April 19, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-25 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-पञ्चविंशोऽध्यायः पचीसवाँ अध्याय व्यासजी द्वारा शाम्भवी माया की बलवत्ता का वर्णन, श्रीकृष्ण द्वारा शिवजी की प्रसन्नता के लिये तप करना और शिवजी द्वारा उन्हें वरदान देना पराशक्तेः सर्वज्ञत्वकथनम् राजा बोले — हे मुनिवर ! आपकी इस बात से तथा साक्षात् विष्णु के अंशावतार भगवान् कृष्ण के ऊपर कष्ट का पड़ना देखकर मुझे सन्देह हो रहा है ॥ १ ॥ भगवान् विष्णु के अंश से उत्पन्न श्रीकृष्ण [ अपरिमित ] प्रताप से सम्पन्न थे, फिर भी भगवान् के उस पुत्र का प्रसव-गृह से हरण कैसे सम्भव हुआ ? ॥ २ ॥ वह दैत्य शम्बरासुर चारों ओर से भलीभाँति सुरक्षित रमणीय नगर के अत्यन्त गुप्त स्थान में अवस्थित प्रसव- गृह में प्रवेश करके उस बालक को कैसे उठा ले गया ? ॥ ३ ॥ यह बड़ी विचित्र तथा अद्भुत बात है कि भगवान् श्रीकृष्ण भी इसे नहीं जान पाये। हे सत्यवतीनन्दन ! मेरे मनमें [इस बात को लेकर ] महान् आश्चर्य उत्पन्न हो रहा है!॥ ४ ॥ हे ब्रह्मन् ! वहाँ द्वारकापुरी में वासुदेव श्रीकृष्ण के विद्यमान रहते हुए भी सूतिका – गृह से बच्चे के हरण की जानकारी उन्हें नहीं हो सकी; मुझे इसका कारण बताइये ॥ ५ ॥ व्यासजी बोले —हे राजन् ! प्राणियों की बुद्धि को विमोहित कर देने वाली माया बड़ी बलवती होती है; यह शाम्भवी नाम से प्रसिद्ध है । संसार में कौन-सा प्राणी है, जो [ इस माया के प्रभाव से] मोहित नहीं हो जाता है ॥ ६ ॥ मनुष्य जन्म पाते ही प्राणी में समस्त मानवोचित गुण उत्पन्न हो जाते हैं। ये सभी गुण देह से सम्बन्ध रखते हैं। देवता अथवा दानव – कोई भी इससे परे नहीं है ॥ ७ ॥ भूख, प्यास, निद्रा, भय, तन्द्रा, व्यामोह, शोक, सन्देह, हर्ष, अभिमान, बुढ़ापा, मृत्यु, अज्ञान, ग्लानि, वैर, ईर्ष्या, परदोषदृष्टि, मद और थकावट — ये देह के साथ उत्पन्न होते हैं। हे राजन् ! ये भाव सभी पर अपना प्रभाव डालते हैं ॥ ८-९ ॥ जिस प्रकार श्रीराम अपने समक्ष विचरणशील स्वर्ण- मृग की वास्तविकता को नहीं जान पाये और वे सीताहरण तथा जटायुमरण की घटना भी नहीं जान सके ॥ १० ॥ श्रीराम यह भी नहीं जान सके कि अभिषेक के दिन ही उन्हें वनवास होगा और वे अपने वियोगजनित शोक से पिता की मृत्यु भी नहीं जान पाये ॥ ११ ॥ रावण के द्वारा बलपूर्वक हरी गयी सीता के सम्बन्ध में श्रीराम कुछ भी नहीं जान सके थे और एक अज्ञानी पुरुष की भाँति उन्हें खोजते हुए वन-वन में भटकते रहे ॥ १२ ॥ तदनन्तर उन्होंने बलपूर्वक वाली का वध करके वानरों को अपना सहायक बनाकर सागर पर सेतु बाँधा और पुनः उस समुद्र को पार करके उन्होंने सभी दिशाओं में बड़े-बड़े शूरवीर वानरों को भेजा। तत्पश्चात् संग्रामभूमि में रावण के साथ घोर युद्ध किया, जिसमें उन्हें महान् कष्ट उठाना पड़ा ॥ १३-१४ ॥ महाबली होते हुए भी श्रीराम को नागपाश में बँधना पड़ा; बाद में गरुड की सहायता से वे रघुनन्दन बन्धनमुक्त हुए ॥ १५ ॥ श्रीराम ने कोप करके समरभूमि में रावण, महाबली कुम्भकर्ण, मेघनाद तथा निकुम्भ का संहार किया ॥ १६ ॥ भगवान् श्रीराम को जानकी की निर्दोषता का भी परिज्ञान नहीं हो सका और उन्होंने शुद्धता की परीक्षा हेतु प्रज्वलित अग्नि में उनका प्रवेश कराया ॥ १७ ॥ तत्पश्चात् दशरथपुत्र श्रीराम ने परम पवित्र तथा प्रिय सीता को लोकनिन्दा के भय से दूषित मानकर उनका परित्याग कर दिया ॥ १८ ॥ वे श्रीराम अपने पुत्रों लव-कुश को नहीं पहचान सके। बाद में महर्षि वाल्मीकि ने उन्हें बताया कि वे दोनों महाबली बालक उन्हीं के पुत्र हैं ॥ १९ ॥ वे रघुनन्दन श्रीराम सीता के पाताल जाने की भी बात नहीं जान पाये । वे कुपित होकर भाई का वध करने को उद्यत हो गये ॥ २० ॥ दानव खर के संहारक श्रीराम को काल के आगमन का भी ज्ञान नहीं हो सका। मानव शरीर धारण करके उन्होंने मनुष्यों के समान कार्य किये ॥ २१ ॥ ऐसे ही श्रीकृष्ण ने भी सभी मानवोचित भाव प्रदर्शित किये, इस विषय में अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये । यदुनन्दन श्रीकृष्ण पहले कंस के भय से गोकुल जाने को विवश हुए। कुछ समय के पश्चात् जरासन्ध के भय से मथुरा छोड़कर श्रीकृष्ण को द्वारका जाना पड़ा। वे ही श्रीकृष्ण अधर्मपूर्ण कार्य करने में प्रवृत्त हुए जो कि उन्होंने सनातन धर्म को जानते हुए भी शिशुपाल के द्वारा वरण की गयी रुक्मिणी का हरण कर लिया। शम्बरासुर के द्वारा पुत्र का बलपूर्वक हरण कर लिये जाने पर उसके लिये श्रीकृष्ण शोकाकुल हो उठे और [ भगवती से] पुत्र के जीवित होने की बात जानकर वे प्रसन्न हो गये। इस प्रकार हर्ष तथा शोक—इन दोनों से वे प्रभावित रहे ॥ २२-२४१/२ ॥ सत्यभामा की आज्ञा से स्वर्ग में जाकर कल्पवृक्ष के लिये उन्होंने इन्द्र के साथ युद्ध किया । युद्ध में इन्द्र को परास्त करके अपना स्त्रीवशित्व प्रकट करते हुए श्रीकृष्ण ने इन्द्र से वह कल्पवृक्ष छीन लिया था । मानिनी सत्यभामा का मान रखने के लिये प्रभु श्रीकृष्ण काष्ठमूर्ति के रूप में चित्रित हो गये और सत्यभामा ने पति कृष्ण को वृक्ष में बाँधकर उन्हें नारद को दान कर दिया। तत्पश्चात् सत्यभामा ने सोने का कृष्ण दान में देकर उन्हें नारदजी से मुक्त कराया ॥ २५-२७१/२ ॥ रुक्मिणी प्रद्युम्न आदि विशिष्ट गुणसम्पन्न पुत्रों को देखकर दीनभाव से जाम्बवती ने कृष्ण से सुन्दर सन्तान हेतु याचना की, तब तपस्या करने का निश्चय करके वे पर्वत पर चले गये, जहाँ महान् तपस्वी तथा शिवभक्त मुनि उपमन्यु विराजमान थे ॥ २८-२९१/२ ॥ वहाँ पर पुत्राभिलाषी श्रीकृष्ण ने उपमन्यु को अपना गुरु बनाकर उनसे पाशुपत – दीक्षा ली और वे वहीं पर मुण्डित होकर दण्डी हो गये। महीने भर फलाहार करते हुए श्रीकृष्ण ने घोर तपस्या की और शिव के ध्यान में लीन होकर शिवमन्त्र का जप किया। दूसरे महीने में केवल जल पीकर और एक पैर से खड़े होकर श्रीकृष्ण ने कठोर तप किया। तीसरे महीने में वे वायुभक्षण करते हुए पैर के अँगूठे के अग्रभाग पर स्थित रहे । तत्पश्चात् छठे महीने में भगवान् रुद्र उनके भक्तिभाव से प्रसन्न