श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-25
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-पञ्चविंशोऽध्यायः
पच्चीसवाँ अध्याय
सर्पदंश से रोहित की मृत्यु, रानी का करुण विलाप, पहरेदारों का रानी को राक्षसी समझकर चाण्डाल को सौंपना और चाण्डाल का हरिश्चन्द्र को उसके वध की आज्ञा देना
चाण्डालाज्ञया हरिश्चन्द्रस्य खड्गग्रहणवर्णनम्

सूतजी बोले — [ हे शौनक !] एक समय की बात है, वह रोहित नामक राजकुमार लड़कों के साथ बाहर खेलने के लिये वाराणसी के समीप चला गया । तत्पश्चात् वहाँ पर वह खेलने के बाद कुश उखाड़ने लगा। उसने अपनी शक्ति के अनुसार अल्प जड़वाले तथा अग्रभाग से युक्त बहुत से कोमल कुश उखाड़े। इससे मेरे आर्य (स्वामी) प्रसन्न होंगे ऐसा बोलते हुए वह बड़ी सावधानी से दोनों हाथों से कुश उखाड़ता था। साथ ही वह उत्तम लक्षणों वाली समिधाओं तथा ईंधन हेतु श्रेष्ठ लकड़ियों और यज्ञ हेतु कुशों तथा अग्नि में हवन करने के लिये पलाश- काष्ठों को आदरपूर्वक एकत्र करके सम्पूर्ण बोझ मस्तक पर रखकर दुःखित होता हुआ पैदल चलने लगा और वह बालक प्यास से व्याकुल हो गया। वह शिशु एक जलाशय के पास पहुँचकर बोझ को जमीन पर रखकर जल-स्थान पर गया और इच्छानुसार जल पीकर मुहूर्त भर विश्राम करके वल्मीक के ढेर पर रखे उस बोझ को उठाने लगा ॥ २-६ ॥

उसी समय विश्वामित्र की प्रेरणा से एक प्रचण्ड रूपवाला डरावना महाविषधर काला सर्प उस वल्मीक से निकला ॥ ७ ॥ उस सर्प ने बालक रोहित को डँस लिया और वह उसी समय भूमि पर गिर पड़ा। रोहित को मृत देखकर भय से व्याकुल सभी बालक शीघ्रतापूर्वक ब्राह्मण के घर गये और रोहित की माता के सामने खड़े होकर कहने लगे हे विप्रदासि ! आपका पुत्र हम लोगों के साथ खेलने के लिये बाहर गया हुआ था । वहाँ उसे साँप ने काट लिया, जिससे उसकी मृत्यु हो गयी ॥ ८-९१/२

वज्रपात-सदृश वह बात सुनकर रानी मूर्च्छित हो गयीं और जड़ से कटे हुए केले के वृक्ष की भाँति भूमि पर गिर पड़ीं ॥ १०१/२

इससे ब्राह्मण कुपित हो गया और उन पर जल से छींटे मारने लगा। थोड़ी देर में उन्हें चेतना आ गयी, तब ब्राह्मण उनसे कहने लगा ॥ १११/२

ब्राह्मण बोला — हे दुष्टे ! सायंकाल के समय रोना निन्दनीय तथा दरिद्रता प्रदान करने वाला होता है ऐसा जानती हुई भी तुम इस समय रो रही हो । क्या तुम्हारे हृदय में लज्जा नहीं है ? ॥ १२१/२

ब्राह्मण के ऐसा कहने पर वे कुछ भी नहीं बोलीं । पुत्र-शोक सन्तप्त तथा दीन होकर वे करुण क्रन्दन करने लगीं। उनका मुख आँसुओं से भीग गया था, उनकी दशा अत्यन्त दयनीय थी, वे धूल-धूसरित हो गयी थीं तथा उनके सिर के केश अस्त-व्यस्त हो गये थे ॥ १३-१४ ॥

तब क्रोध में आकर ब्राह्मण ने उस रानी से कहा — दुष्टे ! तुम्हें धिक्कार है; क्योंकि अपना मूल्य लेकर भी तुम मेरे कार्य की उपेक्षा कर रही हो । यदि तुम काम करने में असमर्थ थी, तो मुझसे वह धन तुमने क्यों लिया ? ॥ १५१/२

