May 10, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-सप्तमः स्कन्धः-अध्याय-23 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-सप्तमः स्कन्धः-त्रयोविंशोऽध्यायः तेईसवाँ अध्याय विश्वामित्र का राजा हरिश्चन्द्र को चाण्डाल के हाथ बेचकर ऋणमुक्त करना हरिश्चन्द्रोपाख्यानवर्णनम् व्यासजी बोले — राजा हरिश्चन्द्र से इस प्रकार का दयाहीन एवं निष्ठुर वचन कहकर और वह सम्पूर्ण धन लेकर कुपित विश्वामित्र वहाँ से चले गये ॥ १ ॥ विश्वामित्र के चले जाने पर राजा शोकसन्तप्त हो उठे। वे बार-बार दीर्घ साँसें लेते हुए तथा नीचे की ओर मुख करके उच्च स्वर से बोलने लगे — धन से बिक जाने के लिये उद्यत प्रेतरूप मुझसे जिसका दुःख दूर हो सके, वह अभी शीघ्रता करके सूर्य के चौथे प्रहर में रहते-रहते मुझसे बात कर ले ॥ २-३ ॥ इतने में शीघ्र ही वहाँ चाण्डाल का रूप धारण करके धर्मदेव आ पहुँचे । उस चाण्डाल के शरीर से दुर्गन्ध आ रही थी । उसका वक्ष भयानक था, उसकी विशाल दाढ़ी थी, उसके दाँत बड़े थे और वह बड़ा निर्दयी लग रहा था । उस नराधम तथा भयावने चाण्डाल के शरीर का वर्ण काला था, उसका उदर लम्बा था, वह बहुत मोटा था, उसने अपने हाथ में एक जर्जर लाठी ले रखी थी और वह शवों की मालाओं से अलंकृत था ॥ ४-५ ॥ चाण्डाल बोला — मैं तुम्हें दास के रूप में रखना चाहता हूँ; क्योंकि मुझे सेवक की अत्यन्त आवश्यकता है । शीघ्र बताओ कि इसके लिये तुम्हें कितना मूल्य देना होगा ? ॥ ६ ॥ व्यासजी बोले — [ हे राजन् ! ] अत्यन्त क्रूर दृष्टि वाले उस निष्ठुर तथा अविनीत चाण्डाल को इस प्रकार बोलते हुए देखकर महाराज हरिश्चन्द्र ने यह पूछा — ‘तुम कौन हो ? ‘ ॥ ७ ॥ चाण्डाल बोला — हे राजेन्द्र ! मैं ‘प्रवीर’ इस नाम से यहाँ पर विख्यात एक चाण्डाल हूँ । मृत व्यक्ति का वस्त्र ग्रहण करना यहाँ तुम्हारा कार्य होगा और तुम्हें सदा मेरी आज्ञा का पालन करना पड़ेगा ॥ ८ ॥ चाण्डाल के ऐसा कहने पर राजा ने यह वचन कहा, ‘मेरा तो ऐसा विचार है कि ब्राह्मण या क्षत्रिय – कोई भी मुझे ग्रहण कर ले; क्योंकि उत्तम पुरुष के साथ उत्तम का, मध्यम के साथ मध्यम का और अधम के साथ अधम का धर्म स्थित रहता है’ — ऐसा विद्वानों ने कहा है ॥ ९-१० ॥ चाण्डाल बोला — हे नृपश्रेष्ठ ! हे राजन् ! आपने इस समय मेरे समक्ष जो धर्म का स्वरूप व्यक्त किया है, वह बिना सोचे-समझे ही आपने कहा है । जो मनुष्य सम्यक् सोच-समझकर बोलता है, वह अभीष्ट फल प्राप्त करता है, किंतु हे अनघ ! आपने बिना विचार किये ही जो सामान्य बात है, उसे कह दिया। यदि आप सत्य को प्रमाण मानते हैं तो आप मेरे द्वारा खरीदे जा चुके हैं; इसमें कोई सन्देह नहीं है ॥ ११-१२१/२ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — असत्य भाषण करने के कारण अधम मनुष्य शीघ्र ही भयानक नरक में जाता है। अतः मेरे लिये चाण्डाल बन जाना उचित है, किंतु असत्य का आश्रय लेना श्रेष्ठ नहीं है ॥ १३१/२ ॥ व्यासजी बोले — वे ऐसा बोल ही रहे थे कि क्रोध और अमर्ष से फैली हुई आँखों वाले तपोनिधि विश्वामित्र वहाँ आ पहुँचे और उन्होंने राजा से यह कहा — यह चाण्डाल आपके मन के अनुसार धन देने के लिये यहाँ उपस्थित है, तब आप [ इससे अपना मूल्य लेकर ] यज्ञ की सम्पूर्ण दक्षिणा मुझे क्यों नहीं दे देते? ॥ १४-१५ ॥ राजा बोले — हे भगवन्! हे कौशिक ! मैं अपने को सूर्यवंश में उत्पन्न समझता हूँ, अतः मैं धन के लोभ से चाण्डाल के दासत्व को कैसे प्राप्त होऊँ ? ॥ १६१/२ ॥ विश्वामित्र बोले — यदि आप स्वयं को चाण्डाल के हाथ बेचकर उससे प्राप्त धन मुझे नहीं दे देते तो मैं आपको निःसन्देह शाप दे दूँगा । चाण्डाल अथवा ब्राह्मण — किसी से भी द्रव्य लेकर मेरी दक्षिणा दे दीजिये। फिर इस समय चाण्डाल के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति आपको धन देने वाला है नहीं । और हे राजन् ! यह भी निश्चित है कि मैं धन लिये बिना नहीं जाऊँगा। हे नृप! यदि आप अभी मेरा धन नहीं देंगे तो दिन के चौथे प्रहर की आधी घड़ी शेष रह जाने पर मैं शापरूपी अग्नि से आपको भस्म कर दूँगा ॥ १७–२० ॥ व्यासजी बोले — तब राजा हरिश्चन्द्र ने जीवित रहते हुए भी मृतक के समान होकर ‘आप प्रसन्न हों’ – ऐसा कहते हुए विकलतापूर्वक ऋषि विश्वामित्र के पाँव पकड़ लिये ॥ २१ ॥ हरिश्चन्द्र बोले — हे विप्रर्षे ! मैं आपका दास हूँ, अत्यन्त दु:खी हूँ, दीन हूँ और विशेषरूप से आपका भक्त हूँ। चाण्डाल के सम्पर्क में रहना बड़ा ही कष्टप्रद है, अतः मुझ पर अनुग्रह कीजिये । अवशिष्ट धन चुकाने के लिये मैं आपके अधीन आपका सेवक बनूँगा। हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन की इच्छाओं के अनुसार कार्य करता हुआ मैं आपका सदा दास बना रहूँगा ॥ २२-२३ ॥ विश्वामित्र बोले — हे महाराज ! ऐसा ही हो, आप मेरे ही दास हो जाइये, किंतु हे नराधिप ! आपको सदा मेरे वचनों का पालन करना पड़ेगा ॥ २४ ॥ व्यासजी बोले — विश्वामित्र के इस प्रकार कहने पर राजा अत्यन्त हर्षित हो उठे और उन्होंने इसे अपना पुनर्जन्म समझा। वे विश्वामित्र से कहने लगे — हे द्विजश्रेष्ठ ! मैं सदा आपकी आज्ञा का पालन करूँगा; इसमें कोई संशय नहीं है । हे अनघ ! आदेश दीजिये, आपका कौन-सा कार्य सम्पन्न करूँ ॥ २५-२६ ॥ विश्वामित्र बोले — हे चाण्डाल ! इधर आओ, तुम मेरे इस दास का क्या मूल्य दोगे ? मूल्य लेकर मैं तुम्हें इसे इसी समय दे दूँगा । तुम इसे स्वीकार कर लो; क्योंकि मुझे दास से कोई प्रयोजन नहीं है, मुझे तो केवल धन की आवश्यकता है ॥ २७१/२ ॥ व्यासजी बोले — उनके इस प्रकार कहने पर चाण्डाल के मन में प्रसन्नता आ गयी । विश्वामित्र के पास तत्काल आकर वह उनसे कहने लगा ॥ २८१/२ ॥ चाण्डाल बोला — हे द्विजवर ! प्रयाग के दस योजन विस्तारवाले मण्डल की भूमि को रत्नमय कराकर मैं आपको दे दूँगा। इसके विक्रय से आपने मेरा यह महान् कष्ट दूर कर दिया ॥ २९-३० ॥ व्यासजी बोले — तत्पश्चात् स्वर्ण, मणि और मोतियों से युक्त हजारों प्रकार के दिये गये रत्नों को द्विजश्रेष्ठ विश्वामित्र ने प्राप्त किया ॥ ३१ ॥ इससे राजा हरिश्चन्द्र के मुख पर से उदासी दूर हो गयी और उन्होंने धैर्यपूर्वक यह मान लिया कि विश्वामित्र ही मेरे स्वामी हैं, मुझे तो केवल वही करना है जो ये करायेंगे ॥ ३२१/२ ॥ उसी समय सहसा अन्तरिक्ष में यह आकाशवाणी हुई कि हे महाभाग ! आपने मेरी वह दक्षिणा दे दी और अब आप ऋण से मुक्त हो गये हैं ॥ ३३१/२ ॥ इसके बाद राजा हरिश्चन्द्र के मस्तक पर आकाश से पुष्पवर्षा होने लगी और इन्द्रसहित महान् ओजवाले सभी देवता उन महाराज हरिश्चन्द्र के प्रति ‘साधु- साधु’ कहने लगे। तब अत्यन्त हर्षित होकर राजा हरिश्चन्द्र विश्वामित्र से कहने लगे — ॥ ३४-३५ ॥ राजा बोले — हे महामते ! आप ही मेरे माता-पिता तथा आप ही मेरे बन्धु हैं; क्योंकि आपने मुझे मुक्त कर दिया और क्षणभर में ऋणरहित भी बना दिया । हे महाबाहो ! आपका वचन मेरे लिये कल्याणप्रद है । कहिये, अब मैं कौन-सा कार्य करूँ ? राजा इस प्रकार कहने पर मुनि उनसे कहने लगे —॥ ३६-३७ ॥ विश्वामित्र बोले — हे राजन् ! आज से इस चाण्डाल का वचन मानना आपका कर्तव्य होगा । आपका कल्याण हो — उनसे ऐसा कहकर और वह धन लेकर विश्वामित्र वहाँ से चले गये ॥ ३८ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत सातवें स्कन्ध का ‘हरिश्चन्द्रोपाख्यानवर्णन’ नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥ Content is available only for registered users. 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