श्रीमद्‌देवीभागवत महापुराण देवीमाहात्म्य-अध्याय-02
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
अथ द्वितीयोऽध्यायः
श्रीमद्देवीभागवत के माहात्म्य के प्रसंग में स्यमन्तकमणि की कथा
अथ द्वितीयोऽध्यायः

॥ ऋषय ऊचुः ॥
वसुदेवो महाभागः कथं पुत्रमवाप्तवान् ।
प्रसेनः कुत्र कृष्णेन भ्रमताऽन्वेषितः कथम् ॥ १ ॥
विधिना केन कस्माच्च देवीभागवतं श्रुतम् ।
वसुदेवेन सुमते वद सूत कथामिमाम् ॥ २ ॥
॥ सूत उवाच ॥
सत्राजिद् भोजवंशीयो द्वारवत्यां सुखं वसन् ।
सूर्यस्याराधने युक्तो भक्तश्च परमः सखा ॥ ३ ॥
अथ कालेन कियता प्रसन्नः सविताऽभवत् ।
स्वलोकं दर्शयामास तद्भक्त्या प्रणयेन च ॥ ४ ॥
तस्मै प्रीतश्च भगवान् स्यमन्तकमणिं ददौ ।
स तं बिभ्रन्मणि कण्ठे द्वारकामाजगाम ह ॥ ५ ॥
दृष्ट्वा तं तेजसा भ्रान्ता मत्वादित्यं पुरौकसः ।
कृष्णमूचुः समभ्येत्य सुधर्मायामवस्थितम् ॥ ६ ॥
एष आयाति सविता दिदृक्षुस्त्वां जगत्पते ।
श्रुत्वा कृष्णस्तु तद्वाचं प्रहस्योवाच संसदि ॥ ७ ॥
सविता नैष भो बालाः सत्राजिन्मणिना ज्वलन् ।
स्यमन्तकेन चायाति भास्वद्दत्तेन भास्वता ॥ ८ ॥

ऋषिगण बोले — महाभाग वसुदेवजी ने अपने पुत्र को किस प्रकार प्राप्त किया और वन में भ्रमण करते हुए श्रीकृष्ण प्रसेन को कैसे खोजा ? हे सुमते ! हे सूतजी ! किस विधि से और किससे वसुदेवजी ने श्रीमद्देवीभागवतपुराण का श्रवण किया; आप हम लोगों को यह कथा बतायें ॥ १-२ ॥

सूतजी बोले — भोजवंशी सत्राजित् द्वारकापुरी में आनन्दपूर्वक निवास करता हुआ सूर्य की आराधना में तत्पर रहता था। वह सूर्य का परम भक्त एवं उनका मित्र था ॥ ३ ॥ कुछ समय के पश्चात् सूर्यदेव उसके ऊपर प्रसन्न हो गये और उन्होंने उसे अपने लोक का दर्शन कराया। उसकी भक्ति तथा प्रेम से अत्यन्त प्रसन्न हुए भगवान् सूर्य ने सत्राजित् को स्यमन्तकमणि दे दी और वह उस मणि को अपने गले में धारण किये हुए द्वारका आ गया ॥ ४-५ ॥ उसे देखकर मणि के तेज से भ्रमित नागरिकों ने सत्राजित् को सूर्य समझकर सुधर्मा नामक अपनी सभा में विराजमान श्रीकृष्ण के पास पहुँचकर उनसे कहा ॥ ६ ॥ हे जगत्पते! आपके दर्शन की अभिलाषा से भगवान् सूर्य स्वयं आपके पास आ रहे हैं। यह बात सुनकर सभा में श्रीकृष्ण हँसकर बोले ॥ ७ ॥ हे बाल-स्वभाव नागरिको ! ये सूर्यभगवान् नहीं हैं; बल्कि सत्राजित् है, जो स्वयं सूर्य द्वारा प्रदत्त स्यमन्तक- मणि से दीप्तिमान् होता हुआ यहाँ आ रहा है ॥ ८ ॥

अथ विप्रान् समाहूय स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ।
प्रावेशयत् समभ्यर्च्य सत्राजित् स्वगृहे मणिम् ॥ ९ ॥
न तत्र मारी दुर्भिक्षं नोपसर्गभयं क्वचित् ।
यत्रास्ते स मणिर्नित्यमष्टभारसुवर्णदः ॥ १० ॥
अथ सत्राजितो भ्राता प्रसेनो नाम कर्हिचित् ।
कण्ठे बद्ध्वा मणिं सद्यो हयमारुह्य सैन्धवम् ॥ ११ ॥
मृगयार्थं वनं यातस्तमद्राक्षीन्मृगाधिपः ।
प्रसेनं सहयं हत्वा सिंहो जग्राह तं मणिम् ॥ १२ ॥
जाम्बवानृक्षराजोऽथ दृष्ट्‍वा मणिधरं हरिम् ।
हत्वा च तं बिलद्वारि मणिं जग्राह वीर्यवान् ॥ १३ ॥
स तं मणिं स्वपुत्राय क्रीडनार्थमदात् प्रभुः ।
अथ चिक्रीड बालोऽपि मणिसम्माप्राप्य भास्वरम् ॥ १४ ॥
प्रसेनेऽनागते चाथ सत्राजित् पर्यतप्यत ।
न जाने केन निहतः प्रसेनो मणिमिच्छता ॥ १५ ॥
अथ लोकमुखोद् गीर्णा किंवदन्ती पुरेऽभवत् ।
कृष्णेन निहतो नूनं प्रसेनो मणिलिप्सुना ॥ १६ ॥
स तं शुश्राव कृष्णोऽपि दुर्यशो लिप्तमात्मनि ।
मार्ष्टुं तत्तस्य पदवीं पुरौकोभिस्सहागमत् ॥ १७ ॥