इस प्रकार उस ब्राह्मण के द्वारा निष्ठुर वचनों से बार-बार फटकारने पर रानी ने रोते हुए गद्गद वाणी में [अपने रुदन का] कारण बताते हुए कहा — हे स्वामिन्! [क्रीडा हेतु] बाहर गये हुए मेरे पुत्र को सर्प ने डँस लिया और वह मर गया। मैं उस बालक को देखने जाऊँगी । अतः आप मुझे आज्ञा दीजिये। हे सुव्रत ! अब मेरे लिये उस पुत्र का दर्शन दुर्लभ हो गया है ॥ १६-१८ ॥

इस प्रकार करुणापूर्ण वचन कहकर रानी फिर रोने लगी, इस पर वह ब्राह्मण कुपित होकर उन राजमहिषी से फिर कहने लगा ॥ १९ ॥

ब्राह्मण बोला — कुटिल व्यवहार वाली हे शठे! क्या तुम्हें इस पाप का ज्ञान नहीं है कि जो मनुष्य अपने स्वामी से वेतन लेकर उसके कार्य की उपेक्षा करता है, वह महारौरव नरक में पड़ता है, एक कल्प तक नरक में रहकर वह मुर्गे की योनि में जन्म लेता है ॥ २०-२१ ॥ अथवा इस धार्मिक चर्चा से मेरा क्या प्रयोजन है; क्योंकि पापी, मूर्ख, क्रूर, नीच, मिथ्याभाषी एवं शठ के प्रति वह वचन उसी प्रकार निष्फल होता है, जैसे ऊसर में बोया गया बीज । अतः यदि तुम्हें परलोक का कुछ भी भय हो तो आओ, अपना कार्य करो ॥ २२-२३ ॥

उसके ऐसा कहने पर [ भय के कारण ] थर-थर काँपती हुई रानी ब्राह्मण से यह वचन बोलीं — हे नाथ ! मुझ पर दया कीजिये, अनुग्रह कीजिये । प्रसन्नमुखवाले होइये। मुझे मुहूर्त भर के लिये वहाँ जाने दीजिये, जिससे मैं अपने पुत्र को देख सकूँ ॥ २४१/२

ऐसा कहकर पुत्रशोक सन्तप्त वे रानी ब्राह्मण के चरणों पर सिर रखकर करुण विलाप करने लगीं । इसपर क्रोध से लाल नेत्रों वाला वह ब्राह्मण कुपित होकर रानी से कहने लगा ॥ २५-२६ ॥

विप्र बोला — तुम्हारे पुत्र से मेरा क्या प्रयोजन, तुम मेरे घर का कार्य सम्पन्न करो। क्या तुम कोड़े के प्रहार का फल देने वाले मेरे क्रोध को नहीं जानती हो ? ॥ २७ ॥

इस प्रकार ब्राह्मण के कहने पर रानी धैर्य धारण करके उसके घर का काम करने में संलग्न हो गयीं । इस तरह पैर दबाने आदि कार्य करते रहने में उनकी आधी रात बीत गयी ॥ २८ ॥

इसके बाद ब्राह्मण ने उनसे कहा — अब तुम अपने पुत्रके पास जाओ और उसका दाह-संस्कार आदि सम्पन्न करके शीघ्र पुनः वापस आ जाना, जिससे मेरा प्रात:कालीन गृहकार्य बाधित न हो ॥ २९३ ॥

तब रानी अकेली ही रात में विलाप करती हुई गयीं और अपने पुत्र को मृत देखकर अत्यन्त शोकाकुल हो उठीं । उस समय वे झुण्ड से बिछड़ी हुई हिरनी अथवा बिना बछड़े की गाय की भाँति प्रतीत हो रही थीं ॥ ३०-३१ ॥ थोड़ी ही देर में वाराणसी से बाहर निकलने पर काष्ठ, कुश और तृण के ऊपर अपने पुत्र को रंक की भाँति भूमि पर सोया हुआ देखकर वे दुःख से अत्यन्त अधीर हो गयीं और अत्यन्त निष्ठुर शब्द करके विलाप करने लगीं मेरे सामने आओ और बताओ कि तुम इस समय मुझसे क्यों रूठ गये हो ? पहले तुम बार-बार ‘अम्बा’ – ऐसा कहकर मेरे सामने नित्य आया करते थे। इसके बाद लड़खड़ाते हुए पैरों से कुछ दूर जाकर वे मूर्च्छित होकर उसके ऊपर गिर पड़ीं ॥ ३२-३४ ॥

