April 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-03 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय वसुदेव और देवकी के पूर्वजन्म की कथा दित्या अदित्यै शापदानम् व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] भगवान् विष्णु के विभिन्न अवतार ग्रहण करने तथा इसी प्रकार सभी देवताओं के भी अंशावतार ग्रहण करने के बहुत से कारण हैं ॥ १ ॥ अब वसुदेव, देवकी तथा रोहिणी के अवतारों का कारण यथार्थ रूप से सुनिये ॥ २ ॥ एक बार महर्षि कश्यप यज्ञकार्य के लिये वरुणदेव की गौ ले आये । [ यज्ञ-कार्य की समाप्ति के पश्चात् ] वरुणदेव के बहुत याचना करने पर भी उन्होंने वह उत्तम धेनु वापस नहीं दी ॥ ३ ॥ तत्पश्चात् उदास मनवाले वरुणदेव ने जगत् के स्वामी ब्रह्मा के पास जाकर उन्हें प्रणाम करके विनम्रतापूर्वक उनसे अपना दुःख कहा ॥ ४ ॥ हे महाभाग ! मैं क्या करूँ ? वह अभिमानी कश्यप मेरी गाय नहीं लौटा रहा है। अतएव मैंने उसे शाप दे दिया कि मानवयोनि में जन्म लेकर तुम गोपालक हो जाओ और तुम्हारी दोनों भार्याएँ भी मानवयोनि में उत्पन्न होकर अत्यधिक दुःखी रहें। मेरी गाय के बछड़े माता से वियुक्त होकर अति दुःखित हैं और रो रहे हैं, अतएव पृथ्वीलोक में जन्म लेने पर यह अदिति भी मृतवत्सा होगी। इसे कारागार में रहना पड़ेगा, उससे भी उसे महान् कष्ट भोगना होगा ॥ ५–७ ॥ व्यासजी बोले — जल-जन्तुओं के स्वामी वरुण का यह वचन सुनकर प्रजापति ब्रह्मा ने मुनि कश्यप को वहाँ बुलाकर उनसे कहा — हे महाभाग ! आपने लोकपाल वरुण की गायों का हरण क्यों किया; और फिर आपने उन्हें लौटाया भी नहीं । आप ऐसा अन्याय क्यों कर रहे हैं ? ॥ ८-९ ॥ हे महाभाग ! न्याय को जानते हुए भी आपने दूसरे के धन का हरण किया । हे महामते ! आप तो सर्वज्ञ हैं; तो फिर आपने यह अन्याय क्यों किया ? ॥ १० ॥ अहो ! लोभ की ऐसी महिमा है कि वह महान्-से- महान् लोगों को भी नहीं छोड़ता है। लोभ तो निश्चय ही पापों की खान, नरक की प्राप्ति कराने वाला और सर्वथा अनुचित है ॥ ११ ॥ महर्षि कश्यप भी उस लोभ का परित्याग कर सकने में समर्थ नहीं हुए तो मैं क्या कर सकता हूँ । अन्ततः मैंने यही निष्कर्ष निकाला कि लोभ सदा से सबसे प्रबल है ॥ १२ ॥ शान्त स्वभाव वाले, प्रतिग्रह से पराङ्मुख तथा इन्द्रियजित वानप्रस्थ आश्रम स्वीकार किये हुए वे मुनिलोग धन्य हैं, जिन्होंने लोभ पर विजय प्राप्त कर ली है ॥ १३ ॥ संसार में लोभ से बढ़कर अपवित्र अन्य कोई चीज नहीं है; यह सबसे बलवान् शत्रु है। महर्षि कश्यप भी इस नीच लोभ से स्नेह करने के कारण दुराचार में लिप्त हो गये ॥ १४ ॥ अतएव मर्यादा की रक्षा के लिये ब्रह्माजी ने भी अपने परमप्रिय पौत्र मुनिश्रेष्ठ कश्यप को शाप दे दिया कि तुम अपने अंश से पृथ्वी पर यदुवंश में जन्म लेकर वहाँ अपनी दोनों पत्नियों के साथ गोपालन का कार्य करोगे ॥ १५-१६ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार अंशावतार लेने तथा पृथ्वी का बोझ उतारने के लिये वरुणदेव तथा ब्रह्माजी ने उन महर्षि कश्यप को शाप दे दिया था ॥ १७ ॥ उधर कश्यप की भार्या दिति ने भी अत्यधिक शोकसन्तप्त होकर अदिति को शाप दे दिया कि क्रम से तुम्हारे सातों पुत्र उत्पन्न होते ही मृत्यु को प्राप्त हो जायँ ॥ १८ ॥ जनमेजय बोले — हे मुने! दिति के द्वारा उसकी अपनी बहन तथा इन्द्र की माता अदिति क्यों शापित की गयी? हे मुनिवर ! आप दिति के शोक तथा उसके द्वारा प्रदत्त शाप का कारण मुझे बताइये ॥ १९ ॥ सूतजी बोले — परीक्षित्-पुत्र राजा जनमेजय के पूछने पर सत्यवती-पुत्र व्यासजी पूर्ण सावधान होकर राजा को शाप का कारण बतलाने लगे ॥ २० ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! दक्षप्रजापति की दिति और अदिति नामक दो सुन्दर कन्याएँ थीं। दोनों ही कश्यपमुनि की प्रिय तथा गौरवशालिनी पत्नियाँ बनीं ॥ २१ ॥ जब अदिति अत्यन्त तेजस्वी पुत्र इन्द्र हुए, तब वैसे ही ओजस्वी पुत्र के लिये दिति के भी मन में इच्छा जाग्रत् हुई ॥ २२ ॥ उस समय सुन्दरी दिति ने कश्यपजी से प्रार्थना की — हे मानद ! इन्द्र के ही समान बलशाली, वीर, धर्मात्मा तथा परम शक्तिसम्पन्न पुत्र मुझे भी देने की कृपा करें ॥ २३ ॥ तब मुनि कश्यप ने उनसे कहा — प्रिये ! धैर्य धारण करो, मेरे द्वारा बताये गये व्रत को पूर्ण करने के अनन्तर इन्द्र के समान पुत्र तुम्हें अवश्य प्राप्त होगा ॥ २४ ॥ कश्यपमुनि की बात स्वीकार करके दिति उस उत्तम व्रत के पालन में तत्पर हो गयी। उनके ओज से सुन्दर गर्भ धारण करती हुई वह सुन्दरी दिति पयोव्रत में स्थित रहकर भूमि पर सोती थी और पवित्रता का सदा ध्यान रखती थी। इस प्रकार क्रमशः जब वह महान् तेजस्वी गर्भ पूर्ण हो गया, तब शुभ्र ज्योतियुक्त तथा दीप्तिमान् अंगों वाली दिति को देखकर अदिति दुःखित हुई ॥ २५-२७ ॥ [ उसने अपने मन में सोचा — ] यदि दिति के गर्भ से इन्द्रतुल्य महाबली पुत्र उत्पन्न होगा तो निश्चय ही मेरा पुत्र निस्तेज हो जायगा ॥ २८ ॥ इस प्रकार चिन्ता करती हुई मानिनी अदिति ने अपने पुत्र इन्द्र से कहा — प्रिय पुत्र ! इस समय दिति के गर्भ में तुम्हारा अत्यन्त पराक्रमशाली शत्रु विद्यमान है। हे शोभन ! तुम सम्यक् विचार करके उस शत्रु के नाश का प्रयत्न करो, जिससे दिति का गर्भस्थ शिशु नष्ट हो जाय ॥ २९-३० ॥ मुझसे सपत्नीभाव रखने वाली उस सुन्दरी दिति को देखकर सुख का नाश कर देने वाली चिन्ता मेरे मन को सताने लगती है ॥ ३१ ॥ जब शत्रु बढ़ जाता है तब राजयक्ष्मा रोग की भाँति वह नष्ट नहीं हो पाता है। इसलिये बुद्धिमान् मनुष्य का कर्तव्य है कि वह ऐसे शत्रु को अंकुरित होते ही नष्ट कर डाले ॥ ३२ ॥ हे देवेन्द्र ! दिति का वह गर्भ मेरे हृदय में लोहे की कील के समान चुभ रहा है, अतः जिस किसी भी उपाय से तुम उसे नष्ट कर दो। हे महाभाग ! यदि तुम मेरा हित करना चाहते हो तो साम, दान आदि के बल से दिति के गर्भस्थ शिशु का संहार कर डालो ॥ ३३-३४ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! तब अपनी माता की वाणी सुनकर देवराज इन्द्र मन-ही-मन उपाय सोचकर अपनी विमाता दिति के पास गये। उस पापबुद्धि इन्द्र ने विनयपूर्वक दिति के चरणों में प्रणाम किया और ऊपर से मधुर किंतु भीतर से विषभरी वाणी में विनम्रतापूर्वक उससे कहा — ॥ ३५-३६ ॥ इन्द्र बोले — हे माता! आप व्रतपरायण हैं, और अत्यन्त दुर्बल तथा कृशकाय हो गयी हैं। अतः मैं आपकी सेवा करने के लिये आया हूँ। मुझे बताइये, मैं क्या करूँ ? हे पतिव्रते ! मैं आपके चरण दबाऊँगा; क्योंकि बड़ों की सेवासे मनुष्य अक्षय गति प्राप्त कर लेता है ॥ ३७-३८ ॥ मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि मेरे लिये माता अदिति तथा आपमें कुछ भी भेद नहीं है। ऐसा कहकर इन्द्र उनके दोनों चरण पकड़कर दबाने लगे ॥ ३९ ॥ पादसंवाहन का सुख पाकर सुन्दर नेत्रोंवाली उस दिति को नींद आने लगी। वह परम सती दिति थकी हुई थी, व्रत के कारण दुर्बल हो गयी थी और उसे इन्द्र पर विश्वास था, अतः वह सो गयी ॥ ४० ॥ दिति को नींद के वशीभूत देखकर इन्द्र अपना अत्यन्त सूक्ष्म रूप बनाकर हाथ में शस्त्र लेकर बड़ी सावधानी के साथ दिति के शरीर में प्रवेश कर गये ॥ ४१ ॥ इस प्रकार योगबल द्वारा दिति के उदर में शीघ्र ही प्रविष्ट होकर इन्द्र ने वज्र से उस गर्भ के सात टुकड़े कर डाले ॥ ४२ ॥ उस समय वज्राघात से दुःखित हो गर्भस्थ शिशु रुदन करने लगा। तब धीरे से इन्द्र ने उससे ‘मा रुद’ ‘मत रोओ’ – ऐसा कहा ॥ ४३ ॥ तत्पश्चात् इन्द्र ने पुनः उन सातों टुकड़ों के सात-सात खण्ड कर डाले। हे राजन् ! वे ही टुकड़े उनचास मरुद्गण के रूप में प्रकट हो गये ॥ ४४ ॥ उस छली इन्द्र द्वारा अपने गर्भ को वैसा ( विकृत) किया गया जानकर सुन्दर दाँतोंवाली वह दिति जाग गयी और अत्यन्त दुःखी होकर क्रोध करने लगी ॥ ४५ ॥ यह सब बहन अदिति द्वारा किया गया है — ऐसा जानकर सत्यव्रतपरायण दिति ने कुपित होकर अदिति और इन्द्र दोनों को शाप दे दिया कि जिस प्रकार तुम्हारे पुत्र इन्द्र ने छलपूर्वक मेरा गर्भ छिन्न-भिन्न कर डाला है, उसी प्रकार उसका त्रिभुवन का राज्य शीघ्र ही नष्ट हो जाय। जिस प्रकार पापिनी अदिति ने गुप्त पाप के द्वारा मेरा गर्भ गिराया है और मेरे गर्भ को नष्ट करवा डाला है, उसी प्रकार उसके पुत्र भी क्रमशः उत्पन्न होते ही नष्ट हो जायँगे और वह पुत्र शोक से अत्यन्त चिन्तित होकर कारागार में रहेगी। अन्य जन्म में भी इसकी सन्तानें मर जाया करेंगी ॥ ४६–४९१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार मरीचिपुत्र कश्यप ने दिति प्रदत्त शाप को सुनकर उसे सान्त्वना देते हुए प्रेमपूर्वक यह वचन कहा — हे कल्याणि ! तुम क्रोध मत करो, तुम्हारे पुत्र बड़े बलवान् होंगे। वे सब उनचास मरुद् देवता होंगे, जो इन्द्र के मित्र बनेंगे। हे सुन्दरि ! अट्ठाईसवें द्वापरयुग में तुम्हारा शाप सफल होगा। उस समय अदिति मनुष्ययोनि में जन्म लेकर अपने किये कर्म का फल भोगेगी। इसी प्रकार दु:खित वरुण ने भी उसे शाप दिया है। इन दोनों शापों के संयोग से यह अदिति मनुष्ययोनि में उत्पन्न होगी ॥ ५० – ५३१ / २३ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार पति कश्यप के आश्वासन देने पर दिति सन्तुष्ट हो गयी ॥ ५४ ॥ और वह पुनः कोई अप्रिय वाणी नहीं बोली। हे राजन् ! इस प्रकार मैंने आपको अदिति के पूर्व शाप का कारण बताया। हे नृपश्रेष्ठ ! वही अदिति अपने अंश से देवकी के रूप में उत्पन्न हुई ॥ ५५-५६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘दिति द्वारा अदिति को शापदान’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ Content is available only for registered users. 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