उसके पश्चात् ब्राह्मणों को बुलाकर सत्राजित् ने स्वस्तिवाचन कराया और भली-भाँति पूजन करके उस मणि को अपने घर में स्थापित किया ॥ ९ ॥ वह मणि जहाँ रहती थी, वहाँ किसी प्रकार की महामारी, दुर्भिक्ष तथा उपसर्ग (भूकम्प आदि प्राकृतिक संकट)-का भय उत्पन्न नहीं होता था और (उस मणि की एक विशेषता यह भी थी कि ) वह नित्य आठ भार 1  स्वर्ण दिया करती थी ॥ १० ॥
तदनन्तर एक दिन सत्राजित् के भाई प्रसेन ने उस मणि को गले में धारणकर सिन्धुदेशीय घोड़े पर सवार होकर आखेट के लिये वन की ओर प्रस्थान किया । वहाँ वन में किसी सिंह ने उसे देखा और घोड़े सहित प्रसेन को मारकर सिंह ने वह मणि स्वयं ले ली ॥ ११-१२ ॥ इसके पश्चात् महाबली ऋक्षराज जाम्बवान् ने मणि धारण करने वाले उस सिंह को अपनी गुफा के द्वार पर देखकर और उसे मारकर मणि स्वयं ले ली ॥ १३ ॥ पराक्रमी ऋक्षराज ने वह मणि खेलने के लिये अपने पुत्र को दे दी और वह बालक भी उस प्रदीप्त मणि को पाकर उसके साथ खेलने लगा ॥ १४ ॥
कुछ काल बीतने पर भी प्रसेन के वापस न लौटने पर सत्राजित् अत्यन्त दुःखी हुआ और सोचने लगा कि मणि लेने की इच्छा से न जाने किसने प्रसेन को मार डाला ॥ १५ ॥ इसी बीच द्वारकापुर में नागरिकों की पारस्परिक बात-चीत से किसी प्रकार यह किंवदन्ती फैल गयी कि मणि के लोभ के वशीभूत श्रीकृष्ण ने ही प्रसेन का वध किया है ॥ १६ ॥ श्रीकृष्ण ने भी जब अपने विषय में अपयश की वह बात सुनी तो उन्होंने अपने ऊपर लगे हुए कलंक के परिमार्जन हेतु प्रसेन के अन्वेषणार्थ नागरिकों के साथ प्रस्थान किया ॥ १७ ॥

गत्वा स विपिनेऽपश्यत् प्रसेनं हरिणा हतम् ।
ययौ मृगेन्द्रमन्विष्यन्नसृग्बिन्द्वङ्‌किताध्वना ॥ १८ ॥
अथ कृष्णो हतं सिंहं बिलद्वारि विलोक्य च ।
उवाच भगवान् वाचं कृपया पुरवासिनः ॥ १९ ॥
तिष्ठध्वं यूयमत्रैव यावदागमनं मम ।
प्रविशामि बिलं त्वेतन्मणिहारकलब्धये ॥ २० ॥
तथेत्युक्त्वा तु ते तस्तुस्तत्रैव द्वारकौकसः ।
जगामान्तर्बिलं कृष्णो यत्र जाम्बवतो गृहम् ॥ २१ ॥
ऋक्षराजसुतं दृष्ट्‍वा कृष्णो मणिधरं तदा ।
हर्तुमैच्छन्मणिं तावद् धात्री चुक्रोश भीतवत् ॥ २२ ॥
श्रुत्वा धात्रीरवं सद्यः समागत्यर्क्षराट् तदा ।
युयुधे स्वामिना साकमविश्रममहर्निशम् ॥ २३ ॥
एवं त्रिनवरात्रं तु महद्युद्धमभूत्तयोः ।
कृष्णागमं प्रतीक्षन्तस्तस्मृर्द्वारि पुरौकसः ॥ २४ ॥
द्वादशाहं ततो भीत्या प्रतिजग्मुर्निजालयम् ।
तत्र ते कथयामासुर्वृत्तान्तं सर्वमादितः ॥ २५ ॥
सत्राजितं शपन्तस्ते सर्वे शोकाकुला भृशम् ।
वसुदेवो महाभागः श्रुत्वा पुत्रस्य तां कथाम् ॥ २६ ॥
मुमोह सपरीवारस्तदा परमया शुचा ।
चिन्तयामास बहुधा कथं श्रेयो भवेन्मम ॥ २७ ॥
अथाजगाम भगवान् देवर्षिर्ब्रह्मलोकतः ।
उत्थाय तं प्रणम्यासौ वसुदेवोऽभ्यपूजयत् ॥ २८ ॥
नारदोऽनामयं पृष्ट्‍वा वसुदेवं महामतिम् ।
पप्रच्छ च यदुश्रेष्ठं किं चिन्तयसि तद् वद ॥ २९ ॥

वन में पहुँचने पर श्रीकृष्ण ने सिंह द्वारा मारे गये प्रसेन को देखा और तदनन्तर गिरे हुए रक्त – बिन्दुओं से चिह्नित मार्ग का अनुसरण करके सिंह को खोजते हुए वे कुछ दूर गये ॥ १८ ॥ इसके पश्चात् एक गुफा के द्वार पर मरे हुए सिंह को देखकर भगवान् श्रीकृष्ण करुणायुक्त वाणी में नागरिकों से बोले — मणि का हरण करने वाले को खोजने के लिये मैं इस गुफा के भीतर प्रवेश कर रहा हूँ। जब तक मैं वापस न आ जाऊँ, तुम लोग यहीं पर ठहरो ॥ १९-२० ॥ वे द्वारकावासी ‘ठीक है ‘ – ऐसा बोलकर वहीं पर ठहर गये और श्रीकृष्ण गुफा के भीतर प्रविष्ट हुए, जहाँ जाम्बवान् का घर था ॥ २१ ॥
तत्पश्चात् वहाँ पहुँचने पर श्रीकृष्ण ने ऋक्षराज के पुत्र को मणि धारण किये देखकर मणि को छीनना चाहा, इस पर उसकी धात्री ( धाय) भयभीत होकर चिल्लाने लगी ॥ २२ ॥ तब धात्री की आवाज सुनकर जाम्बवान् तुरंत वहाँ आ गया और वह अपने [ पूर्व ] स्वामी श्रीकृष्ण के साथ दिन-रात निरन्तर युद्ध करने लगा ॥ २३ ॥

इस प्रकार उन दोनों के बीच सत्ताईस दिनों तक भयंकर युद्ध हुआ । इधर द्वारकावासी गुफा के द्वार पर बारह दिनों तक तो श्रीकृष्ण के आगमन की प्रतीक्षा करते हुए ठहरे रहे, किंतु इसके बाद वे भयभीत होकर अपने-अपने घर चले गये और वहाँ पहुँचकर उन्होंने लोगों से सारा वृत्तान्त कहा ॥ २४-२५ ॥ द्वारकापुरी के सभी नागरिक यह सब सुनकर सत्राजित् की भर्त्सना करते हुए अत्यन्त शोकविह्वल हो गये। महाभाग वसुदेवजी अपने पुत्र का वह समाचार सुनकर परिवार सहित महान् शोक से मूर्छित हो गये और बार-बार सोचने लगे कि मेरा कल्याण किस प्रकार से हो? ॥ २६-२७ ॥

उसी समय ब्रह्मलोक से देवर्षि नारद वहाँ आ गये । वसुदेवजी ने उठकर उन्हें प्रणाम करके विधिवत् उनकी पूजा की ॥ २८ ॥ देवर्षि नारद महामति यदुश्रेष्ठ वसुदेवजी से कुशल-क्षेम पूछकर उनसे बोले — आप क्यों चिन्तित हैं, यह मुझे बताइये ॥ २९ ॥

