श्रीमद्भागवतमहापुराण – अष्टम स्कन्ध – अध्याय २२
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
बाईसवाँ अध्याय
बलि के द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् को उस पर प्रसन्न होना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! इस प्रकार भगवान् ने असुरराज बलि का बड़ा तिरस्कार किया और उन्हें धैर्य से विचलित करना चाहा । परन्तु वे तनिक भी विचलित न हुए, बड़े धैर्य से बोले ॥ १ ॥

दैत्यराज बलि ने कहा — देवताओं के आराध्यदेव ! आपकी कीर्ति बड़ी पवित्र है । क्या आप मेरी बात को असत्य समझते हैं ? ऐसा नहीं है । मैं उसे सत्य कर दिखाता हूँ । आप धोखे में नहीं पड़ेंगे । आप कृपा करके अपना तीसरा पग मेरे सिर पर रख दीजिये ॥ २ ॥ मुझे नरक में जाने का अथवा राज्य से च्युत होने का भय नही है । मैं पाश में बँधने अथवा अपार दुःख में पड़ने से भी नहीं डरता । मेरे पास फूटी कौड़ी भी न रहे अथवा आप मुझे घोर दण्ड दें — यह भी मेरे भय का कारण नहीं है । मैं डरता हूँ तो केवल अपनी अपकीर्ति से ! ॥ ३ ॥ अपने पूजनीय गुरुजन के द्वारा दिया हुआ दण्ड तो जीवमात्र के लिये अत्यन्त वाञ्छनीय है । क्योंकि वैसा दण्ड माता, पिता, भाई और सुहद् भी मोहवश नहीं दे पाते ॥ ४ ॥

आप छिपे रूप से अवश्य ही हम असुरों को श्रेष्ठ शिक्षा दिया करते हैं, अतः आप हमारे परम गुरु हैं । जब हम लोग धन, कुलीनता, बल आदि के मद से अंधे हो जाते हैं, तब आप उन वस्तुओं को हमसे छीनकर हमें नेत्रदान करते हैं ॥ ५ ॥ आपसे हमलोगों का जो उपकार होता है, उसे मैं क्या बताऊँ ? अनन्यभाव से योग करने वाले योगीगण जो सिद्धि प्राप्त करते हैं, वही सिद्धि बहुत-से असुरों को आपके साथ दृढ़ वैर भाव करने से ही प्राप्त हो गयी है ॥ ६ ॥ जिनकी ऐसी महिमा, ऐसी अनन्त लीलाएँ हैं, वही आप मुझे दण्ड दे रहे हैं और वरुणपाश से बाँध रहे हैं । इसकी न तो मुझे कोई लज्जा है और न किसी प्रकार की व्यथा ही ॥ ७ ॥ प्रभो ! मेरे पितामह प्रह्लादजी की कीर्ति सारे जगत् में प्रसिद्ध हैं । वे आपके भक्तों में श्रेष्ठ माने गये हैं । उनके पिता हिरण्यकशिपु ने आपसे वैर-विरोध रखने के कारण उन्हें अनेकों प्रकार के दुःख दिये; परन्तु वे आपके ही परायण रहे, उन्होंने अपना जीवन आप पर ही निछावर कर दिया ॥ ८ ॥

उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि शरीर को लेकर क्या करना है, जब यह एक-न-एक दिन साथ छोड़ ही देता है । जो धन-सम्पत्ति लेने के लिये स्वजन बने हुए हैं, उन डाकुओं से अपना स्वार्थ ही क्या है ? पत्नी से भी क्या लाभ है, जब वह जन्म-मृत्युरूप संसार के चक्र मे डालनेवाली ही है । जब मर ही जाना है, तब घर से मोह करने में भी क्या स्वार्थ है ? इन सब वस्तुओं में उलझ जाना तो केवल अपनी आयु खो देना : है ॥ ९ ॥ ऐसा निश्चय करके मेरे पितामह प्रह्लादजी ने, यह जानते हुए भी कि आप लौकिक दृष्टि से उनके भाई-बन्धुओं के नाश करनेवाले शत्रु हैं, फिर आपके ही भयरहित एवं अविनाशी चरणकमलों की शरण ग्रहण की थी । क्यों न हो — वे संसार से परम विरक्त, अगाध बोध सम्पन्न, उदारहृदय एवं संतशिरोमणि जो हैं ॥ १० ॥ आप उस दृष्टि से मेरे भी शत्रु हैं, फिर भी विधाता ने मुझे बलात् ऐश्वर्य-लक्ष्मी से अलग करके आपके पास पहुँचा दिया है । अच्छा ही हुआ; क्योंकि ऐश्वर्य-लक्ष्मी के कारण जीव की बुद्धि जड़ हो जाती है और वह यह नहीं समझ पाता कि ‘मेरा यह जीवन मृत्यु के पंजे में पड़ा हुआ और अनित्य हैं ॥ ११ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! राजा बलि इस प्रकार कह ही रहे थे कि उदय होते हुए चन्द्रमा के समान भगवान् के प्रेम-पात्र प्रह्लादजी वहाँ आ पहुँचे ॥ १२ ॥ राजा बलि ने देखा कि मेरे पितामह बड़े श्रीसम्पन्न हैं । कमल के समान कोमल नेत्र है, लंबी-लंबी भुजाएँ हैं, सुन्दर ऊँचे और श्यामल शरीर पर पीताम्बर धारण किये हुए हैं ॥ १३ ॥ बलि इस समय वरुणपाश में बँधे हुए थे । इसलिये प्रह्लादजी के आने पर जैसे पहले वे उनकी पूजा किया करते थे, उस प्रकार न कर सके । उनके नेत्र आँसुओं से चञ्चल हो उठे, लज्जा के मारे मुँह नीचा हो गया । उन्होंने केवल सिर झुकाकर उन्हें नमस्कार किया ॥ १४ ॥ प्रह्लादजी ने देखा कि भक्तवत्सल भगवान् वहीं विराजमान हैं और सुनन्द, नन्द आदि पार्षद उनकी सेवा कर रहे हैं । प्रेम के उद्रेक से प्रह्लादजी का शरीर पुलकित हो गया, उनकी आँखों में आँसू छलक आये । वे आनन्दपूर्ण हृदय से सिर झुकाये अपने स्वामी के पास गये और पृथ्वी पर सिर रखकर उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम किया ॥ १५ ॥

प्रह्लादजी ने कहा — प्रभो ! आपने ही बलि को यह ऐश्वर्यपूर्ण इन्द्रपद दिया था, अब आज आपने ही उसे छीन लिया । आपका देना जैसा सुन्दर है, वैसा ही सुन्दर लेना भी ! मैं समझता हूँ कि आपने इस पर बड़ी भारी कृपा की है, जो आत्मा को मोहित करनेवाली राज्यलक्ष्मी से इसे अलग कर दिया ॥ १६ ॥ प्रभो ! लक्ष्मी के मद से तो विद्वान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं । उसके रहते भला, अपने वास्तविक स्वरूप को ठीक-ठीक कौन जान सकता है ? अतः उस लक्ष्मी को छीनकर महान् उपकार करनेवाले, समस्त जगत् के महान् ईश्वर, सबके हृदय में विराजमान और सबके परम साक्षी श्रीनारायणदेव को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! प्रह्लादजी अञ्जलि बाँधकर खड़े थे । उनके सामने ही भगवान् ब्रह्माजी ने वामनभगवान् से कुछ कहना चाहा ॥ १८ ॥ परन्तु इतने में ही राजा बलि की परम साध्वी पत्नी विन्ध्यावली ने अपने पति को बँधा देखकर भयभीत हो भगवान् के चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़, मुँह नीचा कर वह भगवान् से बोली ॥ १९ ॥

विन्ध्यावली ने कहा — प्रभो ! आपने अपनी क्रीडा के लिये ही इस सम्पूर्ण जगत् की रचना की हैं । जो लोग कुबुद्धि हैं, वे ही अपने को इसका स्वामी मानते हैं । जब आप ही इसके कर्ता, भर्ता और संहर्ता हैं, तब आपकी माया से मोहित होकर अपने को झूठमूठ कर्ता माननेवाले निर्लज्ज आपको समर्पण क्या करेंगे ? ॥ २० ॥

