April 15, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-05 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-पञ्चमोऽध्यायः पाँचवाँ अध्याय नर-नारायण की तपस्या से चिन्तित होकर इन्द्र का उनके पास जाना और मोहिनी माया प्रकट करना तथा उससे भी अप्रभावित रहने पर कामदेव, वसन्त और अप्सराओं को भेजना नरनारायणकथावर्णनम् व्यासजी बोले — हे नृपोत्तम! अब अधिक कहने से क्या लाभ? इस संसार में कहीं बिरला ही ऐसा कोई धर्मात्मा पुरुष होगा जो द्रोहभाव से रहित हो। यह चर-अचर सम्पूर्ण संसार राग-द्वेष से ओत-प्रोत है। हे राजेन्द्र ! सत्ययुग में भी यह संसार ऐसा ही था, तब कलि से दूषित इसके विषय में क्या कहा जाय ? ॥ १-२ ॥ हे राजन् ! जब देवता भी सदा ईर्ष्यायुक्त द्रोह से भरे हुए और छल – परायण रहते हैं, तब मनुष्य तथा पशु- पक्षियों की बात ही क्या है? यदि कोई मनुष्य द्रोह करने वाले के प्रति द्रोहभाव रखे तो यह समानता की बात है, किंतु द्रोह न करने वाले तथा शान्त स्वभाव वाले के प्रति विद्वेष रखने को नीचता कहा गया है ॥ ३-४ ॥ यदि कोई तपस्वी शान्त होकर जप ध्यान में लीन हो जाता है तो इन्द्र उसके जप में विघ्न डालने हेतु तत्पर हो जाते हैं ॥ ५ ॥ सज्जन पुरुषों के लिये हर समय सत्ययुग दिखलायी पड़ता है और दुष्ट लोगों के लिये सर्वदा कलियुग ही रहता है । जिस युग में क्रिया तथा योग व्यवस्थित रहते हैं, वे द्वापर तथा त्रेतारूप मध्यम युग मध्यम कोटि के लोगों के लिये कहे गये हैं ॥ ६ ॥ अतः किसी समय भी कोई सत्यधर्मा हो सकता है अथवा सभी युगों में जो चाहे धर्मपरायण हो सकता है । है राजन् ! सर्वत्र धर्म की स्थिति में वासना ही प्रधान कारण मानी गयी है। उसमें मलिनता आ जाने पर धर्म भी मलिन हो जाता है। मलिन वासना विनाश के लिये होती है; यह सर्वथा सत्य है ॥ ७-८१/२ ॥ ब्रह्माजी के हृदय से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो धर्म – इस नाम से कहा गया । वह ब्राह्मण सत्यसम्पन्न और वैदिक धर्म में सदा संलग्न रहने वाला था । उस गृहस्थधर्मी महात्मा मुनि ने पाणिग्रहण की विधि से दक्षप्रजापति की दस कन्याओं का सम्यक् रूप से वरण किया। सत्यव्रतियों में श्रेष्ठ उस धर्म ने उनसे ‘हरि’, ‘कृष्ण’, ‘नर’ और ‘नारायण’ नामक चार पुत्र उत्पन्न किये। हे राजन् ! उनमें ‘हरि’ और ‘कृष्ण’ ये दोनों योगाभ्यास करने लगे तथा नर और नारायण ये दोनों हिमालय पर्वत के शिखर पर जाकर ‘बदरिकाश्रम’ तीर्थ में कठिन तपस्या करने लगे ॥ ९-१३ ॥ वे प्राचीन मुनिश्रेष्ठ नर और नारायण तपस्वियों में सबसे प्रधान थे। गंगा के विस्तृत तटपर रहकर ब्रह्मचिन्तन करते हुए भगवान् विष्णु के अंशावतार नर-नारायण ने वहाँ पूरे एक हजार वर्षों तक कठोर तप किया। उनके तप से चराचरसहित सम्पूर्ण संसार सन्तप्त हो गया । इससे इन्द्र के मन में नर-नारायण के प्रति क्षोभ उत्पन्न हो गया ॥ १४-१६ ॥ तब चिन्तित होकर इन्द्र ने अपने मन में सोचा — अब मुझे क्या करना चाहिये ? ये धर्मपुत्र नर-नारायण तपस्वी तथा ध्यानपरायण हैं। ये पूर्णरूप से सिद्ध होकर मेरा श्रेष्ठ आसन ग्रहण कर लेंगे, अतः किस प्रकार विघ्न उत्पन्न करूँ, जिससे तप न कर सकें ॥ १७-१८ ॥ अब इनके मन में काम, क्रोध अथवा अत्यन्त भीषण लोभ उत्पन्न करके तप में विघ्न करना चाहिये । यह विचारकर इन्द्र अपने उत्तम ऐरावत हाथी पर सवार होकर उनके तप में विघ्न डालने की इच्छा से गन्ध-मादन पर्वत पर शीघ्रतापूर्वक जा पहुँचे। वहाँ जाकर उन्होंने उस पवित्र आश्रम में तप करते हुए नर-नारायण को देखा ॥ १९–२० ॥ उस समय तप के प्रभाव से दीप्त शरीर वाले वे दोनों ऋषि उगे हुए सूर्य की भाँति प्रतीत हो रहे थे । [ इन्द्र ने सोचा-] क्या ये ब्रह्मा और विष्णु प्रकट हुए हैं अथवा दो सूर्य उदित हो गये हैं? धर्म के ये दोनों पुत्र अपने तप द्वारा न जाने क्या कर देंगे ? ऐसा विचार करके शचीपति इन्द्र ने नर-नारायण की ओर देखकर उनसे कहा — हे महाभाग धर्मनन्दन ! आप लोगों का क्या कार्य है, बताइये। मैं श्रेष्ठ वर अभी प्रदान करता हूँ। हे ऋषियो ! मैं वर देने के लिये ही आया हूँ। वर अदेय हो तो भी मैं दूंगा; क्योंकि मैं आप लोगों की तपस्या से परम प्रसन्न हूँ ॥ २१-२३१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार उनके सामने खड़े होकर इन्द्र ने बार-बार उनसे [ वरदान माँगने को] कहा, किंतु ध्यानमग्न तथा दृढ़चित्त वे दोनों ऋषि नहीं बोले। तब इन्द्र ने अपनी भयदायिनी मोहिनी माया प्रकट की। उन्होंने भेड़िये, सिंह, व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं को उत्पन्न करके उन्हें भयभीत किया। इसी प्रकार वर्षा, वायु तथा अग्नि उत्पन्न करके इन्द्र ने अपनी मोहिनी माया रत्तकर उन दोनों को भयभीत करने की चेष्टा की किंतु धर्मपुत्र वे दोनों मुनि इस भय से भी वश में नहीं किये जा सके। ऐसे उन नर-नारायण को देखकर इन्द्र अपने भवन चले गये। वे नर- नारायण वरदान के लोभ में नहीं आये और अग्नि तथा वायु से भयभीत नहीं हुए । व्याघ्र, सिंह आदिके आक्रमण करने पर भी वे दोनों अपने आसन से हिले तक नहीं। उन दोनों के ध्यान को भंग करने में उस समय कोई भी समर्थ नहीं हो सका ॥ २४-२९ ॥ इन्द्र भी अपने घर पहुँचकर दुःखित होकर विचार करने लगे कि मुनिवरों में उत्तम ये दोनों ऋषि भय तथा लोभ से विचलित नहीं हुए। वे तो महाविद्या, आदिशक्ति, सनातनी, सब लोकों की स्वामिनी और अद्भुत परा- प्रकृति का ध्यान कर रहे थे। देवताओं तथा असुरों के द्वारा रची गयी सारी माया जिन भगवती से ही उत्पन्न होती है, उनका ध्यान करने वाले को विचलित करने में कौन समर्थ है, चाहे वह कितना ही बड़ा मायाविज्ञ क्यों न हो? जो लोग कल्मषरहित होकर भगवती का ध्यान करते हैं, वे भला कैसे विचलित किये जा सकते हैं? देवी का वाग्बीज, कामबीज और मायाबीज – यह जिसके हृदय में विद्यमान है, उसे विचलित करने में कोई भी समर्थ नहीं है ॥ ३०-३३१/२ ॥ अब माया से मोहित इन्द्र ने पुनः उनका प्रतीकार करने हेतु कामदेव तथा वसन्त को बुलाकर यह वचन कहा — हे कामदेव ! तुम वसन्त और रति को लेकर अनेक अप्सराओं के साथ उस गन्धमादनपर्वतपर अभी शीघ्रतापूर्वक जाओ। वहाँ ‘नर नारायण’ नामक दो प्राचीन श्रेष्ठ ऋषि बदरिकाश्रम के एकान्त स्थान में स्थित होकर तपस्या कर रहे हैं। हे मन्मथ ! उनके पास जाकर तुम अपने बाणों से उनके चित्त को कामासक्त कर दो। उनका मोहन तथा उच्चाटन करके तुम अपने बाणों से उन्हें शीघ्र आहत कर डालो; मेरा यह कार्य अभी सिद्ध करो ॥ ३४-३८ ॥ इस प्रकार हे महाभाग ! धर्म के पुत्र उन दोनों मुनियों को वशीभूत कर लो। इस सम्पूर्ण संसार में देवता, दैत्य या मनुष्य कौन ऐसा है, जो तुम्हारे बाण के वशीभूत होकर अत्यन्त कामासक्त न हो जाय ? हे कामदेव ! जब ब्रह्मा, मैं (इन्द्र), शिव, चन्द्रमा या अग्नि भी मोहित हो जाते हैं तब तुम्हारे बाणों के पराक्रम के सामने उन दोनों की क्या गणना है? ॥ ३९-४०१/२ ॥ तुम्हारी सहायता के लिये मेरे द्वारा यह रम्भा आदि अप्सराओं का समूह भेजा जा रहा है, जो वहाँ पहुँच जायगा । अकेली तिलोत्तमा या रम्भा ही इस कार्य को करने में समर्थ है अथवा तुम अकेले भी इसे करने में समर्थ हो, तब सभी सम्मिलित रूप से कार्य सिद्ध कर लेंगे; इसमें सन्देह की बात ही क्या ? हे महाभाग ! तुम मेरे इस कार्य को सम्पन्न करो, मैं तुम्हें वांछित वस्तु प्रदान करूँगा ॥ ४१-४३ ॥ मैंने उन दोनों तपस्वियों को वरदानों के द्वारा बहुत प्रलोभन दिया, किंतु वे अपने स्थान से विचलित नहीं हुए, बल्कि शान्त बैठे रहे । मेरा यह परिश्रम व्यर्थ चला गया। मैंने माया रचकर उन तपस्वियों को बहुत डराया, फिर भी वे अपने आसन से नहीं उठे। वे दोनों शरीर रक्षा के लिये जरा भी चिन्तित नहीं हैं ॥ ४४-४५ ॥ व्यासजी बोले — इन्द्र का यह वचन सुनकर कामदेव ने उनसे कहा — हे इन्द्र ! मैं अभी आपका मनोवांछित कार्य करूँगा। यदि वे दोनों मुनि विष्णु, शिव, ब्रह्मा अथवा सूर्य किसी का ध्यान करते होंगे, तो वे हमारे वश में हो जायँगे। मैं केवल कामराज महाबीज ‘क्लीं’ का अपने मन में चिन्तन करने वाले देवीभक्त को वश में करने में किसी प्रकार भी समर्थ नहीं हूँ । यदि वे भक्ति भाव से महाशक्तिस्वरूपा देवी की उपासना में लगे होंगे, तो मेरे बाणों का प्रभाव उन तपस्वियों पर नहीं पड़ेगा ॥ ४६–४९ ॥ इन्द्र बोले — हे महाभाग ! जाने के लिये उद्यत इन सभी के साथ तुम वहाँ जाओ । यद्यपि मेरा यह कार्य अत्यन्त दुःसाध्य है, फिर भी तुम इस हितकर तथा उत्तम कार्य को पूर्ण कर ही लोगे ॥ ५० ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार इन्द्र का आदेश पाकर वे लोग पूरी तैयारी के साथ उस स्थान पर गये, जहाँ वे धर्मपुत्र नर-नारायण कठोर तपस्या कर रहे थे ॥ ५१ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘नर नारायणकथावर्णन’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Content is available only for registered users. 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