में भगवती सौम्या तथा भव-बन्धन से मुक्त करने वाली भवानी राजाओं के बीच में तुम्हारी रक्षा करें। इसी प्रकार पर्वतीय दुर्गम स्थानों में गिरिजा, चौराहों पर देवी चामुण्डा तथा वनों में सनातनी कामगादेवी तुम्हारी रक्षा करें। हे रघूद्वह ! विवाद में भगवती वैष्णवी तुम्हारी रक्षा करें। हे सौम्य ! शत्रुओं के साथ युद्ध में भैरवी तुम्हारी रक्षा करें। जगत् को धारण करने वाली सच्चिदानन्दस्वरूपिणी महामाया भुवनेश्वरी सभी स्थानों पर सर्वदा तुम्हारी रक्षा करें ॥ ३३-३९ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर भय से व्याकुल तथा काँपती हुई उसकी माता मनोरमा ने उससे कहा — मैं भी तुम्हारे साथ अवश्य चलूँगी। हे पुत्र ! मैं तुम्हारे बिना आधे क्षण भी यहाँ नहीं रह सकती, अतएव तुम्हारी जहाँ जाने की इच्छा है, वहीं मुझे भी अपने साथ ले चलो ॥ ४०-४१ ॥ तब ऐसा कहकर अपनी दासी को साथ लेकर माता मनोरमा चल पड़ीं। ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त करके वे सभी प्रसन्नतापूर्वक चल पड़े ॥ ४२ ॥ इसके बाद वह रघुवंशी सुदर्शन एक रथ पर आरूढ़ होकर वाराणसी पहुँचा। राजा सुबाहु को उसके आने की जानकारी होने पर उन्होंने आदर-सम्मान आदि के द्वारा उसका सत्कार किया। उन लोगों के निवास के लिये भवन तथा अन्न-जल आदि की व्यवस्था कर दी तथा उनकी सेवा-शुश्रूषा हेतु सेवक को भी नियुक्त कर दिया ॥ ४३-४४ ॥ इसके बाद वहाँ अनेक देशों के राजा-महाराजा एकत्र हुए। वहाँ अपने नाती को साथ लेकर युधाजित् भी आया ॥ ४५ ॥ करूषाधिपति, मद्रदेश के महाराज, वीर सिन्धुराज, युद्धकुशल माहिष्मती नरेश, पंचालपति, पर्वतीय राजा, कामरूपदेश के अति पराक्रमी महाराज, कर्णाटक नरेश, चोलराज और महाबली विदर्भनरेश वहाँ आये थे ॥ ४६-४७ ॥ उन राजाओं की कुल मिलाकर तिरसठ अक्षौहिणी सेना थी । वहाँ सर्वत्र स्थित उन सैनिकों से वह वाराणसी नगरी पूरी तरह से घिर गयी ॥ ४८ ॥ इनके अतिरिक्त अन्य बहुत-से राजा भी स्वयंवर देखने की इच्छा से बड़े-बड़े हाथियों पर आरूढ़ होकर उस स्वयंवर में सम्मिलित हुए ॥ ४९ ॥ उस समय सभी राजकुमार आपस में मिलकर कहने लगे कि राजकुमार सुदर्शन भी निश्चिन्त होकर यहाँ आया है । वह महाबुद्धिमान् सूर्यवंशी सुदर्शन अपनी माता के साथ इस समय अकेला ही रथ पर चढ़कर विवाह के लिये यहाँ आ पहुँचा है। सैन्यशक्ति से सम्पन्न तथा शस्त्रास्त्र से सुसज्जित इन राजकुमारों को छोड़कर क्या वह राजकुमारी बड़ी भुजाओं वाले इस सुदर्शन का वरण करेगी ? ॥ ५०-५२ ॥ इसके बाद राजा युधाजित् ने उन नरेशों से कहा — राजकुमारी को प्राप्त करने के लिये मैं इसे मार डालूँगा, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५३ ॥ तब महान् नीतिज्ञ केरलनरेश ने उस युधाजित् से कहा — हे राजन् ! इच्छास्वयंवर में युद्ध नहीं करना चाहिये। यह शुल्कस्वयंवर भी नहीं है, अतः कन्या का बलपूर्वक हरण भी नहीं किया जाना चाहिये। इसमें तो कन्या की इच्छा से पति चुनना निर्धारित है; तो फिर इसमें विवाद कैसा ? ॥ ५४-५५ ॥ हे नृपश्रेष्ठ! आपने पहले तो इस सुदर्शन को अन्यायपूर्वक राज्य से निकाल दिया और अपने दौहित्र को बलपूर्वक उस राज्य का स्वामी बना दिया ॥ ५६ ॥ हे महाभाग ! यह सूर्यवंशी राजकुमार कोसल- नरेश का सुपुत्र है। इस निरपराध राजकुमार का वध आप क्यों करेंगे ? ॥ ५७ ॥ हे नृपोत्तम! आपको अन्याय का फल अवश्य ही मिलेगा। हे आयुष्मन् ! इस संसार पर शासन करने वाला कोई और ही जगत्पति परमेश्वर है ॥ ५८ ॥ धर्म की जय होती है, अधर्म की नहीं। सत्य की जय होती है, असत्य की नहीं। अतएव हे राजेन्द्र ! आप अन्याय न कीजिये और इस प्रकार के पापमय विचार का सर्वथा परित्याग कर दीजिये ॥ ५९ ॥ आपका दौहित्र यहाँ आया ही है। वह भी अत्यन्त रूपवान् और राज्य तथा लक्ष्मी से सम्पन्न है; तब भला कन्या उसका वरण क्यों नहीं करेगी ? ॥ ६० ॥ अन्य एक से बढ़कर एक बलवान् राजकुमार आये हैं। इस स्वयंवर में कन्या शशिकला किसी भी राजकुमार को अपनी इच्छा से चुन लेगी ॥ ६१ ॥ हे राजागण ! अब आप ही लोग बतायें कि इस प्रकार के विवाह में विवाद ही क्या ? विवेकवान् पुरुष को इस विषय में परस्पर विरोधभाव नहीं रखना चाहिये ॥ ६२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘राजसंवादवर्णन’ नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥ Content is available only for registered users. 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