April 17, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-11 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः ग्यारहवाँ अध्याय मन्त्रविद्या की प्राप्ति के लिये शुक्राचार्य का तपस्यारत होना, देवताओं द्वारा दैत्यों पर आक्रमण, शुक्राचार्य की माता द्वारा दैत्यों की रक्षा और इन्द्र तथा विष्णु को संज्ञाशून्य कर देना, विष्णु द्वारा शुक्रमाता का वध शुक्रमातुर्वधवर्णनम् व्यासजी बोले — तत्पश्चात् देवताओं के चले जाने पर शुक्राचार्य ने उन दैत्यों से कहा — हे श्रेष्ठ दानवो! पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने मुझसे जो कहा था, उसे तुमलोग सुनो। दैत्यों के वध के लिये भगवान् विष्णु सदा प्रयत्नरत रहते हैं, वे दैत्यों का वध अवश्य करेंगे। जैसे वाराह का रूप धारण करके उन्होंने हिरण्याक्ष का वध किया और नृसिंहरूप से हिरण्यकशिपु को मारा, उसी प्रकार उत्साह-सम्पन्न होकर वे सब दैत्यों का संहार करेंगे; इसमें सन्देह नहीं है ॥ १-३ ॥ मुझे जान पड़ता है कि वैसा समुचित मन्त्रबल अभी मेरे पास नहीं है, जिससे मेरे द्वारा सुरक्षित होकर तुम लोग इन्द्र तथा देवताओं को जीतने में समर्थ हो सको । अतः हे श्रेष्ठ दानवगण! तुम लोग कुछ समय तक प्रतीक्षा करो। मैं मन्त्रसिद्धि के लिये आज ही भगवान् शिव के पास जा रहा हूँ। हे श्रेष्ठ दानवो! महादेवजी से मन्त्र लेकर मैं तत्काल आऊँगा और यथावत् रूप में तुम लोगों को सिखा दूँगा ॥ ४–६ ॥ दैत्यों ने कहा — हे मुनिश्रेष्ठ ! देवताओं से पराजित होकर हम लोग अत्यन्त निर्बल हो गये हैं, अतः उतने समय तक प्रतीक्षा करने के लिये हम पृथ्वी पर रहने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? सभी पराक्रमी दानव मारे जा चुके हैं। और जो शेष बचे हुए हैं, अब वे सुखपूर्वक युद्ध में ठहरने में समर्थ नहीं हैं ॥ ७-८ ॥ शुक्राचार्य बोले — जब तक मैं शिवजी से मन्त्रविद्या लेकर नहीं आता हूँ, तब तक तुम लोग शान्ति और तपस्या से युक्त होकर यहीं रुके रहो ॥ ९ ॥ विद्वानों ने कहा है कि समयानुसार साम, दान आदि का प्रयोग करना चाहिये। बुद्धिमान् तथा वीर पुरुष देश, काल, बल, शक्ति और सेना की जानकारी करके ही अपना सामर्थ्य दिखाते हैं ॥ १० ॥ बुद्धिमान् पुरुषों को चाहिये कि अपने कल्याण की इच्छा से समय पर शत्रुओं की भी सेवा करे और अपनी शक्ति का संचय हो जाने पर उन्हें मार डाले ॥ ११ ॥ अतः देवताओं की विनती करके छलपूर्वक साम-नीति का प्रयोग करते हुए मेरे लौटने की प्रतीक्षा के साथ अपने-अपने घरों में रहो ॥ १२ ॥ हे दानवो! महादेवजी से मन्त्र प्राप्त करके मैं आऊँगा और तब उसी मन्त्र बल का आश्रय लेकर हम लोग देवताओं से युद्ध करेंगे ॥ १३ ॥ हे महाराज ! उन दानवों से ऐसा कहकर दृढ़ संकल्प वाले मुनिश्रेष्ठ शुक्राचार्य मन्त्र प्राप्ति के लिये शिवजी के पास चले गये ॥ १४ ॥ तदनन्तर दैत्यों ने सत्यवादी, धैर्यवान् तथा देवताओं के विश्वासपात्र प्रह्लाद को देवताओं के पास भेजा ॥ १५ ॥ असुरों के साथ वहाँ जाकर राजा प्रह्लाद विनय- सम्पन्न होकर देवताओं से नम्रतायुक्त वचन बोले । हे देवताओ ! हम सभी लोगों ने शस्त्र रख दिये हैं और कवच का त्याग कर दिया है। अब हम वल्कल धारण करके तपस्या करेंगे ॥ १६-१७ ॥ प्रह्लाद का वचन सुनकर देवताओं ने उसे सत्य मान लिया और इसके बाद वे निश्चिन्त होकर प्रसन्नतापूर्वक वहाँ से लौट गये ॥ १८ ॥ तब दैत्यों के शस्त्र त्याग देने पर देवता युद्ध से विरत हो गये और चिन्तारहित होकर अपने-अपने घर जाकर स्वस्थचित्त हो क्रीडा-विलास में संलग्न हो गये ॥ १९ ॥ उस समय दैत्यगण पाखण्ड का सहारा लेकर तपस्वी के रूप में तपस्यारत होकर शुक्राचार्य के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए कश्यप मुनि के आश्रम में रहने लगे ॥ २० ॥ उधर, मुनि शुक्राचार्य ने कैलासपर्वत पर पहुँचकर शंकरजी को प्रणाम किया। भगवान् शिव के पूछने पर कि ‘आपका क्या कार्य है ?’ – उन्होंने कहा — हे देव! मैं देवताओं की पराजय और असुरों की विजय के लिये उन मन्त्रों को चाहता हूँ, जो बृहस्पति के भी पास न हों ॥ २१-२२ ॥ व्यासजी बोले — उनका वचन सुनकर सर्वज्ञ और कल्याणकारी भगवान् शिव मन में सोचने लगे कि अब मुझे क्या करना चाहिये? ये दैत्यगुरु शुक्राचार्य देवताओं के प्रति द्रोह – बुद्धि से युक्त होकर उन दैत्यों की विजय के लिये मन्त्र हेतु इस समय यहाँ आये हैं, अतः मुझे देवताओं की रक्षा करनी चाहिये — ऐसा सोचकर शिवजी ने उन्हें यह अत्यन्त कठोर और दुष्कर व्रत करने को कहा — पूरे एक हजार वर्षों तक यदि आप सिर नीचे करके कणधूम (भूसी के धुएँ) – का पान करेंगे, तभी आपका कल्याण होगा और आप मन्त्र प्राप्त कर सकेंगे ॥ २३-२६ ॥ शिवजी के ऐसा कहने पर उन्होंने महेश्वर को प्रणाम करके यह वचन कहा — ‘ बहुत अच्छा’, हे देव ! हे सुरेश्वर ! आपने मुझे जो आदेश दिया है, मैं उस व्रत का पालन करूँगा ॥ २७ ॥ व्यासजी बोले — शिवजी से ऐसा कहकर मन्त्र-प्राप्ति के लिये दृढ़संकल्प शुक्राचार्यजी शान्त होकर धुएँ का सेवन करते हुए कठोर व्रत करने लगे ॥ २८ ॥ तब उस समय शुक्राचार्य को व्रत में संलग्न तथा दैत्यों को [ तपस्वी बनकर ] पाखण्ड में निरत देखकर देवता लोग आपस में मन्त्रणा करने लगे ॥ २९ ॥ हे राजन् ! भलीभाँति विचार करके सभी देवता संग्राम के लिये उद्यत हो गये और शस्त्रास्त्र धारणकर वहाँ पहुँच गये, जहाँ वे बड़े-बड़े दानव विद्यमान थे ॥ ३० ॥ तदनन्तर दैत्यगण उन आये हुए देवताओं को आयुधों से सज्जित और कवच धारण किये तथा अपने को उनसे सब ओर से घिरा देखकर भय से व्याकुल हो उठे ॥ ३१ ॥ वे भयातुर दानव तुरंत उठकर खड़े हो गये और युद्ध के लिये उद्यत बलाभिमानी देवताओं से सारगर्भित वचन कहने लगे — हमने शस्त्र रख दिये हैं, हम भयभीत हैं और हमारे आचार्य इस समय व्रत में संलग्न हैं। हे देवताओ! पहले अभयदान देकर भी आप लोग हमें मारने की इच्छा से आ गये। हे देवगण! आप लोगों का सत्य और श्रुतिसम्मत वह धर्म कहाँ चला गया कि ‘जो शस्त्र रख चुके हों, भयभीत हों और शरणागत हो गये हों, उन्हें नहीं मारना चाहिये’ ॥ ३२-३४ ॥ देवता बोले — आप लोगों ने छल से शुक्राचार्य को मन्त्र प्राप्त करने के लिये भेजा है। हम आप लोगों के तप को जान गये हैं, इसीलिये हम लोग युद्ध करने के लिये उद्यत हुए हैं ॥ ३५ ॥ अब क्षुब्ध हुए आप लोग भी हाथों में शस्त्र धारणकर युद्ध के लिये तैयार हो जाइये। यह सनातन सिद्धान्त है कि जब शत्रु दुर्बल हो, तभी उसे मार डालना चाहिये ॥ ३६ ॥ व्यासजी बोले — उनका वचन सुनकर सभी दैत्य आपस में विचार करके भागने के लिये तत्पर हो गये और भय से व्याकुल होकर वहाँ से निकल भागे ॥ ३७ ॥ वे भयभीत दैत्य शुक्राचार्य की माता की शरण में गये । उन दैत्यों को बहुत सन्तप्त देखकर उन्होंने अभय प्रदान कर दिया ॥ ३८ ॥ शुक्राचार्य की माता ने कहा — हे दानवगण! डरो मत, डरो मत; तुम लोग भय छोड़ दो। मेरे पास रहने वालों को भय हो ही नहीं सकता ॥ ३९ ॥ यह वचन सुनकर दैत्यों की व्यथा दूर हो गयी और वे शस्त्रास्त्र त्यागकर पूर्ण रूप से निश्चिन्त हो वहीं पर उनके उत्तम आश्रम में रहने लगे ॥ ४० ॥ तब दैत्यों को पलायित देखकर वे देवता उनके पैरों के चिह्नों के पीछे-पीछे जाते हुए उनके बलाबल का बिना विचार किये हठात् उनके पास पहुँच गये ॥ ४१ ॥ वहाँ पर आये हुए सभी देवता आश्रम में रहने वाले दैत्यों का वध करने को उद्यत हो गये और शुक्राचार्य की माता के रोकने पर भी उन दैत्यों को मारने लगे ॥ ४२ ॥ इस प्रकार देवताओं के द्वारा उन्हें मारे जाते हुए देखकर शुक्राचार्य की माता बहुत काँपने लगीं और बोलीं — मैं अभी समस्त देवताओं को अपने तप के प्रभाव से निद्राग्रस्त कर दे रही हूँ ॥ ४३ ॥ ऐसा कहकर उन्होंने निद्रा को प्रेरित किया। उस निद्रा ने देवताओं के पास आकर उन पर अपना प्रभाव डाल दिया, जिससे इन्द्रसहित सभी देवता निद्रा के वशीभूत हो गये और गूँगे की भाँति पड़े रहे ॥ ४४ ॥ इन्द्र को निद्रा के द्वारा नियन्त्रित तथा दीन देखकर भगवान् विष्णु ने कहा — हे देवश्रेष्ठ ! तुम मुझमें प्रविष्ट हो जाओ, तुम्हारा कल्याण हो, मैं तुम्हें अन्यत्र पहुँचाता हूँ ॥ ४५ ॥ विष्णु के इस प्रकार कहने पर इन्द्र उनमें प्रवेश कर गये और उन श्रीहरि से रक्षित होकर वे निर्भय तथा निद्रारहित हो गये ॥ ४६ ॥ तब भगवान् विष्णु के द्वारा रक्षित इन्द्र को व्यथाशून्य देखकर शुक्राचार्य की माता कुपित हो उठीं और यह वचन बोलीं — हे इन्द्र ! सभी देवताओं के देखते-देखते मैं अपने तपोबल से विष्णुसहित तुम्हें खा जाऊँगी; ऐसा मेरा तपोबल है ॥ ४७-४८ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर उन्होंने अपनी योगविद्या के द्वारा इन्द्र तथा विष्णु को आक्रान्त कर दिया और वे दोनों महात्मा स्तब्ध हो गये ॥ ४९ ॥ उन दोनों को बहुत बड़े संकट में पड़ा देखकर देवताओं को महान् आश्चर्य हुआ और वे दुःखीचित्त हो जोर-जोर से चीखने-चिल्लाने लगे ॥ ५० ॥ देवताओं को चीखते-चिल्लाते देखकर इन्द्र ने विष्णु से कहा — हे मधुसूदन ! मैं [ इस समय ] आपकी अपेक्षा अधिक आक्रान्त हूँ । अतः हे विष्णो! हे प्रभो ! यह हमें जबतक भस्म न कर दे, आप तपस्या के अभिमान में चूर इस दुष्टा को शीघ्रतापूर्वक मार डालिये। हे माधव ! अब आप सोच-विचार न करें ॥ ५१-५२ ॥ कीर्तिमान् इन्द्र के ऐसा कहने पर लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु ने दया छोड़कर तत्काल सुदर्शन चक्र का स्मरण किया। विष्णु के वश में रहने वाला वह चक्र उनके स्मरण करते ही आ पहुँचा और इन्द्र से प्रेरित होकर उन्होंने कुपित हो उसके वध के लिये चक्र को अपने हाथ में ले लिया ॥ ५३-५४ ॥ उस चक्र को हाथ में लेकर भगवान् विष्णु ने बड़े वेग से उसका सिर काट दिया। तब उसे मृत देखकर इन्द्र हर्षित हो उठे। सभी देवता भी अत्यन्त सन्तुष्ट होकर विष्णु की जयकार करने लगे। वे प्रसन्न होकर उनकी स्तुति करने लगे और सन्तापरहित हो गये ॥ ५५-५६ ॥ स्त्रीवध से [होने वाले पाप] तथा भृगुमुनि के भीषण शाप की शंका करते हुए वे भगवान् विष्णु तथा इन्द्र उसी समय से दुःखीचित्त रहने लगे ॥ ५७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘शुक्रमातावधवर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ Content is available only for registered users. 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