॥ वसुदेव उवाच ॥
पुत्रो मेऽतिप्रियः कृष्णः प्रसेनान्वेषणाय तु ।
पौरैः साकं वनं गत्वा निहतं तं तदैक्षत ॥ ३० ॥
प्रसेनघातकं दृष्ट्‍वा बिलद्वारे मृतं हरिम् ।
द्वारि पौरानधिष्ठाप्य बिलान्तर्गतवान् स्वयम् ॥ ३१ ॥
बहवो दिवसा याता नायात्यद्यापि मे सुतः ।
अतः शोचामि तद् ब्रूहि येन लप्स्ये सुतं मुने ॥ ३२ ॥
॥ नारद उवाच ॥
पुत्रप्राप्त्यै यदुश्रेष्ठ देवीमाराधयाम्बिकाम् ।
तस्या आराधनेनैव सद्यः श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ३३ ॥
॥ वसुदेव उवाच ॥
भगवन् का हि सा देवी किंप्रभावा महेश्वरी ।
कथमाराधनं तस्या देवर्षे कृपया वद ॥ ३४ ॥
॥ नारद उवाच ॥
वसुदेव महाभाग शृणु संक्षेपतो मम ।
देव्या माहात्म्यमतुलं को वक्तुं विस्तरात् क्षमः ॥ ३५ ॥
या सा भगवती नित्या सच्चिदानन्दरूपिणी ।
परात्परतरा देवी यया व्याप्समिदं जगत् ॥ ३६ ॥
यदाराधनतो ब्रह्मा सृजतीदं चराचरम् ।
यां च स्तुत्वा विनिर्मुक्तो मधुकैटभजाद् भयात् ॥ ३७ ॥
विष्णुर्यत्कृपया विश्वं बिभर्ति भगवानिदम् ।
रुद्रः संहरते यस्याः कृपापाङ्‌गनिरीक्षणात् ॥ ३८ ॥
संसारबन्धहेतुर्या सैव मुक्तिप्रदायिनी ।
सा विद्या परमा देवी सैव सर्वेश्वरेश्वरी ॥ ३९ ॥
नवरात्रविधानेन सम्पूज्य जगदम्बिकाम् ।
नवाहोभिः पुराणं च देव्या भागवतं शृणु ॥ ४० ॥
यस्य श्रवणमात्रेण सद्यः पुत्रमवाप्स्यसि ।
भुक्तिर्मुक्तिर्न दूरस्था पठतां शृण्वतां नृणाम् ॥ ४१ ॥
इत्युक्तो नारदेनासौ वसुदेवः प्रणम्य तम् ।
उवाच परया प्रीत्या नारदं मुनिसत्तमम् ॥ ४२ ॥

वसुदेवजी बोले — मेरा अतिशय प्रिय पुत्र श्रीकृष्ण प्रसेन को खोजने के लिये द्वारका के नागरिकों के साथ वन में गया था, जहाँ उसने प्रसेन को मरा हुआ देखा। इसके पश्चात् प्रसेन को मारने वाले सिंह को भी एक गुफा के द्वार पर मरा देखकर श्रीकृष्ण नागरिकों को द्वार पर ही रोककर स्वयं गुफा के अन्दर चले गये । बहुत दिन व्यतीत हो चुके हैं, किंतु मेरा पुत्र अभी तक नहीं लौटा, जिससे मैं चिन्तित हूँ, अतः हे मुने! आप कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मैं अपने प्रिय पुत्र को प्राप्त कर सकूँ ॥ ३०-३२ ॥

नारदजी बोले — हे यदुश्रेष्ठ ! आप पुत्र की प्राप्ति के लिये अम्बिकादेवी की आराधना कीजिये । उनकी आराधना से शीघ्र ही आपका कल्याण होगा ॥ ३३ ॥

वसुदेवजी बोले — हे भगवन् ! वे देवी कौन हैं, वे महेश्वरी किस प्रकार के प्रभाववाली हैं तथा उनकी आराधना किस प्रकार की जाती है ? हे देवर्षे ! कृपा करके यह बतायें ॥ ३४ ॥

नारदजी बोले — हे महाभाग वसुदेव! देवी के अतुलित माहात्म्य का विस्तारपूर्वक वर्णन करने में कौन समर्थ है? अतः मैं संक्षेप में ही कह रहा हूँ, आप उसे सुनें ॥ ३५ ॥ जो भगवती शाश्वत, सच्चिदानन्दस्वरूपा और परात्परतरा देवी हैं तथा जिनके द्वारा यह जगत् व्याप्त है, जिनकी आराधना के प्रभाव से ही ब्रह्मा इस चराचर सृष्टि की रचना करते हैं, जिनका स्तवन करके भगवान् विष्णु मधु-कैटभ के भय से मुक्त हुए तथा जिनकी कृपा से वे विश्व का पालन-पोषण करते हैं, जिनके कृपा-कटाक्षमात्र से भगवान् शंकर जगत् का संहार करते हैं और जो संसार के बन्धन की कारणरूपा हैं, वे ही मुक्ति प्रदान करने वाली हैं, वे ही परम विद्यास्वरूपा हैं और वे ही समस्त ईश्वरों की भी ईश्वरी हैं ॥ ३६-३९ ॥

अतः आप नवरात्रविधान के अनुसार जगदम्बा की विधिवत् पूजा करके नौ दिनों में इस श्रीमद्देवीभागवत-पुराण का श्रवण कीजिये, जिसके श्रवणमात्र से आप शीघ्र ही अपने पुत्र की प्राप्ति कर लेंगे। इस पुराण का पाठ तथा श्रवण करने वाले मनुष्यों से भोग एवं मोक्ष दूर नहीं रहते ॥ ४०-४१ ॥

नारदजी के ऐसा कहने पर वे वसुदेवजी मुनि-श्रेष्ठ नारद को प्रणाम करके अत्यन्त प्रेमपूर्वक कहने लगे ॥ ४२ ॥

