March 29, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-प्रथमःस्कन्धः-अध्याय-03 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-प्रथमःस्कन्धः-अथ तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय सूतजी द्वारा पुराणों के नाम तथा उनकी श्लोकसंख्या का कथन, उपपुराणों तथा प्रत्येक द्वापरयुग के व्यासों का नाम पुराणवर्णनपूर्वकतत्तद्युगीयव्यासवर्णनम् ॥ सूत उवाच ॥ शृण्वन्तु सम्प्रवक्ष्यामि पुराणानि मुनीश्वराः । यथाश्रुतानि तत्त्वेन व्यासात्सत्यवतीसुतात् ॥ १ ॥ मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं वचतुष्टयम् । अनापलिंगकूस्कानि पुराणानि पृथक्पृथक् ॥ २ ॥ चतुर्दशसहस्रं च मत्स्यमाद्यं प्रकीर्तितम् । तथा ग्रहसहस्रं तु मार्कण्डेयं महाद्भुतम् ॥ ३ ॥ चतुर्दशसहस्राणि तथा पञ्चशतानि च । भविष्यं परिसंख्यातं मुनिभिस्तत्त्वदर्शिभिः ॥ ४ ॥ सूतजी बोले — हे मुनीश्वरवृन्द ! सत्यवतीसुत वेद-व्यासजी से मैंने जिस प्रकार तत्त्वपूर्वक पुराणों को सुना है, उसे मैं आप लोगों से कहता हूँ, सुनिये ॥ १ ॥ उनमें दो ‘म’ वाले (मत्स्यपुराण, मार्कण्डेयपुराण), दो ‘भ’ वाले (भविष्यपुराण तथा भागवत), तीन ‘ब्र’ वाले (ब्रह्म, ब्रह्माण्ड और ब्रह्मवैवर्तपुराण), चार ‘व’ वाले (वामन, विष्णु, वायु और वाराहपुराण), ‘अ’ वाला (अग्निपुराण), ‘ना’ वाला (नारदपुराण), ‘प’ वाला (पद्मपुराण), ‘लिं’ वाला (लिंगपुराण), ‘ग’ वाला (गरुडपुराण), ‘कू’ वाला (कूर्मपुराण), ‘स्क’ वाला (स्कन्दपुराण) – ये पृथक्-पृथक् (अठारह) पुराण हैं ॥ २ ॥ उनमें आदिके मत्स्यपुराणमें चौदह हजार, अत्यन्त अद्भुत मार्कण्डेयपुराणमें नौ हजार तथा भविष्यपुराण में चौदह हजार पाँच सौ श्लोक संख्या तत्त्वदर्शी मुनियों ने बतायी है ॥ ३-४ ॥ अष्टादशसहस्रं वै पुण्यं भागवतं किल । तथा चायुतसंख्याकं पुराणं ब्रह्मसंज्ञकम् ॥ ५ ॥ द्वादशैव सहस्राणि ब्रह्माण्डं च शताधिकम् । तथाष्टादशसाहस्रं ब्रह्मवैवर्तमेव च ॥ ६ ॥ अयुतं वामनाख्यं च वायव्यं षट्शतानि च । चतुर्विंशतिसंख्यातः सहस्राणि तु शौनक ॥ ७ ॥ त्रयोविंशतिसाहस्रं वैष्णवं परमाद्भुतम् । चतुर्विंशतिसाहस्रं वाराहं परमाद्भुतम् ॥ ८ ॥ षोडशैव सहस्राणि पुराणं चाग्निसंज्ञितम् । पञ्चविंशतिसाहस्रं नारदं परमं मतम् ॥ ९ ॥ पञ्चपञ्चाशत्साहस्रं पद्माख्यं विपुलं मतम् । एकादशसहस्राणि लिङ्गाख्यं चातिविस्मृतम् ॥ १० ॥ एकोनविंशत्साहस्रं गारुडं हरिभाषितम् । सप्तदशसहस्रं च पुराणं कूर्मभाषितम् ॥ ११ ॥ एकाशीतिसहस्राणि स्कन्दाख्यं परमाद्भुतम् । पुराणाख्या च संख्या च विस्तरेण मयानघाः ॥ १२ ॥ तथैवोपपुराणानि शृण्वन्तु ऋषिसत्तमाः । सनत्कुमारं प्रथमं नारसिंहं ततः परम् ॥ १३ ॥ नारदीयं शिवं चैव दौर्वाससमनुत्तमम् । कापिलं मानवं चैव तथा चौशनसं स्मृतम् ॥ १४ ॥ वारुणं कालिकाख्यं च साम्बं नन्दिकृतं शुभम् । सौरं पाराशरप्रोक्तमादित्यं चातिविस्तरम् ॥ १५ ॥ माहेश्वरं भागवतं वासिष्ठं च सविस्तरम् । एतान्युपपुराणानि कथितानि महात्मभिः ॥ १६ ॥ अष्टादश पुराणानि कृत्वा सत्यवतीसुतः । भारताख्यानमतुलं चक्रे तदुपबृंहितम् ॥ १७ ॥ पवित्र भागवतपुराण में अठारह हजार और ब्रह्म- पुराण में दस हजार श्लोक हैं। ब्रह्माण्डपुराण में बारह हजार एक सौ तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में अठारह हजार श्लोक हैं ॥ ५-६ ॥ हे शौनक ! वामनपुराण में दस हजार तथा वायुपुराण में चौबीस हजार छः सौ श्लोक हैं। उस परम विचित्र विष्णुपुराण में तेईस हजार, वाराहपुराण में चौबीस हजार, अग्निपुराण में सोलह हजार तथा नारदपुराण में पचीस हजार श्लोक कहे गये हैं ॥ ७-९ ॥ विशाल पद्मपुराण में पचपन हजार और लिंगपुराण में ग्यारह हजार श्लोक हैं। इसी प्रकार साक्षात् भगवान् के द्वारा कहे हुए गरुडपुराण में उन्नीस हजार तथा कूर्मपुराण में सत्रह हजार श्लोक हैं ॥ १०-११ ॥ परम विचित्र स्कन्दपुराण में इक्यासी हजार श्लोक कहे गये हैं। हे पापरहित मुनियो ! इस प्रकार मैंने पुराणों तथा उनके श्लोकोंकी संख्या विस्तारपूर्वक बता दी ॥ १२ ॥ हे मुनिवरो ! अब उपपुराणों की भी संख्या सुनिये । उनमें सर्वप्रथम उपपुराण सनत्कुमार है, तत्पश्चात् नरसिंह, नारदीय, शिव, दुर्वासा, कपिल, मनु, उशना, वरुण, कालिका, साम्ब, नन्दी, सौर, पराशर, आदित्य, माहेश्वर, भागवत तथा अठारहवाँ वासिष्ठ — ये सब उपपुराण महात्माओं द्वारा बताये गये हैं ॥ १३-१६ ॥ सत्यवतीतनय वेदव्यासजी ने अठारह पुराणों की रचना करने के बाद उन्हीं विषयों से विस्तारपूर्वक उस अतुलनीय ‘महाभारत’ का प्रणयन किया ॥ १७ ॥ मन्वन्तरेषु सर्वेषु द्वापरे द्वापरे युगे । प्रादुःकरोति धर्मार्थी पुराणानि यथाविधि ॥ १८ ॥ द्वापरे द्वापरे विष्ण्णुर्व्यासरूपेण सर्वदा । वेदमेकं स बहुधा कुरुते हितकाम्यया ॥ १९ ॥ अल्पायुषोऽल्पबुद्धींश्च विप्रान्ज्ञात्वा कलावथ । पुराणसंहितां पुण्यां कुरुतेऽसौ युगे युगे ॥ २० ॥ स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां न वेदश्रवणं मतम् । तेषामेव हितार्थाय पुराणानि कृतानि च ॥ २१ ॥ मन्वन्तरे सप्तमेऽत्र शुभे वैवस्वताभिधे । अष्टाविंशतिमे प्राप्ते द्वापरे मुनिसत्तमाः ॥ २२ ॥ व्यासः सत्यवतीसूनुर्गुरुर्मे धर्मवित्तमः । एकोनत्रिंशत्संप्राप्ते द्रौणिर्व्यासो भविष्यति ॥ २३ ॥ अतीतास्तु तथा व्यासाः सप्तविंशतिरेव च । पुराणसंहितास्तैस्तु कथितास्तु युगे युगे ॥ २४ ॥ प्रत्येक द्वापरयुग में भगवान् वेदव्यासजी ही धर्मरक्षार्थ पुराणों की यथाविधि रचना करते रहते हैं। जब-जब द्वापरयुग आता है, तब-तब साक्षात् भगवान् विष्णु ही व्यासजी के रूप में अवतीर्ण होकर सर्वलोकहितार्थ वेद के अनेक भेदोपभेद करते हैं ॥ १८-१९ ॥ विशेषकर कलियुग में ब्राह्मणों को अल्पायु एवं अल्पबुद्धि जानकर वे युग-युग में पवित्र पुराण – संहिताओं का निर्माण करते हैं ॥ २० ॥ स्त्रियों, शूद्रों तथा भ्रष्ट द्विजातियों को वेद- श्रवण का अधिकार नहीं है, इसलिये उनके कल्याण के लिये व्यासजी ने पुराणों की रचना की है ॥ २१ ॥ हे श्रेष्ठ मुनिगण ! इस वैवस्वत नामक शुभ सातवें मन्वन्तर के अट्ठाइसवें द्वापरयुग में परम धर्मनिष्ठ सत्यवतीपुत्र मेरे गुरु श्रीव्यासजी हुए और उनतीसवें द्वापर में द्रौणि नाम के व्यास होंगे। इनके पूर्व भी सत्ताईस व्यास हो चुके हैं, जिन्होंने प्रत्येक युग में अनेक पुराण- संहिताएँ रची हैं ॥ २२-२४ ॥ ॥ ऋषय ऊचुः ॥ ब्रूहि सूत महाभाग व्यासाः पूर्वयुगोद्भवाः । वक्तारस्तु पुराणानां द्वापरे द्वापरे युगे ॥ २५ ॥ ॥ सूत उवाच ॥ द्वापरे प्रथमे व्यस्ताः स्वयं वेदाः स्वयम्भुवा । प्रजापतिर्द्वितीये तु द्वापरे व्यासकार्यकृत् ॥ २६ ॥ तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थे तु बृहस्पतिः । पञ्चमे सविता व्यासः षष्ठे मृत्युस्तथापरे ॥ २७ ॥ मघवा सप्तमे प्राप्ते वसिष्ठस्त्वष्टमे स्मृतः । सारस्वतस्तु नवमे त्रिधामा दशमे तथा ॥ २८ ॥ एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततः परम् । त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्मश्चापि चतुर्दशे ॥ २९ ॥ त्रय्यारुणिः पञ्चदशे षोडशे तु धनञ्जयः । मेधातिथिः सप्तदशे व्रती ह्यष्टादशे तथा ॥ ३० ॥ अत्रिरेकोनविंशेऽथ गौतमस्तु ततः परम् । उत्तमश्चैकविंशेऽथ हर्यात्मा परिकीर्तितः ॥ ३१ ॥ वेनो वाजश्रवाश्चैव सोमोऽमुष्यायणस्तथा । तृणबिन्दुस्तथा व्यासो भार्गवस्तु ततः परम् ॥ ३२ ॥ ततः शक्तिर्जातुकर्ण्यः कृष्णद्वैपायनस्ततः । अष्टाविंशतिसंख्येयं कथिता या मया श्रुता ॥ ३३ ॥ ऋषियों ने कहा — हे महाभाग सूतजी ! अब आप पूर्वकाल में प्रत्येक द्वापरयुग में अवतीर्ण हुए पुराणवक्ता व्यासों की कथा कहिये ॥ २५ ॥ सूतजी बोले — सृष्टि के बाद सर्वप्रथम द्वापरयुग में स्वयं ब्रह्माजी ने ही ‘व्यास’ के रूप में प्रकट होकर वेदों का विभाजन किया। दूसरे द्वापर में ‘प्रजापति’ व्यास बने, तीसरे द्वापर में ‘शुक्राचार्य’, चौथे द्वापर में ‘बृहस्पति’, पाँचवें में ‘सूर्य’ तथा छठे में ‘यमराज’ ही साक्षात् व्यास बने थे ॥ २६–२७ ॥ सातवें द्वापर में ‘इन्द्र’, आठवें में ‘वसिष्ठमुनि’, नवें में ‘सारस्वत’ और दसवें द्वापर में ‘त्रिधामाजी’ व्यास हुए ॥ २८ ॥ ग्यारहवें में ‘त्रिवृष’, बारहवें में ‘भरद्वाजमुनि’, तेरहवें में ‘अन्तरिक्ष’ और चौदहवें द्वापर में ‘धर्मराज’ स्वयं व्यास बने ॥ २९ ॥ पन्द्रहवें द्वापर में ‘त्रय्यारुणि’, सोलहवें में ‘धनंजय’, सत्रहवें में ‘मेधातिथि’ तथा अठारहवें द्वापर में ‘व्रतीमुनि’ व्यास हुए ॥ ३० ॥ उन्नीसवें में ‘अत्रि’, बीसवें में ‘गौतम’ और इक्कीसवें द्वापर में हर्यात्मा ‘उत्तम’ नामक व्यास कहे गये हैं ॥ ३१ ॥ बाईसवें में ‘वाजश्रवा वेन’, तेईसवें में ‘आमुष्यायण सोम’, चौबीसवें में ‘तृणविन्दु’ तथा पचीसवें द्वापर में ‘भार्गव’ व्यास हुए ॥ ३२ ॥ छब्बीसवें में ‘शक्ति’, सत्ताईसवें में ‘जातुकर्ण्य’ और अट्ठाईसवें द्वापर में ‘कृष्णद्वैपायनजी’ व्यास हुए। इस प्रकार अट्ठाईस व्यासों के नाम जैसा मैंने सुना था, वैसा बता दिया ॥ ३३ ॥ कृष्णद्वैपायनात्प्रोक्तं पुराणं च मया श्रुतम् । श्रीमद्भागवतं पुण्यं सर्वदुःखौघनाशनम् ॥ ३४ ॥ कामदं मोक्षदं चैव वेदार्थपरिबृंहितम् । सर्वागमरसारामं मुमुक्षूणां सदा प्रियम् ॥ ३५ ॥ व्यासेन कृत्वातिशुभं पुराणं शुकाय पुत्राय महात्मने यत् । वैराग्ययुक्ताय च पाठितं वै विज्ञाय चैवारणिसम्भवाय ॥ ३६ ॥ श्रुतं मया तत्र तथा गृहीतं यथार्थवद्व्यासमुखान्मुनीन्द्राः । पुराणगुह्यं सकलं समेतं गुरोः प्रसादात्करुणानिधेश्च ॥ ३७ ॥ सूतेन पृष्टः सकलं जगाद द्वैपायनस्तत्र पुराणगुह्यम् । अयोनिजेनाद्भुतबुद्धिना वै श्रुतं मया तत्र महाप्रभावम् ॥ ३८ ॥ इन्हीं कृष्णद्वैपायन व्यासजी के द्वारा कहे गये श्रीमद्देवीभागवतपुराण को मैंने सुना था जो पुण्यप्रद, सब प्रकार के दुःखों का नाश करने वाला, सब प्रकार के मनोरथ पूर्ण करने वाला, मोक्षदाता, वैदिक भावों से ओत-प्रोत तथा सभी आगमों के रसों से परिपूर्ण, अत्यन्त मनोहर एवं मुमुक्षुजनों को सदा प्रिय लगनेवाला है ॥ ३४-३५ ॥ जिस अत्यन्त पवित्र पुराण को रचकर व्यासजी ने अरणी के गर्भ से उत्पन्न, विद्वान्, महात्मा एवं विरक्त अपने पुत्र शुकदेवजी को पढ़ाया था; हे मुनिवृन्द ! उसी रहस्यमय महापुराण ( श्रीमद्देवीभागवत) को मैंने भी करुणासागर अपने गुरु व्यासजी के मुख से सम्पूर्ण रूप से यथार्थतः सुना तथा उनकी कृपा से उसे हृदयंगम कर लिया है ॥ ३६-३७ ॥ जिस समय अयोनिज एवं अपूर्व बुद्धिमान् अपने पुत्र शुकदेवजी के प्रश्न करने पर व्यासजी ने रहस्ययुक्त इस पुराण को सुनाया, उस समय मैंने भी एक साधारण श्रोता के रूप में इस महान् प्रभाववाले श्रीमद्देवीभागवत महापुराण को सुन लिया ॥ ३८ ॥ श्रीमद्भागवतामरांघ्रिपफलास्वादादरः सत्तमाः संसारार्णवदुर्विगाह्यसलिलं सन्तर्तुकामः शुकः । नानाख्यानरसालयं श्रुतिपुटैः प्रेम्णाशृणोदद्भुतं तच्छ्रुत्वा न विमुच्यते कलिभयादेवंविधः कः क्षितौ ॥ ३९ ॥ पापीयानपि वेदधर्मरहितः स्वाचारहीनाशयो ॥ व्याजेनापि शृणोति यः परमिदं श्रीमत्पुराणोत्तमम् । भुक्त्या भोगकलापमत्र विपुलं देहावसानेऽचलं योगिप्राप्यमवाप्नुयाद्भगवतीनामाङ्कितं सुन्दरम् ॥ ४० ॥ या निर्गुणा हरिहरादिभिरप्यलभ्या विद्या सतां प्रियतमाथ समाधिगम्या । सा तस्य चित्तकुहरे प्रकरोति भावं यः संशृणोति सततं तु सतीपुराणम् ॥ ४१ ॥ सम्प्राप्य मानुषभवं सकलाङ्गयुक्तं पोतं भवार्णवजलोत्तरणाय कामम् । सम्प्राप्य वाचकमहो न शृणोति मूढः स वञ्चितोऽत्र विधिना सुखदं पुराणम् ॥ ४२ ॥ यः प्राप्य कर्णयुगलं पटुमानुषत्वे रागी शृणोति सततं च परापवादान् । सर्वार्थदं रसनिधिं विमलं पुराणं नष्टः कुतो न शृणुते भुवि मन्दबुद्धिः ॥ ४३ ॥ ॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां सहितायां प्रथमस्कन्धे पुराणवर्णनपूर्वकतत्तद्युगीयव्यासवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥ हे सर्वश्रेष्ठ मुनिजन ! श्रीमद्भागवतरूपी इस कल्पवृक्ष के फल के स्वाद के प्रति आदरबुद्धि रखने वाले तथा अपार संसार-सागर से पार पाने के लिये श्रीशुकदेवजी ने अनेक प्रकार की सुन्दर एवं रसमयी कथाओं से युक्त जिस अद्भुत महापुराण को विधिवत् अपने कर्णपुट से प्रेमपूर्वक सुना है, उसे श्रवण करके भी जो कलिकाल के भय से मुक्त न हुआ, भला ऐसा प्राणी इस भूतल पर कौन होगा ? ॥ ३९ ॥ वैदिक धर्म से रहित तथा निकृष्ट विचार रखने वाला बड़े से बड़ा पापी मनुष्य भी यदि किसी बहाने इस उत्तम श्रीमद्देवीभागवतपुराण का श्रवण कर लेता है तो वह भी निश्चय ही समस्त सांसारिक सुखों को भोगकर अन्त में योगिजनों के द्वारा प्राप्त करने योग्य, भगवती के नाम से चिह्नित, मनोरम तथा अचल पद को प्राप्त कर लेता है ॥ ४० ॥ जो प्राणी इस श्रीमद्देवीभागवतपुराण को प्रतिदिन प्रेम से सुनता है, उसके हृदयरूपी गुहा में विष्णु, शिव आदि देवताओं के लिये भी दुर्लभ, सर्वश्रेष्ठ विद्यारूपिणी, सज्जनों की एकमात्र प्रिया, गुणातीता एवं समाधि द्वारा जानने योग्य वे भगवती निवास करने लगती हैं ॥ ४१ ॥ अतः सर्वांगसुन्दर इस मानव-तन को पाकर संसार- सागर के अगाध सलिल से पार होने के लिये जलयान के समान परम सुखदायी श्रीमद्देवीभागवतपुराण एवं उसके वक्ता को प्राप्त करके भी जो मूर्ख इसका श्रवण नहीं करता, वह विधाता के द्वारा वंचित ही कहा जायगा ॥ ४२ ॥ इस दुर्लभ मनुष्य देह में दोनों कानों को प्राप्त करके भी जो सांसारिक मनुष्य केवल दूसरों के दुर्गुणों को ही सुना करता है, वह अधम मन्दबुद्धि चारों उत्तम पदार्थों को देने वाले तथा सब रसों से परिपूर्ण इस निर्मल पुराण को भूतल पर क्यों नहीं सुनता ? ॥ ४३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत प्रथम स्कन्धका ‘पुराणवर्णन तथा तत्तद्युगीय व्यासवर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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