ब्रह्माजी ने कहा — समस्त प्राणियों के जीवनदाता, उनके स्वामी और जगत्स्वरूप देवाधिदेव प्रभो ! अब आप इसे छोड़ दीजिये । आपने इसका सर्वस्व ले लिया है, अतः अब यह दण्ड का पात्र नहीं है ॥ २१ ॥ इसने अपनी सारी भूमि और पुण्यकर्मों से उपार्जित स्वर्ग आदि लोक, अपना सर्वस्व तथा आत्मा तक आपको समर्पित कर दिया है । एवं ऐसा करते समय इसकी बुद्धि स्थिर रही हैं, यह धैर्य से च्युत नहीं हुआ है ॥ २२ ॥ प्रभो ! जो मनुष्य सच्चे हृदय से कृपणता छोड़कर आपके चरणों में जल का अर्घ्य देता है और केवल दूर्वादल से भी आपकी सच्ची पूजा करता हैं, उसे भी उत्तम गति की प्राप्ति होती है । फिर बलि ने तो बड़ी प्रसन्नता से धैर्य और स्थिरतापूर्वक आपको त्रिलोकी का दान कर दिया हैं । तब यह दुःख का भागी कैसे हो सकता है ? ॥ २३ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — ब्रह्माजी ! मैं जिस पर कृपा करता हूँ, उसका धन छीन लिया करता हूँ । क्योंकि जब मनुष्य धन के मद से मतवाला हो जाता है, तब मेरा और लोगों का तिरस्कार करने लगता है ॥ २४ ॥ यह जीव अपने कर्मों के कारण विवश होकर अनेक योनियों में भटकता रहता है, जब कभी मेरी बड़ी कृपा से मनुष्य का शरीर प्राप्त करता है ॥ २५ ॥ मनुष्ययोनि में जन्म लेकर यदि कुलीनता, कर्म, अवस्था, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और धन आदि के कारण घमंड न हो जाय तो समझना चाहिये कि मेरी बड़ी ही कृपा है ॥ २६ ॥ कुलीनता आदि बहुत-से ऐसे कारण हैं, जो अभिमान और जड़ता आदि उत्पन्न करके मनुष्य को कल्याण के समस्त साधनों से वञ्चित कर देते हैं; परन्तु जो मेरे शरणागत होते हैं, वे इनसे मोहित नहीं होते ॥ २७ ॥ यह बलि दानव और दैत्य दोनों ही वंशों में अग्रगण्य और उनकी कीर्ति बढ़ानेवाला है । इसने उस माया पर विजय प्राप्त कर ली है, जिसे जीतना अत्यन्त कठिन है । तुम देख ही रहे हो, इतना दुःख भोगने पर भी यह मोहित नहीं हुआ ॥ २८ ॥

इसका धन छीन लिया, राजपद से अलग कर दिया, तरह-तरह के आक्षेप किये, शत्रुओं ने बाँध लिया, भाई-बन्धु छोड़कर चले गये, इतनी यातनाएँ भोगनी पड़ीं-यहाँ तक कि गुरुदेव ने भी इसको डाँटा-फटकारा और शाप तक दे दिया । परन्तु इस दृढवती ने अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ी । मैंने इससे छलभरी बातें कीं, मन में छल रखकर धर्म का उपदेश किया; परन्तु इस सत्यवादी ने अपना धर्म न छोड़ा ॥ २९-३० ॥ अतः मैंने इसे वह स्थान दिया है, जो बड़े-बड़े देवताओं को भी बड़ी कठिनाई से प्राप्त होता है । सावर्णि मन्वन्तर में यह मेरा परम भक्त इन्द्र होगा ॥ ३१ ॥ तब तक यह विश्वकर्मा के बनाये हुए सुतल लोक में रहे । वहाँ रहनेवाले लोग मेरी कृपादृष्टि का अनुभव करते हैं । इसलिये उन्हें शारीरिक अथवा मानसिक रोग, थकावट, तन्द्रा, बाहरी या भीतरी शत्रुओं से पराजय और किसी प्रकार के विघ्नों का सामना नहीं करना पड़ता ॥ ३२ ॥

[ बलि को सम्बोधित कर ] महाराज इन्द्रसेन ! तुम्हारा कल्याण हो । अब तुम अपने भाई-बन्धुओं के साथ उस सुतल लोक में जाओ, जिसे स्वर्ग के देवता भी चाहते रहते हैं ॥ ३३ ॥ बड़े-बड़े लोकपाल भी अब तुम्हें पराजित नहीं कर सकेंगे, दूसरों की तो बात ही क्या है ! जो दैत्य तुम्हारी आज्ञा का उल्लङ्घन करेंगे, मेरा चक्र उनके टुकड़े-टुकड़े कर देगा ॥ ३४ ॥ मैं तुम्हारी, तुम्हारे अनुचरों की और भोगसामग्री की भी सब प्रकार के विघ्नों से रक्षा करूंगा । वीर बलि ! तुम मुझे वहाँ सदा-सर्वदा अपने पास ही देखोगे ॥ ३५ ॥ दानव और दैत्यों के संसर्ग से तुम्हारा जो कुछ आसुरभाव होगा, वह मेरे प्रभाव से तुरंत दब जायगा और नष्ट हो जायगा ॥ ३६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां अष्टमस्कन्धे द्वाविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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