April 20, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-05 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-पञ्चमोऽध्यायः पाँचवाँ अध्याय इन्द्र का ब्रह्मा, शिव और विष्णु के पास जाना, तीनों देवताओं सहित इन्द्र का युद्धस्थल में आना तथा चिक्षुर, बिडाल और ताम्र को पराजित करना दैत्यसैन्यपराजयः व्यासजी बोले — हे महाराज ! यह सुनकर सहस्रनेत्र इन्द्र ने बृहस्पति से कहा कि मैं महिषासुर के विनाश के लिये अब युद्ध की तैयारी अवश्य करूँगा; क्योंकि उद्योग के बिना न राज्य, न सुख और न तो यश की ही प्राप्ति होती है। उद्यमहीन की प्रशंसा न तो कायर लोग करते हैं और न उद्योगपरायण ॥ १-२ ॥ संन्यासियों का आभूषण ज्ञान है तथा ब्राह्मणों का आभूषण सन्तोष है; किंतु अपनी उन्नति की आकांक्षा रखने वाले लोगों के लिये उद्योगपरायण रहते हुए शत्रुसंहार का कार्य ही आभूषण है ॥ ३ ॥ हे मुनिश्रेष्ठ ! उद्यम का आश्रय लेकर ही मैंने वृत्रासुर, नमुचि तथा बल आदि दैत्यों का संहार किया था; उसी प्रकार मैं महिषासुर का भी वध करूँगा ॥ ४ ॥ आप देवगुरु बृहस्पति तथा श्रेष्ठ आयुध वज्र मेरे महान् बल के रूप में सुलभ हैं। साथ ही भगवान् विष्णु तथा अविनाशी शिवजी मेरी सहायता अवश्य करेंगे ॥ ५ ॥ हे मानद ! अब मैं महिषासुर के साथ युद्ध करने के लिये सेना की तैयारी के उद्योग में लग रहा हूँ। हे साधो ! अब आप मेरे कल्याणार्थ रक्षोघ्न मन्त्रों का पाठ कीजिये ॥ ६ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन्! देवराज इन्द्र के ऐसा कहने पर युद्ध के लिये सर्वथा तत्पर उन सुरेन्द्र से मुसकराकर बृहस्पति ने यह वचन कहा — ॥ ७ ॥ बृहस्पति बोले — इस समय मैं आपको युद्ध के लिये न तो प्रेरित करूँगा और न तो इससे आपको रोकूँगा ही; क्योंकि युद्ध करने वाले की हार तथा जीत दोनों ही अनिश्चित रहती हैं ॥ ८ ॥ हे शचीपते ! इस होनहार के विषय में आपका कोई दोष नहीं है। जो भी सुख-दुःख पूर्वतः निर्धारित है, वह तो अवश्य ही प्राप्त होगा ॥ ९ ॥ भविष्य में आपको प्राप्त होने वाले सुख या दुःख के विषय में मुझे कोई भी ज्ञान नहीं है; क्योंकि हे वासव! आप यह बात भलीभाँति जानते हैं कि पूर्व समय में अपनी भार्या के हरण के अवसर पर मुझे बहुत ही कष्ट उठाना पड़ा था ॥ १० ॥ हे शत्रुनिषूदन ! चन्द्रमा ने मेरी पत्नी का हरण कर लिया था, जिसके फलस्वरूप अपने आश्रम में रहते हुए मुझे महान् कष्ट झेलना पड़ा; जिससे मेरा समस्त सुख नष्ट हो गया ॥ ११ ॥ हे सुराधिप ! मैं सभी लोकों में परम बुद्धिमान् के रूप में विश्रुत हूँ; किंतु जब मेरी भार्या का बलपूर्वक हरण कर लिया गया था तो उस समय मेरी बुद्धि कहाँ चली गयी थी ? ॥ १२ ॥ अतएव हे सुराधिप ! बुद्धिमान् लोगों को सदा यत्न-परायण होना चाहिये। कार्य की सिद्धि तो निश्चितरूप से सदा दैव के ही अधीन रहती है ॥ १३ ॥ व्यासजी बोले — गुरु बृहस्पति का यह सत्य तथा अर्थयुक्त वचन सुनकर इन्द्र ब्रह्माजी की शरण में जाकर उन्हें प्रणाम करके बोले — ॥ १४ ॥ हे पितामह! हे देवाध्यक्ष ! इस समय महिषासुर नामक दैत्य मेरे स्वर्गलोक पर अपना अधिकार स्थापित करने की कामना से सैन्य बल की तैयारी कर रहा है ॥ १५ ॥ अन्य दानव भी उसकी सेना में सम्मिलित हो रहे हैं। वे सब-के-सब सदा युद्ध के लिये आतुर रहने वाले, महान् पराक्रमी तथा युद्धकला में अत्यन्त प्रवीण हैं ॥ १६ ॥ उस दानव से भयभीत होकर मैं आपकी शरण में यहाँ आया हूँ। हे महाप्राज्ञ ! आप तो सर्ववेत्ता हैं तथा मेरी सहायता करने में पूर्ण समर्थ हैं ॥ १७ ॥ ब्रह्माजी बोले — हम लोग इसी समय शीघ्रतापूर्वक कैलास चलें और वहाँ से शंकरजी को आगे करके बलवानों में श्रेष्ठ विष्णु भगवान् के पास चलें। तत्पश्चात् सभी देवगणों के साथ परस्पर मिलकर देश-काल के सम्बन्ध में भलीभाँति विचार करके एक समुचित निर्णय लेकर ही युद्ध करना चाहिये। अपनी शक्ति तथा निर्बलता का सम्यक् ज्ञान किये बिना विवेक का त्याग करके दुःसाहसपूर्ण कार्य करने वाला पतन को प्राप्त होता है ॥ १८-२० ॥ व्यासजी बोले — यह सुनकर इन्द्र ब्रह्माजी को आगे करके समस्त लोकपालों के साथ कैलास की ओर चल पड़े ॥ २१ ॥ कैलास पहुँचकर इन्द्र ने वेदमन्त्रों के द्वारा शिवजी की स्तुति की। तत्पश्चात् [ स्तुतिगान से] अत्यन्त प्रसन्नता को प्राप्त भगवान् शंकर को आगे करके वे विष्णुलोक गये ॥ २२ ॥ उन देवाधिदेव भगवान् विष्णु की स्तुति करके उन्होंने वहाँ अपने आने का उद्देश्य बताया तथा वरदान पाने के कारण गर्वोन्मत्त महिषासुर से उत्पन्न उग्र भय के बारे में उनसे कहा ॥ २३ ॥ उनके भयको सुनकर भगवान् विष्णु ने देवताओं से कहा कि हम देवगण युद्ध करेंगे और उस दुर्जय का वध कर डालेंगे ॥ २४ ॥ व्यासजी बोले — ऐसा निश्चय करके ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश आदि देवता अपने-अपने वाहनों पर चढ़कर चल पड़े ॥ २५ ॥ ब्रह्माजी हंस पर चढ़े, विष्णुभगवान् ने गरुड को अपना वाहन बनाया, शंकरजी वृषभ पर सवार हुए, इन्द्र ऐरावत हाथी पर बैठे, स्वामी कार्तिकेय मोर पर चढ़े और यमराज महिष पर आरूढ़ हुए। इस प्रकार अपनी सैन्य तैयारी करके देवता लोग ज्यों ही आगे बढ़े, तभी उन्हें महिषासुर के द्वारा पालित मदोन्मत्त दानवी सेना सामने मिल गयी। इसके बाद वहीं पर देवताओं तथा दानवों की सेना में भयंकर युद्ध आरम्भ हो गया ॥ २६-२८ ॥ वे एक-दूसरेपर बाण, तलवार, भाला, मूसल, परशु, गदा, पट्टिश, शूल, चक्र, शक्ति, तोमर, मुद्गर, भिन्दिपाल, हल तथा अन्य अति भयंकर शस्त्रों से प्रहार करने लगे ॥ २९-३० ॥ महिषासुर के सेनापति महाबली चिक्षुर ने हाथी पर चढ़कर इन्द्र पर पाँच बाणों से प्रहार किया ॥ ३१ ॥ युद्धकुशल इन्द्र ने भी तत्काल अपने बाणों से उसके बाणों को काटकर अपने अर्धचन्द्र नामक बाणसे उसके हृदय-स्थल पर आघात किया ॥ ३२ ॥ उस बाण से आहत होकर सेनानायक चिक्षुर हाथी पर बैठे-बैठे ही मूर्च्छित हो गया। इसके बाद इन्द्र ने हाथी की सूँड़ पर वज्र से प्रहार किया ॥ ३३ ॥ उस वज्र के आघात से हाथी की सूँड़ कट गयी और वह सेना के बीच भाग खड़ा हुआ। उसे देखकर दानवराज महिषासुर कुपित हो गया और उसने बिडाल नामक दानव से कहा — हे महाबाहो ! हे वीर ! तुम जाओ और बल के अभिमान में चूर इन्द्र को मार डालो, साथ ही वरुण आदि अन्य देवताओं का भी वध करके शीघ्र ही मेरे पास लौट आओ ॥ ३४-३५ ॥ व्यासजी बोले — उसकी बात सुनकर वह महाबली बिडाल एक मतवाले हाथी पर सवार होकर युद्ध के लिये इन्द्र की ओर चल पड़ा ॥ ३६ ॥ उसे अपनी ओर आते देखकर इन्द्र ने कुपित होकर विषधर सर्पतुल्य तीक्ष्ण बाणों से बिडाल पर प्रहार किया ॥ ३७ ॥ उस बिडाल ने शीघ्र ही अपने धनुष से छूटे हुए बाणों से इन्द्र के बाण काटकर पुनः तत्काल अपने पचास बाणों से इन्द्र पर आघात किया ॥ ३८ ॥ तब इन्द्र ने भी क्रुद्ध होकर उसके उन बाणों को काटकर अपने सर्पतुल्य तीक्ष्ण बाणों से उसपर प्रहार किया ॥ ३९ ॥ अपने धनुष से छूटे हुए बाणों से उसके बाणों को काटकर इन्द्र ने अपनी गदा से उसके हाथी की सूँड़ पर प्रहार किया ॥ ४० ॥ अपनी सूँड़ पर गदा के आघात से वह हाथी बार – बार आर्तनाद करने लगा और पीछे घूमकर भागता हुआ वह दैत्य- सेना को ही कुचलने लगा, जिससे दानवों की सेना भयाकुल हो उठी ॥ ४१ ॥ तत्पश्चात् हाथी को युद्धभूमि से भागा देखकर वह दानव बिडाल लौटकर चला गया और पुनः एक सुन्दर रथ पर सवार होकर देवताओं के समक्ष रण में उपस्थित हो गया ॥ ४२ ॥ इन्द्र बिडाल को रथ पर सवार होकर पुनः समरांगण में आया हुआ देखकर अपने सर्पतुल्य तीक्ष्ण बाणों से उस पर आघात करना आरम्भ कर दिया ॥ ४३ ॥ वह महाबली बिडाल भी अत्यन्त कुपित होकर भयंकर बाण – वृष्टि करने लगा। इस प्रकार विजय के इच्छुक उन दोनों के बीच भीषण युद्ध होने लगा ॥ ४४ ॥ क्रोध के प्रभाव से व्याकुल इन्द्रियोंवाले इन्द्र ने बिडाल को विशेष बलवान् देखकर जयन्त को अपना अग्रणी बना लिया और अब उसके साथ मिलकर वे युद्ध करने लगे ॥ ४५ ॥ जयन्त ने धनुष पर चढ़ाकर प्रबलतापूर्वक खींचे गये पाँच तीक्ष्ण बाणों से मदोन्मत्त उस दानव बिडाल के वक्ष:स्थल पर आघात किया ॥ ४६ ॥ उन बाणों के आघात से मूर्च्छित होकर बिडाल रथ पर गिर पड़ा, तब उसका सारथि तत्काल रथ लेकर रण- भूमि से बाहर निकल गया ॥ ४७ ॥ उस बिडाल के मूर्च्छित होकर युद्धभूमि से बाहर चले जाने पर देवसेना में महान् विजय घोष तथा दुन्दुभियों की ध्वनि होने लगी ॥ ४८ ॥ सभी देवता प्रसन्न होकर इन्द्र की स्तुति करने लगे, गन्धर्व गाने लगे तथा अप्सराएँ नाचने लगीं ॥ ४९ ॥ तत्पश्चात् देवताओं के द्वारा किये गये उस विजय- घोष को सुनकर महिषासुर कुपित हो उठा। उसने उसी क्षण घोर अभिमान को चूर-चूर कर देने वाले ताम्र नामक दानव को युद्धक्षेत्र में भेजा ॥ ५० ॥ ताम्र बहुत-से सैनिकों के साथ समरांगण में आकर इस प्रकार वेगपूर्वक बाणों की वर्षा करने लगा मानो मेघ समुद्र में जल बरसा रहा हो ॥ ५१ ॥ उस समय वरुणदेव पाश लेकर तथा यमराज हाथ में दण्ड धारण करके महिष पर चढ़कर [ युद्धभूमि में] शीघ्र ही पहुँच गये ॥ ५२ ॥ अब देवताओं तथा दानवों में परस्पर बाणों, तलवारों, मुसलों, बछियों तथा फरसों से भीषण संग्राम होने लगा ॥ ५३ ॥ यमराज के द्वारा अपने हाथ से फेंके गये दण्ड से ताम्र आहत हो गया, किंतु वह महाबाहु ताम्र समरांगण से हिला तक नहीं ॥ ५४ ॥ ताम्र उस संग्रामभूमि में वेगपूर्वक धनुष को खींच-खींचकर अति तीक्ष्ण बाण छोड़कर इन्द्र आदि देवताओं पर शीघ्रता से प्रहार करने लगा ॥ ५५ ॥ वे देवता पत्थर पर घिसकर नुकीले बनाये गये तीक्ष्ण दिव्य बाणों से क्रुद्ध दानवों को मारने लगे और ‘ठहरो – ठहरो’ कहकर चिल्लाने लगे ॥ ५६ ॥ उन देवताओं के प्रहार से घायल होकर दैत्य ताम्र युद्धभूमि में मूर्च्छित हो गया। तब भयाक्रान्त दैत्यसेना में महान् हाहाकार मच गया ॥ ५७ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराणसंहिताके अन्तर्गत पंचम स्कन्धका ‘दैत्यसेनाकी पराजय’ नामक पाँचवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe