April 13, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-30 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-त्रिंशोऽध्यायः तीसवाँ अध्याय श्रीराम और लक्ष्मण के पास नारदजी का आना और उन्हें नवरात्रव्रत करने का परामर्श देना, श्रीराम के पूछने पर नारदजी का उनसे देवी की महिमा और नवरात्रव्रत की विधि बतलाना, श्रीराम द्वारा देवी का पूजन और देवी द्वारा उन्हें विजय का वरदान देना रामाय देवीवरदानम् व्यासजी बोले — इस प्रकार राम और लक्ष्मण परस्पर में परामर्श करके ज्यों ही चुप हुए, त्यों ही आकाशमार्ग से देवर्षि नारद वहाँ आ गये ॥ १ ॥ उस समय वे स्वर तथा ग्राम से विभूषित अपनी महती नामक वीणा बजाते हुए तथा बृहद्रथन्तर साम का गायन करते हुए उनके समीप पहुँचे ॥ २ ॥ उन्हें देखते ही अमित तेजवाले श्रीराम ने उठकर उन्हें श्रेष्ठ पवित्र आसन प्रदान किया और तत्पश्चात् अर्घ्य तथा पाद्य से उनकी पूजा की ॥ ३ ॥ भलीभाँति पूजा करने के बाद भगवान् श्रीराम हाथ जोड़कर खड़े हो गये और फिर मुनि के आज्ञा देने पर उनके पास ही बैठ गये ॥ ४ ॥ तब अपने अनुज लक्ष्मण के साथ बैठे हुए खिन्न – मनस्क राम से मुनीन्द्र नारदजी प्रेमपूर्वक कुशलक्षेम पूछने लगे ॥ ५ ॥ नारदजी बोले — हे राघव ! आप इस समय साधारण मनुष्य के समान शोकाकुल क्यों हैं? मैं यह जानता हूँ कि दुष्ट रावण सीता को हर ले गया है। जब मैं देवलोक में था, तभी मैंने वहाँ सुना कि अपनी मृत्यु को न जानने से ही मोह के वशीभूत होकर रावण ने जनकनन्दिनी का हरण कर लिया है ॥ ६-७ ॥ हे काकुत्स्थ ! आपका जन्म ही रावण के निधन के लिये हुआ है। हे नराधिप। इसी कार्यसिद्धि के लिये सीता का हरण हुआ है ॥ ८ ॥ पूर्वजन्म में ये वैदेही एक मुनि की तपस्विनी कन्या थीं। उस पवित्र मुसकानवाली कन्या को रावण ने वन में तप करते हुए देखा । हे राघव ! तब रावण ने उससे प्रार्थना की कि तुम मेरी पत्नी बन जाओ। इसपर उसके द्वारा तिरस्कृत किये गये रावण ने बलपूर्वक उसके केश पकड़ लिये ॥ ९-१० ॥ हे राम ! रावण के स्पर्श से दूषित अपनी देह को त्यागने की आकांक्षा रखती हुई उस तापसी मुनिकन्या ने अत्यन्त कुपित होकर उसे तत्काल यह घोर शाप दे दिया कि हे दुरात्मन्! तुम्हारे विनाश के लिये मैं भूतल पर गर्भ से जन्म न लेकर एक श्रेष्ठ स्त्री के रूप में प्रकट होऊँगी — ऐसा कहकर उस तापसी ने अपना शरीर त्याग दिया ॥ ११-१२ ॥ लक्ष्मी के अंश से उत्पन्न यह सीता वही है; जिसे भ्रमवश माला समझकर नागिन को धारण करनेवाले व्यक्ति की भाँति रावण ने अपने ही वंश का नाश करने के लिये हर लिया है ॥ १३ ॥ हे काकुत्स्थ! आपका भी जन्म उसी रावण के नाश के लिये देवताओं के प्रार्थना करने पर अनादि भगवान् विष्णु के अंश से अजवंश में हुआ है ॥ १४ ॥ हे महाबाहो ! आप धैर्य धारण करें; वे किसी दूसरे के वश में नहीं हो सकतीं। वे सतीधर्मपरायण सीता लंका में दिन-रात आपका ध्यान करती हुई रह रही हैं ॥ १५ ॥ स्वयं इन्द्र ने एक पात्र में कामधेनु का दूध सीता को पीने के लिये भेजा था, उस अमृततुल्य दूध को उन्होंने पी लिया है। वे कामधेनु के दुग्धपान से भूख-प्यास के दुःख से रहित हो गयी हैं। मैंने उन कमलनयनी को स्वयं देखा है ॥ १६-१७ ॥ हे राघवेन्द्र ! मैं उस रावण के नाश का उपाय बताता हूँ। अब आप इसी आश्विनमास में श्रद्धापूर्वक नवरात्रव्रत कीजिये ॥ १८ ॥ हे राम ! नवरात्र में उपवास तथा जप- होम के विधान से किया गया भगवती-पूजन समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाला है । देवी को पवित्र बलि देकर तथा दशांश हवन करके आप पूर्ण शक्तिशाली बन जायँगे ॥ १९-२० ॥ पूर्वकाल में भगवान् विष्णु, शिव, ब्रह्मा तथा स्वर्ग- लोक में विराजमान इन्द्र ने भी इसका अनुष्ठान किया था ॥ २१ ॥ हे राम ! सुखी मनुष्य को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिये और कष्ट में पड़े हुए मनुष्य को तो यह व्रत विशेषरूप से करना चाहिये ॥ २२ ॥ हे काकुत्स्थ ! विश्वामित्र, भृगु, वसिष्ठ और कश्यप तथा देवगुरु बृहस्पति भी इस व्रत को कर चुके हैं; इसमें सन्देह नहीं है। इसलिये हे राजेन्द्र ! रावण के वध तथा सीता की प्राप्ति के लिये आप इस व्रत को कीजिये । पूर्वकाल में इन्द्र ने वृत्रासुर के वध के लिये तथा शिव ने त्रिपुरदैत्य के वध के लिये यह सर्वश्रेष्ठ व्रत किया था। हे महामते ! इसी प्रकार भगवान् विष्णु ने भी मधुदैत्य के वध के लिये सुमेरुपर्वत पर यह व्रत किया था, अतः हे काकुत्स्थ ! आप भी आलस्यरहित होकर विधिपूर्वक यह व्रत कीजिये ॥ २३-२६ ॥ श्रीराम बोले — हे दयानिधे! आप सर्वज्ञ हैं, अतः मुझे विधिपूर्वक बताइये कि वे कौन देवी हैं, उनका प्रभाव क्या है, वे कहाँ से उत्पन्न हुई हैं, उनका नाम क्या है तथा वह व्रत कौन-सा है ? ॥ २७ ॥ नारदजी बोले — हे राम ! सुनिये – वे देवी नित्य, सनातनी और आद्याशक्ति हैं, वे सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर देती हैं और अपनी आराधना से सभी प्रकार के कष्ट दूर कर देती हैं ॥ २८ ॥ हे रघुनन्दन ! वे ब्रह्मा आदि देवताओं तथा समस्त जीवों की कारणस्वरूपा हैं। उनसे शक्ति पाये बिना कोई हिल-डुल सकने में भी समर्थ नहीं है ॥ २९ ॥ वे ही मेरे पिता ब्रह्मा की सृष्टि शक्ति हैं, विष्णु की पालन-शक्ति हैं तथा शंकर की संहार – शक्ति हैं। वे कल्याणमयी पराम्बा अन्य शक्तिरूपा भी हैं ॥ ३० ॥ इन तीनों लोकों में जो कुछ भी कहीं भी सत् या असत् पदार्थ है, उसकी उत्पत्ति में निमित्तकारण इस देवी के अतिरिक्त और कौन हो सकता है ? ॥ ३१ ॥ इस सृष्टि के आरम्भ में जब ब्रह्मा, विष्णु, शिव, सूर्य, इन्द्रादि देवता, पृथ्वी और पर्वत आदि कुछ भी नहीं रहता, तब उस समय वे निर्गुणा, कल्याणमयी, परा प्रकृति ही परमपुरुष के साथ विहार करती हैं ॥ ३२-३३ ॥ वे ही बाद में सगुणा शक्ति बनकर सर्वप्रथम ब्रह्मा आदि का सृजन करके और उन्हें शक्तियाँ प्रदानकर तीनों भुवनों की सम्यक् रचना करती हैं ॥ ३४ ॥ उन आदिशक्ति को जानकर प्राणी संसारबन्धन से मुक्त हो जाता है। विद्यास्वरूपा, वेदों की आदिकारण, वेदों को प्रकट करने वाली तथा परमा उन भगवती को अवश्य जानना चाहिये ॥ ३५ ॥ ब्रह्मादि देवताओं ने गुण-कर्म के विधानानुसार उनके असंख्य नाम कल्पित किये हैं, मैं कहाँ तक बताऊँ ? हे रघुनन्दन ! ‘अ’ कार से लेकर ‘क्ष’ पर्यन्त सभी स्वरों तथा वर्णों के संयोग से उनके असंख्य नाम बनते हैं ॥ ३६-३७ ॥ श्रीराम बोले — हे देवर्षे ! इस नवरात्रव्रत का विधान मुझे संक्षेप में बताइये; मैं आज ही श्रद्धापूर्वक श्रीदेवी का विधिवत् पूजन करूँगा ॥ ३८ ॥ नारदजी बोले — हे राम! किसी समतल भूमि पर पीठासन बनाकर उसपर भगवती जगदम्बिका की स्थापना करके विधानपूर्वक नौ दिन उपवास कीजिये। हे राजन् ! इस कार्य में मैं आचार्य बनूँगा; क्योंकि देवताओं के कार्य करने में मैं अधिक उत्साह रखता हूँ ॥ ३९-४० ॥ व्यासजी बोले — नारदजी का वचन सुनकर प्रतापी श्रीराम ने उसे सत्य मानकर तदनुसार एक सुन्दर पीठासन बनवाकर उसपर अम्बिका की स्थापना की। व्रतधारी भगवान् श्रीराम ने आश्विनमास लगने पर उस श्रेष्ठ पर्वत पर उन भगवती का पूजन किया। उपवासपरायण श्रीराम ने यह श्रेष्ठ व्रत करते हुए विधिवत् होम, बलिदान और पूजन किया। इस प्रकार दोनों भाइयों ने नारदजी के द्वारा बताये गये इस व्रत को प्रेमपूर्वक सम्पन्न किया। उनसे सम्यक् पूजित होकर अष्टमी की मध्यरात्रि की वेला में भगवती दुर्गा ने सिंहपर सवार होकर उन्हें साक्षात् दर्शन दिया । तदनन्तर भक्तिभाव से प्रसन्न उन भगवती ने पर्वत के शिखर पर स्थित होकर लक्ष्मणसहित राम से मेघ के समान गम्भीर वाणी में कहा ॥ ४१–४५१/२ ॥ देवी बोलीं — हे राम! हे महाबाहो ! इस समय मैं आपके व्रत से सन्तुष्ट हूँ । आपके मन में जो भी हो, उस अभिलषित वर को माँग लीजिये । आप पवित्र मनुवंश में नारायण के अंश से उत्पन्न हुए हैं । हे राम ! देवताओं के प्रार्थना करने पर रावण के वध के लिये आप अवतरित हुए हैं । पूर्वकाल में मत्स्यरूप धारणकर भयानक राक्षस का वध करके देवताओं के हित की इच्छावाले आपने ही वेदों की रक्षा की थी । पुनः कच्छप के रूप में अवतार लेकर मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया, जिससे समुद्र का मन्थन करके [ अमृतपान कराकर ] देवताओं का पोषण किया था । हे राम ! आपने वराह का रूप धारणकर अपने दाँतों की नोंक पर पृथ्वी को रख लिया और हिरण्याक्ष का वध किया था। हे राघव ! हे राम ! पूर्वकाल में नरसिंह का रूप धारणकर प्रह्लाद की रक्षा करके आपने हिरण्यकशिपु का वध किया था। इसी प्रकार पूर्वकाल में वामन का रूप धारण करके आपने बलि को छला था। उस समय इन्द्र का लघु भ्राता बनकर आपने देवताओं का महान् कार्य सिद्ध किया था। पुनः भगवान् विष्णु के अंश से जमदग्नि के पुत्र परशुराम के रूप में अवतरित होकर क्षत्रियों का अन्त करके आपने सारी पृथ्वी ब्राह्मणों को दे दी थी। उसी प्रकार हे काकुत्स्थ ! रावण के द्वारा अत्यधिक सताये गये सभी देवताओं के प्रार्थना करने पर इस समय आप ही दशरथपुत्र श्रीराम के रूप में अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४६-५४१/२ ॥ हे नरोत्तम! देवताओं के अंश से उत्पन्न ये परम बलशाली वानर मेरी शक्ति से सम्पन्न होकर आपके सहायक होंगे। शेषनाग के अंशस्वरूप आपके ये अनुज लक्ष्मण रावण के पुत्र मेघनाद का वध करने वाले होंगे। हे अनघ ! इस विषय में आपको सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ५५-५६१/२ ॥ वसन्त ऋतु के नवरात्र में आप परम श्रद्धा के साथ [पुन: ] मेरी पूजा कीजिये । तत्पश्चात् पापी रावण का वध करके आप सुखपूर्वक राज्य कीजिये। हे रघुश्रेष्ठ ! इस प्रकार ग्यारह हजार वर्षों तक भूतल पर राज्य करके पुनः आप देवलोक के लिये प्रस्थान करेंगे ॥ ५७-५८१/२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर भगवती दुर्गा वहीं अन्तर्धान हो गयीं और श्रीरामचन्द्रजी ने प्रसन्न मन से उस व्रत का समापन करके दशमी तिथि को विजयापूजन करके तथा अनेकविध दान देकर वहाँ से प्रस्थान कर दिया ॥ ५९-६० ॥ वानरराज सुग्रीव की सेना के साथ अपने अनुजसहित विख्यात यशवाले तथा पूर्णकाम लक्ष्मीपति श्रीराम साक्षात् परमा शक्ति की प्रेरणा से समुद्रतटपर पहुँचे। वहाँ सेतु- बन्धन करके उन्होंने देवशत्रु रावण का संहार किया ॥ ६१ ॥ जो मनुष्य भक्तिपूर्वक देवी के उत्तम चरित्र का श्रवण करता है, वह अनेक सुखों का उपभोग करके परमपद प्राप्त कर लेता है ॥ ६२ ॥ यद्यपि अन्य बहुत से विस्तृत पुराण हैं, किंतु वे इस श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण के तुल्य नहीं हैं, ऐसी मेरी धारणा है ॥ ६३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत तृतीय स्कन्धका ‘रामके प्रति देवीका वरदान’ नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥ श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण तृतीयः स्कन्धः त्रिंशोऽध्यायः रामाय देवीवरदानम् ॥ व्यास उवाच ॥ एवं तौ संविदं कृत्वा यावत्तूष्णीं बभूवतुः । आजगाम तदाऽऽकाशान्नारदो भगवानृषिः ॥ १ ॥ रणयन्महतीं वीणां स्वरग्रामविभूषिताम् । गायन्बृहद्रथं साम तदा तमुपतस्थिवान् ॥ २ ॥ दृष्ट्वा तं राम उत्थाय ददावथ वृषं शुभम् । आसनं चार्घ्यपाद्यञ्च कृतवानमितद्युतिः ॥ ३ ॥ पूजां परमिकां कृत्वा कृताञ्जलिरुपस्थितः । उपविष्टः समीपे तु कृताज्ञो मुनिना हरिः ॥ ४ ॥ उपविष्टं तदा रामं सानुजं दुःखमानसम् । पप्रच्छ नारदः प्रीत्या कुशलं मुनिसत्तमः ॥ ५ ॥ कथं राघव शोकार्तो यथा वै प्राकृतो नरः । हृतां सीतां च जानामि रावणेन दुरात्मना ॥ ६ ॥ सुरसद्मगतश्चाहं श्रुतवाञ्जनकात्मजाम् । पौलस्त्येन हृतां मोहान्मरणं स्वमजानता ॥ ७ ॥ तव जन्म च काकुत्स्थ पौलस्त्यनिधनाय वै । मैथिलीहरणं जातमेतदर्थं नराधिप ॥ ८ ॥ पूर्वजन्मनि वैदेही मुनिपुत्री तपस्विनी । रावणेन वने दृष्टा तपस्यन्ती शुचिस्मिता ॥ ९ ॥ प्रार्थिता रावणेनासौ भव भार्येति राघव । तिरस्कृतस्तयाऽसौ वै जग्राह कबरं बलात् ॥ १० ॥ शशाप तत्क्षणं राम रावणं तापसी भृशम् । कुपिता त्यक्तुमिच्छन्ती देहं संस्पर्शदूषितम् ॥ ११ ॥ दुरात्मंस्तव नाशार्थं भविष्यामि धरातले । अयोनिजा वरा नारी त्यक्त्वा देहं जहावपि ॥ १२ ॥ सेयं रमांशसम्भूता गृहीता तेन रक्षसा । विनाशार्थं कुलस्यैव व्याली स्रगिव सम्भ्रमात् ॥ १३ ॥ तव जन्म च काकुत्स्थ तस्य नाशाय चामरैः । प्रार्थितस्य हरेरंशादजवंशेऽप्यजन्मनः ॥ १४ ॥ कुरु धैर्यं महाबाहो तत्र सा वर्ततेऽवशा । सती धर्मरता सीता त्वां ध्यायन्ती दिवानिशम् ॥ १५ ॥ कामधेनुपयः पात्रे कृत्वा मघवता स्वयम् । पानार्थं प्रेषितं तस्याः पीतं चैवामृतं यथा ॥ १६ ॥ सुरभीदुग्धपानात्सा क्षुत्तुड्दुःखविवर्जिता । जाता कमलपत्राक्षी वर्तते वीक्षिता मया ॥ १७ ॥ उपायं कथयाम्यद्य तस्य नाशाय राघव । व्रतं कुरुष्व श्रद्धावानाश्विने मासि साम्प्रतम् ॥ १८ ॥ नवरात्रोपवासञ्च भगवत्याः प्रपूजनम् । सर्वसिद्धिकरं राम जपहोमविधानतः ॥ १९ ॥ मेघ्यैश्च पशुभिर्देव्या बलिं दत्त्वा विशंसितैः । दशांशं हवनं कृत्वा सशक्तस्त्वं भविष्यसि ॥ २० ॥ विष्णुना चरितं पूर्वं महादेवेन ब्रह्मणा । तथा मघवता चीर्णं स्वर्गमध्यस्थितेन वै ॥ २१ ॥ सुखिना राम कर्तव्यं नवरात्रव्रतं शुभम् । विशेषेण च कर्तव्यं पुंसा कष्टगतेन वै ॥ २२ ॥ विश्वामित्रेण काकुत्स्थ कृतमेतन्न संशयः । भृगुणाऽथ वसिष्ठेन कश्यपेन तथैव च ॥ २३ ॥ गुरुणा हृतदारेण कृतमेतन्महाव्रतम् । तस्मात्त्वं कुरु राजेन्द्र रावणस्य वधाय च ॥ २४ ॥ इन्द्रेण वृत्रनाशाय कृतं व्रतमनुत्तमम् । त्रिपुरस्य विनाशाय शिवेनापि पुरा कृतम् ॥ २५ ॥ हरिणा मधुनाशाय कृतं मेरौ महामते । विधिवत्कुरु काकुत्स्थ व्रतमेतदतन्द्रितः ॥ २६ ॥ ॥ श्रीराम उवाच ॥ का देवी किं प्रभावा सा कुतो जाता किमाह्वया । व्रतं किं विधिवद्ब्रूहि सर्वज्ञोऽसि दयानिधे ॥ २७ ॥ ॥ नारद उवाच ॥ शृणु राम सदा नित्या शक्तिराद्या सनातनी । सर्वकामप्रदा देवी पूजिता दुःखनाशिनी ॥ २८ ॥ कारणं सर्वजन्तूनां ब्रह्मादीनां रघूद्वह । तस्याः शक्तिं विना कोऽपि स्पन्दितुं न क्षमो भवेत् ॥ २९ ॥ विष्णोः पालनशक्तिः सा कर्तृशक्तिः पितुर्मम । रुद्रस्य नाशशक्तिः सा त्वन्याशक्तिः परा शिवा ॥ ३० ॥ यच्च किञ्चित्क्वचिद्वस्तु सदसद्भुवनत्रये । तस्य सर्वस्य या शक्तिस्तदुत्पत्तिः कुतो भवेत् ॥ ३१ ॥ न ब्रह्मा न यदा विष्णुर्न रुद्रो न दिवाकरः । न चेन्द्राद्याः सुराः सर्वे न धरा न धराधराः ॥ ३२ ॥ तदा सा प्रकृतिः पूर्णा पुरुषेण परेण वै । संयुता विहरत्येव युगादौ निर्गुणा शिवा ॥ ३३ ॥ सा भूत्वा सगुणा पश्चात्करोति भुवनत्रयम् । पूर्वं संसृज्य ब्रह्मादीन्दत्त्वा शक्तीश्च सर्वशः ॥ ३४ ॥ तां ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् । सा विद्या परमा ज्ञेया वेदाद्या वेदकारिणी ॥ ३५ ॥ असंख्यातानि नामानि तस्या ब्रह्मादिभिः किल । गुणकर्मविधानैस्तु कल्पितानि च किं ब्रुवे ॥ ३६ ॥ अकारादिक्षकारान्तैः स्वरैर्वर्णैस्तु योजितैः । असंख्येयानि नामानि भवन्ति रघुनन्दन ॥ ३७ ॥ ॥ राम उवाच ॥ विधिं मे ब्रूहि विप्रर्षे व्रतस्यास्य समासतः । करोम्यद्यैव श्रद्धावाञ्छ्रीदेव्याः पूजनं तथा ॥ ३८ ॥ ॥ नारद उवाच ॥ पीठं कृत्वा समे स्थाने संस्थाप्य जगदम्बिकाम् । उपवासान्नवैव त्वं कुरु राम विधानतः ॥ ३९ ॥ आचार्योऽहं भविष्यामि कर्मण्यस्मिन्महीपते । देवकार्यविधानार्थमुत्साहं प्रकरोम्यहम् ॥ ४० ॥ ॥ व्यास उवाच ॥ तच्छ्रुत्वा वचनं सत्यं मत्वा रामः प्रतापवान् । कारयित्वा शुभं पीठं स्थापयित्वाम्बिकां शिवाम् ॥ ४१ ॥ विधिवत्पूजनं तस्याश्चकार व्रतवान् हरिः । सम्प्राप्ते चाश्विने मासि तस्मिन्गिरिवरे तदा ॥ ४२ ॥ उपवासपरो रामः कृतवान्व्रतमुत्तमम् । होमञ्च विधिवत्तत्र बलिदानञ्च पूजनम् ॥ ४३ ॥ भ्रातरौ चक्रतुः प्रेम्णा व्रतं नारदसम्मतम् । अष्टम्यां मध्यरात्रे तु देवी भगवती हि सा ॥ ४४ ॥ सिंहारूढा ददौ तत्र दर्शनं प्रतिपूजिता । गिरिशृङ्गे स्थितोवाच राघवं सानुजं गिरा ॥ ४५ ॥ मेघगम्भीरया चेदं भक्तिभावेन तोषिता । ॥ देव्युवाच ॥ राम राम महाबाहो तुष्टाऽस्म्यद्म व्रतेन ते ॥ ४६ ॥ प्रार्थयस्व वरं कामं यत्ते मनसि वर्तते । नारायणांशसम्भूतस्त्वं वंशे मानवेऽनघे ॥ ४७ ॥ रावणस्य वधायैव प्रार्थितस्त्वमरैरसि । पुरा मत्स्यतनुं कृत्वा हत्वा घोरञ्च राक्षसम् ॥ ४८ ॥ त्वया वै रक्षिता वेदाः सुराणां हितमिच्छता । भूत्वा कच्छपरूपस्तु धृतवान्मन्दरं गिरिम् ॥ ४९ ॥ अकूपारं प्रमन्थानं कृत्वा देवानपोषयः । कोलरूपं परं कृत्वा दशनाग्रेण मेदिनीम् ॥ ५० ॥ धृतवानसि यद्राम हिरण्याक्षं जघान च । नारसिंहीं तनुं कृत्वा हिरण्यकशिपुं पुरा ॥ ५१ ॥ प्रह्लादं राम रक्षित्वा हतवानसि राघव । वामनं वपुरास्थाय पुरा छलितवान्बलिम् ॥ ५२ ॥ भूत्वेन्द्रस्यानुजः कामं देवकार्यप्रसाधकः । जमदग्निसुतस्त्वं मे विष्णोरंशेन सङ्गतः ॥ ५३ ॥ कृत्वान्तं क्षत्रियाणां तु दानं भूमेरदाद्द्विजे । तथेदानीं तु काकुत्स्थ जातो दशरथात्मज ॥ ५४ ॥ प्रार्थितस्तु सुरैः सर्वै रावणेनातिपीडितैः । कपयस्ते सहाया वै देवांशा बलवत्तराः ॥ ५५ ॥ भविष्यन्ति नरव्याघ्र मच्छक्तिसंयुता ह्यमी । शेषांशोऽप्यनुजस्तेऽयं रावणात्मजनाशकः ॥ ५६ ॥ भविष्यति न सन्देहः कर्तव्योऽत्र त्वयाऽनघ । वसन्ते सेवनं कार्यं त्वया तत्रातिश्रद्धया ॥ ५७ ॥ हत्वाऽथ रावणं पापं कुरु राज्यं यथासुखम् । एकादश सहस्राणि वर्षाणि पृथिवीतले ॥ ५८ ॥ कृत्वा राज्यं रघुश्रेष्ठ गन्ताऽसि त्रिदिवं पुनः । ॥ व्यास उवाच ॥ इत्युक्त्वान्तर्दधे देवी रामस्तु प्रीतमानसः ॥ ५९ ॥ समाप्य तद्व्रतं चक्रे प्रयाणं दशमीदिने । विजयापूजनं कृत्वा दत्त्वा दानान्यनेकशः ॥ ६० ॥ कपिपतिबलयुक्तः सानुजः श्रीपतिश्च प्रकटपरमशक्त्या प्रेरितः पूर्णकामः । उदधितटगतोऽसौ सेतुबन्धं विधाया- प्यहनदमरशत्रुं रावणं गीतकीर्तिः ॥ ६१ ॥ यः शृणोति नरो भक्त्या देव्याश्चरितमुत्तमम् । स भुक्त्वा विपुलान्भोगान्प्राप्नोति परमं पदम् ॥ ६२ ॥ सन्त्यन्यानि पुराणानि विस्तराणि बहूनि च । श्रीमद्भागवतस्यास्य न तुल्यानीति मे मतिः ॥ ६३ ॥ ॥ इति श्रीदेवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे रामाय देवीवरदानं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥ ॥ तृतीयस्कन्ध समाप्तः ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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