तत्पश्चात् सचेत होने पर बालक को दोनों हाथों में भरकर और उसके मुख से अपना मुख लगाकर वे करुण स्वर में रुदन करने लगीं और दोनों हाथों से अपना सिर तथा वक्ष:स्थल पीटने लगीं [ वे ऐसा कहकर रो रही थीं] हा पुत्र ! हा शिशो ! हा वत्स ! हा सुन्दर कुमार ! हा राजन् ! आप कहाँ चले गये ? मृत होकर भूमि पर पड़े हुए अपने प्राणों से भी बढ़कर प्रिय पुत्र को देख तो लीजिये ॥ ३५-३७ ॥

तत्पश्चात् ‘कहीं बालक जीवित तो नहीं है’- इस शंका से वे उसका मुख बार-बार निहारने लगीं, किंतु मुख की चेष्टा से उसे निष्प्राण जानकर पुनः मूर्च्छित होकर वे गिर पड़ीं। इसके बाद हाथ में बालक का मुख लेकर उन्होंने इस प्रकार कहा हे पुत्र ! तुम इस भयंकर निद्रा का त्याग करो और शीघ्र जागो ! आधी रात से भी अधिक समय हो रहा है, सैकड़ों सियारिनें बोल रही हैं; भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी आदि के समूह ध्वनि कर रहे हैं । सूर्यास्त होते ही तुम्हारे सभी मित्र चले गये; केवल तुम्हीं यहाँ कैसे रह गये ? ॥ ३८–४०१/२

सूतजी बोले — ऐसा कहकर दुर्बल शरीर वाली रानी पुन: इस प्रकार करुण रुदन करने लगीं — ‘ हा शिशो ! हा बालक ! हा वत्स ! हा रोहित नामवाले कुमार! हे पुत्र ! तुम मेरी बात का उत्तर क्यों नहीं दे रहे हो ?’ ॥ ४१-४२ ॥ हे वत्स ! क्या तुम यह नहीं जानते कि मैं तुम्हारी माता हूँ; मेरी ओर देखो । हे पुत्र ! मुझे अपना देश छोड़ना पड़ा, राज्यविहीन होना पड़ा और पति के द्वारा बेच दिये जाने पर दासी बनना पड़ा, फिर भी हे पुत्र ! केवल तुम्हें देखकर जी रही हूँ । तुम्हारे जन्म के समय ब्राह्मणों ने भविष्य के सम्बन्ध में बताया था कि यह बालक दीर्घ आयुवाला, पृथ्वी का शासक, पुत्र-पौत्र से सम्पन्न, पराक्रम तथा दान के प्रति अनुराग रखने वाला, बलवान्, ब्राह्मण – गुरु-देवता का उपासक, माता-पिता को प्रसन्न रखने वाला, सत्यवादी और जितेन्द्रिय होगा, किंतु हे पुत्र ! यह सब इस समय असत्य सिद्ध हो गया ॥ ४३–४६ ॥ हे पुत्र ! तुम्हारी हथेली में चक्र, मत्स्य, छत्र, श्रीवत्स, स्वस्तिक, ध्वजा, कलश तथा चामर आदि के चिह्न और हे सुत ! अन्य जो भी शुभ लक्षण तुम्हारे हाथ में विद्यमान हैं, वे सब इस समय निष्फल हो गये हैं ॥ ४७-४८ ॥ हा राजन्! हा पृथ्वीनाथ ! आपका राज्य, आपके मन्त्री, आपका सिंहासन, आपका छत्र, आपका खड्ग, आपका वह धन-वैभव, वह अयोध्या, राजमहल, हाथी, घोड़े, रथ और प्रजा – ये सब कहाँ चले गये ? हे पुत्र ! इन सबके साथ ही तुम भी मुझे छोड़कर कहाँ चले गये ? ॥ ४९-५० ॥ हा कान्त! हा राजन् ! आइये, अपने इस प्रिय पुत्र को देख लीजिये, जो [ खेलते-खेलते ] आपके वक्ष पर चढ़कर कुमकुम से लिप्त उस विशाल वक्ष को अपने शरीर में लगे धूल तथा कीचड़ से मलिन कर देता था, आपकी गोद में बैठकर जो बालसुलभ स्वभाव के कारण आपके ललाट पर लगे हुए कस्तूरीमिश्रित चन्दन के तिलक को मिटा देता था । हे भूपते ! जिसके मिट्टी लगे मुख को मैं स्नेहपूर्वक चूम लेती थी, उसी मुख को आज मैं देख रही हूँ कि कीड़ों ने उसे विकृत कर दिया है और उस पर मक्खियाँ बैठ रही हैं । हे राजन्! अकिंचन की भाँति पृथ्वी पर पड़े इस मृत पुत्र को देख लीजिये ॥ ५१–५४ ॥ हा दैव ! मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा कार्य कर दिया था कि उस कर्म-फल का अन्त मैं देख नहीं पा रही हूँ ! ॥ ५५ ॥ ‘ हा पुत्र ! हा शिशो ! हा वत्स ! हा सुन्दर कुमार!’ उस रानी का ऐसा विलाप सुनकर नगरपालक जाग गये और वे अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर शीघ्र ही उनके पास पहुँचे ॥ ५६१/२