॥ वसुदेव उवाच ॥
भगवंस्तव वाक्येन संस्मृतं वृत्तमात्मनः ।
श्रूयतां तच्च वक्ष्यामि देवीमाहाक्त्यसम्भवम् ॥ ४३ ॥
पुरा नभोगिरा कंसो देवक्यष्टमगर्भतः ।
ज्ञात्वात्ममृत्युं पापो मां सभार्यं न्यरुणद्भिया ॥ ४४ ॥
कारागारेऽहमवसं देवक्या सह भार्यया ।
जातं जातं समवधीत्पुत्रं कंसोऽपि पापकृत् ॥ ४५ ॥
षट् पुत्रा निहतास्तेन तदा शोकाकुला भृशम् ।
अतप्यद् देवकी देवी नक्तन्दिवमनिन्दिता ॥ ४६ ॥
तदाहं गर्गमाहूय मुनिं नत्वाभिपूज्य च ।
निवेद्य देवकीदुःखमवोचं पुत्रकाम्यया ॥ ४७ ॥
भगवन् करुणासिन्धो यादवानां गुरुर्भवान् ।
आयुष्मत्पुत्रसम्प्राप्तिसाधनं वद मे मुने ॥ ४८ ॥
ततो गर्गः प्रसन्नात्मा मामुवाच दयानिधिः ।
॥ गर्ग उवाच ॥
वसुदेव महाभाग शृणु तत् साधनं परम् ॥ ४९ ॥
या सा भगवती दुर्गा भक्तदुर्गतिहारिणी ।
तामाराधय कल्याणीं सद्यः श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ ५० ॥
यदाराधनतः सर्वे सर्वान् कामानवाप्नुयुः ।
न किञ्चिद् दुर्लभं लोके दुर्गार्चनवतां नृणाम् ॥ ५१ ॥
इत्युक्तोऽहं मुदा युक्तः सभार्यो मुनिपुङ्गवम् ।
प्रणम्य परया भक्त्या प्रावोचं विहिताञ्जलिः ॥ ५२ ॥

वसुदेवजी बोले — हे भगवन्! आपके इस कथन से देवी-माहात्म्य से सम्बन्धित एक अपना वृत्तान्त मुझे याद आ गया; मैं उसे कह रहा हूँ, आप सुनिये ॥ ४३ ॥ पूर्वकाल में पापी कंस ने आकाशवाणी के माध्यम से देवकी के आठवें गर्भ से अपनी मृत्यु जानकर भयभीत हो भार्यासहित मुझको बन्दी बना लिया ॥ ४४ ॥ तदनन्तर मैं अपनी पत्नी देवकी के साथ कारागार में रहने लगा और पापी कंस भी मेरे पैदा होने वाले पुत्रों को एक-एक करके मारता रहा ॥ ४५ ॥

इस प्रकार जब कंस के द्वारा मेरे छः पुत्र मार डाले गये तब मेरी निर्दोष भार्या देवी देवकी अत्यन्त शोकाकुल हो उठीं और दिन-रात दुखी रहने लगीं ॥ ४६ ॥ तत्पश्चात् गर्गमुनि को बुलाकर उनका अभिवादन तथा पूजन करके पुत्र-प्राप्ति की कामना से मैंने उनसे देवकी का दुःख बताकर कहा — हे भगवन्! हे दयासिन्धो ! हे मुनिवर ! आप यदुकुल के गुरु हैं, अतः मुझे आयुष्मान् पुत्र की प्राप्ति का कोई उपाय बताइये । इसके अनन्तर दयानिधान गर्गजी प्रसन्न होकर मुझसे कहने लगे ॥ ४७-४८३ ॥

गर्गजी बोले — हे महाभाग वसुदेव! अब आप उस सर्वश्रेष्ठ साधन को सुनिये। जो भगवती दुर्गा अपने भक्तों की दुर्गति का विनाश कर देती हैं, आप उन कल्याणकारिणी देवी की आराधना कीजिये । इससे शीघ्र ही आपका कल्याण होगा; क्योंकि उनकी आराधना से सभी लोगों की समस्त कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। दुर्गा की उपासना करने वाले मनुष्यों के लिये संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ॥ ४९-५१ ॥
गर्गमुनि के ऐसा कहने पर मैं प्रसन्न हो गया और अपनी पत्नीसहित मुनिश्रेष्ठ गर्ग को परम श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर मैंने उनसे कहा ॥ ५२ ॥

