श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-28
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-अष्टाविंशोऽध्यायः
अट्ठाईसवाँ अध्याय
श्रीरामचरित्रवर्णन
रामचरित्रवर्णनम्

जनमेजय बोले — श्रीराम ने भगवती जगदम्बा के इस सुखप्रदायक व्रत का अनुष्ठान किस प्रकार किया, वे राज्यच्युत कैसे हुए और फिर सीता हरण किस प्रकार हुआ ? ॥ १ ॥

व्यासजी बोले — पूर्वकाल में श्रीमान् महाराज दशरथ अयोध्यापुरी में राज्य करते थे। वे सूर्यवंश में श्रेष्ठ राजा के रूप में प्रतिष्ठित थे और वे देवताओं तथा ब्राह्मणों का पूजन किया करते थे ॥ २ ॥ उनके चार पुत्र उत्पन्न हुए; जो लोक में राम, लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुघ्न नाम से विख्यात हुए। गुण तथा रूप में पूर्ण समानता रखने वाले वे सभी महाराज दशरथ को अत्यन्त प्रिय थे। उनमें राम महारानी कौसल्या के तथा भरत महारानी कैकेयी के पुत्र कहे गये। रानी सुमित्रा के लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न नामवाले जुड़वाँ पुत्र उत्पन्न हुए। वे चारों किशोरावस्था में ही धनुष-बाणधारी हो गये ॥ ३-५ ॥ महाराज दशरथ ने सुख बढ़ाने वाले अपने चारों पुत्रों के संस्कार भी सम्पन्न कर दिये। तब एक समय महर्षि विश्वामित्र ने दशरथ के यहाँ आकर उनसे रघुनन्दन राम को माँगा ॥ ६ ॥ महाराज दशरथ ने यज्ञ की रक्षा के लिये लक्ष्मणसहित सोलहवर्षीय पुत्र राम को विश्वामित्र को समर्पित कर दिया ॥ ७ ॥ प्रियदर्शन वे दोनों भाई मुनि के साथ मार्ग में चल दिये । रामचन्द्रजी ने मुनियों को सदा पीड़ित करने वाली तथा अत्यन्त भयानक रूप वाली ताटका को रास्ते में ही मात्र एक बाण से मार डाला। उन्होंने दुष्ट सुबाहु का वध किया तथा मारीच को अपने बाण से दूर फेंककर उसे मृतप्राय कर दिया और यज्ञ – रक्षा की। इस प्रकार यज्ञ-रक्षा का महान् कृत्य सम्पन्न करके राम, लक्ष्मण तथा विश्वामित्र ने मिथिलापुरी के लिये प्रस्थान किया। जाते समय मार्ग में राम ने अबला अहल्या को शाप से मुक्ति प्रदान करके उसे पापरहित कर दिया ॥ ८-११ ॥

इसके बाद वे दोनों भाई मुनि विश्वामित्र के साथ जनकपुर पहुँच गये और वहाँ श्रीराम ने जनकजी द्वारा प्रतिज्ञा के रूप में रखे शिव धनुष को तोड़ दिया ॥ १२ ॥ तदनन्तर राजा ने साक्षात् लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न सीता का विवाह राम के साथ तथा दूसरी पुत्री उर्मिला का विवाह लक्ष्मण के साथ कर दिया ॥ १३ ॥ शीलसम्पन्न तथा शुभलक्षणों से युक्त दोनों भाई भरत तथा शत्रुघ्न ने कुशध्वज की दो पुत्रियों [माण्डवी तथा श्रुतकीर्ति ] को पत्नीरूप में प्राप्त किया ॥ १४ ॥

