April 7, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय १८ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय अठारहवाँ अध्याय वामन भगवान् का प्रकट होकर राजा बलि की यज्ञशाला में पधारना श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इस प्रकार जब ब्रह्माजी ने भगवान् की शक्ति और लीला की स्तुति की, तब जन्म-मृत्युरहित भगवान् अदिति के सामने प्रकट हुए । भगवान् के चार भुजाएँ थीं; उनमें वे शङ्ख, गदा, कमल और चक्र धारण किये हुए थे । कमल के समान कोमल और बड़े-बड़े नेत्र थे । पीताम्बर शोभायमान हो रहा था ॥ १ ॥ विशुद्ध श्यामवर्ण का शरीर था । मकराकृत कुण्डलों की कान्ति से मुख-कमल की शोभा और भी उल्लसित हो रही थी । वक्षःस्थल पर श्रीवत्स का चिह्न, हाथों में कंगन और भुजाओं में बाजूबंद, सिरपर किरीट, कमर में करधनी की लड़ियाँ और चरणों में सुन्दर नूपुर जगमगा रहे थे ॥ २ ॥ भगवान् गले में अपनी स्वरूपभूत वनमाला धारण किये हुए थे, जिसके चारों ओर झुंड-के-झुंड भौर गुंजार कर रहे थे । उनके कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी । भगवान् की अङ्गकान्ति से प्रजापति कश्यपजी के घर का अन्धकार नष्ट हो गया ॥ ३ ॥ उस समय दिशाएँ निर्मल हो गयीं । नदी और सरोवरों के जल स्वच्छ हो गया । प्रजा के हृदय में आनन्द की बाढ़ आ गयी । सब ऋतुएँ एक साथ अपना-अपना गुण प्रकट करने लगीं । स्वर्गलोक, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, देवता, गौ, द्विज और पर्वत — इन सबके हृदय में हर्ष का सञ्चार हो गया ॥ ४ ॥ परीक्षित् ! जिस समय भगवान् ने जन्म ग्रहण किया, उस समय चन्द्रमा श्रवण नक्षत्र पर थे । भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की श्रवणनक्षत्रवाली द्वादशी थी । अभिजित् मुहूर्त में भगवान् का जन्म हुआ था । सभी नक्षत्र और तारे भगवान् के जन्म को मङ्गलमय सूचित कर रहे थे ॥ ५ ॥ परीक्षित् ! जिस तिथि में भगवान् का जन्म हुआ था, उसे ‘विजया द्वादशी’ कहते हैं । जन्म के समय सूर्य आकाश के मध्यभाग में स्थित थे ॥ ६ ॥ भगवान् के अवतार के समय शङ्ख, ढोल, मृदङ्ग, डफ और नगाड़े आदि बाजे बजने लगे । इन तरह-तरह के बाजों और तुरहियों की तुमुल ध्वनि होने लगीं ॥ ७ ॥ अप्सराएँ प्रसन्न होकर नाचने लगीं । श्रेष्ठ गन्धर्व गाने लगे । मुनि, देवता, मनु, पितर और अग्नि स्तुति करने लगे ॥ ८ ॥ सिद्ध, विद्याधर, किम्पुरुष, किन्नर, चारण, यक्ष, राक्षस, पक्षी, मुख्य-मुख्य नागगण और देवताओं के अनुचर नाचने-गाने एवं भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगे तथा उन लोगों ने अदिति के आश्रम को पुष्पो की वर्षा से ढक दिया ॥ ९-१० ॥ जब अदिति ने अपने गर्भ से प्रकट हुए परम पुरुष परमात्मा को देखा, तो वह अत्यन्त आश्चर्यचकित और परमानन्दित हो गयी । प्रजापति कश्यपजी भी भगवान् को अपनी योगमाया से शरीर धारण किये हुए देख विस्मित हो गये और कहने लगे — ‘जय हो ! जय हो’ ॥ ११ ॥ परीक्षित् ! भगवान् स्वयं अव्यक्त एवं चित्स्वरूप हैं । उन्होंने जो परम कान्तिमय आभूषण एवं आयुधों से युक्त वह शरीर ग्रहण किया था, उसी शरीर से, कश्यप और अदिति के देखते-देखते वामन ब्रह्मचारी का रूप धारण कर लिया–ठीक वैसे ही, जैसे नट अपना वेष बदल ले । क्यों न हो, भगवान् की लीला तो अद्भुत है ही ॥ १२ ॥ भगवान् ने वामन ब्रह्मचारी के रूप में देखकर महर्षियों को बड़ा आनन्द हुआ । उन लोगों ने कश्यप प्रजापति को आगे करके उनके जातकर्म आदि संस्कार करवाये ॥ १३ ॥ जब उनका उपनयन-संस्कार होने लगा, तब गायत्री के अधिष्ठातृ-देवता स्वयं सविता ने उन्हें गायत्री का उपदेश किया । देवगुरु बृहस्पतिजी ने यज्ञोपवीत और कश्यप ने मेखला दी ॥ १४ ॥ पृथ्वी ने कृष्णमृग का चर्म, वन के स्वामी चन्द्रमा ने दण्ड, माता अदिति ने कौपीन और कटिवस्त्र एवं आकाश के अभिमानी देवता ने वामन वेषधारी भगवान् को छत्र दिया ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! अविनाशी प्रभु को ब्रह्माजी ने कमण्डलु, सप्तर्षियों ने कुश और सरस्वती ने रुद्राक्ष की माला समर्पित की ॥ १६ ॥ इस रीति से जब वामनभगवान् का उपनयन-संस्कार हुआ, तब यक्षराज कुबेर ने उनको भिक्षा का पात्र और सतीशिरोमणि जगज्जननी स्वयं भगवती उमा ने भिक्षा दी ॥ १७ ॥ इस प्रकार जब सब लोगों ने वटुवेष-धारी भगवान् का सम्मान किया, तब वे ब्रह्मर्षियों से भरी हुई सभा में अपने ब्रह्मतेज के कारण अत्यन्त शोभायमान हए ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान् ने स्थापित और प्रज्वलित अग्नि का कुशों से परिसमूहन और परिस्तरण करके पूजा की और समिधाओं से हवन किया ॥ १९ ॥ परीक्षित् ! उसी समय भगवान् ने सुना कि सब प्रकार की सामग्रियों से सम्पन्न यशस्वी बलि भृगुवंशी ब्राह्मण के आदेशानुसार बहुत-से अश्वमेध यज्ञ कर रहे हैं, तब उन्होंने वहाँ के लिये यात्रा की । भगवान् समस्त शक्तियों से युक्त हैं । उनके चलने के समय उनके भार से पृथ्वी पग-पग पर झुकने लगी ॥ २० ॥ नर्मदा नदी के उत्तर तट पर ‘भृगुकच्छ’ नाम का एक बड़ा सुन्दर स्थान हैं । वहीं बलि के भृगुवंशी ऋत्विज श्रेष्ठ यज्ञ का अनुष्ठान करा रहे थे । उन लोगों ने दूर से ही वामनभगवान् को देखा, तो उन्हें ऐसा जान पड़ा, मानो साक्षात् सूर्यदेव का उदय हो रहा हो ॥ २१ ॥ परीक्षित् ! वामनभगवान् के तेज से ऋत्विज्, यजमान और सदस्य — सब-के-सब निस्तेज हो गये । वे लोग सोचने लगे कि कहीं यज्ञ देखने के लिये सूर्य, अग्नि अथवा सनत्कुमार तो नहीं आ रहे हैं ॥ २२ ॥ भृगु के पुत्र शुक्राचार्य आदि अपने शिष्यों के साथ इसी प्रकार अनेक कल्पनाएँ कर रहे थे । उसी समय हाथ में छत्र, दण्ड और जल से भरा कमण्डलु लिये हुए वामन भगवान् ने अश्वमेध यज्ञ के मण्डप में प्रवेश किया ॥ २३ ॥ वे कमर में मुँज की मेखला और गले में यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे । बगल में मृगचर्म था और सिर पर जटा थी । इसी प्रकार बौने ब्राह्मण के वेष में अपनी माया से ब्रह्मचारी बने हुए भगवान् ने जब उनके यज्ञमण्डप में प्रवेश किया, तब भृगुवंशी ब्राह्मण उन्हें देखकर अपने शिष्यों के साथ उनके तेज से प्रभावित एवं निष्प्रभ हो गये । वे सब-के-सब अग्नियों के साथ उठ खड़े हुए और उन्होंने वामनभगवान् का स्वागत-सत्कार किया ॥ २४-२५ ॥ भगवान् के लघुरूप के अनुरूप सारे अङ्ग छोटे-छोटे बड़े ही मनोरम एवं दर्शनीय थे । उन्हें देखकर बलि को बड़ा आनन्द हुआ और उन्होंने वामन भगवान् को एक उत्तम आसन दिया ॥ २६ ॥ फिर स्वागत-वाणी से उनका अभिनन्दन करके पाँव पखारे और सङ्गरहित महापुरुषों को भी अत्यन्त मनोहर लगनेवाले वामन भगवान् की पूजा की ॥ २७ ॥ भगवान् के चरणकमलों का धोवन परम मङ्गलमय है । उससे जीवों के सारे पाप-ताप धुल जाते हैं । स्वयं देवाधिदेव चन्द्रमौलि भगवान् शङ्कर ने अत्यन्त भक्तिभाव से उसे अपने सिर पर धारण किया था । आज वही चरणामृत धर्म के मर्मज्ञ राजा बलि को प्राप्त हुआ । उन्होंने बड़े प्रेम से उसे अपने मस्तक पर रक्खा ॥ २८ ॥ बलि ने कहा — ब्राह्मणकुमार ! आप भले पधारे। आपको मैं नमस्कार करता हूँ । आज्ञा कीजिये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ ? आर्य ! ऐसा जान पड़ता है कि बड़े-बड़े ब्रह्मर्षियों की तपस्या ही स्वयं मूर्तिमान् होका मेरे सामने आयी हैं ॥ २९ ॥ आज आप मेरे घर पधारे, इससे मेरे पितर तृप्त हो गये । आज मेरा वेश पवित्र हो गया । आज मेरा यह यज्ञ सफल हो गया ॥ ३० ॥ ब्राह्मणकुमार ! आपके पाँव पखारने से मेरे सारे पाप धुल गये और विधिपूर्वक यज्ञ करने से, अग्नि में आहुति डालने से जो फल मिलता, वह अनायास ही मिल गया । आपके इन नन्हें-नन्हें चरणों और इनके धोवन से पृथ्वी पवित्र हो गयी ॥ ३१ ॥ ब्राह्मणकुमार ! ऐसा जान पड़ता हैं कि आप कुछ चाहते हैं । परम पूज्य ब्रह्मचारीजी ! आप जो चाहते हो — गाय, सोना, सामग्रियों से सुसज्जित घर, पवित्र अन्न, पीने की वस्तु, विवाह के लिये ब्राह्मण की कन्या, सम्पत्तियों से भरे हुए गाँव, घोड़े. हाथी, रथ — वह सब आप मुझसे मांग लीजिये । अवश्य ही वह सब मुझसे माँग लीजिये ॥ ३२ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे अष्टादशोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related