॥ वसुदेव उवाच ॥
यद्यस्ति भगवन् प्रीतिर्मयि ते करुणानिधे ।
तदा गुरो मदर्थे त्वं समाराधय चण्डिकाम् ॥ ५३ ॥
निरुद्धः कंसगेहेऽहं न किञ्चित् कर्तुमुत्सहे ।
अतस्त्वमेव दुःखाब्धेर्मामुद्धर महामते ॥ ५४ ॥
इत्युक्तस्तु मया प्रीतः प्रोवाच मुनिपुङ्‍गवः ।
वसुदेव तव प्रीत्या करिष्यामि हितं तव ॥ ५५ ॥
अथ गर्गमुनिः प्रीत्या मया सम्प्रार्थितोऽगमत् ।
आरिराधयिषुर्दुर्गा विन्ध्याद्रिं ब्राह्मणैः सह ॥ ५६ ॥
तत्र गत्वा जगद्धात्रीं भक्ताभीष्टप्रदायिनीम् ।
आराधयामास मुनिर्जपपाठपरायणः ॥ ५७ ॥
ततः समाप्ते नियमे वागुवाचाशरीरिणी ।
प्रसन्ताहं मुने कार्यसिद्धिस्तव भविष्यति ॥ ५८ ॥
भूभारहरणार्थाय मया सम्मेरितो हरिः ।
वसुदेवस्य देवक्यां स्वांशेनावतरिष्यति ॥ ५९ ॥
कंसभीत्या तमादाय बालमानकदुन्दुभिः ।
प्रापयिष्यति सद्यस्तु गोकुले नन्दवेश्मनि ॥ ६० ॥
यशोदातनयां नीत्वा स्वगृहे कंसभूभुजे ।
दास्यत्यथ च तां हन्तुं कंस आक्षेक्यति क्षितौ ॥ ६१ ॥
सा तद्धस्ताद् विनिर्गत्य सद्यो दिव्यवपुर्धरा ।
मदंशभूता विन्ध्याद्रौ करिष्यति जगद्धितम् ॥ ६२ ॥
इति तद्वचनं श्रुत्वा प्रणम्य जगदम्बिकाम् ।
गर्गो मुनिः प्रसन्नात्मा मथुरामागमत् पुरीम् ॥ ६३ ॥
वरदानं महादेव्या गर्गाचार्यमुखादहम् ।
श्रुत्वा सभार्यः सम्प्रीतः परां मुदमथागमम् ॥ ६४ ॥
तदारभ्य परं जाने देवीमाहात्म्यमुत्तमम्।
अधुनापि हि देवर्षे श्रुतं तव मुखाम्बुजात् ॥ ६५ ॥
अतो भागवतं देव्यास्त्वमेव श्रावय प्रभो ।
मद्भाग्यादेव देवर्षे सम्प्राप्तोऽसि दयानिधे ॥ ६६ ॥

वसुदेवजी बोले — हे भगवन् ! हे करुणासागर ! हे गुरो ! यदि आप मुझपर स्नेह रखते हैं तो मेरे कल्याण के निमित्त आप ही उन भगवती चण्डिका की आराधना कर दें । मैं तो कंस के घर में बन्दी रहने के कारण कुछ भी कर सकने में समर्थ नहीं हूँ । अतः हे महामते ! अब आप ही इस दुःखसागर से मेरा उद्धार कीजिये ॥ ५३-५४ ॥

मेरे इस प्रकार कहने पर वे मुनिश्रेष्ठ प्रसन्न होकर बोले — हे वसुदेव! आपकी प्रीति के कारण मैं आपका कल्याण करूँगा ॥ ५५ ॥

मेरे द्वारा प्रीतिपूर्वक प्रार्थना किये जाने के उपरान्त गर्गमुनि देवी दुर्गा की आराधना की इच्छा से ब्राह्मणों के साथ विन्ध्यपर्वत पर चले गये ॥ ५६ ॥ वहाँ जाकर जप एवं पाठ में तत्पर रहते हुए गर्गमुनि जगत्‌ की मातृस्वरूपा और भक्तों की कामनाओं को पूर्ण करने वाली भगवती की आराधना करने लगे ॥ ५७ ॥

जप-पूजनादि अनुष्ठानों की समाप्ति के पश्चात् आकाशवाणी हुई कि हे मुने ! मैं प्रसन्न हो गयी हूँ, अतएव तुम्हारे कार्य की सिद्धि होगी ॥ ५८ ॥ [ समस्त प्रकार के पाप एवं अनाचारस्वरूप ] पृथ्वी के भार का नाश करने के लिये मुझसे प्रेरणा प्राप्तकर स्वयं भगवान् विष्णु अपने अंश से वसुदेव की भार्या देवकी के गर्भ से अवतार लेंगे ॥ ५९ ॥ कंस के भय से वसुदेवजी उस शिशु को लेकर शीघ्र ही गोकुल में नन्द के घर पहुँचा देंगे और वहाँ से यशोदा की कन्या को लाकर अपने घर में राजा कंस को दे देंगे । तब कंस उस कन्या को मारने के लिये उसे पृथ्वी पर पटक देगा ॥ ६०-६१ ॥ तदनन्तर उसके हाथ से छूटकर मेरी अंशस्वरूपा वह कन्या तत्क्षण अलौकिक रूप धारण करके विन्ध्यपर्वत पर चली जायगी और निरन्तर जगत् का कल्याण करेगी ॥ ६२ ॥