हे राजन् ! इस प्रकार उन चारों भाइयों का विवाह मिथिलापुरी में ही विधि-विधान से सम्पन्न हुआ ॥ १५ ॥ तत्पश्चात् महाराज दशरथ ने अपने बड़े पुत्र राम को राज्य करने योग्य देखकर उन्हें राज्य भार सौंपने का मन में निश्चय किया ॥ १६ ॥ राजतिलक-सम्बन्धी सामग्रियों का प्रबन्ध हुआ देखकर रानी कैकेयी ने अपने वशीभूत महाराज दशरथ से पूर्वकल्पित दो वरदान माँगे ॥ १७ ॥ उसने पहले वरदान के रूप में अपने पुत्र भरत के लिये राज्य तथा दूसरे वरदान के रूप में महात्मा राम को चौदह वर्षों का वनवास माँगा ॥ १८ ॥ कैकेयी का वचन मानकर श्रीरामचन्द्रजी सीता तथा लक्ष्मण के साथ दण्डकवन चले गये, जहाँ राक्षस रहते थे ॥ १९ ॥ तदनन्तर पुत्र के वियोगजनित शोक से सन्तप्त पुण्यात्मा दशरथ ने पूर्वकाल में एक ऋषि द्वारा प्रदत्त शाप का स्मरण करते हुए अपने प्राण त्याग दिये ॥ २० ॥ माता कैकेयी के कृत्य के कारण पिताजी की मृत्यु देखकर भरतजी ने भाई श्रीराम का हित करने की इच्छा से अयोध्या का समृद्ध राज्य स्वीकार नहीं किया ॥ २१ ॥ उधर पंचवटी में निवास करते हुए श्रीराम ने रावण की छोटी बहन अतिशय कामातुर शूर्पणखा को कुरूप बना दिया ॥ २२ ॥

तब खर-दूषण आदि राक्षसों ने उसे कटी हुई नासिका वाली देखकर अमित तेजस्वी राम के साथ घोर संग्राम किया ॥ २३ ॥ उस संग्राम में सत्यपराक्रमी श्रीराम ने मुनियों का कल्याण करने की इच्छा से अत्यन्त बलशाली खर आदि राक्षसों का संहार कर दिया ॥ २४ ॥ तत्पश्चात् लंका जाकर उस दुष्ट शूर्पणखा ने राम के द्वारा खर-दूषण के संहार का समाचार रावण से बताया ॥ २५ ॥ वह दुष्ट रावण भी संहार के विषय में सुनकर अत्यन्त क्रोधित हो उठा और तब रथपर सवार होकर वह मारीच के आश्रम में पहुँच गया ॥ २६ ॥ [ सीता हरण के उद्देश्य से] रावण ने मायावी मारीच को असम्भव स्वर्ण मृग बनाकर सीता को प्रलोभित करने के लिये भेजा ॥ २७ ॥ तत्पश्चात् वह मायावी मारीच अत्यन्त अद्भुत अंगोंवाला स्वर्ण मृग बनकर चरते चरते सीताजी के सन्निकट पहुँच गया और उन्होंने उसे देख लिया ॥ २८ ॥ उसे देखकर दैवी प्रेरणा से सीता ने श्रीराम से कहा — हे कान्त ! आप इस मृग का चर्म ले आइये ॥ २९ ॥

राम भी बिना कुछ सोचे-समझे लक्ष्मण को सीता के रक्षार्थ वहीं छोड़कर धनुष तथा बाण लेकर उस मृग के पीछे-पीछे दौड़ पड़े ॥ ३० ॥ करोड़ों प्रकार की माया रचने का ज्ञान रखने वाला मृगरूपधारी वह मारीच भी राम को अपने पीछे दौड़ता देखकर कभी दिखायी पड़ते हुए तथा कभी आँखों से ओझल होते हुए एक वन से दूसरे वन में बहुत दूर चला गया ॥ ३१ ॥ राम ने अब उसे हस्तगत समझकर क्रोधपूर्वक धनुष खींचकर अत्यन्त तीक्ष्ण बाण से उस कृत्रिम मृग को मार डाला ॥ ३२ ॥ राम के प्रबल प्रहार से आहत होकर वह मरणोन्मुख मायावी तथा नीच मृग चीख-चीखकर चिल्लाने लगा — हा लक्ष्मण ! अब मैं मारा गया ॥ ३३ ॥

उसके गगन भेदी चीत्कार की ध्वनि को सीता ने सुन लिया। ‘यह तो राम की पुकार है — ऐसा मानकर उन्होंने दुःखी होकर देवर लक्ष्मण से कहा — हे लक्ष्मण ! ऐसा प्रतीत होता है कि वे रघुनन्दन राम आहत हो गये हैं। अतः तुम शीघ्र जाओ । हे सुमित्रानन्दन ! वे तुम्हें पुकार रहे हैं; वहाँ शीघ्र ही पहुँचकर उनकी सहायता करो ॥ ३४-३५ ॥

तब लक्ष्मणजी ने सीता से कहा — हे माता! राम का वध ही क्यों न हो; मैं आपको इस आश्रम में इस समय असहाय छोड़कर वहाँ नहीं जा सकता। हे जनकनन्दिनि ! मुझे राम की आज्ञा है कि तुम इसी आश्रम में रहना । उनकी आज्ञा का उल्लंघन करने में मैं डरता हूँ । अतः आपका सामीप्य नहीं छोड़ सकता। हे शुचिस्मिते! वह मायावी भगवान् श्रीराम को बहुत दूर दौड़ा ले गया है — यह जान करके मैं आपको छोड़कर यहाँ से एक पग भी नहीं जा सकता। आप धैर्य धारण कीजिये। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि इस समय सम्पूर्ण पृथ्वीलोक में श्रीराम को मारने में कोई समर्थ नहीं है। राम के आदेश का उल्लंघन करके तथा आपको यहाँ छोड़कर मैं नहीं जाऊँगा ॥ ३६-३९ ॥

व्यासजी बोले —तत्पश्चात् सुन्दर दाँतोंवाली तथा सौम्य स्वभाववाली सीता ने दैव से प्रेरित होकर शुभ लक्षणसम्पन्न लक्ष्मण से रोते हुए यह कठोर वचन कहा — ॥ ४० ॥

हे सुमित्रातनय ! अब मैं जान गयी कि तुम मेरे प्रति अनुरागयुक्त हो और भरत की प्रेरणा से मेरे प्रयोजन से यहाँ आये हो ॥ ४१ ॥ हे कुहकाधम ! मैं उस तरह की स्वच्छन्द स्त्री नहीं हूँ। मैं राम के मृत हो जानेपर भी सुख के लिये तुम्हें अपना पति कभी नहीं बना सकती ॥ ४२ ॥ यदि राम नहीं लौटेंगे तो मैं अपना प्राण त्याग दूँगी; क्योंकि उनके बिना मैं विधवा होकर अत्यधिक दुःखी जीवन नहीं जी सकती ॥ ४३ ॥ हे लक्ष्मण! तुम जाओ या रहो। मुझे तुम्हारी वास्तविक इच्छा का पता नहीं है। धर्मपरायण ज्येष्ठ भाई के प्रति आपका प्रेम अब कहाँ चला गया ? ॥ ४४ ॥

सीता का वह वचन सुनकर लक्ष्मण के मन में अत्यधिक कष्ट हुआ। रुदन के कारण रुँधे कण्ठ से उन्होंने जनकनन्दिनी सीता से कहा — ॥ ४५ ॥

हे भूमिकन्ये! आप इस प्रकार के अति कठोर वचन मेरे लिये क्यों कह रही हैं ? मेरा मन तो यह कह रहा है कि आपके समक्ष कोई अनिष्टकर परिस्थिति उत्पन्न होने वाली है ॥ ४६ ॥

[ व्यासजी ने कहा —] हे महाराज जनमेजय ! ऐसा कहकर अत्यधिक विलाप करते हुए वीर लक्ष्मण सीता को वहीं छोड़कर चल दिये और अत्यधिक शोकाकुल होकर बड़े भाई राम को चारों ओर देखते हुए आगे की ओर बढ़ते गये ॥ ४७ ॥ इस प्रकार लक्ष्मण के वहाँ से चले जाने पर कपट स्वभाव वाले रावण ने साधु-वेष धारणकर उस आश्रम में प्रवेश किया ॥ ४८ ॥ जानकी उस दुष्टात्मा रावण को संन्यासी समझकर आदरपूर्वक वन्य सामग्रियों का अर्घ्य प्रदान करके भिक्षा देने लगीं ॥ ४९ ॥

तब उस दुरात्मा ने अत्यन्त विनम्र भाव से मधुर वाणी में सीताजी से पूछा — हे पद्मपत्र के समान नेत्रोंवाली प्रिये ! तुम कौन हो और इस वन में अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ ५० ॥ हे वामोरु ! तुम्हारे पिता कौन हैं और तुम्हारे भाई तथा पति कौन हैं ? हे मुग्धे ! हे सुन्दरि ! तुम यहाँ अकेली क्यों रह रही हो ? ॥ ५१ ॥ हे प्रिये ! इस निर्जन वन में क्यों रह रही हो? तुम तो महलों में निवास करने योग्य हो । देवकन्या के समान कान्तिवाली तुम एक मुनिपत्नी की भाँति इस कुटिया में क्यों रह रही हो ? ॥ ५२ ॥

