April 12, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-25 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-पञ्चविंशोऽध्यायः पचीसवाँ अध्याय सुदर्शन का शत्रुजित् की माता को सान्त्वना देना, सुदर्शन द्वारा अयोध्या में तथा राजा सुबाहु द्वारा काशी में देवी दुर्गा की स्थापना देवीस्थापनवर्णनम् व्यासजी बोले — अयोध्या पहुँचकर नृपश्रेष्ठ सुदर्शन अपने मित्रों के साथ राजभवन में गये । वहाँ पर शत्रुजित् की परम शोकाकुल माता को प्रणामकर उन्होंने कहा — हे माता ! मैं आपके चरणों की शपथ खाकर कहता हूँ कि आपके पुत्र तथा आपके पिता युधाजित् को युद्ध में मैंने नहीं मारा है ॥ १-२ ॥ स्वयं भगवती दुर्गा ने रणभूमि में उनका वध किया है; इसमें मेरा अपराध नहीं है। होनी तो अवश्य होकर रहती है, उसे टालने का कोई उपाय नहीं है ॥ ३ ॥ हे मानिनि ! अपने मृत पुत्र के विषय में आप शोक न करें; क्योंकि जीव अपने पूर्वकर्मों के अधीन होकर सुख-दुःखरूपी भोगों को भोगता है ॥ ४ ॥ हे माता! मैं आपका दास हूँ। जैसे मनोरमा मेरी माता हैं, वैसे ही आप भी मेरी माता हैं। हे धर्मज्ञे! हे मानिनि ! आपमें और उनमें मेरे लिये कुछ भी भेद नहीं है ॥ ५ ॥ अपने किये हुए शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है। अतएव सुख-दुःख के विषय में आपको कभी भी शोक नहीं करना चाहिये 1 ॥ ६ ॥ मनुष्य को चाहिये कि दुःख की स्थिति में अधिक दुःखवालों को तथा सुख की स्थिति में अधिक सुखवालों को देखे; अपने आपको हर्ष-शोकरूपी शत्रुओं के अधीन न करे। यह सब दैव के अधीन है, अपने अधीन कभी नहीं। अतएव बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि शोक से अपनी आत्मा को न सुखाये ॥ ७-८ ॥ जैसे कठपुतली नट आदि के संकेत पर नाचती है, उसी प्रकार जीव को भी अपने कर्म के अधीन होकर सर्वत्र रहना पड़ता है ॥ ९ ॥ है माता! अपने किये हुए कर्म का फल भोगना ही पड़ता है — यह सोचते हुए मैं वन में गया .था, इसलिये मेरे मन में दुःख नहीं हुआ। इस बात को मैं अभी भी जानता हूँ ॥ १० ॥ इसी अयोध्या में मेरे नाना मारे गये, माता विधवा हो गयी। भय से व्याकुल वह मुझे लेकर घोर वन में चली गयी। रास्ते में चोरों ने उसे लूट लिया, उसके वस्त्र तक उतार लिये और समस्त राह-सामग्री छीन ली। वह बालपुत्रा निराश्रय होकर मुझे लिये हुए भारद्वाजमुनि के आश्रम पर पहुँची। ये मन्त्री विदल्ल तथा अबला दासी हमारे साथ गये थे ॥ ११-१३ ॥ आश्रम के मुनियों और मुनिपत्नियों ने दया करके नीवार तथा फलों से भली-भाँति हमारा पालन किया और हम तीनों वहीं रहने लगे ॥ १४ ॥ उस समय निर्धन होने के कारण न मुझे दुःख था और न अब धन आ जाने पर सुख ही है। मेरे मन में कभी भी बैर तथा ईर्ष्या की भावना नहीं रहती ॥ १५ ॥ हे परन्तपे! राजसी भोजन की अपेक्षा नीवारभक्षण श्रेष्ठ है; क्योंकि राजस अन्न खाने वाला नरक में जा सकता है, किंतु नीवारभोजी कभी नहीं ॥ १६ ॥ इन्द्रियो पर सम्यक् नियन्त्रण करके विज्ञ पुरुष को धर्म का आचरण करना चाहिये, जिससे उसे नरक में न जाना पड़े ॥ १७ ॥ हे माता। इस पवित्र भारतवर्ष में मानव-जन्म दुर्लभ है। आहारादि का सुख तो निश्चय ही सभी योनियों में मिल सकता है। स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाले इस मनुष्य-तन को पाकर धर्म-साधन करना चाहिये; क्योंकि अन्य योनियों में यह दुर्लभ है ॥ १८-१९ ॥ व्यासजी बोले — उस सुदर्शन के यह कहने पर लीलावती बहुत लज्जित हुई और पुत्रशोक त्यागकर आँखों में आँसू भरके बोली — ॥ २० ॥ हे पुत्र! मेरे पिता युधाजित् ने मुझे अपराधिनी बना दिया। उन्होंने ही तुम्हारे नाना का वध करके राज्य का हरण कर लिया था ॥ २१ ॥ हे तात! उस समय मैं उन्हें तथा अपने पुत्र को रोकने में समर्थ नहीं थी। उन्होंने जो कुछ किया, उसमें मेरा अपराध नहीं था ॥ २२ ॥ वे दोनों अपने ही कर्म से मृत्यु को प्राप्त हुए हैं। उनको मृत्यु में तुम कारण नहीं हो। अतएव मैं अपने उस पुत्र के लिये शोक नहीं करती। मैं सदा उसके किये कर्म की चिन्ता करती रहती हूँ ॥ २३ ॥ हे कल्याण! अब तुम्हीं मेरे पुत्र हो और मनोरमा मेरी बहन है। हे पुत्र। तुम्हारे प्रति मेरे मन में तनिक भी शोक या क्रोध नहीं है ॥ २४ ॥ हे महाभाग ! अब तुम राज्य करो और प्रजा का पालन करो। हे सुव्रत! भगवती की कृपा से ही तुम्हें यह अकंटक राज्य प्राप्त हुआ है ॥ २५ ॥ माता लीलावती का वचन सुनकर उन्हें प्रणाम करके राजकुमार सुदर्शन उस भव्य भवन में गये, जहाँ पहले उनकी माता मनोरमा रहा करती थीं। वहाँ जाकर उन्होंने सब मन्त्रियों तथा ज्योतिषियों को बुलाकर शुभ दिन और मुहूर्त पूछा और कहा कि सोने का सुन्दर सिंहासन बनवाकर उस पर विराजमान देवी का मैं नित्य पूजन करूँगा। उस सिंहासन पर धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष प्रदान करने वाली भगवती की स्थापना करने के बाद ही मैं राज्यकार्य संचालित करूँगा, जैसा मेरे पूर्वज श्रीराम आदि ने किया है। सभी नागरिकजनों को चाहिये कि वे सभी प्रकार के काम, अर्थ और सिद्धि प्रदान करने वाली कल्याणमयी भगवती आदिशक्ति का पूजन तथा सम्मान करते रहें ॥ २६-३० ॥ राजा सुदर्शन के ऐसा कहने पर मन्त्रीगण राजाज्ञा के पालन में तत्पर हो गये। उन्होंने शिल्पियों द्वारा एक बहुत सुन्दर मन्दिर तैयार कराया ॥ ३१ ॥ तदनन्तर राजा ने देवी की प्रतिमा बनवाकर शुभ दिन और शुभ मुहूर्त में वैदिक विद्वानों को बुलाकर उसको स्थापना की ॥ ३२ ॥ तत्पश्चात् विधिवत् हवन तथा देवपूजन करके बुद्धिमान् राजा ने उस मन्दिर में देवी की प्रतिमा स्थापित की ॥ ३३ ॥ हे राजन्! उस समय ब्राह्मणों के वेदघोष, विविध गानों तथा वाद्यों की ध्वनि के साथ बहुत बड़ा उत्सव मनाया गया ॥ ३४ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार वेदवादी विद्वानों द्वारा कल्याणमयी देवी की विधिवत् स्थापना कराकर राजा सुदर्शन ने बड़े विधान के साथ नाना प्रकार की पूजा सम्पन्न की ॥ ३५ ॥ इस प्रकार राजा सुदर्शन भगवती की पूजा करके अपना पैतृक राज्य प्राप्त कर विख्यात हो गये और ‘कोसल देश में अम्बिकादेवी भी विख्यात हो गयीं ॥ ३६ ॥ सम्पूर्ण राज्य प्राप्त करने के बाद सद्धर्म से विजय प्राप्त करने वाले राजा सुदर्शन ने सभी धर्मात्मा सामन्त राजाओं को अपने अधीन कर लिया ॥ ३७ ॥ जिस प्रकार अपने राज्य में राम हुए और जिस प्रकार दिलीप के पुत्र राजा रघु हुए उसी प्रकार सुदर्शन भी हुए। जैसे उनके राज्य में प्रजाओं को सुख था और मर्यादा थी, वैसा ही राजा सुदर्शन के राज्य में भी था ॥ ३८ ॥ उनके राज्य में वर्णाश्रमधर्म चारों चरणों से समृद्ध हुआ। उस समय धरतीतल पर किसी का भी मन अधर्म में लिप्त नहीं होता था ॥ ३९ ॥ कोसलदेश के सभी राजाओं ने प्रत्येक ग्राम में देवी के मन्दिर बनवाये। तबसे समस्त कोसलदेश में प्रेमपूर्वक देवी की पूजा होने लगी ॥ ४० ॥ महाराज सुबाहु ने भी काशी में मन्दिर का निर्माण कराकर भक्तिपूर्वक दुर्गादेव की दिव्य प्रतिमा स्थापित की ॥ ४१ ॥ काशी के सभी लोग प्रेम और भक्ति में तत्पर होकर विधिवत दुर्गादेव की उसी प्रकार पूजा करने लगे, जैसे भगवान् विश्वनाथजी की करते थे ॥ ४२ ॥ हे महाराज! तबसे इस धरातल पर देश-देश में भगवती दुर्गा विख्यात हो गयीं और लोगों में उनकी भक्ति बढ़ने लगी। उस समय भारतवर्ष में सब जगह सभी वर्णों में भवानी ही सबकी पूजनीया हो गयीं ॥ ४३-४४ ॥ हे नृप! सभी लोग भगवती शक्ति को मानने लगे, उनकी भक्ति में निरत रहने लगे और वेद- वर्णित स्तोत्रों के द्वारा उनके जप तथा ध्यान में तत्पर हो गये। इस प्रकार भक्तिपरायण लोग सभी नवरात्रों में विधानपूर्वक भगवती का पूजन, हवन तथा यज्ञ करने लगे ॥ ४५-४६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का देवीस्थापनवर्णन नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ 1. अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् । तस्मान्न शोचितव्यं ते सुखे दुःखे कदाचन ॥ ( श्रीमद्देवीभा० ३ । २५ /६) Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe