Print Friendly, PDF & Email

श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय २
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
दूसरा अध्याय
ग्राह के द्वारा गजेन्द्र का पकड़ा जाना

श्रीशुकदेवजी ने कहा — परीक्षित् ! क्षीरसागर त्रिकूट नाम का एक प्रसिद्ध सुन्दर एवं श्रेष्ठ पर्वत था । वह दस हजार योजन ऊँचा था ।। १ ।। उसकी लंबाई-चौड़ाई भी चारों ओर इतनी ही थी । उसके चाँदी, लोहे और सोने के तीन शिखरों की छटा से समुद्र, दिशाएँ और आकाश जगमगाते रहते थे ॥ २ ॥ और भी उसके कितने ही शिखर ऐसे थे, जो रत्नों और धातुओं की रंग-बिरंगी छटा दिखाते हुए सब दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे । उनमें विविध जाति के वृक्ष, लताएँ और झाड़ियाँ थीं । झरनों की झर-झर से वह गुंजायमान होता रहता था ॥ ३ ॥ सब ओर से समुद्र की लहरें आ-आकर उस पर्वत के निचले भाग से टकराती, उस समय ऐसा जान पड़ता मानो वे पर्वतराज के पाँव पखार रही हों । उस पर्वत के हरे पन्ने पत्थरों से वहाँ की भूमि ऐसी साँवली हो गयी थी, जैसे उस पर हरी-भरी दूब लग रही हो ।। ४ ॥ उसकी कन्दराओं में सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर, नाग, किन्नर और अप्सराएँ आदि विहार करने के लिये प्रायः बने ही रहते थे ॥ ५ ॥ जब उसके संगीत की ध्वनि चट्टानों से टकराकर गुफाओं में प्रतिध्वनित होने लगती थी, तब बड़े-बड़े गर्वीले सिंह उसे दूसरे सिंह की ध्वनि समझकर सह न पाते और अपनी गर्जना से उसे दबा देने के लिये और जोर से गरजने लगते थे ॥ ६ ॥

उस पर्वत तलहटी तरह-तरह के जंगली जानवरों के झुंडों से सुशोभित रहती थी । अनेकों प्रकार के वृक्षों से भरे हुए देवताओं के उद्यान में सुन्दर-सुन्दर पक्षी मधुर कण्ठ से चहकते रहते थे ॥ ७ ॥ उस पर बहुत-सी नदियाँ और सरोवर भी थे । उनका जल बड़ा निर्मल था । उनके पुलिन पर मणियों की बालू चमकती रहती थी । उनमें देवाङ्गनाएँ स्नान करती थीं, जिससे उनका जल अत्यन्त सुगन्धित हो जाता था । उसकी सुरभि लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती थी ॥ ८ ॥ पर्वतराज त्रिकूट की तराई में भगवत्प्रेमी महात्मा भगवान् वरुण का एक उद्यान था । उसका नाम था ऋतुमान् । उसमें देवाङ्गनाएँ क्रीडा करती रहती थीं ।। ९ ।।

उसमें सब ओर ऐसे दिव्य वृक्ष शोभायमान थे, जो फलों और फूलों से सर्वदा लदे ही रहते थे । उस उद्यान में मन्दार, पारिजात, गुलाब, अशोक, चम्पा, तरह-तरह के आम, प्रियाल, कटहल, आमड़ा, सुपारी, नारियल, खजूर, बिजौरा, महुआ, साखू, ताड़, तमाल, असन, अर्जुन, रीठा, गूलर, पाकर, बरगद, पलास, चन्दन, नीम, कचनार, साल, देवदारु, दाख, ईख, केला, जामुन, बेर, रुद्राक्ष, हरे, आँवला, बेल, कैथ, नींबू और भिलावे आदि के वृक्ष लहराते रहते थे । उस उद्यान में एक बड़ा भारी सरोवर था । उसमें सुनहले कमल खिल रहे थे ॥ १०-१४ ॥ और भी विविध जाति के कुमुद, उत्पल, कहार, शतदल आदि कमलों की अनूठी छटा छिटक रही थी । मतवाले भौंरे गूंज रहे थे । मनोहर पक्षी कलरव कर रहे थे । हंस, कारण्डव, चक्रवाक और सारस दल-के-दल भरे हुए थे । पनडुब्बी, बतख और पपीहे कूज रहे थे । मछली और कछुओं के चलने से कमल के फूल हिल जाते थे, जिससे उनका पराग झड़कर जल को सुन्दर और सुगन्धित बना देता था । कदम्ब, बेंत, नरकुल, कदम्बलता, वेन आदि वृक्षों से वह घिरा था ॥ १५-१७ ॥ कुन्द्, कुरबक (कटसरैया), अशोक, सिरस, वनमल्लिका, लिसौड़ा, हरसिंगार, सोनजूही, नाग, पुन्नाग, जाती, मल्लिका, शतपत्र, माधवी और मोगरा आदि सुन्दर-सुन्दर पुष्पवृक्ष एवं तट के दूसरे वृक्षों से भी–जो प्रत्येक ऋतु में हरे-भरे रहते थे — वह सरोवर शोभायमान रहता था ।। १८-१९ ॥

