April 16, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-09 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-नवमोऽध्यायः नौवाँ अध्याय प्रह्लादजी का तीर्थयात्रा के क्रम में नैमिषारण्य पहुँचना और वहाँ नर-नारायण से उनका घोर युद्ध, भगवान् विष्णु का आगमन और उनके द्वारा प्रह्लाद को नर-नारायण का परिचय देना प्रह्लादनारायणयोर्युद्धे विष्णोरागमनवर्णनम् व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] इस प्रकार तीर्थ के कृत्य सम्पन्न करते हुए हिरण्यकशिपुपुत्र प्रह्लाद को अपने समक्ष एक विशाल छायासम्पन्न वटवृक्ष दिखायी पड़ा ॥ १ ॥ वहाँ पर प्रह्लाद ने गीधों के पंखों से सुसज्जित, नुकीले तथा शिला पर घर्षित करके अत्यन्त दीप्त एवं उज्ज्वल बनाये गये अनेक प्रकार के बाण देखे ॥ २ ॥ उन्हें देखकर प्रह्लाद ने मन में सोचा कि इस परम पवित्र तीर्थ में ऋषियों के पुण्यमय आश्रम में ये बाण किसके हैं ? ॥ ३ ॥ इस प्रकार चिन्तन करते हुए प्रह्लाद ने कृष्णमृगचर्म धारण किये हुए तथा सिर पर विशाल जटाओं से सुशोभित धर्मपुत्र नर-नारायण मुनियों को देखा ॥ ४ ॥ उनके आगे धनुर्वेदोक्त लक्षणों से सम्पन्न चमकीले शार्ङ्ग तथा आजगव नामक दो धनुष तथा दो अक्षय तरकस रखे हुए थे ॥ ५ ॥ उन महाभाग धर्मपुत्र नर-नारायण ऋषियों को उस समय ध्यानावस्थित देखकर क्रोध से लाल आँखें किये हुए दैत्याधिपति असुररक्षक प्रह्लाद ने उनसे कहा — आप दोनों ने धर्म को नष्ट करने वाला यह कैसा पाखण्ड कर रखा है ? ॥ ६-७ ॥ इस प्रकार की घोर तपस्या तथा धनुष धारण करना — ऐसा तो इस संसार में न कभी सुना गया और न देखा ही गया ॥ ८ ॥ ये तो परस्पर विरोधी स्थितियाँ हैं । कलियुग के लिये यह विरोधभाव भला सत्ययुग में किस प्रकार उचित है ? ब्राह्मण के लिये तो तपश्चरण ही उचित है, उन्हें धनुष-धारण करने की क्या आवश्यकता है ? ॥ ९ ॥ कहाँ तो मस्तक पर जटा धारण करना और कहाँ यह तरकस रखना — ये दोनों बातें आडम्बरमात्र हैं। दिव्य भावना वाले आप दोनों के लिये धर्म का आचरण ही उचित है ॥ १० ॥ व्यासजी बोले — हे भारत ! प्रह्लाद का यह वचन सुनकर मुनिवर नर ने कहा — हे दैत्येन्द्र ! हम दोनों की तपस्या के विषय में सामर्थ्य सम्पन्न हो जाने पर व्यक्ति जो कुछ करता है, आप यह व्यर्थ चिन्ता क्यों कर रहे हैं ? ॥ ११ ॥ उसका वह सब कुछ पूर्ण हो जाता है। हे मन्दबुद्धि ! हम इन दोनों प्रकार के कार्यों को [ एक साथ ] करने में समर्थ हैं; इसके लिये हम लोक में प्रसिद्ध हैं ॥ १२ ॥ युद्ध तथा तपस्या दोनों में हम समान रूप से समर्थ हैं। फिर इस विषय में आप पूछकर क्या करेंगे? आप इच्छानुसार अपने रास्ते चले जाइये, यहाँ व्यर्थ की बात क्यों कर रहे हैं ? ॥ १३ ॥ मोहग्रस्त होने के कारण आप अत्यन्त कठिनता से प्राप्त किये जाने वाले ब्रह्मतेज को नहीं जानते । सुख की कामना करने वाले प्राणियों को ब्राह्मणों से बहस नहीं करनी चाहिये ॥ १४ ॥ प्रह्लाद बोले — आप दोनों तपस्वी मन्द बुद्धि वाले हैं और व्यर्थ ही अहंकार के वशवर्ती हो गये हैं । धर्मसेतु का प्रवर्तन करने वाले मुझ दैत्येन्द्र प्रह्लाद के रहते इस पवित्र तीर्थ में इस प्रकार का अधर्मपूर्ण आचरण उचित नहीं है। हे तपोधन! आपमें कितनी शक्ति है, इसे युद्ध में अभी प्रदर्शित कीजिये ॥ १५-१६ ॥ व्यासजी बोले — तब प्रह्लाद का वचन सुनकर ऋषि नर ने उनसे कहा — यदि आपकी ऐसी ही धारणा है तो मेरे साथ इसी समय युद्ध कर लीजिये। हे असुराधम ! आज मैं तुम्हारा सिर विदीर्ण कर डालूँगा (इसके बाद युद्ध करने की तुम्हारी कभी इच्छा नहीं होगी ) ॥ १७१/२ ॥ व्यासजी बोले — तब ऋषि नर का वचन सुनकर दैत्यपति प्रह्लाद कुपित हो उठे । बलशाली उन प्रह्लाद ने प्रतिज्ञा की कि जिस किसी भी उपाय से मैं इन दोनों जितेन्द्रिय तथा परम तपस्वी नर-नारायण ऋषियों को जीतकर रहूँगा ॥ १८-१९१/२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा वचन बोलकर दैत्य प्रह्लाद ने धनुष उठाकर और शीघ्रतापूर्वक उसे खींचकर प्रत्यंचा की टंकार की । हे राजन् ! मुनि नर ने भी धनुष लेकर शिला पर घिसकर तेज किये हुए अनेक तीक्ष्ण बाण प्रह्लाद के ऊपर क्रोधपूर्वक छोड़े ॥ २०-२२ ॥ शीघ्र ही उन बाणों को आते ही काट डाला। तब नर अपने दैत्यराज प्रह्लाद ने अपने सुनहले पंखों वाले बाणों से द्वारा छोड़े गये बाणों को प्रह्लाद द्वारा छिन्न किया गया देखकर अत्यन्त कोपाविष्ट हो शीघ्रता से उन पर अन्य बाणों से प्रहार करने लगे ॥ २३ ॥ दैत्यपति प्रह्लाद ने उन बाणों को भी अपने द्रुतगामी बाणों से काटकर उन मुनिराज नर के वक्षःस्थल पर प्रहार किया। नर ने भी क्रुद्ध होकर अपने तीव्रगामी पाँच बाणों से दैत्येन्द्र प्रह्लाद के बाहुदेश पर प्रहार किया ॥ २४ ॥ इन्द्रसहित सभी देवगण उन दोनों का युद्ध देखने के लिये विमानों में बैठकर आकाशमण्डल में स्थित हो गये। वे कभी समरांगण में विराजमान नर के पराक्रम की प्रशंसा करते थे और फिर कभी दैत्यपति प्रह्लाद के पराक्रम की प्रशंसा करने लगते थे ॥ २५ ॥ धनुष धारण किये हुए दैत्यराज प्रह्लाद इस प्रकार बाणों की वर्षा कर रहे थे, मानो मेघ जल बरसा रहे हों। [ ऋषि नर भी अपना ] अप्रतिम शार्ङ्ग धनुष लेकर तीक्ष्ण तथा सुनहले पंखवाले बाण छोड़ रहे थे ॥ २६ ॥ हे राजन् ! इस प्रकार एक-दूसरे को जीतने के इच्छुक उन ऋषि नर तथा दैत्यराज प्रह्लाद के बीच भीषण युद्ध होने लगा। आकाशमार्ग में स्थित वे [ देवतागण ] प्रसन्नचित्त होकर उनके ऊपर दिव्य पुष्पों की वर्षा कर रहे थे ॥ २७ ॥ अचानक प्रह्लाद कुपित हो उठे और उन्होंने अति तीव्रगामी बाण ऋषि नारायण पर छोड़े । धर्मपुत्र नारायण ने शीघ्र ही उन बाणों को अपने धनुष से छोड़े गये अत्यन्त तीक्ष्ण बाणों से खण्ड-खण्ड कर डाला ॥ २८ ॥ दैत्यराज प्रह्लाद समरांगण में डटकर खड़े अतीव पराक्रमी तथा सनातन धर्मपुत्र नारायण पर अपने अति तीक्ष्ण बाण बरसाने लगे। नारायण ने भी सान पर चढ़ाकर तेज किये गये अपने वेगपूर्वक छोड़े गये बाणों के द्वारा सम्मुख खड़े दैत्यपति प्रह्लाद को अत्यन्त भीषण चोट पहुँचायी। उस युद्ध का अवलोकन करने के इच्छुक देवताओं तथा दैत्यों का एक विशाल समूह अपने-अपने पक्ष का जयघोष करते हुए आकाश में एकत्र हो गया ॥ २९-३०१/२ ॥ दोनों पक्षों की बाणवर्षा से आकाश के आच्छादित हो जाने पर उस समय इतना घना अन्धकार हो गया कि दिन भी रात के समान प्रतीत होने लगा। इससे अति आश्चर्यचकित होकर देवता तथा दैत्य परस्पर कहने लगे कि यह अत्यन्त भयावह संग्राम हो रहा है। ऐसा भीषण युद्ध तो पहले कभी नहीं देखा गया। बड़े-बड़े देवर्षि, गन्धर्व, यक्ष, किन्नर, नाग, विद्याधर तथा चारणगण इस युद्ध को देखकर अत्यन्त विस्मय में पड़ गये ॥ ३१–३३१/२ ॥ उस युद्ध का अवलोकन करने के लिये मुनि नारद तथा पर्वत भी आये हुए थे। नारदमुनि ने पर्वत से कहा — ऐसा घोर संग्राम पहले नहीं हुआ था; तारकासुरयुद्ध, वृत्रासुर का युद्ध यहाँ तक कि मधु-कैटभ का युद्ध भी वैसा नहीं हुआ था, जैसा कि इस समय नारायण के द्वारा किया गया। प्रह्लाद अत्यन्त वीर हैं जो कि वे अद्भुत कर्मवाले सिद्धिसम्पन्न नारायण के साथ यह बराबरी का युद्ध कर रहे हैं ॥ ३४–३६१/२ ॥ व्यासजी बोले — इस प्रकार प्रतिदिन तथा प्रतिरात्रि बार-बार युद्ध करते हुए वे दोनों दैत्य तथा तपस्वी घोर संग्राम में तत्पर रहे। नारायण ने एक बाण से प्रह्लाद का धनुष काट दिया। तब प्रह्लाद ने तत्काल दूसरा धनुष ले लिया । नारायण ने हस्तकौशल दिखाते हुए पुनः बड़ी शीघ्रता से दूसरा बाण चलाकर उस धनुष को भी बीचोबीच से काट डाला। इस प्रकार नारायण बार-बार धनुष काटते जाते थे और प्रह्लाद दूसरा धनुष लेते जाते थे । अन्त में नारायण ने कुपित होकर अपने बाणों से उसके धनुष को शीघ्रता से पुनः काट दिया। उस धनुष के भी कट जाने पर दैत्यराज प्रह्लाद ने अपना परिघ उठा लिया और अत्यन्त क्रोधित होकर बड़ी तत्परता से धर्मपुत्र नारायण की भुजाओं पर प्रहार किया ॥ ३७–४११/२ ॥ प्रतापी नारायण ने अपनी ओर आते हुए उस परिघ को नौ बाणों से काट दिया और दस बाणों से प्रह्लाद पर चोट की ॥ ४२१/२ ॥ तत्पश्चात् दैत्येन्द्र प्रह्लाद ने पूर्णतः लोहमयी सुदृढ़ गदा उठाकर क्रोधपूर्वक नारायणमुनि की जाँघ पर शीघ्रतापूर्वक प्रहार किया । उस गदा-प्रहार से भी धर्मपुत्र नारायण पर्वत की भाँति अविचल भाव से स्थिरचित्त होकर खड़े रहे । तदनन्तर परम पराक्रमी भगवान् नारायण ने बड़ी तेजी से अनेक बाण छोड़े और दैत्यपति प्रह्लाद की सुदृढ़ गदा को खण्ड-खण्ड कर दिया। आकाश में स्थित होकर युद्ध देखने वाले बड़े आश्चर्य में पड़ गये ॥ ४३-४५१/२ ॥ तत्पश्चात् शत्रुओं का दमन करने वाले प्रह्लाद ने शक्ति उठाकर कुपित हो बलपूर्वक बड़ी तेजी से नारायण के वक्ष:स्थल पर प्रहार किया। तब सामने आती हुई उस शक्ति को देखकर नारायण ने एक ही बाण से बड़ी आसानी से उसके सात खण्ड कर दिये और साथ ही सात बाणों से प्रह्लाद पर प्रहार किया ॥ ४६–४७१/२ ॥ हे राजन्! इस प्रकार सबको विस्मित कर देने वाला वह युद्ध एक सौ दिव्य वर्ष तक चलता रहा । तदनन्तर चार भुजाओं से शोभा पाने वाले पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु शीघ्रतापूर्वक उस आश्रम में आ गये। तत्पश्चात् हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करने वाले वे चतुर्भुज लक्ष्मीपति विष्णु प्रह्लाद के आश्रम पर पहुँचे ॥ ४८–५० ॥ वहाँ उन्हें आये हुए देखकर हिरण्यकशिपुपुत्र प्रह्लाद बड़ी श्रद्धा के साथ उन्हें प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहने लगे ॥ ५१ ॥ प्रह्लाद बोले — हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे भक्तवत्सल ! हे माधव ! मैं इन दोनों तपस्वियोंको युद्धमें क्यों नहीं जीत सका? हे देव! मैंने देवताओंके पूरे सौ वर्षतक इनके साथ युद्ध किया, फिर भी ये जीते न जा सके- मुझे यह महान् आश्चर्य है ! ॥ ५२१/२ ॥ विष्णु बोले — हे आर्य ! ये दोनों सिद्ध पुरुष हैं और मेरे अंश से आविर्भूत हैं; अतः [ इन्हें न जीत पाने में ] आश्चर्य क्या! नर-नारायण नाम से प्रसिद्ध इन जितात्मा तपस्वियों को तुम नहीं जीत सकते। अतः हे राजन् ! तुम अपने वितललोक को चले जाओ और वहाँ मेरी अविचल भक्ति करो। हे महामते ! तुम इन दोनों तपस्वियों से विरोध मत करो ॥ ५३-५४१/२ ॥ व्यासजी बोले — भगवान् विष्णु से ऐसी आज्ञा पाकर दैत्यपति प्रह्लाद असुरों के साथ वहाँ से प्रस्थित हो गये । तदनन्तर नर-नारायण पुनः तपस्या में संलग्न हो गये ॥ ५५-५६ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘प्रह्लाद और नर- नारायण के युद्ध में विष्णु का आगमन ‘ नामक नौवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९ ॥ Content is available only for registered users. 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