जनों ने कहा — तुम कौन हो, यह बालक किसका है, तुम्हारे पति कहाँ हैं और रात में निर्भय होकर तुम अकेली यहाँ किस कारण से रो रही हो ? ॥ ५७१/२

उनके ऐसा कहने पर उस कृशकाय रानी ने कुछ भी बात नहीं कही। उनके पुनः पूछने पर भी वे चुप रहीं और स्तब्ध – जैसी हो गयीं । वे अत्यन्त दुःखित होकर विलाप करने लगीं और उनकी आँखों से शोक के आँसू निरन्तर निकलते रहे ॥ ५८-५९ ॥ तब उनके मन में रानी के प्रति सन्देह उत्पन्न हो गया, उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गये और वे भयभीत हो उठे; तब हाथों में आयुध लिये हुए वे परस्पर कहने लगे — ॥ ६० ॥

निश्चय ही यह स्त्री नहीं है; क्योंकि यह कुछ भी बोल नहीं रही है। यह बालकों को मार डालने वाली कोई राक्षसी है, अतः यत्नपूर्वक इसका वध कर देना चाहिये । यदि यह कोई उत्तम स्त्री होती तो इस अर्धरात्रि में घर से बाहर क्यों रहती ? यह निश्चितरूप से किसी के शिशु को खाने के लिये यहाँ ले आयी है ॥ ६१-६२ ॥

ऐसा कहकर उनमें से कुछ ने शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक रानी के केश पकड़ लिये, कुछ अन्य व्यक्तियों ने उनकी दोनों भुजाएँ पकड़ लीं और कुछ ने गर्दन पकड़ ली। ‘यह खेचरी [कहीं ] भाग जायगी’ – ऐसा कहकर हाथों में शस्त्र धारण किये हुए बहुत से पहरेदार रानी को घसीटते हुए चाण्डाल के घर ले गये और उसे चाण्डाल को सौंप दिया [ और कहा ] — हे चाण्डाल ! इस बालघातिनी को हम लोगों ने बाहर देखा । तुम बाहर किसी स्थान पर शीघ्र ही ले जाकर इसे मार डालो, मार डालो ॥ ६३–६५ ॥

रानी को देखकर चाण्डाल ने कहा — मैं इसे जानता हूँ; यह लोक में प्रसिद्ध है । इसके पहले किसी ने भी इसे देखा नहीं था । इसने अनेक बार लोगों के बच्चों का भक्षण कर लिया है। आप लोगों ने इसे पकड़कर महान् पुण्य अर्जित किया है। इससे आप लोगों का यश जगत् में सर्वदा बना रहेगा। अब आप लोग यहाँ से सुखपूर्वक चले जाइये ॥ ६६-६७ ॥ जो मनुष्य ब्राह्मण, स्त्री, बालक तथा गाय का वध करता है; स्वर्ण की चोरी करता है; आग लगाता है; मार्ग में अवरोध उत्पन्न करता है; मदिरा-पान करता है; गुरुपत्नी के साथ व्यभिचार करता है और श्रेष्ठजनों के साथ विरोध-भाव रखता है, उसका वध कर देने से पुण्य प्राप्त होता है। ऐसे कार्य में तत्पर ब्राह्मण का अथवा स्त्री का भी वध कर डालने में दोष लगता। अतः इसका वध मेरी दृष्टि में उचित नहीं है — ऐसा कहकर चाण्डाल ने दृढ़ बन्धनों से बाँधकर और केश पकड़कर उन्हें रस्सियों से पीटा। इसके बाद उसने हरिश्चन्द्र को बुलाकर उनसे कठोर वाणी में कहा — ‘हे दास ! इस पापात्मा स्त्री का तत्काल वध कर दो; इसमें सोच-विचार मत करो ‘ ॥ ६८–७१ ॥