व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] उसका यह वचन सुनकर विदेहतनया सीताजी ने मन्दोदरी के पति रावण को दैववश एक दिव्य संन्यासी समझकर उत्तर दिया ॥ ५३ ॥ दशरथ नामक लक्ष्मीसम्पन्न एक राजा हैं, उनके चार पुत्र हैं। उनमें सबसे बड़े पुत्र जो ‘राम’ नाम से विख्यात हैं, वे ही मेरे पति हैं ॥ ५४ ॥ कैकेयी ने महाराज दशरथ से वरदान माँगकर राम को चौदह वर्ष के लिये वनवास दिला दिया। वे अपने भाई लक्ष्मण के साथ अब यहीं पर रह रहे हैं ॥ ५५ ॥ मैं राजा जनक की पुत्री हूँ तथा ‘सीता’ नाम से विख्यात हूँ । शिवजी का धनुष तोड़कर श्रीराम ने मेरा पाणिग्रहण किया है ॥ ५६ ॥ उन्हीं राम के बाहुबल का आश्रय लेकर मैं निर्भीक होकर इस वन में रहती हूँ। एक स्वर्ण मृग देखकर उसे मारने के लिये मेरे पति गये हुए हैं ॥ ५७ ॥ अपने भाई का शब्द सुनकर लक्ष्मण भी इस समय उधर ही गये हुए हैं। उन्हीं दोनों के बाहुबल से मैं यहाँ निडर होकर रहती हूँ ॥ ५८ ॥ मैंने आपको वनवास-सम्बन्धी अपना सम्पूर्ण वृत्तान्त बता दिया। अब वे लोग यहाँ आकर आपका विधिपूर्वक सत्कार करेंगे ॥ ५९ ॥ संन्यासी विष्णुस्वरूप होता है, इसीलिये मैंने आपकी पूजा की है। राक्षसों के समुदाय द्वारा सेवित इस भयंकर जंगल में यह आश्रम बना हुआ है। इसलिये मैं आपसे यह पूछती हूँ कि त्रिदण्डी के रूप में इस वन में पधारे हुए आप कौन हैं ? आप मेरे समक्ष सत्य कहिये ॥ ६०-६१ ॥

रावण बोला — हे हंसनयने ! मैं मन्दोदरी का पति तथा लंका का नरेश श्रीमान् रावण हूँ। हे सुन्दर आकृतिवाली! तुम्हारे लिये ही मैंने इस प्रकार का वेष बनाया है ॥ ६२ ॥ हे सुन्दरि ! जनस्थान में अपने भाई खर दूषण के मारे जाने का समाचार सुनकर तथा अपनी बहन शूर्पणखा द्वारा प्रेरित किये जाने पर मैं यहाँ आया हूँ ॥ ६३ ॥ अब तुम उस राज्यच्युत, लक्ष्मीहीन, निर्बल, वनवासी तथा मानवयोनि वाले पति को छोड़कर मुझ राजा को स्वीकार कर लो ॥ ६४ ॥ तुम मेरी बात मानकर मन्दोदरी से भी बड़ी पटरानी बन जाओ, मैं सत्य कहता हूँ । हे तन्वंगि! मैं तुम्हारा दास हूँ । हे भामिनि ! तुम मेरी स्वामिनी हो जाओ ॥ ६५ ॥ समस्त लोकपालों पर विजय प्राप्त करने वाला मैं तुम्हारे चरणों पर पड़ता हूँ। हे जनकनन्दिनि ! तुम इस समय मेरा हाथ पकड़ लो और मुझे सनाथ कर दो ॥ ६६ ॥ हे अबले! मैंने पहले भी तुम्हारे पिता जनक से तुम्हें प्राप्त करने के लिये याचना की थी, किंतु उस समय उन्होंने मुझसे यह कहा था कि मैं [धनुषभंग की ] शर्त रख चुका हूँ ॥ ६७ ॥ शंकरजी के धनुष के भय के कारण मैं उस समय स्वयंवर में सम्मिलित नहीं हुआ था। उसी समयसे विरह- वेदना से पीड़ित मेरा मन तुममें ही लगा हुआ है ॥ ६८ ॥ हे श्याम नयनोंवाली ! तुम इस वन में रह रही हो — यह सुनकर तुम्हारे प्रति पूर्व प्रेम के अधीन हुआ मैं यहाँ आया हूँ; अब तुम मेरा परिश्रम सार्थक कर दो ॥ ६९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत तृतीय स्कन्धका ‘रामचरित्रवर्णन’ नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥

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