हो गये और उन चन्द्रकलाधारी भगवान् शंकर ने पार्वतीसहित उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिया। वे नन्दी बैल पर सवार होकर वहाँ आये थे और इन्द्र आदि देवताओं से घिरे हुए थे । उस समय ब्रह्मा और विष्णु भी उनके साथ थे तथा साक्षात् यक्ष और गन्धर्व उनकी निरन्तर सेवा कर रहे थे। उन वासुदेव श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए शंकरजी ने कहा — हे कृष्ण ! हे महामते ! तुम्हारी इस कठोर तपस्या से मैं प्रसन्न हूँ । अतः हे यादवनन्दन ! तुम अपने वांछित मनोरथ बताओ, मैं उन्हें दूंगा। सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले मुझ शिव का दर्शन हो जाने पर कोई भी कामना शेष नहीं रह जाती ॥ ३०-३६१/२ ॥ व्यासजी बोले — उन भगवान् शंकर को प्रसन्न देखकर देवकीनन्दन श्रीकृष्ण प्रेमपूर्वक उनके चरणों में दण्ड की भाँति गिर पड़े। तदनन्तर देवेश्वर सनातन श्रीकृष्ण शंकरजी के सम्मुख खड़े होकर मेघ-सदृश गम्भीर वाणी में उनकी स्तुति करने लगे ॥ ३७–३८१/२ ॥ श्रीकृष्ण बोले — हे देवदेव ! हे जगन्नाथ ! हे सभी प्राणियों के कष्ट के विनाशक! हे विश्वयोने! हे दैत्यमर्दन ! हे त्रैलोक्यकारक ! आपको नमस्कार है। हे नीलकण्ठ ! आपको नमस्कार है, आप त्रिशूलधारी को बार-बार नमस्कार है । दक्ष यज्ञ का विध्वंस करने वाले आप पार्वतीवल्लभ को नमस्कार है । हे सुव्रत ! आपके दर्शन से मैं धन्य तथा कृतकृत्य हो गया। आपके चरणकमल का नमन करके मेरा जन्म सफल हो गया। हे जगद्गुरो ! इस संसार में आकर मैं स्त्रीरूपी बन्धनों में आबद्ध हो गया हूँ ॥ ३९-४२ ॥ हे त्रिलोचन ! अपनी रक्षा के लिये आज मैं आपकी शरण में आया हूँ । हे दुःखनाशन! मानव जन्म पाकर मैं बहुत खिन्न हो गया हूँ। हे भव ! शरण में आये हुए तथा सांसारिक दुःखों से भयभीत मुझ दीन की इस समय आप रक्षा कीजिये। हे मदनदाहक ! मैंने गर्भ में रहकर बहुत कष्ट पाया है। जन्मकाल से ही गोकुल में रहते हुए मुझे कंस से भयभीत रहना पड़ा। तत्पश्चात् नन्द के यहाँ मुझे गो- पालन का कार्य करना पड़ा और गायों के खुर से उड़ी हुई धूल से धूसरित केशपाश वाला होकर घने वृन्दावन में इधर-उधर विचरण करता हुआ मैं ग्वालों की आज्ञा का पालन करने को विवश हुआ ॥ ४३-४५१/२ ॥ हे विभो ! उसके बाद म्लेच्छराज कालयवन के भय से सन्त्रस्त होकर मथुरा – जैसी दुर्लभ तथा शुभ पैतृक भूमि छोड़कर मुझे द्वारकापुरी चले जाना पड़ा। हे विभो ! राजा ययाति के शापवश भय के कारण अपने कुल धर्म की रक्षा में तत्पर मैंने समृद्धिमयी मथुरा तथा द्वारकापुरी का राज्य उग्रसेन को सौंप दिया और सदा उनका दास बनकर उनकी सेवा की। हमारे पूर्वजों ने उन उग्रसेन को ही यादवों का राजा बनाया था ॥ ४६–४८१/२ ॥ हे शम्भो ! गृहस्थी का जीवन अत्यन्त कष्टप्रद होता है। इसमें सदा स्त्री के वशीभूत रहना पड़ता है और अनेक धार्मिक मर्यादाओं का उल्लंघन हो जाता है। इसमें परतन्त्रता तथा स्त्रीपुत्रादि का बन्धन सदा बाँधे रखता है। इस जीवन में मोक्ष की वार्ता तो दुर्लभ रहती है ॥ ४९१/२ ॥ रुक्मिणी के पुत्रों को देखकर मेरी भार्या जाम्बवती ने पुत्र – प्राप्ति के निमित्त तपस्या करने के लिये मुझे प्रेरित किया। अतएव हे मदनान्तक! पुत्र प्राप्ति की कामना से मुझे यह तपस्या करनी पड़ी। हे देवेश ! [ पुत्र प्राप्ति के लिये ] आपसे याचना करने में मुझे लज्जा का अनुभव हो रहा है। हे जगद्गुरो ! आप मुक्तिदाता तथा भक्तवत्सल देवेश्वर की आराधना के बाद उनके प्रसन्न हो जाने पर कौन मूर्ख ऐसे विनाशशील तथा तुच्छ फल की कामना करेगा ? हे शम्भो ! हे जगत्पते ! हे विभो ! अपनी भार्या जाम्बवती से प्रेरित होकर आपकी माया से विमूढचित्त यह मैं आप मुक्तिदाता से पुत्र – सुख की याचना कर रहा हूँ ॥ ५०-५३१/२ ॥ हे शम्भो ! मैं जानता हूँ कि यह संसार कष्टदायक, दुःखों का आगार, अनित्य तथा विनाशशील है, फिर भी इसके प्रति मेरे मन में वैराग्य भाव का उदय नहीं हो पा रहा है। नारायण का अंश होते हुए भी पूर्वजन्म के शाप के कारण मायापाश में आबद्ध होकर नानाविध कष्ट भोगने के लिये मुझे पृथ्वीतल पर जन्म लेना पड़ा ॥ ५४-५५१/२ ॥ व्यासजी बोले — भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहने पर महेश्वर ने उनसे कहा — हे शत्रुदमन! आपके बहुत से पुत्र होंगे; आपकी सोलह हजार पचास भार्याएँ भी होंगी। उनमें से प्रत्येक स्त्री से दस-दस महाबलवान् पुत्र उत्पन्न होंगे — ऐसा कहकर प्रियदर्शन शिवजी चुप हो गये ॥ ५६-५८ ॥ तत्पश्चात् प्रणाम करते हुए श्रीकृष्ण से देवी पार्वती ने कहा —हे कृष्ण ! हे महाबाहो ! हे नराधिप ! इस संसार में आप सर्वश्रेष्ठ गृहस्थ होंगे। इसके बाद हे जनार्दन ! सौ वर्ष व्यतीत होने पर एक विप्र तथा गान्धारी के शाप के कारण आपके कुल का नाश हो जायगा। शापवश अज्ञान में पड़कर आपके वे पुत्र तथा अन्य सभी यादव आपस में एक दूसरे को मारकर रणभूमि में विनष्ट हो जायँगे और आप अपने भाई बलराम के साथ यह शरीर छोड़कर दिव्य लोक को प्रयाण करेंगे ॥ ५९-६२ ॥ हे प्रभो ! आपको होनहार के विषय में किसी प्रकार की चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि अवश्यम्भावी घटनाओं का कोई भी प्रतीकार सम्भव नहीं है। हे मधुसूदन ! मेरा सर्वदा यही निश्चित मन्तव्य रहा है कि भावी के विषय में शोक नहीं करना चाहिये । हे कृष्ण ! आपके प्रयाण कर जाने पर अष्टावक्र के शाप के कारण आपकी भार्याएँ चोरों द्वारा हर ली जायँगी ॥ ६३-६४१/२ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा कहकर भगवान् शिव समस्त देवताओं तथा पार्वतीसमेत अन्तर्धान हो गये। इसके बाद अपने गुरु उपमन्यु को प्रणाम करके श्रीकृष्ण भी द्वारकापुरी के लिये प्रस्थित हुए । हे राजन् ! यद्यपि ब्रह्मा आदि देवता लोक के अधीश्वर हैं, फिर भी मायारूपिणी नदी की उत्ताल तरंगों के आघात-प्रत्याघात से क्षुब्ध अन्तःकरण वाले बनकर वे भी उसी प्रकार उस माया के अधीन रहते हैं, जैसे कठपुतली बाजीगर के अधीन रहती है ॥ ६५-६७ ॥ उनके पूर्वजन्म के संचित कर्म जिस प्रकार के होते हैं, उसीके अनुरूप परब्रह्मस्वरूपिणी माया उन्हें सदा प्रेरित करती रहती है। उन भगवती के हृदय में किसी प्रकार की विषमता अथवा निर्दयता का लेशमात्र भी नहीं रहता। वे अखिल भुवन की ईश्वरी केवल जीवों को भवबन्धन से छुटकारा दिलाने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहती हैं ॥ ६८-६९ ॥ यदि वे भगवती इस चराचर जगत् की सृष्टि न करतीं तो समग्र जीव-जगत् माया- शक्ति के बिना सर्वदा के लिये जड़ ही रह जाता। अतएव वे भगवती करुणा करके यह जगत् और जीव आदि जो भी हैं, उनकी रचना करती हैं और उन्हें कर्मशील बनाने के लिये सतत प्रेरणा देती रहती हैं ॥ ७०-७१ ॥ अतएव ब्रह्मादि देवताओं के भी इस प्रकार माया- विमोहित हो जाने में सन्देह नहीं करना चाहिये; क्योंकि समस्त देवता तथा दानव माया से निरन्तर आवृत रहते हुए भगवती योगमाया के अधीन रहते हैं ॥ ७२ ॥ स्वेच्छया विचरण एवं विहार करने वाली वे देवेश्वरी ही स्वतन्त्र हैं । अतएव हे राजन् ! उन महेश्वरी की सम्यक् प्रकार से पूजा करनी चाहिये। तीनों लोकों में उनसे श्रेष्ठ कुछ भी नहीं है। उन पराशक्ति भगवती योगमाया के पावन चरणों का सदा स्मरण बना रहे यही जीवन की सफलता है ॥ ७३-७४ ॥ मेरा जन्म उस कुल में न हो, जहाँ देवी की उपासना न होती हो। मैं उन देवी का ही अंश हूँ, दूसरा नहीं । मैं ही ब्रह्म हूँ; तब मैं शोक का भागी नहीं हो सकता। इस अभेदबुद्धि से युक्त रहते हुए उन सनातन जगदम्बा का चिन्तन करना चाहिये। गुरु के उपदेश से वेदान्तश्रवण आदि के द्वारा भगवती के स्वरूप को जानकर नित्य एकाग्र मन से उन आत्मस्वरूपिणी योगमाया की भावना करनी चाहिये। ऐसा करने से प्राणी भव-बन्धन से शीघ्र ही छूट जाता है, अन्यथा करोड़ों कर्मों से भी नहीं छूट सकता ॥ ७५- ७७ ॥ निर्मल अन्तःकरण वाले सभी श्वेताश्वतर आदि ऋषिगण उन्हीं आत्मस्वरूपिणी भगवती का अपने हृदय में साक्षात्कार करके भव-बन्धन से मुक्त हुए हैं। उन्हीं की भाँति ब्रह्मा, विष्णु आदि देवता तथा गौरी, लक्ष्मी आदि देवियाँ – ये सब उन्हीं सच्चि- दानन्दस्वरूपिणी भगवती की उपासना करते हैं ॥ ७८-७९ ॥ हे राजन्! हे अनघ ! नानाविध प्रपंचों के ताप से त्रस्त आपने मुझसे जो कुछ पूछा था, मैंने वह सब बता दिया । अब आप और क्या सुनना चाहते हैं ? ॥ ८० ॥ हे महाराज ! मैंने आपको यह परमश्रेष्ठ आख्यान सुनाया है; जो सर्वपापविनाशक, पुण्यदायक, पुरातन तथा अत्यन्त अद्भुत कथानक है ॥ ८१ ॥ जो इस वेदतुल्य पुराण का नित्य श्रवण करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर देवीलोक में महान् आनन्द प्राप्त करता है ॥ ८२ ॥ सूतजी बोले — [ हे मुनियो ! ] मैंने व्यासजी द्वारा विस्तारपूर्वक कहे गये इस श्रीमद् [देवी ] भागवत नामक पंचम महापुराण को उनसे सुना था ॥ ८३ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का ‘पराशक्ति का सर्वज्ञत्वकथन’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥ ॥ चतुर्थ स्कन्ध समाप्त ॥ Content is available only for registered users. 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