उस पर्वत के घोर जंगल में बहुत-सी हथिनियों के साथ एक गजेन्द्र निवास करता था । वह बड़े-बड़े शक्तिशाली हाथियों का सरदार था । एक दिन वह उसी पर्वत पर अपनी हथिनियों के साथ काँटेवाले कोचक, बाँस, बेंत, बड़ी-बड़ी झाड़ियों और पेड़ों को रौंदता हुआ घूम रहा था ।। २० ।। उसकी गन्धमात्र से सिंह, हाथी, बाघ, गैंड़े आदि हिंस्र जन्तु, नाग तथा काले-गोरे शरभ और चमरी गाय आदि डरकर भाग जाया करते थे ॥ २१ ॥ और उसकी कृपा से भेड़िये, सूअर, भैंसे, रीछ, शल्य, लंगूर तथा कुत्ते, बंदर, हरिन और खरगोश आदि क्षुद्र जीव सब कहीं निर्भय विचरते रहते थे ॥ २२ ॥ उसके पोछे-पोछे हाथियों के छोटे-छोटे बच्चे दौड़ रहे थे । बड़े-बड़े हाथी और हथिनियाँ भी उसे घेरे हुए चल रही थी । उसकी धमक से पहाड़ एकबारगी काँप उठता था । उसके गण्डस्थल से टपकते हुए मद का पान करने के लिये साथ-साथ भौरे उड़ते जा रहे थे । मद के कारण उसके नेत्र विह्वल हो रहे थे । बड़े जोर की धूप थी, इसलिये वह व्याकुल हो गया और उसे तथा उसके साथियों को प्यास भी सताने लगी । उस समय दूर से ही कमल के पराग से सुवासित वायु की गन्ध सूँघकर वह उसी सरोवर की ओर चल पड़ा, जिसकी शीतलता और सुगन्ध लेकर वायु आ रही थी । थोड़ी ही देर में वेग से चलकर वह सरोवर के तट पर जा पहुँचा ।। २३-२४ ।।

उस सरोवर का जल अत्यन्त निर्मल एवं अमृत के समान मधुर था । सुनहले और अरुण कमलों की केसर से वह महक रहा था । गजेन्द्र ने पहले तो उसमें घुसकर अपनी सूँड़ से उठा उठा जी भरकर जल पिया, फिर उस जल में स्नान करके अपनी थकान मिटायी ।। २५ ॥ गजेन्द्र गृहस्थ पुरुषों की भाँति मोहग्रस्त होकर अपनी सूँड से जल की फुहारें छोड़-छोड़कर साथ की हथिनियों और बच्चों को नहलाने लगा तथा उनके मुँह में सूँड़ डालकर जल पिलाने लगा । भगवान् माया से मोहित हुआ गजेन्द्र उन्मत्त हो रहा था । उस बेचारे को इस बात का पता ही न था कि मेरे सिर पर बहुत बड़ी विपत्ति मैंडरा रही है ॥ २६ ॥

परीक्षित् ! गजेन्द्र जिस समय इतना उन्मत्त हो रहा था, उसी समय प्रारब्ध की प्रेरणा से एक बलवान् ग्राह ने क्रोध में भरकर उसका पैर पकड़ लिया । इस प्रकार अकस्मात् विपत्ति में पड़कर उस बलवान् गजेन्द्र ने अपनी शक्ति के अनुसार अपने को छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की, परन्तु छुड़ा न सका ।। २७ ।। दूसरे हाथी, हथिनियों और उनके बच्चों ने देखा कि उनके स्वामी को बलवान् ग्राह बड़े वेग से खींच रहा है और वे बहुत घबरा रहे हैं । उन्हें बड़ा दुःख हुआ । वे बड़ी विकलता से चिग्घाड़ने लगे । बहुतों ने उसे सहायता पहुँचाकर जल से बाहर निकाल लेना चाहा, परन्तु इसमें भी वे असमर्थ ही रहे ।। २८ ।। गजेन्द्र और ग्राह अपनी-अपनी पूरी शक्ति लगाकर भिड़े हुए थे । कभी गजेन्द्र ग्राह को बाहर खींच लाता, तो कभी ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींच ले जाता । परीक्षित् ! इस प्रकार उनको लड़ते लड़ते एक हजार वर्ष बीत गये और दोनों ही जीते रहे । यह घटना देखकर देवता भी आश्चर्यचकित हो गये ।। ३९ ॥ अन्त में बहुत दिनों तक बार-बार जल में खींचे जाने से गजेन्द्र का शरीर शिथिल पड़ गया । न तो उसके शरीर में बल रह गया और न मन में उत्साह । शक्ति भी क्षीण हो गयी । इधर ग्राह तो जलचर ही ठहरा । इसलिये उसकी शक्ति क्षीण होने के स्थान पर बढ़ गयी, वह बड़े उत्साह से और भी बल लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा ॥ ३० ।।

इस प्रकार देहाभिमानी गजेन्द्र अकस्मात् प्राणसङ्कट में पड़ गया और अपने को छुड़ाने में सर्वथा असमर्थ हो गया । बहुत देर तक उसने अपने छुटकारे के उपाय पर विचार किया, अन्त में वह इस निश्चय पर पहुँचा ॥ ३१ ।। ‘यह ग्राह विधाता की फाँसी ही है । इसमें फंसकर मैं आतुर हो रहा हूँ । जब मुझे मेरे बराबर के हाथी भी इस विपत्ति से न उबार सके, तब ये बेचारी हथिनियाँ तो छुड़ा ही कैसे सकती हैं । इसलिये अब में सम्पूर्ण विश्व के एकमात्र आश्रय भगवान् की ही शरण लेता हूँ ॥ ३२ ।। काल बड़ा बली है । यह साँप के समान बड़े प्रचण्ड वेग से सबको निगल जाने के लिये दौड़ता ही रहता है । इससे अत्यन्त भयभीत होकर जो कोई भगवान् की शरण में चला जाता है, उसे वे प्रभु अवश्य-अवश्य बचा लेते हैं । उनके भय से भीत होकर मृत्यु भी अपना काम ठीक-ठीक पूरा करता है । वही प्रभु सबके आश्रय हैं । मैं उन्हीं की शरण ग्रहण करता हूँ ॥ ३३ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

One comment on “श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय २

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.