April 6, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय १५ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय पंद्रहवाँ अध्याय राजा बलि की स्वर्ग पर विजय राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! श्रीहरि स्वयं ही सबके स्वामी हैं । फिर उन्होंने दीन-हीन की भाँति राजा बलि से तीन पग पृथ्वी क्यों माँगी ? तथा जो कुछ वे चाहते थे, वह मिल जाने पर भी उन्होंने बलि को बांधा क्यों ? ॥ १ ॥ मेरे हृदय में इस बात का बड़ा कौतूहल हैं कि स्वयं परिपूर्ण यज्ञेश्वर भगवान् के द्वारा याचना और निरपराध का बन्धन — ये दोंनो ही कैसे सम्भव हुए ? हमलोग यह जानना चाहते हैं ॥ २ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! जब इन्द्र ने बलि को पराजित करके उनकी सम्पति छीन ली और उनके प्राण भी ले लिये, तब भृगुनन्दन शुक्राचार्य ने उन्हें अपनी सञ्जीवनी विद्या से जीवित कर दिया । इस पर शुक्राचार्यजी के शिष्य महात्मा बलि ने अपना सर्वस्व उनके चरणों पर चढ़ा दिया और वे तन-मन से गुरुजी के साथ ही समस्त भृगुवंशी ब्राह्मणों की सेवा करने लगे ॥ ३ ॥ इससे प्रभावशाली भृगुवंशी ब्राह्मण उनपर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने स्वर्ग पर विजय प्राप्त करने की इच्छावाले बलि का महाभिषेक की विधि से अभिषेक करके उनसे विश्वजित् नाम का यज्ञ कराया ॥ ४ ॥ यज्ञ की विधि से हविष्यों के द्वारा जब अग्निदेवता की पूजा की गयी, तब यज्ञकुण्ड में से सोने की चद्दर से मढ़ा हुआ एक बड़ा सुन्दर रथ निकला । फिर इन्द्र के घोड़ों-जैसे हरे रंग के घोड़े और सिंह के चिह्न से युक्त रथ पर लगाने की ध्वजा निकली ॥ ५ ॥ साथ ही सोने के पत्र से मढ़ा हुआ दिव्य धनुष, कभी खाली न होने वाले दो अक्षय तरकस और दिव्य कवच भी प्रकट हुए । दादा प्रह्लादजी ने उन्हें एक ऐसी माला दी, जिसके फूल कभी कुम्हलाते न थे तथा शुक्राचार्य ने एक शंङ्ख दिया ॥ ६ ॥ इस प्रकार ब्राह्मणों की कृपा से युद्ध की सामग्री प्राप्त करके उनके द्वारा स्वस्तिवाचन हो जाने पर राजा बलि ने उन ब्राह्मणों की प्रदक्षिणा की और नमस्कार किया । इसके बाद उन्होंने प्रह्लादजी से सम्भाषण करके उनके चरणों में नमस्कार किया ॥ ७ ॥ फिर वे भृगुवंशी ब्राह्मणों के दिये हुए दिव्य रथ पर सवार हुए । जब महारथी-राजा बलि ने कवच धारण कर धनुष, तलवार, तरकस आदि शस्त्र ग्रहण कर लिये और दादा की दी हुई सुन्दर माला धारण कर ली, तब उनकी बड़ी शोभा हुई ॥ ८ ॥ उनकी भुजाओं में सोने के बाजूबंद और कानों में मकराकृत कुण्डल जगमगा रहे थे । उनके कारण रथ पर बैठे हुए वे ऐसे सुशोभित हो रहे थे, मानो अग्निकुण्ड में अग्नि प्रज्वलित हो रही हो ॥ ९ ॥ उनके साथ उन्हीं के समान ऐश्वर्य, बल और विभूतिवाले दैत्यसेनापति अपनी-अपनी सेना लेकर हो लिये । ऐसा जान पड़ता था मानो वे आकाश को पी जायँगे और अपने क्रोधभरे प्रज्वलित नेत्रों से समस्त दिशाओं को, क्षितिज को भस्म कर डालेंगे ॥ १० ॥ राजा बलि ने इस बहुत बड़ी आसुरी सेना को लेकर उसका युद्ध के ढंग से सञ्चालन किया तथा आकाश और अन्तरिक्ष को कँपाते हुए सकल ऐश्वर्यों से परिपूर्ण इन्द्रपुरी अमरावती पर चढ़ाई की ॥ ११ ॥ देवताओं की राजधानी अमरावती में बड़े सुन्दर-सुन्दर नन्दन वन आदि उद्यान और उपवन हैं । उन उद्यानों और उपवनों में पक्षियों के जोड़े चहकते रहते हैं । मधुलोभी भौरै मतवाले होकर गुनगुनाते रहते हैं ॥ १२ ॥ लाल-लाल नये-नये पत्तों, फलों और पुष्पों से कल्पवृक्षों की शाखाएँ लदी रहती हैं । वहाँ के सरोवरों में हंस, सारस, चकवे और बतखों की भीड़ लगी रहती है । उन्हीं में देवताओं के द्वारा सम्मानित देवाङ्गनाएँ जलक्रीडा करती रहती हैं ॥ १३ ॥ ज्योतिर्मय आकाशगङ्गा ने खाई की भाँति अमरावती को चारों ओर से घेर रखा है । उसके चारों ओर बहुत ऊँचा सोने का परकोटा बना हुआ है, जिसमें स्थान-स्थान पर बड़ी-बड़ी अटारियां बनी हुई हैं ॥ १४ ॥ सोने के किवाड़ द्वार-द्वार पर लगे हुए हैं और स्फटिकमणि के गोपुर (नगर के बाहरी फाटक) हैं । उसमें अलग-अलग बड़े-बड़े राजमार्ग हैं । स्वयं विश्वकर्मा ने ही उस पुरी का निर्माण किया है ॥ १५ ॥ सभा के स्थान, खेल के चबूतरे और रथ चलने के बड़े-बड़े मार्गों से वह शोभायमान है । दस करोड़ विमान उसमें सर्वदा विद्यमान रहते हैं और मणियों के बड़े-बड़े चौराहे एवं हीरे और मुँगे की वेदियाँ बनी हुई हैं ॥ १६ ॥ वहाँ की स्त्रियाँ सर्वदा सोलह वर्ष की-सी रहती हैं, उनका यौवन और सौन्दर्य स्थिर रहता है । वे निर्मल वस्त्र पहनकर अपने रूप की छटा से इस प्रकार देदीप्यमान होती है, जैसे अपनी ज्यालाओं से अग्नि ॥ १७ ॥ देवाङ्गनाओं के जूड़े से गिरे हुए नवीन सौगन्धित पुष्पों की सुगन्ध लेकर वहाँ के मार्गों में मन्द-मन्द हवा चलती रहती हैं ॥ १८ ॥ सुनहली खिड़कियों में से अगर की सुगन्ध से युक्त सफेद धूआँ निकल-निकलकर वहाँ के मार्गों को ढक दिया करता है । उसी मार्ग से देवाङ्गनाएँ जाती-आती हैं ॥ १९ ॥ स्थान-स्थान पर मोतियों की झालरों से सजाये हुए चँदोवे तने रहते हैं । सोने की मणिमय पताकाएँ फहराती रहती हैं । छज्जों पर अनेक झंडियाँ लहराती रहती हैं । मोर, कबूतर और भौंरे कलगान करते रहते हैं । देवाङ्गनाओं के मधुर संगीत से वहाँ सदा ही मङ्गल छाया रहता है ॥ २० ॥ मृदङ्ग, शङ्ख, नगारे, ढोल, वीणा, वंशी, मँजीरे और ऋष्टियाँ बजती रहती हैं । गन्धर्व बाजों के साथ गाया करते हैं और अप्सराएँ नाचा करती हैं । इनसे अमरावती इतनी मनोहर जान पड़ती है, मानो उसने अपनी छटा से छटा की अधिष्ठात्री देवी को भी जीत लिया है ॥ २१ ॥ उस पुरी में अधर्मी, दुष्ट, जीवद्रोही, ठग, मानी, कामी और लोभी नहीं जा सकते । जो इन दोषों से रहित हैं, वही वहाँ जाते हैं ॥ २२ ॥ असुरों की सेना के स्वामी राजा बलि ने अपनी बहुत बड़ी सेना से बाहर की ओर सब ओर से अमरावती को घेर लिया और इन्द्रपत्नियों के हृदय में भय का सञ्चार करते हुए उन्होंने शुक्राचार्यजी के दिये हुए महान् शङ्ख को बजाया । उस शङ्ख की ध्वनि सर्वत्र फैल गयी ॥ २३ ॥ इन्द्र ने देखा कि बलि ने युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है । अतः सब देवताओं के साथ वे अपने गुरु बृहस्पतिजी के पास गये और उनसे बोले — ॥ २४ ॥ ‘भगवन् ! मेरे पुराने शत्रु बलि ने इस बार युद्ध की बहुत बड़ी तैयारी की है । मुझे ऐसा जान पड़ता है कि हमलोग उनका सामना नहीं कर सकेंगे । पता नहीं, किस शक्ति से इनकी इतनी बढ़ती हो गयी है ॥ २५ ॥ मैं देखता हूँ कि इस समय बलि को कोई भी किसी प्रकार से रोक नहीं सकता । वे प्रलय की आग के समान बढ़ गये हैं और जान पड़ता है, मुख से इस विश्व को पी जाँयगे, जीभ से दसों दिशाओ को चाट जायेंगे और नेत्रों की ज्वाला से दिशाओं को भस्म कर देंगे ॥ २६ ॥ आप कृपा करके मुझे बतलाइये कि मेरे शत्रु की इतनी बढ़ती का, जिसे किसी प्रकार भी दबाया नहीं जा सकता, क्या कारण है ? इसके शरीर, मन और इन्द्रियों में इतना बल और इतना तेज कहाँ से आ गया है कि इसने इतनी बड़ी तैयारी करके चढ़ाई की हैं ॥ २७ ॥ देवगुरु बृहस्पतिजी ने कहा — ‘इन्द्र ! मैं तुम्हारे शत्रु बलि की उन्नति का कारण जानता हूँ । ब्रह्मवादी भृगुवंशियों ने अपने शिष्य बलि को महान् तेज देकर शक्तियों का खजाना बना दिया हैं ॥ २८ ॥ सर्वशक्तिमान् भगवान् को छोड़कर तुम या तुम्हारे-जैसा और कोई भी बलि के सामने उसी प्रकार नहीं ठहर सकता, जैसे काल के सामने प्राणी ॥ २९ ॥ इसलिये तुमलोग स्वर्ग को छोड़कर कहीं छिप जाओ और उस समय की प्रतीक्षा करो, जब तुम्हारे शत्रु का भाग्यचक्र पलटे ॥ ३० ॥ इस समय ब्राह्मणों के तेज से बलि की उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही हैं । उसकी शक्ति बहुत बढ़ गयीं है । जब यह उन्हीं ब्राह्मणों का तिरस्कार करेगा, तब अपने परिवार-परिकर के साथ नष्ट हो जायगा’ ॥ ३१ ॥ बृहस्पतिजी देवताओं के समस्त स्वार्थ और परमार्थ के ज्ञाता थे । उन्होंने जब इस प्रकार देवताओं को सलाह दी, तब ये स्वेच्छानुसार रूप धारण करके स्वर्ग छोड़कर चले गये ॥ ३२ ॥ देवताओं के छिप जाने पर विरोचननन्दन बलि ने अमरावतीपुरी पर अपना अधिकार कर लिया और फिर तीनों लोकों को जीत लिया ॥ ३३ ॥ जब बलि विश्वविजयी हो गये, तब शिष्यप्रेमी भृगुवंशियों ने अपने अनुगत शिष्य से सौ अश्वमेध यज्ञ करवाये ॥ ३४ ॥ इन यज्ञों के प्रभाव से बलि की कीर्ति-कौमुदी तीनों लोकों से बाहर भी दसों दिशाओं में फैल गयी और वे नक्षत्रों के राजा चन्द्रमा के समान शोभायमान हुए ॥ ३५ ॥ ब्राह्मण-देवताओं की कृपा से प्राप्त समृद्ध राज्यलक्ष्मी का वे बड़ी उदारता से उपभोग करने लगे और अपने को कृतकृत्य-सा मानने लगे ॥ ३६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे पञ्चदशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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