April 19, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-24 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-चतुर्विंशोऽध्यायः चौबीसवाँ अध्याय श्रीकृष्णावतार की संक्षिप्त कथा, कृष्णपुत्र का प्रसूतिगृह से हरण, कृष्ण द्वारा भगवती की स्तुति, भगवती चण्डिका द्वारा सोलह वर्ष के बाद पुनः पुत्रप्राप्ति का वर देना देव्या कृष्णशोकायनोदनम् व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] प्रातः काल नन्दजी के घर में पुत्रजन्म का बड़ा भारी समारोह सम्पन्न हुआ, यह बात चारों ओर फैल गयी और कंस ने भी किसी दूत के मुख से यह सुन लिया ॥ १ ॥ कंस यह पहले से ही जानता था कि वसुदेव की अन्य भार्या, पशु तथा सेवकगण – सब-के-सब गोकुल में नन्द के यहाँ रह रहे हैं। हे भारत! इस कारण से गोकुल के प्रति कंस का सन्देह और बढ़ गया। नारदजी ने भी सभी कारण पहले ही बता दिये थे। उन्होंने कह दिया था कि गोकुल में नन्द आदि गोप, उनकी पत्नियाँ, देवकी तथा वसुदेव आदि जो भी लोग हैं, वे सब देवताओं के अंश से उत्पन्न हुए हैं; इसलिये वे निश्चितरूप से तुम्हारे शत्रु हैं ॥ २-४ ॥ हे राजन्! देवर्षि नारद ने जब यह बात बतायी थी तो बड़े-से-बड़े पापकर्मों में प्रवृत्त रहने वाला वह कुलकलंकी कंस अत्यधिक कुपित हो गया था ॥ ५ ॥ अपरिमित तेजवाले श्रीकृष्ण ने पूतना, बकासुर, वत्सासुर, महाबली धेनुकासुर तथा प्रलम्बासुर को मार डाला और गोवर्धन पर्वत को उठा लिया-इस अद्भुत कर्म को सुनकर कंस ने यह अनुमान लगा लिया कि मेरा भी मरण अब सुनिश्चित है ॥ ६-७ ॥ [महान् बलशाली ] केशी भी मार डाला गया – यह जानकर कंस अत्यधिक खिन्नमनस्क हो गया, तब उसने धनुष यज्ञ के बहाने [कृष्ण तथा बलराम ] दोनों को शीघ्र ही मथुरा में बुलाने की योजना बनायी ॥ ८ ॥ निर्दयी तथा पापबुद्धि कंस ने असीम पराक्रमी श्रीकृष्ण तथा बलराम का वध करने के उद्देश्यसे उन्हें बुलाने के लिये अक्रूर को भेजा ॥ ९ ॥ तदनन्तर कंस का आदेश मानकर गान्दिनीपुत्र अक्रूर गोकुल गये और दोनों गोपालों- श्रीकृष्ण तथा बलराम को रथ पर बैठाकर गोकुल से मथुरा लौट आये ॥ १० ॥ वहाँ पहुँचकर श्रीकृष्ण तथा बलराम ने धनुष को तोड़ा। पुनः रजक, कुवलयापीड हाथी, चाणूर और मुष्टिक का संहार करके भगवान् श्रीकृष्ण ने शल तथा तोशल का वध किया। तत्पश्चात् देवेश श्रीकृष्ण ने कंस के बाल पकड़कर लीलापूर्वक उसको भी मार डाला ॥ ११-१२ ॥ तदनन्तर शत्रुविनाशक श्रीकृष्ण ने अपने माता-पिता को कारागार से मुक्त कराकर उनका कष्ट दूर किया और उग्रसेन को उनका राज्य वापस दिला दिया ॥ १३ ॥ तदनन्तर महामना वसुदेव ने उन दोनों का मौंजी- बन्धन तथा उपनयन संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न करवाया ॥ १४ ॥ उपनयन संस्कार हो जाने के पश्चात् वे दोनों सान्दीपनि ऋषि के आश्रम में विद्याध्ययन के लिये गये और समस्त विद्याओं का अध्ययन करके पुनः मथुरा लौट आये ॥ १५ ॥ आनकदुन्दुभि (वसुदेवजी ) – के पुत्र कृष्ण और बलराम बारह वर्ष की अवस्था में ही सम्पूर्ण विद्याओं में निष्णात तथा महान् बलशाली होकर मथुरा में ही निवास करने लगे ॥ १६ ॥ उधर अपने जामाता कंस के वध से मगधनरेश जरासन्ध अत्यन्त दुःखित हुआ और उसने विशाल सेना संगठित कर मथुरापुरी पर आक्रमण कर दिया ॥ १७ ॥ किंतु मधुपुरी (मथुरा) – में निवास करनेवाले बुद्धिमान् श्रीकृष्ण ने समरांगण में उपस्थित होकर सत्रह बार उसे पराजित किया ॥ १८ ॥ इसके बाद जरासन्ध ने यादव समुदाय के लिये भयदायक तथा सम्पूर्ण म्लेच्छों के अधिपति कालयवन नामक योद्धा को श्रीकृष्ण का सामना करने के लिये प्रेरित किया ॥ १९ ॥ कालयवन को आता सुनकर मधुसूदन श्रीकृष्ण ने सभी प्रसिद्ध यादवों तथा बलराम को बुलाकर कहा — महाबलशाली जरासन्ध से हमलोगों को यहाँ बराबर भय बना हुआ है। [उसी की प्रेरणा से] कालयवन यहाँ आ रहा है। हे महाभाग ! ऐसी स्थिति में हमलोगों को क्या करना चाहिये ? ॥ २०-२१ ॥ इस समय घर, सेना और धन छोड़कर हमें प्राण बचा लेना चाहिये। जहाँ भी सुखपूर्वक रहने का प्रबन्ध हो जाय, वही पैतृक देश होता है ॥ २२ ॥ इसके विपरीत उत्तम कुल के निवास करने योग्य पैतृक भूमि में भी यदि सदा अशान्ति बनी रहती हो तो ऐसे स्थान पर रहने से क्या लाभ? अतः सुख की कामना करने वाले को पर्वत या समुद्र के पास निवास कर लेना चाहिये ॥ २३ ॥ जिस स्थान पर शत्रुओं का भय नहीं रहता, ऐसे स्थान पर ही विज्ञजनों को रहना चाहिये। भगवान् विष्णु शेषशय्या का आश्रय लेकर समुद्र में शयन करते हैं और इसी प्रकार त्रिपुरदमन भगवान् शंकर भी कैलासपर्वत पर निवास करते हैं । अतएव शत्रुओं द्वारा निरन्तर सन्तप्त किये गये हम लोगों को अब यहाँ नहीं रहना चाहिये। अब हम सभी लोग एक साथ द्वारकापुरी चलेंगे। गरुड ने मुझसे बताया है कि द्वारकापुरी अत्यन्त रमणीक तथा मनोहर है, जो समुद्र के तट पर तथा रैवतपर्वत के समीप विराजमान है ॥ २४–२६१/२ ॥ व्यासजी बोले — श्रीकृष्ण की यह युक्तिपूर्ण बात सुनकर सभी श्रेष्ठ यादवों ने अपने परिवारजनों तथा वाहनों के साथ जाने का निश्चय कर लिया । गाड़ियों, ऊँटों, घोड़ियों और भैंसों पर धन-सामग्री लादकर तथा श्रीकृष्ण और बलराम को आगे करके वे सभी यादवश्रेष्ठ अपने परिजनों को साथ लेकर नगर से बाहर हो गये । समस्त प्रजाजनों को आगे-आगे करके सभी श्रेष्ठ यादव चल पड़े। वे सब कुछ ही दिनों में द्वारकापुरी पहुँच गये ॥ २७-३० ॥ श्रीकृष्ण ने कुशल शिल्पकारों से द्वारकापुरी का जीर्णोद्धार कराया, सभी यादवों को वहाँ बसाकर वे श्रीकृष्ण और बलराम तत्काल मथुरा लौटकर उस निर्जन पुरी में रहने लगे। उसी समय शक्तिशाली कालयवन भी वहाँ आ गया। कालयवन को आया जानकर वे पीताम्बरधारी तथा ऐश्वर्यसम्पन्न मधुसूदन भगवान् जनार्दन नगर से बाहर निकल पड़े और जोर-जोर हँसते हुए उसके आगे-आगे पैदल ही चलने लगे ॥ ३१-३३१/२ ॥ उन कमललोचन श्रीकृष्ण को अपने आगे जाता देखकर वह दुष्ट कालयवन उनके पीछे-पीछे पैदल ही चलता रहा। तत्पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण कालयवनसहित वहाँ पहुँच गये, जहाँ महाबली राजर्षि मुचुकुन्द शयन कर रहे थे। मुचुकुन्द को देखकर भगवान् कृष्ण वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ ३४-३६ ॥ वह कालयवन भी वहीं पहुँच गया। उसने देखा कि कोई सो रहा है। राजर्षि मुचुकुन्द को कृष्ण समझकर कालयवन ने उनके ऊपर पैर से प्रहार किया ॥ ३७ ॥ [ कालयवन द्वारा पाद- प्रहार किये जाने से] वे जग गये और क्रोध से आँखें लाल किये हुए महाबली मुचुकुन्द ने [उसकी ओर दृष्टिपात करके] उसे भस्म कर दिया। उसे जलाने के बाद मुचुकुन्द ने अपने समक्ष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को उपस्थित देखा । तदनन्तर देवाधिदेव वासुदेव को प्रणाम करके वे वन की ओर प्रस्थान कर गये। भगवान् श्रीकृष्ण भी बलराम को साथ लेकर द्वारकापुरी चले गये ॥ ३८-३९ ॥ इस प्रकार उग्रसेन को पुनः राजा बनाकर वे इच्छापूर्वक विहार करने लगे। इसके बाद शिशुपाल के साथ रुक्मिणी के सुनिश्चित किये गये विवाह हेतु आयोजित स्वयंवर से भगवान् श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया और उसके साथ राक्षस-विधि से विवाह कर लिया। तत्पश्चात् जाम्बवती, सत्यभामा, मित्रविन्दा, कालिन्दी, लक्ष्मणा, भद्रा तथा नाग्नजिती — इन दिव्य सुन्दरियों को बारी-बारी से ले आकर श्रीकृष्ण ने उनके साथ भी पाणिग्रहण किया । हे भूपाल ! श्रीकृष्ण की ये ही परम सुन्दर आठ पत्नियाँ थीं। इनमें रुक्मिणी ने देखने में परम सुन्दर पुत्र प्रद्युम्न को जन्म दिया ॥ ४०-४३ ॥ मधुसूदन भगवान् श्रीकृष्ण ने उस बालक के जातकर्म आदि संस्कार किये। महाबली शम्बरासुर ने प्रसवगृह से उस बालक का हरण कर लिया और उसे अपनी नगरी में ले जाकर मायावती को सौंप दिया ॥ ४४१/२ ॥ उधर, अपने पुत्र का हरण देखकर शोक सन्तप्त वासुदेव श्रीकृष्ण ने भक्तिभावयुक्त हृदय से उन भगवती योगमाया की शरण ली, जिन्होंने वृत्रासुर आदि दैत्यों का लीलामात्र से वध कर दिया था ॥ ४५-४६ ॥ तदनन्तर भगवान् श्रीकृष्ण अत्यन्त सारगर्भित अक्षरों तथा वाक्यों से युक्त मंगलमय स्तवनों के द्वारा योगमाया का पुण्य स्मरण करने लगे ॥ ४७ ॥ श्रीकृष्ण बोले — हे माता ! पूर्वकाल में मैंने धर्मपुत्र नारायण के रूप में बदरिकाश्रम में घोर तपस्या करके तथा पुष्प आदि से आपकी विधिवत् पूजा करके आपको प्रसन्न किया था । हे जननि! क्या अपने प्रति मेरे उस भक्तिभाव को आपने विस्मृत कर दिया ? ॥ ४८ ॥ किस कुत्सित हृदय वाले दुराचारी ने प्रसूतिगृह से मेरे पुत्र का हरण कर लिया ? अथवा किसी ने मेरा अभिमान दूर करने के लिये कौतूहलवश यह प्रपंच रच दिया है। हे अम्ब! चाहे जो हो, किंतु आज अपने भक्तजन की लाज रखना आपका परमोचित कर्तव्य है ॥ ४९ ॥ चारों ओर दुस्तर खाइयों से अति सुरक्षित मेरी नगरी है, उसमें भी मेरा भवन मध्य भाग में स्थित है और उस भवन के अन्तः पुर में प्रसूतिगृह स्थित है, जिसके दरवाजे बन्द रहते हैं; फिर भी मेरे पुत्र का हरण हो गया। यह तो मेरे दोष के ही कारण हुआ ॥ ५० ॥ मैं द्वारकापुरी छोड़कर किसी अन्य नगर में नहीं गया और यादवगण भी वहाँ से कहीं नहीं गये थे। महान् वीरों के द्वारा नगरी की पूर्ण सुरक्षा की गयी थी। हे माता ! इसमें तो मुझे आपकी ही माया का प्रत्यक्ष प्रभाव परिलक्षित हो रहा है, जिसकी प्रेरणा से किसी मायावी ने मेरे पुत्र का हरण कर लिया है ॥ ५१ ॥ हे माता ! जब मैं आपके अत्यन्त गुप्त चरित्र को नहीं जान पाया तो फिर मन्दबुद्धि तथा अल्पज्ञ ऐसा कौन प्राणी होगा, जो आपके चरित्र को जान सकता है। मेरे पुत्र का हरण करने वाला कहाँ चला गया, जिसे मेरे सैनिक देख तक नहीं पाये, हे अम्बिके! यह आपकी ही रची हुई माया का प्रभाव है ॥ ५२ ॥ आपके लिये यह कोई विचित्र बात नहीं है; क्योंकि मेरे प्रकट होने के पूर्व आपने अपनी माया के प्रभाव से माता देवकी के पाँच महीने के गर्भ को खींचकर [माता रोहिणी के गर्भ में] स्थापित कर दिया था। वसुदेवजी कारागार में निरुद्ध थे; उनसे दूर रहती हुई पतिपरायणा माता रोहिणी ने सम्पर्क के बिना ही उसे जन्म दिया, जो हलधर नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥ ५३ ॥ हे अम्ब! आप सत्त्व, रज तथा तम – इन तीनों गुणों के द्वारा जगत् का सृजन, पालन तथा संहार निरन्तर करती रहती हैं। हे जननि ! आपके पापनाशक चरित्र को कौन जान सकता है ? वास्तविकता तो यह है कि यह सम्पूर्ण जगत्प्रपंच आपके ही द्वारा विरचित है ॥ ५४ ॥ आप पहले प्राणियों के समक्ष पुत्र जन्म से होने वाले असीम आनन्द को उपस्थित करके पुनः पुत्र-वियोगजनित दुःख का भार उनके ऊपर ला देती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि उन सुललित प्रपंचों की रचना करके आप अपना मनोरंजन करती हैं। यदि ऐसा न होता तो पुत्र – प्राप्तिजनित मेरा आनन्द व्यर्थ क्यों होता ? ॥ ५५ ॥ हे अमित प्रभाववाली भगवति! इस बालक की माता कुररी पक्षी की भाँति रो रही है। वह बेचारी सदा मेरे पास ही रहती है, जिसे देखकर मेरा दुःख और भी बढ़ जाता है। हे माता ! आप ही तो भवव्याधि से पीड़ित प्राणियों की एकमात्र शरण हैं; हे ललिते! आप उसका दुःख क्यों नहीं समझ रही हैं ? ॥ ५६ ॥ हे देवि ! विद्वज्जन कहते हैं कि पुत्र जन्म के अवसर पर सुख की कोई सीमा नहीं रहती तथा उसके नष्ट हो जाने पर दुःख की भी सीमा नहीं रहती। हे जननि ! अब मैं क्या करूँ ? हे माता ! अपने प्रथम पुत्र के विनष्ट हो जाने पर मेरा हृदय अब विदीर्ण होता जा रहा है ॥ ५७ ॥ मैं आपको प्रसन्न करने वाला अम्बायज्ञ करूँगा, नवरात्रव्रत करूँगा और विधि-विधान से आपका पूजन करूँगा; क्योंकि आप सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाली हैं। हे माता ! यदि मेरा पुत्र जीवित हो तो आप मुझे शीघ्र उसे दिखा दीजिये; क्योंकि आप समस्त प्रकार के शोकों का शमन करने में समर्थ हैं ॥ ५८ ॥ व्यासजी बोले — असाध्य से असाध्य कार्यों को भी सहज भाव से कर सकने में समर्थ भगवान् श्रीकृष्ण के इस प्रकार स्तुति करने पर भगवती उन जगद्गुरु वासुदेव के सामने प्रत्यक्ष प्रकट होकर बोलीं — ॥ ५९ ॥ श्रीदेवी बोलीं — हे देवेश ! आप शोक न करें। यह आपका पूर्वजन्म का शाप है; उसीके परिणामस्वरूप शम्बरासुर ने आपके पुत्र का बलपूर्वक हरण कर लिया है ॥ ६० ॥ सोलह वर्ष का हो जाने पर वह पुत्र मेरी कृपा से उस शम्बरासुर का संहार करके स्वयं ही घर आ जायगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ६१ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर प्रचण्ड पराक्रम से सम्पन्न भगवती चण्डिका अन्तर्धान हो गयीं और भगवान् श्रीकृष्ण भी पुत्र-शोक त्यागकर प्रसन्न हो गये ॥ ६२ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘देवी के द्वारा कृष्णशोकापनोदन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥ Content is available only for registered users. 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