वज्रपात के समान उस वचन को सुनकर स्त्री- वध की आशंका से राजा हरिश्चन्द्र थर-थर काँपते हुए उस चाण्डाल से बोले — मैं ऐसा करने में समर्थ नहीं हूँ, अतः मुझे कोई दूसरा कार्य करने की आज्ञा दीजिये । इसके अतिरिक्त आप जो भी कठिन-से-कठिन कार्य करने को कहेंगे, उसे मैं सम्पन्न कर दूँगा ॥ ७२-७३ ॥

उनके द्वारा कही गयी यह बात सुनकर चाण्डाल ने यह वचन कहा — तुम बिलकुल मत डरो । तलवार उठाओ और इसका वध कर दो; क्योंकि ऐसी स्त्री का वध अत्यन्त पुण्यदायक माना गया है। बालकों को भय पहुँचाने वाली यह स्त्री कभी भी रक्षा के योग्य नहीं है ॥ ७४ ॥

चाण्डाल की वह बात सुनकर राजा ने यह वचन कहा — जिस किसी भी उपाय से स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिये, उनका वध कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि धर्मपरायण मुनियों ने स्त्रीवध को पाप बताया है। जो पुरुष जानकर अथवा अनजान में भी स्त्री की हत्या करता है, वह महारौरव नरक में गिरकर यातना भोगता है । ७५–७७ ॥

चाण्डाल बोला — ‘यह सब मत बोलो, विद्युत् के समान चमकने वाली यह तीक्ष्ण तलवार उठा लो; क्योंकि यदि एक का वध कर देने से बहुत प्राणियों को सुख हो तो उसकी की गयी हिंसा निश्चय ही पुण्यप्रद होती है। यह दुष्टा संसार में बहुत-से बच्चों को खा चुकी है, अत: शीघ्र ही इसका वध कर दो, जिससे लोक शान्तिमय हो जाय ॥ ७८-७९१/२

राजा बोले — हे चाण्डालराज ! मैंने आजीवन स्त्री वध न करने का कठोर व्रत ले रखा है, अतः मैं स्त्री वध के लिये प्रयत्न नहीं कर सकता; अपितु आपका अन्य कोई कार्य सम्पन्न करूँगा ॥ ८० ॥

चाण्डाल बोला — अरे दुष्ट ! स्वामी के इस कार्य को छोड़कर तुम्हारे लिये दूसरा कौन-सा कार्य है ? वेतन लेकर मेरे कार्य की उपेक्षा क्यों कर रहे हो ? जो सेवक स्वामी से वेतन लेकर उसके कार्य की उपेक्षा करता है, उसका दस हजार कल्पों तक नरक से उद्धार नहीं होता ॥ ८१-८२३ ॥

राजा बोले — हे चाण्डालनाथ ! आप मुझे कोई अन्य अत्यन्त कठिन कार्य करने का आदेश दीजिये । आप अपने किसी शत्रु को बतायें, मैं उसे निःसन्देह शीघ्र ही मार डालूँगा और उस शत्रु का वध करके उसकी भूमि आपको सौंप दूँगा । हे देव! देवताओं, नागों, सिद्धों और गन्धर्वोंसहित इन्द्र को भी तीक्ष्ण बाणों से मारकर उन्हें जीत लूँगा ॥ ८३–८५ ॥

तब राजा हरिश्चन्द्र का यह वचन सुनकर उस चाण्डाल ने क्रुद्ध होकर थर-थर काँप रहे उन राजा से कहा ॥ ८६ ॥

चाण्डाल बोला — ( सेवकों के लिये जो बात कही गयी है, वह बात तुम्हारे व्यवहार में लक्षित नहीं होती) । चाण्डाल की दासता करके तुम देवताओं-जैसी बात करते हो । अरे दास ! अधिक कहने से क्या प्रयोजन ? तुम मेरी बात ध्यान से सुनो। निर्लज्ज ! यदि तुम्हारे हृदय में थोड़ा भी पाप का भय था, तो चाण्डाल के घर में दासता करना तुमने स्वीकार ही क्यों किया ? अतः इस तलवार को उठाओ और इसके कमलवत् सिर को काट दो ऐसा कहकर चाण्डाल ने राजा को तलवार पकड़ा दी ॥ ८७ – ८९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘चाण्डाल की आज्ञा से हरिश्चन्द्र का खड्गग्रहणवर्णन’ नामक पचीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २५ ॥

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