April 6, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय ११ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ग्यारहवाँ अध्याय देवासुर संग्राम की समाप्ति श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! परम पुरुष भगवान् को अहेतुकी कृपा से देवताओं की घबराहट जाती रही, उनमें नवीन उत्साह का सञ्चार हो गया । पहले इन्द्र, वायु आदि देवगण रणभूमि में जिन-जिन दैत्यों से आहत हुए थे, उन्हीं के ऊपर अब वे पूरी शक्ति से प्रहार करने लगे ॥ १ ॥ परम ऐश्वर्यशाली इन्द्र ने बलि से लड़ते-लड़ते जब उन पर क्रोध करके वज्र उठाया, तब सारी प्रजा में हाहाकार मच गया ॥ २ ॥ बलि अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर बड़े उत्साह से युद्धभूमि में बड़ी निर्भयता से डटकर विचर रहे थे । उनको अपने सामने ही देखकर हाथ में वज्र लिये हुए इन्द्र ने उनका तिरस्कार करके कहा — ॥ ३ ॥ ‘मूर्ख ! जैसे नट बच्चों की आँखें बाँधकर अपने जादू से उनका धन ऐंठ लेता है, वैसे ही तू माया की चालों से हम पर विजय प्राप्त करना चाहता है । तुझे पता नहीं कि हम लोग माया के स्वामी हैं, वह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकती ॥ ४ ॥ जो मूर्ख माया के द्वारा स्वर्ग पर-अधिकार करना चाहते हैं और उसको लाँघकर ऊपर के लोकों में भी धाक जमाना चाहते हैं उन लुटेरे मूर्खों को मैं उनके पहले स्थान से भी नीचे पटक देता हूँ ॥ ५ ॥ नासमझ ! तूने माया की बड़ी-बड़ी चालें चली हैं । देख, आज मैं अपने सौ धारवाले वज्र से तेरा सिर धड़ से अलग किये देता हूँ । तू अपने भाई-बन्धुओं के साथ जो कुछ कर सकते हो, करके देख ले’ ॥ ६ ॥ बलि ने कहा — इन्द्र! जो लोग कालशक्ति की प्रेरणा से अपने कर्म के अनुसार युद्ध करते हैं उन्हें जीत या हार, यश या अपयश अथवा मृत्यु मिलती ही है ॥ ७ ॥ इसी से ज्ञानीजन इस जगत् को काल के अधीन समझकर न तो विजय होने पर हर्ष से फूल उठते हैं और न तो अपकीर्ति, हार अथवा मृत्यु से शोक के ही वशीभूत होते हैं । तुमलोग इस तत्त्व से अनभिज्ञ हो ॥ ८ ॥ तुम लोग अपने को जय-पराजय आदि का कारण कर्ता मानते हो, इसलिये महात्माओं की दृष्टि से तुम शोचनीय हो । हम तुम्हारे मर्मस्पर्शी वचन को स्वीकार ही नहीं करते, फिर हमें दुःख क्यों होने लगा ? ॥ ९ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — वीर बलि ने इन्द्र को इस प्रकार फटकारा । बलि की फटकार से इन्द्र कुछ झेंप गये । तब तक वीरों का मान मर्दन करनेवाले बलि ने अपने धनुष को कान तक खींच-खींचकर बहुत-से बाण मारे ॥ १० ॥ सत्यवादी देवशत्रु बलि ने इस प्रकार इन्द्र का अत्यन्त तिरस्कार किया । अब तो इन्द्र अङ्कुश से मारे हुए हाथी की तरह और भी चिढ़ गये । बलि का आक्षेप वे सहन न कर सके ॥ ११ ॥ शत्रुघाती इन्द्र ने बलि पर अपने अमोघ वज्र का प्रहार किया । उसकी चोट से बलि पंख कटे हुए पर्वत के समान अपने विमान के साथ पृथ्वी पर गिर पड़े ॥ १२ ॥ बलि का एक बड़ा हितैषी और घनिष्ठ मित्र जम्भासुर था । अपने मित्र के गिर जाने पर भी उनको मारने का बदला लेने के लिये वह इन्द्र के सामने आ खड़ा हुआ ॥ १३ ॥ सिंह पर चढ़कर वह इन्द्र के पास पहुँच गया और बड़े वेग से अपनी गदा उठाकर उनके जत्रुस्थान (हॅसली) — पर प्रहार किया । साथ ही उस महाबली ने ऐरावत पर भी एक गदा जमायी ॥ १४ ॥ गदा की चोट से ऐरावत को बड़ी पीड़ा हुई, उसने व्याकुलता से घुटने टेक दिये और फिर मूर्च्छित हो गया ॥ १५ ॥ उसी समय इन्द्र का सारथि मातलि हजार घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आया और शक्तिशाली इन्द्र, ऐरावत को छोड़कर तुरंत रथ पर सवार हो गये ॥ १६ ॥ दानवश्रेष्ठ जम्भ ने रणभूमि में मातलि के इस काम की बड़ी प्रशंसा की और मुसकराकर चमकता हुआ त्रिशूल उसके ऊपर चलाया ॥ १७ ॥ मातलि ने धैर्य के साथ इस असह्य पीड़ा को सह लिया । तब इन्द्र ने क्रोधित होकर अपने वज्र से जम्भ का सिर काट डाला ॥ १८ ॥ देवर्षि नारद से जम्भासुर की मृत्यु का समाचार जानकर उसके भाई-बन्धु नमुचि, बल और पाक झटपट रणभूमि में आ पहुँचे ॥ १९ ॥ अपने कठोर और मर्मस्पर्शी वाणी से उन्होंने इन्द्र को बहुत कुछ बुरा-भला कहा और जैसे बादल पहाड़ पर मूसलधार पानी बरसाते हैं, वैसे ही उनके ऊपर बाणों की झड़ी लगा दी ॥ २० ॥ बल ने बड़े हस्तलाघव से एक साथ ही एक हजार बाण चलाकर इन्द्र के एक हजार घोड़ों को घायल कर दिया ॥ २१ ॥ पाक ने सौ बाणों से मातलि को और सौ बाणों से रथ के एक-एक अङ्ग को छेद डाला । युद्धभूमि में यह बड़ी अद्भुत घटना हुई कि एक ही बार इतने बाण उसने चढ़ाये और चलाये ॥ २२ ॥ नमुचि ने बड़े-बड़े पंद्रह बाणों से, जिनमें सोने के पंख लगे हुए थे, इन्द्र को मारा और युद्धभूमि में वह जल से भरे बादल के समान गरजने लगा ॥ २३ ॥ जैसे वर्षाकाल के बादल सूर्य को ढक लेते हैं, वैसे ही असुरों ने बाणों की वर्षा से इन्द्र और उनके रथ तथा सारथि को भी चारों ओर से ढक दिया ॥ २४ ॥ इन्द्र को न देखकर देवता और उनके अनुचर अत्यन्त विह्वल होकर रोने-चिल्लाने लगे । एक तो शत्रुओं ने उन्हें हरा दिया था और दूसरे अब उनका कोई सेनापति भी न रह गया था । उस समय देवताओं की ठीक वैसी ही अवस्था हो रही थी, जैसे बीच समुद्र में नाव टूट जाने पर व्यापारियों की होती हैं ॥ २५ ॥ परन्तु थोड़ी ही देर में शत्रुओं के बनाये हुए बाणों के पिंजड़े से घोड़े, रथ, ध्वजा और सारथि के साथ इन्द्र निकल आये । जैसे प्रातःकाल सूर्य अपनी किरणों से दिशा, आकाश और पृथ्वी को चमका देते हैं, वैसे ही इन्द्र के तेज से सब-के-सब जगमगा उठे ॥ २६ ॥ वज्रधारी इन्द्र ने देखा कि शत्रुओं ने रणभूमि में हमारी सेना को रौंद डाला है, तब उन्होंने बड़े क्रोध से शत्रु को मार डालने के लिये वज्र से आक्रमण किया ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! उस आठ धारवाले पैने वज्र से उन दैत्यों के भाई-बन्धुओं को भी भयभीत करते हुए उन्होंने बल और पाक के सिर काट लिये ॥ २८ ॥ परीक्षित् ! अपने भाइयों को मरा हुआ देख नमुचि को बड़ा शोक हुआ । वह क्रोध के कारण आपे से बाहर होकर इन्द्र को मार डालने के लिये जी-जान से प्रयास करने लगा ॥ २९ ॥ ‘इन्द्र ! अब तुम बच नहीं सकते’ — इस प्रकार ललकारते हुए एक त्रिशूल उठाकर वह इन्द्र पर टूट पड़ा । वह त्रिशूल फौलाद का बना हुआ था, सोने के आभूषणों से विभूषित था और उसमें घण्टे लगे हुए थे । नमुचि ने क्रोध के मारे सिंह के समान गरजकर इन्द्र पर वह त्रिशूल चला दिया ॥ ३० ॥ परीक्षित् ! इन्द्र ने देखा कि त्रिशूल बड़े वेग से मेरी ओर आ रहा है । उन्होंने अपने बाणों से आकाश में ही उसके हजारों टुकड़े कर दिये और इसके बाद देवराज इन्द्र ने बड़े क्रोध से उसका सिर काट लेने के लिये उसकी गर्दन पर वज्र मारा ॥ ३१ ॥ यद्यपि इन्द्र ने बड़े वेग से वह वज्र चलाया था, परन्तु उस यशस्वी वज्र से उसके चमडे पर खरोंच तक नहीं आयी । यह बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई कि जिस वज्र ने महाबली वृत्रासुर का शरीर टुकड़े-टुकड़े कर डाला था, नमुचि के गले की त्वचा ने उसका तिरस्कार कर दिया ॥ ३२ ॥ जब वज्र नमुचि का कुछ न बिगाड़ सका, तब इन्द्र उससे डर गये । वे सोचने लगे कि ‘दैवयोग से संसार भर को संशय में डालनेवाली यह कैसी घटना हो गयी ! ॥ ३३ ॥ पहले युग में जब ये पर्वत पाँखों से उड़ते थे और घूमते-फिरते भार के कारण पृथ्वी पर गिर पड़ते थे, तब प्रजा का विनाश होते देखकर इसी वज्र से मैंने उन पहाड़ों की पाँखें काट डाली थी ॥ ३४ ॥ त्वष्टा की तपस्या का सार ही वृत्रासुर के रूप में प्रकट हुआ था । उसे भी मैंने इसी वज्र के द्वारा काट डाला था और भी अनेकों दैत्य, जो बहुत बलवान् थे और किसी अस्त्र-शस्त्र से जिनके चमड़े को भी चोट नहीं पहुँचायी जा सकी थी, इसी वज्र से मैंने मृत्यु के घाट उतार दिये थे ॥ ३५ ॥ वही मेरा वज्र मेरे प्रहार करने पर भी इस तुच्छ असुर को न मार सका, अतः अब मैं इसे अङ्गीकार नहीं कर सकता । यह ब्रह्मतेज से बना है तो क्या हुआ, अब तो निकम्मा हो चुका है’ ॥ ३६ ॥ इस प्रकार इन्द्र विषाद करने लगे । उसी समय यह आकाशवाणी हुई — “यह दानव न तो सूखी वस्तु से मर सकता है, न गीली से ॥ ३७ ॥ इसे मैं वर दे चुका हूँ कि ‘सूखी या गीली वस्तु से तुम्हारी मृत्यु न होगी ।’ इसलिये इन्द्र ! इस शत्रु को मारने के लिये अब तुम कोई दूसरा उपाय सोचो !” ॥ ३८ ॥ उस आकाशवाणी को सुनकर देवराज इन्द्र बड़ी एकाग्रता से विचार करने लगे । सोचते-सोचते उन्हें सूझ गया कि समुद्र का फेन तो सूखा भी हैं, गीला भी; ॥ ३१ ॥ इसलिये न उसे सूखा कह सकते हैं, न गीला । अतः इन्द्र ने उस न सूखे और न गीले समुद्र-फेन से नमुचि का सिर काट डाला । उस समय बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भगवान् इन्द्र पर पुष्पों की वर्षा और उनकी स्तुति करने लगे ॥ ४० ॥ गन्धर्वशिरोमणि विश्वावसु तथा परावसु गान करने लगे, देवताओं की दुन्दुभियाँ बजने लगी और नर्तकियाँ आनन्द से नाचने लगी ॥ ४१ ॥ इसी प्रकार वायु, अग्नि, वरुण आदि दूसरे देवताओं ने भी अपने अस्त्र-शस्त्रों से विपक्षियों को वैसे ही मार गिराया जैसे सिंह हरिनों को मार डालते हैं ॥ ४२ ॥ परीक्षित् ! इधर ब्रह्माजी ने देखा कि दानवों का तो सर्वथा नाश हुआ जा रहा है । तब उन्होंने देवर्षि नारद को देवताओं के पास भेजा और नारदजी ने वहाँ जाकर देवताओं को लड़ने से रोक दिया ॥ ४३ ॥ नारदजी ने कहा — देवताओ ! भगवान् की भुजाओं की छत्रछाया में रहकर आपलोगों ने अमृत प्राप्त कर लिया है और लक्ष्मीजी ने भी अपनी कृपा-कोर से आपकी अभिवृद्धि की है, इसलिये आपलोग अब लड़ाई बंद कर दें ॥ ४४ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — देवताओं ने देवर्षि नारद की बात मानकर अपने क्रोध के वेग को शान्त कर लिया और फिर वे सब-के-सब अपने लोक स्वर्ग को चले गये । उस समय देवताओं के अनुचर उनके यश का गान कर रहे थे ॥ ४५ ॥ युद्ध में बचे हुए दैत्यों ने देवर्षि नारद की सम्मति से वज्र की चोट से मरे हुए बलि को लेकर अस्ताचल की यात्रा की ॥ ४६ ॥ वहाँ शुक्राचार्य ने अपनी सञ्जीवनी विद्या से उन असुरों को जीवित कर दिया, जिनके गरदन आदि अङ्ग कटे नहीं थे, बच रहे थे ॥ ४७ ॥ शुक्राचार्य के स्पर्श करते ही बलि की इन्द्रियों में चेतना और मन में स्मरण शक्ति आ गयी । बलि यह बात समझते थे कि संसार में जीवन-मृत्यु, जय-पराजय आदि उलट-फेर होते ही रहते हैं । इसलिये पराजित होने पर भी उन्हें किसी प्रकार का खेद नहीं हुआ ॥ ४८ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे एकादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related