इस प्रकार उस आकाशवाणी को सुनकर गर्गमुनि भगवती जगदम्बा को प्रणाम करके प्रसन्न मन से मथुरापुरी आ गये ॥ ६३ ॥ आचार्य गर्ग के मुख से महादेवी के वरदान की बात सुनकर मैं पत्नी सहित अत्यन्त प्रसन्न हुआ और परम आनन्दविभोर हो उठा ॥ ६४ ॥ तभी से मैं देवी के अत्युत्तम माहात्म्य को जान रहा हूँ और हे देवर्षे ! आज भी आपके मुखारविन्द से मैंने वही देवीमाहात्म्य सुना है ॥ ६५ ॥ अतः हे प्रभो ! अब आप ही मुझे श्रीमद्देवीभागवत सुनाइये । हे दयानिधान ! मेरे सौभाग्य से ही आप यहाँ पधारे हुए हैं ॥ ६६ ॥

वसुदेववचः श्रुत्वा नारदः प्रीतमानसः ।
सुदिने शुभनक्षत्रे कथारम्भमथाकरोत् ॥ ६७ ॥
कथाविघ्नविघातार्थं द्विजा जेपुर्नवाक्षरम् ।
मार्कण्डेयपुराणोक्तं पेठुर्देव्याः स्तवं तथा ॥ ६८ ॥
प्रथमस्कन्धमारभ्य श्रीनारदमुखोद्गतम् ।
शुश्राव वसुदेवश्च भक्त्या भागवतामृतम् ॥ ६९ ॥
नवमेऽह्नि कथापूर्तौ पुस्तकं वाचकं तथा ।
प्रसन्नः पूजयामास वसुदेवो महामनाः ॥ ७० ॥
अथ तत्र बिलस्यान्तः कृष्णजाम्बवतोर्मृधे ।
कृष्णमुष्टिविनिष्पातश्लथाङ्गो जाम्बवानभूत्॥ ७१ ॥
अथागतस्मृतिः सोऽपि भगवन्तं प्रणम्य च ।
उवाच परया भक्त्या स्वापराधं क्षमापयन् ॥ ७२ ॥
ज्ञातोऽसि रधुवर्यस्त्वं यद्रोषात् सरितांपतिः ।
क्षोभं जगाम लङ्‌का च रावणः सानुगो हतः ॥ ७३ ॥
स एवासि भवान् कृष्ण मद्दौराम्यं क्षमस्व भोः ।
ब्रूहि यत् करणीयं मे भृत्योऽहं तव सर्वथा ॥ ७४ ॥
श्रुत्वा जाम्बवतो वाचमब्रवीज्जगदीश्वरः ।
मणिहेतोरिह प्राप्ता वयमृक्षपते बिलम् ॥ ७५ ॥

वसुदेवजी का वचन सुनकर प्रसन्न मन वाले नारदजी ने शुभ दिन एवं शुभ नक्षत्र में श्रीमद्देवीभागवत की कथा आरम्भ की ॥ ६७ ॥ कथा में आनेवाली विघ्न-बाधाओं के शमनार्थ ब्राह्मण देवी के नवाक्षर ( ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ) – मन्त्र का जप तथा मार्कण्डेयपुराण में वर्णित देवीस्तोत्र का पाठ करने लगे ॥ ६८ ॥

प्रथम स्कन्ध के आरम्भ से ही वसुदेवजी देवर्षि नारद के मुख से निःसृत अमृतस्वरूप श्रीमद्देवीभागवत- पुराण का भक्तिपूर्वक श्रवण करने लगे ॥ ६९ ॥ नौवें दिन कथा की समाप्ति होने पर महामनस्वी वसुदेवजी ने श्रीमद्देवीभागवत ग्रन्थ तथा कथावाचक दोनों की प्रसन्नतापूर्वक पूजा की ॥ ७० ॥

उधर कन्दरा में श्रीकृष्ण तथा जाम्बवान् के बीच चल रहे युद्ध में श्रीकृष्ण के मुष्टिका प्रहारों से जाम्बवान् का शरीर अत्यन्त शिथिल पड़ गया था ॥ ७१ ॥ उसी समय जाम्बवान् को भी पूर्वकाल की घटनाएँ याद आ गयीं और भगवान् श्रीकृष्ण को परम भक्ति के साथ प्रणाम करके अपने अपराध के लिये क्षमा- याचना करते हुए उसने श्रीकृष्ण से कहा — अब मुझे ज्ञात हो गया कि आप रघुश्रेष्ठ श्रीराम ही हैं, जिनके भयंकर कोप से सागर तथा लंका नगरी – दोनों क्षुब्ध हो गये थे और रावण अपने बन्धु-बान्धवों सहित मारा गया था ॥ ७२-७३ ॥ हे श्रीकृष्ण ! वे राम आप ही हैं, अतः मेरी धृष्टता को क्षमा करें। मैं आपका सर्वथा सेवक हूँ, अतएव मेरे योग्य जो भी कार्य हो, उसके लिये मुझे आदेश दीजिये ॥ ७४ ॥

