श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-13
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-त्रयोदशोऽध्यायः
तेरहवाँ अध्याय
शुक्राचार्यरूपधारी बृहस्पति का दैत्यों को उपदेश देना
शुक्ररूपेण गुरुणा दैत्यवञ्चनावर्णनम्

राजा बोले — [ हे व्यासजी !] तत्पश्चात् शुक्राचार्य का रूप धारण करने वाले बुद्धिमान् गुरु बृहस्पति ने छलपूर्वक दैत्यों का पुरोहित बनकर क्या किया ? ॥ १ ॥ वे तो देवताओं के गुरु हैं, सदा से सभी विद्याओं के निधान हैं और महर्षि अंगिरा के पुत्र हैं; तब उन मुनि ने छल क्यों किया ? ॥ २ ॥ मुनियों ने समस्त धर्मशास्त्रों में सत्य को ही धर्म का मूल बताया है, जिससे परमात्मा तक प्राप्त किये जा सकते हैं ॥ ३ ॥ जब बृहस्पति भी दानवों से झूठ बोले, तब संसार में कौन गृहस्थ सत्य बोलने वाला हो सकेगा ? ॥ ४ ॥ हे मुने! सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का वैभव पास में हो जाने पर भी [कोई व्यक्ति अपने] आहार से अधिक नहीं खा सकता, तब उसी के निमित्त मुनि लोग भी मिथ्या भाषण में किसलिये प्रवृत्त हो जाते हैं ? ॥ ५ ॥

इस प्रकार के अशिष्ट आचरण से देवगुरु बृहस्पति के वचनों की प्रामाणिकता क्या नष्ट नहीं हो गयी और इस छलकर्म में लिप्त होने से उन्हें निष्कलंक कैसे कहा जा सकता है ? ॥ ६ ॥ मुनियों ने देवताओं को सत्त्वगुण से, मनुष्यों को रजोगुण से तथा पशु-पक्षियों को तमोगुण से उत्पन्न बतलाया है ॥ ७ ॥ यदि स्वयं देवगुरु बृहस्पति ही साक्षात् मिथ्या- भाषण में प्रवृत्त हो गये, तब रजोगुण तथा तमोगुण से युक्त कौन प्राणी सत्यवादी हो सकेगा ? ॥ ८ ॥ इस प्रकार तीनों लोकों के मिथ्यापरायण हो जाने पर धर्म की स्थिति कहाँ होगी और सभी प्राणियों की क्या दशा होगी ? यही मेरा संदेह है ॥ ९ ॥ भगवान् विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र तथा और भी दूसरे महान् देवतागण — सब छलकार्य में निपुण हैं, तब मनुष्यों की बात ही क्या ? ॥ १० ॥ सभी देवता और तपोधन मुनिगण भी काम तथा क्रोध से सन्तप्त और लोभ से व्याकुलचित्त होकर छल- प्रपंच में तत्पर रहते हैं ॥ ११ ॥

हे मानद ! जब वसिष्ठ, वामदेव, विश्वामित्र और गुरु बृहस्पति — ये लोग भी पाप कर्म में संलग्न हो गये, तब धर्म की क्या दशा होगी ? ॥ १२ ॥ इन्द्र, अग्नि, चन्द्रमा और ब्रह्मा तक काम के वशीभूत हो गये, तब हे मुने! आप ही बतायें कि इन भुवनों में शिष्टता कहाँ रह गयी ? ॥ १३ ॥ हे पुण्यात्मन्! जब वे सब देवता और मुनि लोग भी लोभ के वशीभूत हैं, तब उपदेश ग्रहण करने के विचार से किसका वचन प्रमाण माना जाय ? ॥ १४ ॥

व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] चाहे विष्णु, ब्रह्मा, शिव, इन्द्र और बृहस्पति ही क्यों न हों — देहधारी तो विकारों से युक्त रहता ही है ॥ १५ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक आसक्ति से ग्रस्त हैं। (हे राजन् ! आसक्त प्राणी कौन-सा अनर्थ नहीं कर बैठता) आसक्ति से युक्त प्राणी भी चतुराई के कारण विरक्त की भाँति दिखायी पड़ता है, किंतु संकट उपस्थित होने पर वह [सत्त्व, रज, तम] गुणों से आबद्ध हो जाता है। कोई भी कार्य बिना कारण के कैसे हो सकता है ? ब्रह्मा आदि समस्त देवताओं के भी मूल कारण गुण ही हैं। उनके भी शरीर पचीस तत्त्वों से बने हैं, इसमें सन्देह नहीं है। हे राजन् ! समय आ जाने पर वे भी मृत्यु को प्राप्त होते हैं, इसमें आपको संशय कैसा? ॥ १६-१८१/२

यह पूर्णरूप से स्पष्ट है कि दूसरों को उपदेश देने में सभी लोग शिष्ट बन जाते हैं, किंतु अपना कार्य पड़ने पर उस उपदेश का पूर्णतः लोप हो जाता है। जो काम, क्रोध, लोभ, द्रोह, अहंकार और डाह आदि विकार हैं; उन्हें छोड़ने में कौन-सा देहधारी प्राणी समर्थ हो सकता है ? हे महाराज ! यह संसार सदा से ही इसी प्रकार शुभाशुभ से युक्त कहा गया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ १९-२११/२

कभी भगवान् विष्णु घोर तपस्या करते हैं, कभी वे ही सुरेश्वर अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं, कभी वे परमेश्वर विष्णु लक्ष्मी के प्रेम-रस में सिक्त होकर उनके वशीभूत हो वैकुण्ठ में विहार करते हैं। वे करुणासागर विष्णु कभी दानवों के साथ अत्यन्त भीषण युद्ध करते हैं और उनके बाणों से आहत हो जाते हैं। [ उस युद्ध में] वे कभी विजयी होते हैं और कभी दैववश पराजित भी हो जाते हैं। इस प्रकार वे भी सुख तथा दुःख से प्रभावित होते हैं; इसमें सन्देह नहीं है। वे विश्वात्मा कभी योगनिद्रा के वशवर्ती होकर शेषशय्या पर शयन करते हैं और कभी सृष्टि काल आने पर योगमाया से प्रेरित होकर जाग भी जाते हैं ॥ २२–२६१/२

ब्रह्मा, विष्णु, महेश और इन्द्र आदि जो देवता तथा मुनिगण हैं वे भी अपने आयुपर्यन्त ही जीवित रहते हैं । हे राजन् ! अन्तकाल आने पर स्थावर-जंगमात्मक यह जगत् भी विनष्ट हो जाता है, इसमें कभी भी कुछ भी सन्देह नहीं करना चाहिये । हे भूपाल ! अपनी आयु का अन्त हो जाने पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, इन्द्र आदि देवता भी विनष्ट हो जाते हैं और [सृष्टि काल आने पर ] पुनः ये उत्पन्न भी हो जाते हैं ॥ २७-२९१/२

अतएव देहधारी प्राणी काम आदि भावों से ग्रस्त हो ही जाता है; हे राजन् ! इस विषय में आपको कभी भी विस्मय नहीं करना चाहिये। हे राजन् ! यह संसार तो काम, क्रोध आदि से ओतप्रोत है। इनसे पूर्णतः मुक्त तथा परम तत्त्व को जानने वाला पुरुष दुर्लभ है ॥ ३०-३११/२

जो इस संसार में [काम, क्रोध आदि विकारों से ] डरता है, वह विवाह नहीं करता । वह समस्त प्रकार की आसक्तियों से मुक्त होकर निर्भीकतापूर्वक विचरता है। इसके विपरीत संसा रसे आबद्ध रहने के कारण ही बृहस्पति की पत्नी को चन्द्रमा ने रख लिया था और देवगुरु बृहस्पति ने अपने छोटे भाई की पत्नी को अपना लिया था। इस प्रकार इस संसार-चक्र में राग, लोभ आदि से जकड़ा हुआ मनुष्य गृहस्थी में आसक्त रहकर भला मुक्त कैसे हो सकता है ? ॥ ३२-३४१/२

अतः पूर्ण प्रयत्न के साथ संसार में आसक्ति का त्याग करके सच्चिदानन्दस्वरूपिणी भगवती महेश्वरी की आराधना करनी चाहिये । हे राजन् ! यह सम्पूर्ण चराचर जगत् उन्हीं के मायारूपी गुण से आच्छादित होकर उन्मत्त तथा मदिरापान करके मतवाले मनुष्य की भाँति चक्कर काटता रहता है ॥ ३५-३६१/२

उन्हीं की आराधना के द्वारा [सत्त्व आदि ] गुणों को पराभूत करके बुद्धिमान् मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर सकता है, इसके अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग नहीं है। आराधित होकर महेश्वरी जबतक कृपा नहीं करतीं, तबतक सुख कैसे हो सकता है ? उनके सदृश दयावान् दूसरा कौन है ? अतः निष्कपट भाव से करुणासागर भगवती की आराधना करनी चाहिये, जिनके भजन से मनुष्य जीते जी मुक्ति प्राप्त कर सकता है ॥ ३७–३९१/२

दुर्लभ मनुष्य जन्म पाकर जिसने उन महेश्वरी की उपासना नहीं की, वह मानो अन्तिम सीढ़ी से फिसलकर गिर गया – मैं तो यही धारणा रखता हूँ। सम्पूर्ण विश्व अहंकार से आच्छादित है, तीनों गुणों से युक्त है तथा असत्य से बँधा हुआ है, तब प्राणी मुक्त कैसे हो सकता है ? अतः सबकुछ छोड़कर सभी लोगों को भगवती भुवनेश्वरी की उपासना करनी चाहिये ॥ ४०-४२ ॥

राजा बोले — हे पितामह! शुक्राचार्य का रूप धारण करने वाले देवगुरु बृहस्पति ने वहाँ दैत्यों के पास पहुँचकर क्या किया और शुक्राचार्य पुनः कब लौटे ? वह हमें बताइये ॥ ४३ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! तब गोपनीय ढंग से शुक्राचार्य का स्वरूप बनाकर देवगुरु ने जो कुछ किया, वह मैं बताता हूँ, आप सुनिये ॥ ४४ ॥  देवगुरु बृहस्पति ने दैत्यों को बोध प्रदान किया। तब शुक्राचार्य को अपना गुरु समझकर और उन पर पूर्ण विश्वास करके सभी दैत्य उन्हीं के कथनानुसार व्यवहार करने लगे ॥ ४५ ॥ अत्यधिक मोहितचित्त वे दैत्य बृहस्पति को शुक्राचार्य समझकर विद्याप्राप्ति के लिये उनके शरणागत हुए। देवगुरु बृहस्पति ने भी उन्हें बहुत ठगा । [ यह सत्य है कि ] लोभ से कौन – सा प्राणी मोहमें नहीं पड़ जाता ॥ ४६ ॥

तब जयन्ती के साथ क्रीडा करते-करते निर्धारित प्रतिज्ञासम्बन्धी दस वर्ष की अवधि पूर्ण हो जाने पर शुक्राचार्य अपने यजमानों के विषय में विचार करने लगे कि मेरी राह देखते हुए वे आशान्वित हो बैठे होंगे। अतः अब मैं चलकर अपने उन अत्यन्त भयभीत यजमानों को देखूँ। कहीं ऐसा न हो कि मेरे उन भक्तों के सम्मुख देवताओं से कोई भय उत्पन्न हो गया हो ॥ ४७-४८१/२

यह सोचकर अपनी बुद्धि स्थिर करके उन्होंने जयन्ती से कहा — हे सुनयने ! मेरे पुत्रसदृश दैत्यगण देवताओं के पास कालक्षेप कर रहे हैं । प्रतिज्ञानुसार तुम्हारे साथ रहने का दस वर्ष का समय पूरा हो चुका है, अतः हे देवि ! अब मैं अपने यजमानों से मिलने जा रहा हूँ। हे सुमध्यमे ! मैं पुनः तुम्हारे पास शीघ्र ही लौट आऊँगा ॥ ४९-५१ ॥

परम धर्मपरायणा जयन्ती ने उनसे कहा — हे धर्मज्ञ ! बहुत ठीक है, आप स्वेच्छापूर्वक जाइये। मैं आपका धर्म लुप्त नहीं होने दूँगी ॥ ५२ ॥

उसका यह वचन सुनकर शुक्राचार्य वहाँ से शीघ्रता- पूर्वक चल पड़े। वहाँ पहुँचकर उन्होंने देखा कि दैत्यों के पास विराजमान होकर बृहस्पति छद्मरूप धारण करके शान्तचित्त हो छल से उन्हें अपने द्वारा रचित जिनधर्म तथा यज्ञनिन्दापरक वचनों की शिक्षा इस प्रकार दे रहे हैं ‘हे देवताओं के शत्रुगण ! मैं सत्य तथा आप लोगों के हित की बात बता रहा हूँ कि अहिंसा सर्वोपरि धर्म है। आततायियों को भी नहीं मारना चाहिये। भोगपरायण तथा अपनी जिह्वा के स्वाद के लिये सदा तत्पर रहने वाले द्विजों ने वेद में पशुहिंसा का उल्लेख कर दिया है, किंतु सच्चाई यह है कि अहिंसा को ही सर्वोत्कृष्ट माना गया है’ ॥ ५३–५६ ॥

इस प्रकार की वेद-शास्त्रविरोधी बातें कहते हुए देवगुरु बृहस्पति को देखकर वे भृगुपुत्र शुक्राचार्य आश्चर्यचकित हो गये। वे मन-ही-मन सोचने लगे कि यह देवगुरु तो मेरा शत्रु है। इस धूर्त ने मेरे यजमानों को अवश्य ठग लिया है, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५७-५८ ॥ नरक के द्वारस्वरूप तथा पाप के बीजरूप उस उग्र लोभ को धिक्कार है, जिस लोभरूप पाप से प्रेरित होकर देवगुरु बृहस्पति भी असत्य बोल रहे हैं ॥ ५९ ॥ जिनका वचन प्रमाण माना जाता है और जो समस्त देवताओं के गुरु तथा धर्मशास्त्रों के प्रवर्तक हैं. वे भी पाखण्ड के पोषक हो गये हैं ॥ ६० ॥ लोभ से विकृत मन वाला प्राणी क्या-क्या नहीं कर डालता। दूसरों की क्या बात, जबकि साक्षात् देवगुरु ही इस प्रकार के पाखण्ड के पण्डित हो गये हैं। श्रेष्ठ ब्राह्मण होकर भी ये धूर्तों की सारी भाव-भंगिमाएँ बनाकर मेरे इन घोर अज्ञानी दैत्य यजमानों को ठग रहे हैं ॥ ६१-६२ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘शुक्ररूपधारी बृहस्पति द्वारा दैत्यवंचनावर्णन’ नामक तेरहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १३ ॥

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