जाम्बवान् का वचन सुनकर जगत्पति श्रीकृष्ण बोले — हे ऋक्षराज ! मणि प्राप्त करने के लिये हम लोग इस कन्दरा में आये हुए हैं ॥ ७५ ॥

ऋक्षराजस्ततः प्रीत्या कन्यां जाम्बवतीं निजाम् ।
ददौ कृष्णाय सम्पूज्य स्यमन्तकमणिं तथा ॥ ७६ ॥
स तां पत्नीं समादाय मणिं कण्ठे तथादधत् ।
अभिमंत्र्यर्क्षराजञ्च प्रतस्थे द्वारकां प्रति ॥ ७७ ॥
कथासमाप्तिदिवसे वसुदेव उदारधीः ।
ब्राह्मणान् भोजयामास दक्षिणाभिरतोषयत् ॥ ७८ ॥
आशीर्वाचं प्रयुञ्जाना द्विजा यत्समये हरिः ।
आजगाम क्षणे तस्मिन् पत्न्या सह मणिं दधत् ॥ ७९ ॥
भार्यया सहितं कृष्णं वसुदेवपुरोगमाः ।
दृष्ट्‍वा हर्षाश्रुपूर्णाक्षाः समवापुः परां मुदम् ॥ ८० ॥
देवर्षिर्नारदश्चाथ कृष्णागमनहर्षितः ।
आमन्त्र्य वसुदेवं च कृष्णं ब्रह्मसभां ययौ ॥ ८१ ॥
हरिचरितमिदं यत्कीर्तितं दुर्यशोघ्नं
पतति विमलभक्त्या शुद्धचित्तः शृणोति ।
स भवति सुखपूर्णः सर्वदा सिद्धकामो
जगति च वपुषोऽन्ते मुक्तिमार्गं लभेच्च ॥ ८२ ॥
॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्य वसुदेवस्य देवीभागवतनवाह-श्रवणात्पुत्रप्राप्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

तत्पश्चात् ऋक्षराज जाम्बवान् ने श्रीकृष्ण की विधिवत् पूजा करके स्यमन्तकमणि तथा अपनी पुत्री जाम्बवती उन्हें प्रसन्नतापूर्वक अर्पित कर दी ॥ ७६ ॥ श्रीकृष्ण ने जाम्बवती को पत्नी के रूप में अंगीकार करके मणि को गले में धारण कर लिया और ऋक्षराज जाम्बवान् से विदा लेकर वे द्वारकापुरी के लिये प्रस्थित हुए ॥ ७७ ॥

उधर द्वारका में उदारहृदय श्रीवसुदेवजी ने श्रीमद्देवीभागवतपुराण – कथा की समाप्ति के दिन ब्राह्मणों को भोजन कराया तथा नानाविध दक्षिणाओं से उन्हें सन्तुष्ट किया ॥ ७८ ॥ जिस समय वे ब्राह्मण वसुदेव को आशीर्वचन प्रदान कर रहे थे, उसी समय भगवान् श्रीकृष्ण मणि धारण किये हुए पत्नी जाम्बवती के साथ वहाँ आ पहुँचे ॥ ७९ ॥ भार्यासहित भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर वसुदेवजी तथा उपस्थित जनसमूह की आँखें हर्षातिरेक के अश्रु से परिपूर्ण हो गयीं और वे परम आनन्दित हुए ॥ ८० ॥ देवर्षि नारद भी श्रीकृष्ण के आगमन से हर्षित हुए और उन्होंने वसुदेवजी तथा श्रीकृष्ण से विदा लेकर ब्रह्मसभा के लिये प्रस्थान किया ॥ ८१ ॥

जो मनुष्य निष्कपट भक्ति एवं शुद्ध हृदय से भगवान्‌ के इस विख्यात तथा कलंकनाशक चरित्र का पाठ एवं श्रवण करता है, वह पूर्ण सुखी हो जाता है, जगत् में उसकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं तथा मृत्यु के अनन्तर वह मोक्षपद प्राप्त करता है ॥ ८२ ॥

॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे मानसखण्डे श्रीमद्देवीभागवतमाहात्म्ये वसुदेवस्य देवीभागवतनवाह-श्रवणात्पुत्रप्राप्तिवर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥

1. . भार का परिमाण इस प्रकार है –
चतुर्भिर्त्रीहिभिर्गुञ्जं गुञ्जान्पञ्च पणं पलम् ।
अष्टौ धरणमष्टौ च कर्षं तांश्चतुरः पलम् ।
तुलां पलशतं प्राहुर्भारं स्याद्विंशतिस्तुलाः ॥
अर्थात् ‘चार व्रीहि (धान) – की एक गुंजा, पाँच गुंजा का एक पण, आठ पण का एक धरण, आठ धरण का एक कर्ष, चार कर्ष का एक पल, सौ पल की एक तुला और बीस तुला का एक भार कहलाता है।’

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